देवेन्द्र मेवाड़ी आलेख ‘कायनात के काम में दखल’

देवेन्द्र मेवाड़ी


विज्ञान ने हमारी दुनिया को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। विज्ञान ने मानवीय ज्ञान और गरिमा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस दुनिया का अगर कोई स्रष्टा है और अगर वह अपनी बनायी इस पृथ्वी को देखने आ जाए तो वह इसे पहचान भी नहीं पाएगा। चिकित्सा हो या शिक्षा, यातायात हो या संचार जीवन का हर क्षेत्र विज्ञान से पूरी तरह प्रभावित है। देवेन्द्र मेवाड़ी विज्ञान को आधार बना कर तर्कपूर्ण आलेख लिखते रहे हैं, जिसे पढ़ कर हमारी सोच और समझ का वितान बहुत कुछ बदल जाता है। हाल ही में कादम्बिनी के हालिया अंक में मेवाड़ी जी का एक जरुरी आलेख प्रकाशित हुआ है। हम इसे पहली बार पर साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आज जब लोग कुछ और अधिक धार्मिक, कह लें और अधिक संकीर्ण होते जा रहे हैं, ऐसे में मेवाड़ी जी का यह प्रयास अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है मेवाड़ी जी का एक जरुरी आलेख ‘कायनात के काम में दखल’।  
       

कायनात के काम में दखल



देवेंद्र मेवाड़ी


मेरी कथा के रसिको!

कायनात के बारे में कभी अकेले में आप कल्पना तो जरूर करते होंगे। अंधेरी रात में जब आसमान में अनगिनत सितारे टिमटिमा रहे हों और चाँद अपनी धवल, शीतल चाँदनी बिखेर रहा हो तो मन कायनात में न जाने कहाँ-कहाँ तक उड़ान भरने लगता है। उसके ओर-छोर तक पहुँचना चाहता है। मगर कहाँ है कायनात का ओर-छोर? कोई नहीं जानता, यही नहीं बल्कि कोई यह भी नहीं जानता कि यह कायनात, यह ब्रह्मांड आखिर बना कैसे?


दुनिया भर की तमाम सभ्यताओं के दार्शनिकों ने सोचा कि इसे शायद ईश्वर ने बनाया। मगर साइंसदानों ने बताया कि नहीं, ईश्वर ने नहीं बल्कि यह तो ऊर्जा और पदार्थ का खेल है। कभी अनंत ऊर्जा सिमट कर सूक्ष्म बिंदु भर रही होगी और अचानक उसमें बिग बैंग यानी महा विस्फोट हो गया होगा। तब पदार्थ भी बना होगा और दिक् और काल का भी जन्म हो गया होगा। उस छितरे हुए अकूत पदार्थ से असंख्य तारे और मंदाकिनियां बन गई होंगी। दिक् में बिखरे पदार्थ की धूल के किसी विशाल बादल यानी नीहारिका के चक्करघिन्नी की तरह घूमने से छिटके पदार्थ से हमारा सौरमंडल बन गया होगा और उसमें सूर्य से सही दूरी पर बने और हवा के खोल में लिपटे हमारे ग्रह पृथ्वी में समय आने पर जीवन का अंकुर फूटा होगा। और, अंकुर भी ऐसा कि हमारी पूरी धरती जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की करोड़ों प्रजातियों से आबाद हो गई। गर्ज यह कि यहाँ से दिखता सितारों से जगमगाता आसमान था, प्राणदायिनी हवा थी, निर्मल जल था और हर जीव के लिए भरपूर भोजन भी था।


गोया स्रष्टा की इस सृष्टि में जीने के लिए सब कुछ था। स्रष्टा जैसे वरदान दे गया था कि पनपो, खूब पनपो और इस ग्रह को आबाद करो मेरे बच्चो! तो, हर जीव ने इसे आबाद किया। विशाल डायनोसारों ने भी। लेकिन, साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले जब किसी विशाल उल्का पिंड या धूमकेतु के टकराने से वे खत्म हो गए तो बाकी बचे करोड़ों जीवों की भीड़ में से कोई कपि दो पैरों पर खड़ा हुआ। उसे हाथों से काम करने का मौका मिल गया। उसने पत्थर उठाया और उसे हथियार बना कर आखेट करने लगा। गुफाओं में रहने लगा और बीज बो कर खेती की शुरुआत कर दी। जंगली पशुओं के शावकों को पाल कर पशुपालन शुरू कर दिया। बेहतर फसल-पानी के लिए वह नदी तटों पर जा बसा और उन नदी तटों पर उसकी महान सभ्यताओं ने जन्म ले लिया। वह मनुष्य बन गया। 


तो हे मेरी कथा के रसिको! जरा सोचिए तो सही कि अगर हमारी कल्पना का वह महान स्रष्टा अगर साकार हो कर आज इस निराली धरती पर आ जाए तो जानते हैं क्या होगा? होगा क्या, मेले में आए बच्चे की तरह हैरान हो कर चारों ओर देखता रह जाएगा कि उसकी इस आदमी नामक मामूली-सी संतान ने तो कमाल कर डाला है! कहाँ उसकी रची वह आदिम दुनिया और कहाँ चारों ओर फैली आज की यह तिलिस्मी दुनिया! 




सोचेगा, पहली बात तो यह कि बाकी चौपायों की ही तरह रची मेरी यह कमजोर संतान सिर्फ अपने दिमाग के बलबूते पर कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई है और यह कैसा करिश्मा कर दिखाया है इसने? मैंने तो उड़ने के लिए पंख केवल नन्हीं-जान पक्षियों को दिए थे? इसने उन्हें उड़ते देख कर वायुयान बना लिए। बना ही नहीं लिए, उनसे सारी दुनिया के आसमान में उड़ने लगा। इतना ही नहीं इसने तो, अपने अंतरिक्ष यानों से सौरमंडल तक नाप डाला है और अब सौरमंडल के भी पार जा रहा है! मैंने दुनिया को देखने के लिए इसे सिर्फ दो आंखें दी थीं, लेकिन यह मांसभेदी एक्स-रे जैसी किरणों की खोज करके शरीर भीतर झांक रहा है। बिना चीरफाड़ किए अब एमआरआई करके शरीर के पुर्जे-पुर्जे तक को देख रहा है। हद है!


इसने आग का आविष्कार किया। खाली पहिया बना कर यह उसके बूते पर कहाँ से कहाँ पहुँच गया है- बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी, मोटरगाड़ियों और अंतरिक्षयानों तक। चाँद पर यह कदम रख चुका और अब मंगल ग्रह पर जाने के मंसूबे बांध रहा है। अंतरिक्ष में घूमती हुई इसकी दूरबीनों की आंखें सुदूर सितारों की दुनिया को टटोल रही हैं तो पृथ्वी के चारों ओर भी इसके उपग्रहों की आसमानी आंखें धरती पर नजरें गड़ाए हुए हैं। मैंने तो इसकी नजरों से परे सूक्ष्म जीवों, बैक्टीरिया और वायरसों का अदृश्य संसार रचा था लेकिन इसने सूक्ष्मदर्शी बना कर उसके भी दीदार कर लिए और उनके कारण होने वाली बीमारियों पर काबू पा लिया। वाह मेरी संतान! 


और तो और, इसने तो मेरी रची डी.एन.ए. की कूट भाषा को भी पढ़ लिया, और उसकी बारहखड़ी के बूते पर शरीर की पूरी आनुवंशिक किताब भी पढ़ डाली। यह सब देख-देख कर अपनी इस संतान पर गर्व हो रहा है, मगर इसकी नासमझी पर अफसोस भी कोई कम नहीं है। 


हुआ यह कि कुदरत की कोख में पनपते मनुष्य से बस एक चूक हो गई। उसका लालच बढ़ता और बढ़ता चला गया। हर मनुष्य अपने साथी से और आगे बढ़ने, और अधिक संपत्ति का मालिक बनने की होड़ में शामिल हो गया। कुदरत का खज़ाना उसकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो काफी था लेकिन उसके लालच को पूरा नहीं कर सकता था। अपनी होड़ में उसने कुदरत के खज़ाने को अधिक से अधिक लूटना शुरू कर दिया और वह कुदरत की कोख को ही उजाड़ने लगा। उसने सदियों की सीढ़ियां नापते-नापते जल, थल और आकाश पर विजय हासिल कर ली।


विजय क्या हासिल कर ली कि उसने स्रष्टा के काम में दखल देना शुरू कर दिया, जिसका असर कायनात पर धीरे-धीरे दिखने लगा। पहले उसने झूम खेती के लिए जरूरत भर जंगल काट कर जलाया। फिर उपजाऊ ज़मीन को देख कर उसका लालच बढ़ा और बढ़ता ही गया। उस जमीन में पक्के घरों की नींव क्या पड़ी कि घरों की संख्या बढ़ती गई। इतनी कि गांव कस्बा बना और कस्बा शहर। सीमेंट और कंक्रीट का जंगल बढ़ता गया, शहरों के कदम गांवों को लीलते चले गए। कहर टूटा कायनात की बेशकीमती सौगात कुदरत यानी प्रकृति पर। हरे-भरे जंगल कटते गए और मनुष्य अधिक से अधिक जमीन हथियाने लगा। जंगलों के उजड़ने से उनमें रहने वाले जीव-जंतुओं, कीट-पतंगों और सूक्ष्म जीवों की दुनिया भी उजड़ने लगी। स्रष्टा की रची जीवों की सैकड़ों प्रजातियां गुम होने लगीं। कहाँ है आज हमारे देश का चीता? मारीशस का डोडो और तस्मानिया का टाइगर? ये प्राणी आज केवल किताबों में चित्रों के रूप में रह गए हैं। 


कल-कारखानों का विकास क्या हुआ कि हवा और पानी में जहर घुलने लगा। कल-कारखाने वायुमंडल में धुवां उगलते गए और उनसे निकला कचरा पानी और जमीन को जहरीला बनाता गया। गर्ज यह कि धरती, आसमान और सागर सभी प्रदूषित होते चले गए। कीटनाशक रसायनों से कीटों की रोकथाम के साथ ही जल, थल और हवा में भी जहर घुलता गया। शहरों में रात-दिन दौड़ती मोटर-कारों के जहरीले धुएं ने हवा को तो जहरीला बनाया ही, इसके हानिकारक रसायन कणों ने आसमान में ओजोन की सुरक्षा छतरी में भी छेद कर दिया। स्रष्टा ने धरती पर जी रहे जीवों के लिए ओजोन का वह सुरक्षा कवच बनाया था जो उन्हें तेज और खतरनाक अल्ट्रा वायलेट किरणों से बचाता था। उसमें हम मनुष्यों ने छेद कर डाला। कल की वे कल-कल बहती नदियां भी आज कलुषित हो गई हैं। उनका पानी पीने लायक नहीं रहा। निर्मल जल के ज्यादातर झील-तालाब भी प्रदूषित हो गए हैं। उधर तापमान बढ़ने से ध्रुवों और ग्लेशियरों की बर्फ पिघल रही है। 


तो हे मेरी कथा के रसिको! ऐसी तो नहीं थी यह धरती। कायनात के सबसे खूबसूरत ग्रहों में से एक थी यह, जहाँ स्रष्टा ने जीवन का बीज बोया था। लेकिन, अपने तरीके से काम करते कायनात के काम में आदमी ने इतना दखल दे दिया कि आज अगर हमारी कल्पना का वह स्रष्टा सचमुच साकार हो कर हमारे इस ग्रह पर आ जाए तो खुद हैरान रह जाएगा। हैरान रह जाएगा कि उसका रचा आदमी नाम का यह जीव उसकी रची सृष्टि का चेहरा तो बेतरह बदलता ही जा रहा है, उसके काम में भी लगातार दखल दे रहा है।


पूछेगा वह कि मेरे नीले, साफ-सुथरे आसमान में यह कूड़े-कचरे का यह अंबार क्यों? वाजिब होगा उसका सवाल क्योंकि आज अंतरिक्ष में कम से कम छह-सात हजार टन मलबा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काट रहा है जिसमें सालाना 100-150 टन मलबे का इजाफा होता है। इसमें बेकार हो गए उपग्रह, राकेटों के बचे-खुचे हिस्से और लाखों छोटे-मोटे कचरे के टुकड़े शामिल हैं। 


उसे यह भी पता लगेगा कि चीन जल्दी ही आसमान में स्रष्टा के बनाए चाँद से अलग चाँद बना रहा है जिसे 2020 तक वह आसमान में टांग देगा! इसे वह स्रष्टा की ही तकनीक से चमकाएगा। यानी, आसमान में 500 किलोमीटर ऊपर टंगा दर्पण-चेहरे वाला चाँद भी सूरज की किरणों को कृत्रिम चाँदनी के रूप में धरती की ओर लौटाएगा और इस तरह चीन के शहर चेंगदू को उस चाँदनी से रौशन कर देगा। चेंगदू चमक गया तो 2022 तक चीन तीन और नए चाँद बना कर अपने दूसरे शहरों को चमकाएगा। सचमुच चकित रह जाएगा स्रष्टा हमारे ही सौरमंडल में बनाए अपने 187 से अधिक चंद्रमाओं के बीच पृथ्वी पर चीन के इन कृत्रिम चंद्रमाओं को देख कर। इतना ही नहीं, वह चीन में ही बन रहे कृत्रिम सूर्य को देख कर भी चकित रह जाएगा जिसे चीन के वैज्ञानिक स्रष्टा की ही तरकीब नाभिकीय फ्यूजनसे चमकाएंगे। अगर स्रष्टा के हाथों में अंगुलियों हुईं तो वह मुंह में अंगुली दबा कर देखेगा कि उसके रचे सूर्य के भीतर का तापमान तो केवल 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस है जबकि चीन के वैज्ञानिकों के बनाए कृत्रिम सूर्य का तापमान करीब 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस होगा! 




स्रष्टा पृथ्वी पर किलकारियां भर रहे लाखों टेस्ट-ट्यूब बेबी देख कर भी कम हैरान नहीं होगा। सोचेगा, जीवों में जनन-प्रजनन का काम तो केवल उसका था। बच्चे केवल उसकी सुझाई विधि से ही पैदा हो सकते थे। लेकिन, पृथ्वी पर वैज्ञानिकों ने 1978 में टेस्ट ट्यूब की कृत्रिम तकनीक से बेबी लुइजे ब्राउन पैदा कर दी जो आज 40 वर्ष की हो चुकी है और दो बच्चों की मां है। उससे पहले तो बड़ा हो-हल्ला मचा था कि यह काम खुदा के धंधे में बंदे का दखल है। 


लेकिन, आदम जात रुकी कहाँ, उसने टेस्ट-ट्यूब बेबी ही नहीं, आगे चल कर 1996 में शरीर की मामूली कोशिका को ले कर क्लोन डॉलीभेड़ पैदा कर दी! उसके बाद तो भेड़ ही नहीं, कई प्राणियों के क्लोन बना डाले। जहाँ तक आदमी की हू-ब-हू प्रतिलिपि यानी क्लोन की बात है तो 1978 में अमेरिकी पत्रकार डेविड रोरिक की इन हिज इमेजकिताब के बाजार में आते ही तहलका मच गया था कि शायद आदमी का भी क्लोन बन गया है। कुछ और दावे भी किए गए लेकिन सभी दावे झूठे निकले। फिर भी जीव विज्ञानी इस दिशा में शोध तो कर ही रहे हैं। मानव क्लोन बनाना अनैतिक माना गया है। इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हैं कि चलो, मानव क्लोन नहीं तो इस तकनीक से मानव के अंग तो बना सकते हैं - दिल, दिमाग, जिगर, कान, हाथ-पैर कुछ भी। इस दिशा में भी तेजी से काम चल रहा है। कल शरीर में नकली कल-पुर्जों के बजाए कृत्रिम रूप से उगाए हुए आदमी के असली अंग लगाए जा सकेंगे।


यह देख-सुन कर चकित हुआ स्रष्टा जब चीन की डिजायनर जुड़वां बहिनों लुलूऔर नानाको देखेगा तो शर्तियां देखता ही रह जाएगा। डीएनए की जिस बारहखड़ी से उसने आदमी नामक जीवित किताब की रचना की, आज वही आदमी उसी किताब का संपादन कर रहा है! क्रिस्पर कैसले/कैस9 की जीववैज्ञानिक जादुई कलम से उसने डीएनए का संपादन करके लुलू और नाना बहिनों को जानलेवा एचआइवी रोग से मुक्त बना दिया है। स्रष्टा यह सोच-सोच कर चक्कर में पड़ जाएगा कि इस तकनीक से तो आदमी कल डिजायनर बच्चे बना लेगा। यानी, जिसको जैसा बच्चा चाहिए- काला, गोरा, लंबा, पतला, काले या भूरे बालों वाला, सुंदर और बुद्धिमान। फ्रिक में पड़ जाएगा स्रष्टा कि फिर उसके रचे इन मनुष्यों के आम बच्चों का क्या होगा? डिजायनर बच्चे तो केवल पैसे वाले लोग ही बनवा पाएंगे। आज जब उसने गायों-भैंसों की केवल बछियां पैदा करने की तकनीक खोज ली है तो कल यह अपनी मूर्खता में केवल बेटे पैदा करने की तकनीक भी खोज सकता है। इस तरह यह मेरे काम में दखल देगा और कुदरत में मेरे बनाए नर-मादा के संतुलन को बिगाड़ देगा। 


नई फसलें देख कर भी वह चौंक जाएगा। ट्रिटिकेल की फसल देख कर तो उसे पूछना ही पड़ेगा कि यह कौन-सी फसल है और किसने बनाई? तब कृषि वैज्ञानिक उसे बताएंगे कि इसे गेहूं और रई घास का विवाह रचा कर बनाया गया है। उसे यह भी अपने काम में दखल लगेगा क्योंकि उसने तो गेहूं को केवल गेहूं और रई घास को केवल रई घास संतानों को जन्म देने की जिम्मेदारी सौंपी थी। ट्रिटिकेल तो ट्रिटिकेल संतानों को जन्म देगी। लेकिन, यह तो उसके चौंकने का मात्र एक नमूना होगा। जब वह बीटी कॉटन, बीटी सरसों और बीटी बैंगन जैसी जीएम फसलें देखेगा तो फसलों के ये नए रूप देख कर सोच में पड़ जाएगा कि इन फसलों पर पलने वाले उसके बनाए कीट-पतंगों और तितलियों का क्या होगा? अनाजों, फल-सब्जियों की तमाम संकर किस्में उसे हैरत में डाल देंगी। संकर पशुओं को देख कर भी वह कम हैरान नहीं होगा। 


अपनी इस बदली-बदली दुनिया को देख कर शायद वह फिर कायनात के किसी अदृश्य कोने की ओर लौट जाना चाहेगा। और, लौटते-लौटते मनुष्य जाति के बनाए विनाशकारी परमाणु हथियारों का जखीरा देख कर शायद हमारी आत्मघाती सभ्यता पर तरस खाएगा कि खुद के विनाश का इतना मुकम्मल इंतजाम जिससे आदमी न केवल खुद खत्म होगा बल्कि अपने इस निराले ग्रह को भी नेस्तनाबूद कर देगा। साथ ही हैरान भी होगा कि कभी करोड़ों जीवों की भीड़ में से उपजी मनुष्य जाति का यह चरमोत्कर्ष और कहाँ कायनात के काम में दखल देते-देते कुदरत के संतुलन को बुरी तरह बिगाड़ता यह मनुष्य। शायद अलविदा कह कर भरे मन से लौट जाएगा स्रष्टा।

×××


सम्पर्क -

सी-22, शिव भोले अपार्टमेंट्स,
प्लाट नं. 20, सैक्टर-7, द्वारका फेज-1
नई दिल्ली- 110075

फोनः  9818346064

E-mail:   dmewari@yahoo.com



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं