रजत कृष्ण की कविताएँ
आज की कविता का
वितान जिन कुछ कवियों से मिल कर बनता है उसमें रजत कृष्ण का नाम प्रमुख रूप से
लिया जा सकता है। रजत के यहाँ एक स्पष्ट वैचारिकता है जिसमें ‘सर्वे
भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः’ की प्रतिध्वनि सहज ही लक्षित की जा सकती है।
इस क्रम में यह कवि उन पेड़ों से बात करता दिखायी पड़ता है, जिनके लिए हमारी आधुनिक
सभ्यता में कोई स्थान नहीं है। विकास के नाम पर ये पेड़ पौधे सहज ही बलिवेदी पर
चढ़ते है और प्रतिकार की एक आवाज़ तक कहीं से नहीं फूटती। आजकल समूचा इलाहाबाद
कुम्भमय है। इस शहर को सुन्दर बनाने की प्रक्रिया में तकरीबन तीस हजार पेड़ काट
डाले गए हैं। आखिर हम किस तरह की दुनिया बनाना चाहते हैं? क्या पेड़ पौधों से रहित
धरती पर मनुष्य अपने जीने की कल्पना कर सकता है?
रजत की एक और कविता है ‘बेहतर दुनिया के लिए’। इस कविता को पढ़ते हुए मुझे
कबीर की याद आयी जो लिखते हैं : ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न
रहूँ, साधु न भूखा जाए।।‘ आज जब चारो तरफ भयावह लूटपाट का सिलसिला अबाध चल रहा है
ऐसे में रजत की यह आवाज़ एक उम्मीद जगाती है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है रजत कृष्ण
की कुछ बिल्कुल नयी कविताएँ।
रजत कृष्ण की कविताएँ
डूबती आंखों में बिटिया
मुआवजे के बाद
छोड़े जा चुके थे खेत
और उठा लिए गए थे
अधिकांश घरों के चूल्हे
कि मैं सूना पड़े खार में
खड़े पेड़ों से
बातें कर रहा था,
ले रहा था एक-एक से
अंतिम विदाई।
जिन पेड़ों के डाल-पात से
छाए गए बिहाव मड़वा
पिता, चाचा, भइया
और दीदी के,
जिनकी शाखाओं में झूलते
तय किया बचपन से
जवानी तक का सफर मैंने
पेड़ वे पहली बार
उस दिन धाड़े मार कर रोए थे।
दहल गया था मैं
पेड़ भर में सबसे मजबूत दिखते
महुआ की झुकी डंगालों को
छूते ही...
कि सदा हुलसने वाला यह पेड़
कैसे उस दिन
पूरी तरह निस्पंद था।
जिन चार-तेंदू-कोसम के
रस-गंध को
पोर-पोर मेरे चिन्हते थे
और मन-प्राण जिनमें डूबे थे
उनसे सदा दिन के लिए
बिछुड़ने का दंश
मुझे तोड़ रहा था
और रोके नहीं रूक रहे थे
पतझर मेरी छाती में।
हड़रा-बहेड़ा
सरई-शीशम
एक-एक से गले मिलते
भारी मन से लिपटते-चिपटते
मैं पुरखों की धरती में
आखिरी दहक को जी रहे
सेमल-पलाश के बीच
पहुँचा ही था
कि पांवों से मेरे आ लिपटे
पलाश के दो नन्हें बूटे!
जी धक्क से किया
और मेरी डूबती आँखों में
झुल आई
टिक-टाक चलना सीख रही
बिटिया...।
रंग मजदूर, माल्या और मेरा देश
अभी-अभी हमारी बस्ती से
पुताई कर लौट रहे हैं
पुताई वाले अपने घर।
कल धनतेरस है
परसों नरक-चौदस
फिर लक्ष्मी पूजा
और गोवर्धन का परब!
पुताई करते-करते
रंगदार हो गई कमीजें इनकी
बता रही हैं
किन-किन रंगों के बीच
जीती है हमारी बस्ती
किन-किन रंगों में
उमगता है देश!
पुताई कर दिन भर
इस गहराती सांझ
अपने घर लौट रहे
यह सभी जन
यहाँ माने जाते
बड़े हुनरमंद पेंटर!
पर आप हम कहाँ जान पाते हैं
कभी यह
कि कितने बदरंग होते हैं
इनके अपने घर
और उससे भी बदरंग
इनका जीवन!
पुताई कर
अपने घर लौट रहे
इन रंग-मजदूरों को देख कर
अक्सर मैं सोचता हूँ
काश मेरे देश के प्रधानमंत्री
कोई मुख्यमंत्री
या मंत्री ही कोई कभी
झांक लेते इनकी आँखों में
और पूछते कि इस देश के
तमाम घरों को रंगने का ठेका कितने में लोगे?
मैं नहीं जानता
मेरे कस्बे के ये पेंटर
क्या कहेंगे, ठेका कितने में लेंगे
लेकिन इतना तो तय है
कि जितनी पूंजी
आज मेरे लोकतांत्रिक देश की दीवारें
हर पाँच बरस में
पचा जाती है
और जितनी पूंजी
माल्या-नीरव जैसी हस्तियां डकार कर
देश से फुर्र हो जाती हैं
उससे लाखों कम में
यह पोतेंगे
और ठीक समय पर
धो-पोंछ कर के
पूरा का पूरा घर-दुआर
लक्ष्मी पूजा से ठीक पहले
हर हाल में हमें सौंपेंगे!!
बेहतर दुनिया के लिए
पत्तियाँ समझती हैं कब झड़ना है उन्हें
डंगाल से, कि
फूटें कोपलें नई।
जानती हैं चिड़ियाँ सभी
कितना सकेलना है दानी-पानी
कि बची रहें चियाँ उनकी भूख-प्यास से।
गाय, बैल, भैंस, ऊँट, बंदर, भालू
चीते सहित चौपाये सभी
जानते हैं ठीक-ठीक
कि कितना चाहिए शावकों को दूध
और स्वयं के लिए चारा कितना।
सबसे समझदार माना जाता आदमजात
फिर भी तय नहीं कर पाता प्रायः वह
कि कितनी चाहिए रोटी, कितना कपड़ा
और मकान कितना बड़ा!
सोचता हूँ कितना अच्छा हो
कि आदमी रुपयों को पत्तों की तरह समझे
चिड़ियों
की निगाह से देखे दाना-पानी को
गाय-बैल और ऊँट की निगाहों से परखे मकान को।
तब कितनी बेहतर हो जाएगी दुनिया
कितने-कितने टन अनाज बचे रहेंगे
गोदामों में पड़े-पड़े सड़ने से!
खत्म हो जाएंगे लूट-पाट,
राहजनी और डाके
ठौर-ठिकाने किसी के भी होंगे न बड़े इतने
कि उनके सामने से गुजरें जो कोई भी
छोटेपन के अहसास से न भरें, न टूटें या गिरें!!
रोटी की हँसी-खुशी
बहुरंग रहे देश हमारा
बहुरंग हमारे समाज का बाना
चाहते हम तो सदा-सदा
एक कुनबे सा जीवन बिताना।
लकीरें जो बाँटती आई है हमें
खिची हुई हमारी होती नहीं कभी
वह तो तब जान पाते हैं हम
लपटें नफरत की जब
सीने में हमारे बो दी जाती।
रोटी-पानी का नाता हमारा
है इतना पुराना कि हम नहीं जानते
ना ही पता हमें यह भी
कि किया हो फर्क कोई हमनें
दाढ़ी और चोटी के बीच ऐसा
दिखाया जा रहा है जैसा कि आज अभी।
थी एक ही सायकल वह
पैडल मारते हुए साथ-साथ जिसे
सीखा हमनें चलाना।
था एक ही तालाब वह
संगे संग उतर कर जिसमें
जाना हमने डुबक-डुबक कर नहाना।
थी एक ही नदी वह
धारा के विरूद्ध तैरते हुए जिसमें
सीखा हमने अपनी पहचान बनाना।
हवा यह जो विपरीत हुई है
इधर रह-रह कर के
हिलाता है हमें वह भीतर से।
उदासी में डूब रही है जैसे
रोटी वह हमारी रसोई की
हँसी-खुशी जिसकी
सदा सिरजती आई है
हम दोनों के बीच बँटने में ही।।
यादें तुम्हारी...
यादें तुम्हारी बारिश की फुहार
पथराई जिनगी की तलछट को
जो भिगो-भिगो जाती।
धूप कभी नरम, कभी छाँव सघन
मन को रह-रह छितराती।
बहुविधि रंग में ढली
जादुई आकृति
जीवन के कोने-अंतरे में
जो सहज ही सचर-पसर जाती!!
यादें तुम्हारी ज्यों संजीवनी बूटी
मूर्छित पड़े सपनों में
जो प्राण जगाती।
यादें तुम्हारी
घर की देहरी पर धरी हुई
संझा की दीया-बाती....
चीर-चीर देती जो अमावस की छाती।
यादें तुम्हारी फुहार बारिश की
पथराई जिनगी की तलछट को
जो भिगो-भिगो जाती....
यादें तुम्हारी ज्यों दौना की परती
सांसों के पोर-पोर को
जो रह-रह महकाती!!
दीवाली में दऊवा राम
धनतेरस के दो दिन पहले
सोने-चांदी की दुकान में
मिल गया दऊवा राम।
पास के गाँव सोनापुटी से
तिहारी खरीदी करने आए
दऊवा राम से जै-जोहार के बीच
पूछा जब खेती-बारी के साथ-साथ
बाल-बच्चों के हाल-चाल
थोड़ी देर अवश रहा और फिर
झोले से एक पोटली हेरते-हेरते
बोल पड़ा वह
अकाल में तिहार
पहार जइसे आए हे गुरूजी...
का बतावौं, का
लुकावौं
घरवाली के करधन ल बेच के
बाल-बच्चा मन बर कपड़ा लत्ता
और थोर-बहुत फऊद-फटाका खरीदना हे!
खरीददारी कर मैं लौट आया घर
और दीवाली की तैयारी में
लगा रहा दिन भर!
लिपाई-पुताई के बाद
अभी-अभी अपनी बिल्डिंग को हमने
तोरण-द्वार और झालर से सजाया है
घर-दुआर, दीवार-खिड़की, परदा सब उज्जर है।
दऊवा राम से मिले आज पाँचवा दिन बीत रहा है
पर मन-प्राण से मेरे
उसका बूड़ा-बूड़ा सा चेहरा
उतारे न उतरता है।
उसकी पत्नी का पुरखौती करधन वह
जो भरी दीवाली में ठाढ़े-ठाढ़ बिका
आज भी दिन-रात
मेरी आँखों-आँखों में ही झुलता है।
आपका और मेरा ईश्वर
आपका ईश्वर कौन है
कहाँ रहता और क्या करता है
नहीं कहना मुझे आपसे कुछ भी!
हाँ, पूछा
यदि आपने
मेरे ईश्वर के बारे में
तो मैं उासे
अपने दफ्तर में
अपना काम करते हुए ही
मिलना पसंद करूंगा।
देखना चाहूंगा उसे
उस महतारी की आँखों में
जिसने अपनी पाँच साल की
बच्ची को अभी-अभी
पड़ोस के बूढ़े वहशी के चंगुल से
छुड़ा करके हास्पीटल लाया है!
सुनना चाहूँगा लीला वृत्तान्त उसका
उस हरियाणवी पिता के
मुख से जिसके जिगर के टुकड़े
दबंगों के हाथों
महज इसलिए मार डाले गए
कि वे जन्मे थे
उसी अवांछित कोख से
जिनके लिए हत्यारों के पुरखों के
मन में भी जगह न थी
जरा-सा कहीं कभी!
आपका ईश्वर कौन है
कहाँ रहता-बसता
और क्या जग लीला करता है
मुझे कुछ नहीं कहना आपसे...
पर एक सवाल
हाँ एक सवाल बारंबार
मेरे भीतर उठता-बैठता है
कि जब लुट रही होती है
बेटी कोई
उस बखत ईश्वर आपका
निद्रालीन होता
या होता है चूर वह
फकत ईश्वरत्व के मद में ही!!
महतारी
मूड़ पर ईंटों की थड़ी लादे
गर में दूधमुँहे को लटकाए
भरे जेठ की दुपहरी
देह होम करती हुई महतारी यह
श्रम की किताब में दर्ज
सबसे जीवंत कविता है।
स्याह देह से फूटते
आखर-आखर इनके
कितना कुछ कह-बोल रहे हैं
उन सबसे-बैठे हैं जो
वातानुकूलित सदनों में
और लिख-बाँच रहे हैं कविता जो
सुचिक्कन कागजों व बड़े टी आर पी वाले चैनलों
में।
और बड़े टी आर पी वाले चैनलों में।
महतारी यह नहीं जानती
भले ही पढ़ना-लिखना
पर जानती-समझती तो हैं खूब यह
जीवन के मर्म सभी।
मूड़ पर ईंटों की थड़ी लादे
गर में अपने दूधमुँहे को लटकाए
महतारी यह हमारा कुछ नहीं लगती
पर साँसों के ताग से इनके
हमारी महतारी की साँसों का
एक-एक ताग जुड़ता है....।
यही....हू-ब-हू यही चेहरा-मोहरा
मेरी उन बहनों का है
जो धमतरी जनपद के
कण्डेल, बोड़रा, सिंधौरी
और सिर्वे गाँव में
भरे आसाढ़-सावन रोपती हैं धान
करती हैं निंदाई-गुड़ाई
और कार्तिक-अगहन में करती हैं कटाई-मिसाई!
माँ बनते गए पिता और उनकी बेटियाँ
पिता की गोद में
फूल-सी दो बेटियाँ
और एक दुधमुँहा बेटा छोड़ कर
चिरैया बन उड़ गई माँ
जब अनंत में
पिता की काया में
माँ का मया संजोए
तब कैसे ममतालु होते गए पिता
नहीं पता बच्चों को ठीक-ठीक यह....।
यों बच्चे वे
भूले नहीं कभी भी यह
कि हाथ वे पिता के ही होते
जो गूंथा करते थे
वेणियाँ दोनों बहनों की
उनके बचपन में....
और तीनों भाई-बहन
खाते थे जो रोटियाँ
उनमें नमक से लेकर आग-पानी तक
सँवरता था पिता के बूते ही!
बिना महतारी की औलाद
बिना महतारी की हाय!
वाणी के ऐसे तीक्ष्ण बाणों से
बिंधी जाती
छाती उन तीनों
मसूमों की जब भी
घावों में मरहम लगाते हाथ
होते थे फकत पिता के ही।
बढ़ती उमर के साथ
जानने लगीं जब बेटियाँ यह सब
और उम्र के भार से
निरंतर झुकती गई कमर पिता की
तब पता ही नहीं चला
कि बेटियाँ यह फूल सी
कब कैसे पाँवों पर अपने
खड़ा होते हुए चुपचाप
ज्यों माँ बनती चली गई आहिस्ता-आहिस्ता
अपने सत्तर वर्षीय पिता की!
सम्पर्क
रजत कृष्ण
बागबाहरा,
जिला : महासमुंद (छतीसगढ़)
मो. 9755392532, 8959271277
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
पढ़ कर साहित्यिक सुख उपजा !!!!!
जवाब देंहटाएंचेतना एवं दायित्व को झकझोरती !!!!!
sunder
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