अखिलेश श्रीवास्तव चमन की कहानी 'सजग-प्रहरी'

अखिलेश श्रीवास्तव चमन
 
आज की हमारी यह दुनिया बड़ी अजीब है। जिनसे हम मानवता की उम्मीद करते हैं, वही तरह-तरह से मानवता की भावना को आहत करते रहते हैं। यह सब उस धर्म के नाम पर होता है जो मानवीय-मूल्यों की रक्षा के लिए ही अस्तित्व में आयादुनिया में हर जगह पूँजीवादी सत्ताधारियों द्वारा आम आदमी का तरह-तरह से शोषण और उत्पीड़न किया जाता रहा है। इनके द्वारा उत्पीड़न के तरह-तरह के हथियार इजाद किए जाते हैं और तरह तरह के तरीके गढ़े जाते हैं। चूंकि साहित्यकार अपने समय का सजग प्रहरी होता है इसलिए वह अपने समय कि इन चालाकियों को उजागर करने का काम करता रहा है। कहानीकार अखिलेश श्रीवास्तव चमन अपनी इस कहानी में  एक जगह कहते हैं  - 'मैं लगातार यही सोचता रहा कि मेहनत, मजदूरी कर के जैसे-तैसे जी रहे इस गरीब बेचारे से भला किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है। भला इससे किसी को क्या खतरा हो सकता है। इसे कौन किसी की जमीन, जायदाद या संसाधनों पर कब्जा करना है। बांग्लादेश हो या कि हिन्दुस्तान गरीब की नियति तो एक ही है। उसे तो दो वक्त की रोटी की दरकार है बस। लेकिन वह भी चैन से नहीं खाने देते लोग।' तो आइए पढ़ते हैं अखिलेश श्रीवास्तव चमन की यह कहानी  'सजग प्रहरी'
                                          
सजग-प्रहरी

अखिलेश श्रीवास्तव चमन           
    

 ऑंखें लग गयीं थीं। नींद की खुमारी में जा चुका था मैं। अचानक ऐसा लगा जैसे कोई बाहर का गेट पीट रहा हो। पहले सोचा शायद भ्रम होगा इसलिए जगने के बाद भी चुपचाप पड़ा रहा। लेकिन अगले ही पल जब धम् धम् धम् धम् की आवाज तेज हो गयी तो बिस्तर से निकल कर बत्ती जला दिया। तब तक पत्नी भी जग गयीं और प्रश्नवाचक नजरों से मेरी ओर देखने लगीं। घड़ी देखा तो रात के सवा ग्यारह बज रहे थे।

    ‘‘कौन हो सकता है इतनी रात को ?’’ पत्नी ने पूछा।
    ‘‘पता नहीं.....देखते हैं।’’ मैंने कहा और दरवाजा खोल कर गेट की ओर बढ़ गया। बाहर की बत्ती जलाया तो देखा कि मियॉं गेट पकड़े खड़ा था।
    ‘‘क्या बात है मियॉं...?’’ मैंने गेट का ताला खोलते हुए पूछा।
    ‘‘बाबू.....आमार पोइसा....।’’
    ‘‘पैसा.....?’’


    ‘‘हॉं बाबू....आमार सब पोइसा देदोे.....अम इआं से जा रहा है।’’ मियॉं ने रूऑंसी आवाज में कहा। तब तक मैं गेट खोल चुका था। गेट खोलते ही मियॉं की औरत तथा उसकी दोनों बेटियॉं भी दिख गयीं जो चहारदीवारी की ओट में खड़ी थीं। उन तीनों के ही हाथों में प्लाटिक की छोटी-छोटी बोरियों को एक साथ सिल कर बनाए गए बड़े-बड़े बोरे थे जैसा कि कूड़ा बीनने वालों के कंधों पर रहता है। उन बोरों में ठूॅंस-ठूॅंस कर सामान भरे हुए थे। उसके अलावे पुराने चादर में बॅंधी एक बड़ी सी गठरी भी थी जो मियॉ के पैरों के पास रखी थी और उसके बगल में रस्सी से बॅंधे बॉंस के कुछ ड़ंड़े रखे थे। यानी मियॉं की पूरी गृहस्थी सामने रखी थी।


     मियॉं। जी हॉं मैं उसको मियॉं कह कर ही बुलाता हूॅं। नाम नहीं जानता उसका। न तो मैंने कभी पूछने की जरूरत समझी और न ही उसने कभी बताया। लगभग दो सवा दो साल पहले की बात है। एक दिन सवेरे-सवेरे गेट पर एक पतली जनाना आवाज सुनायी पड़ी-‘‘कूड़ा...कूड़ा।’’ उस वक्त मैं कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। बाहर आया तो देखा कि चारखाने की मैली सी लूंगी और सफेद बंगाली कुर्ता पहने लम्बी, खिचड़ी दाढ़ी वाला एक अधेड़ आदमी घर के बाहर सड़क पर झाड़ू लगा रहा था और हरे रंग की मैली-कुचैली साड़ी को बंगाली ढ़ंग से लपेटे एक दुबली-पतली, सॉंवली, नाटी सी औरत गेट के बाहर खड़ी थी। वह मुझको देखते ही बोल पड़ी- ‘‘बाबू...कूड़ा दे दे कूड़ा...।’’ 


     मैंने सोचा शायद नगर निगम वालों ने सफाई की नई व्यवस्था लागू की है। अंदर गया और ऑंगन में प्लास्टिक के थैले में रखा कूड़ा ले आ कर उस औरत को पकड़ा दिया। वह आगे बढ़ गई और पड़ोसी के दरवाजे पर खड़ी हो कर वैसे ही आवाज देने लगी-‘‘कूड़ा....कूड़ा...कूड़ा’’


    अब यह रोज की बात हो गयी। रोज सवेरे वह आदमी सड़क पर झाड़ू लगाता और उसकी औरत मुहल्ले के घरों से कूड़े का थैला बटोरती जाती। सप्ताह में एक बार वे लोग नालियों की सफाई भी कर देते थे। इस प्रकार कालोनी के घरों का कूड़ा फेंकने की समस्या तो हल हो ही गई, हर समय भरीं, बजबजाती नालियॉं तथा गन्दगी से अटी रहने वाली गलियॉं भी अब साफ-सुथरी रहने लगीं। एक महीना बीतने पर उस खिचड़ी दाढ़ी वाले आदमी ने गेट खटखट़ाया और मेरे बाहर निकलते ही बोला-‘‘बाबू....पोइसा।’’


    ‘‘पैसा....?’’
    ‘‘हॉं बाबू.....सौ टका....।’’
    ‘‘कहॉं से आए हो.....क्या नगर निगम के आदमी नहीं हो तुम लोग....?’’
    ‘‘ना बाबू.....हम बांग्लादेस से आया......इदर में सफाई करता.....। उसी के वास्ते सौ टका मॉगता....।’’ उसने कहा और अपने छोटे-छोटे पीले दॉंत दिखा कर हॅंस दिया।
    मैंने उसको सौ रूपए का नोट पकडाया तो उसने कृतज्ञता भरे चेहरे से सलाम किया और आगे बढ़ कर पड़ोसी का गेट खटखटाने लगा।


   धीरे-धीरे वह हमसे घुल मिल गया। मैं मियॉं कह कर बुलाने लगा उसको। मेरी पत्नी ने उसको मेरे एक-दो पुराने कपड़े दे दिए। एक दिन उसकी औरत की फटी साड़ी देखी तो पत्नी ने उसे अपनी एक पुरानी साड़ी भी दे दी। बदले में वह सड़क के साथ-साथ मेरे घर के अंदर भी सफाई कर देता था। उसको देखते ही पत्नी गेट खोल देती तो वह अंदर लॉन और पोर्च में भी झाड़ू मार देता था। कभी लॉन की घास उखाड़ देता और गमलों में पानी भी ड़ाल देता था। लगभग दस साल और बारह साल की दो बेटियॉं थीं उसकी। जब घर में कुछ बासी बच जाता तो पत्नी उन्हें बुला कर थमा देती थी। दोनों ऐसे खुश हो जातीं मानो छप्पनभोग मिल गया हो उनको। मियॉं का चार प्राणियों का परिवार बस अपने काम से काम रखता और अपने आप में मगन रहता था।


    ‘‘तुम लोगों की भाषा बड़ी अजीब सी लगती है....तुम लोग कहॉं की रहने वाली हो जी।’’ मेरी पत्नी ने एक दिन मियॉं की औरत से पूछा।


    ‘‘बाई, अमारा घर भोत दूर....बांग्लादेस में है।’’
    ‘‘बांगलादेश......? तो यहॉं इतनी दूर कैसे आ गए तुम लोग ?’’


    ‘‘बाई, उदर भोत पोरेसानी है.....काम नई मिलता.....खाने को नई मिलता....भोत गरीबी है उदर में। अमरा एक बेटा भी था छोटा सा.....बीमार हो के मर गया....अम दवा नई दिला पाया उसको। अमरा देस का ढ़ेर सारा लोग इदर काम के वास्ते आया....साथ में अम भी आ गया। तब से इदर ही है।’’


    ‘‘तो क्या बांग्लादेश से चल कर सीधे यहॉं इतनी दूर आ गये तुम लोग ? 


    ‘‘ना बाई ना.....। कबी इआं, कबी ऊआं भोत मारा-मारा फिरा। भोत भागा....कई जगह रूकते-रूकते आया इदर में। लोग अमको कईं भी जियादा दिन टिकने नईं देता। भगा देता है सब। पोलिस वाला भोत परेसान करता है....पोइसा मांगता है इदर टिकने के वास्ते। रात में घर में घुस आता है...मारता है....पोइसा छिन लेता है....बादमासी की बात बोलता है। भोत दिक्कत करता है पोलिस लोग।’’ मियॉं की औरत ने बताया तो उसकी ऑंखों में ऑंसू छलछला आए।


    हमारी यह कालोनी आड़ी, तिरछी जगह में बसी है जिसके कारण कालोनी के पश्चिम, दक्षिण के कोने में नाले के किनारे थोड़ी सी लगभग तिकोनी सी जगह खाली पड़ी थी। वह खाली जगह मुहल्ले का कूड़ा डालने के काम आती थी। कूड़े का ढ़ेर जमा हो गया था वहॉं। आसपास गंदगी फैली रहती थी जिस पर सारे दिन कुत्ते लोटते रहते थे। कबाड़ बिनने वाले लड़के आते तो कूड़े को और भी बिखरा देते थे। उधर से निकलो तो नाक पर रूमाल रखना पड़ता था। उसी खाली जगह को साफ, समतल कर के, बॉंस के ड़ंड़ों पर प्लास्टिक की चादर तान कर और घास-फूॅंस से घेर कर एक घरौदा बना लिया था मियॉं ने। उसी में रहता था उसका परिवार। मियॉं और उसकी औरत मिल कर सवेरे से दोपहर तक में पूरी कालोनी की सफाई करते और घरों से कूड़ा एकत्र करते थे। उसकी दोनों बेटियॉं घंटों बैठ कर कालोनी के घरों से एकत्र किए उस कूड़े में से काम की चीजें या ऐसी चीजें जिन्हें कबाड़ी के यहॉं बेचा जा सकता हो छॉंटा करतीं, फिर उसके बाद बचे कूड़े को ले जा कर लगभग दो किमी दूर रेलवे लाइन के किनारे गड्ढ़े में फेंक आतीं थीं। महीना समाप्त होने पर मेहनताना के रूप में मियॉं हर घर से सौ रूपए वसूल करता था। इस तरह जैसे-तैसे जी रहा था उसका परिवार।


    मियॉं एक दिन शाम के समय बाबू....बाबू आवाज लगाता मेरे घर का गेट खोल कर अंदर आ गया। उसकी आवाज सुन कर मैं बाहर आया तो उसने अपने कुर्ते की जेब से निकाल कर कुछ मुड़े-तुड़े नोट मेरी तरफ बढ़ा दिए।


    ‘‘यह क्या है मियॉं....?’’
    ‘‘बाबू....आमरा ई पोइसा अपने पास रख लो....नईं तो पोलिस वाला छीन लेगा। भोत पोरेसान करता है ऊ लोग। अमको जरूरत पोड़ेगा तो तुमसे मांग लेगा।’’





    मैंने गिना तो पूरे बारह सौ रूपये थे। उसे मैंने अमानत के तौर पर रख लिया। फिर उसके बाद तो जैसे मैं मियॉं का बैंक ही बन गया। महीने के पहले सप्ताह में जब कालोनी के घरों से उसे पैसे मिलते तो वह कुछ रूपए मेरे पास जमा कर जाता और बाद में अपनी जरूरत के अनुसार थोड़ा-थोड़ा कर के ले जाया करता था। 


      ‘‘मियॉं मान लो मैं तुम्हारा सारा पैसा हड़प लूॅं....तुमको वापस न दूॅं तो...?’’ एक दिन जब उसने सौ और पचास के कई मुड़े-तुड़े नोट मुझको दिए तो मैंने उससे मजाक में कहा।


      ‘‘काये फालतू में मोजाक करता है बाबू....अम बी आदमी पोहचानता है.....अमको पता है तुम अइसा नहीं करने सकता।’’ उसने हॅंस कर कहा और मैं उसके दिए रूपए गिनता उससे पहले ही चला गया।  


     लगभग छः महीना पहले एक शाम अॅंधेरा होने के थोड़ी देर बाद मियॉं और उसकी बीबी ने मेरा गेट खटखटाया। मेरी पत्नी ने गेट खोला तो वे दोनों अंदर बरामदे में आ गए। दोनों ही बेतरह घबड़ाए हुए दिख रहे थे। दोनों के ही चेहरों पर हवाइयॉं उड़ रही थीं। 


    ‘‘क्या बात है मियॉं.....तबियत तो ठीक है ?’’ मैंने पूछा।
    ‘‘बाबू ! अब अम इआं नहीं रहने सकता.....। ऊ लोग इआं से चले जाने के वास्ते बोल गिया है। भोत खतरनाक आदमी है ऊ लोग।’’ मियॉं ने कॉंपती आवाज में कहा।


    ‘‘मैं कुछ समझा नहीं....। क्या हुआ....कौन लोग बहुत खतरनाक हैं ? तुम पहले आराम से बैठ जाओ फिर बताओ अपनी बात।’’ मैंने कहा तो मियॉं अपनी लुॅंगी समेटता बरामदे के फर्श पर बैठ गया। उसकी पत्नी दीवार का टेक ले कर खड़ी रही। 


    ‘‘बाबू ! अबी थोड़ा देर पइले गाड़ी में तीन लोग आया था। अमको इआं से भाग जाने के लिए बोल गिया। अमको धमकी दे गया है....। बोल रहा था स्साला बांग्लादेसी इदर से भाग जाओ...अपने देस चले जाओ नईं तो सब को जान से मार डालेगा।’’ मियॉं ने बताया।


     सहसा मुझे ध्यान आया कि पिछले कुछ दिनों से कालोनी में सिल्वर कलर की एक बोलेरो गाड़ी की आवाजाही हो रही थी। उस दिन शाम के समय भी उस बोलेरो को मियॉं की झोपड़ी के पास खड़ी देखी थी मैंने। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मियॉं जैसे सीधे-सादे, गरीब, असहाय मजदूर को धमकाने वाले कौन लोग हो सकते हैं। किसकी दुश्मनी हो सकती है उस बेचारे से। फिर भी मियॉं को ढ़ाढ़स देने की गरज से मैंने कहा-‘‘अरे कुछ नहीं होगा। बेकार परेशान मत होवो। किसी ने ऐसे ही शरारत की होगी। जाओ....जा कर सो जाओ....सवेरे देखेंगे।’’


    मेरे समझाने के बावजूद मियॉं अपनी जगह से हिला नहीं। वैसे ही चिन्तित मुद्रा बनाए बैठा रहा। मेरी खोखली हमदर्दी को शायद भॉंप गया था वह। मैंने सर उठाया तो पाया कि उसकी बीबी मेरी तरफ बहुत आशा भरी नजरों से देख रही थी।


    ‘‘अच्छा ऐसा करो तुम लोग जाओ....परेशान न हो.....आराम से वहीं रहो। अगर वे लोग दोबारा  फिर कभी आयें तो मुझको बुला लेना। मैं बात करूॅंगा उनसे।’’ मैंने आश्वासन दिया तो वे दोनों मेरे यहॉं से वापस गए।


    उस घटना के ठीक तीसरे दिन शाम के वक्त मियॉं की औरत ने मेरा गेट खटखटाया। मैं उस समय बाहर लॉन में ही था। फूलों के गमलों में पानी ड़ाल रहा था।


    ‘‘क्या हुआ....?’’ मैंने गेट खोलते हुए पूछा।


    ‘‘बाबू ! तुरते चलो....। फिर आया है ऊ लोग।’’ उसने घबड़ायी आवाज में कहा तो मैं जैसे था वैसे ही उसके साथ हो लिया। मियॉं की झोपड़ी के पास गया तो देखा वही सिल्वर कलर की बोलेरो खड़ी थी। ऑंखों पर काला चश्मा लगाए सॉवला, मोटा एक आदमी गाड़ी के अंदर बैठा सिगरेट के छल्ले बना रहा था और गठीले बदन के दो आदमी बाहर खड़े मियॉं को हड़का रहे थे। बाहर खड़े दोनों ही व्यक्ति सफेद सूती पैंट, सफेद रंग की ही पूरी बॉंह की शर्ट तथा पैरों में सफेद स्पोर्ट शू पहने हुए थे। उनमें से एक ने हाथ में एक नाल की बंदूक ले रखी थी।


    ‘‘क्या बात है भाई.....आप लोग क्यों परेशान कर रहे हैं इस गरीब को ?’’ मैंने करीब पॅंहुचते ही तल्ख आवाज में उन दोनों से प्रश्न किया। मेरे प्रश्न करते ही उन दोनों ने एक साथ पलट कर मुझको ऐसी जलती निगाहों से देखा कि एकबारगी तो मैं भी सकपका गया।


    ‘‘आप कौन हैं....?’’ उनमें से एक ने बहुत रूखे स्वर में मुझसे पूछा।


    ‘‘मैं....? मैं इसी कालोनी का निवासी हूॅ.....। लेकिन आप लोग कौन हैं....? आप लोग तो इस कालोनी में रहते नहीं।’’ अंदर ही अंदर घबड़ाने के वावजूद मैंने हिम्मत की।


    ‘‘आपको इस बांगलादेशी जासूस से क्या हमदर्दी है ?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसने उल्टे मुझसे प्रश्न कर दिया।


    ‘‘अरे भाई, यह कोई जासूस वासूस नहीं एक गरीब मजदूर है बेचारा। हमारी कालोनी में साफ- सफाई करता है.....लगभग साल-सवा साल से ये लोग रह रहे हैं यहॉं पर।’’  


    ‘‘आपको कैसे पता कि यह जासूस नहीं है....? आप गारंटी लेते हैं इसकी कि यह किसी दुश्मन देश या आतंकवादी गिरोह का सदस्य नहीं है।’’ दूूसरे ने प्रश्न दागा।
    ‘‘अरे भाइया, गारंटी तो आज के जमाने में कोई अपनी औलाद की भी नहीं ले सकता...।’’


    ‘‘तो फिर....? तो फिर किस हैसियत से इसकी तरफदारी कर रहे हैं आप....? पता है आपको ऐसे ही लोगों को अपना स्लिपिंग माड्यूल बनाते हैं आतंकवादी। बांगलादेश से यहॉं तक कोई जगह ही नहीं मिली.....कोई काम ही नहीं मिला इसको जो यहॉं आ कर रह रहा है ? क्या पक्के तौर पर कह सकते हैं आप कि यह पाकिस्तानी एजेण्ट नहीं है.....कि झाड़ू-बुहारू और साफ-सफाई की आड़ में यह राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से नहीं जुड़ा है ?’’


    ‘‘ठीक है.....। अपनी जगह आपकी बात भी सही है। लेकिन जब तक कोई ठोस आधार न हो किसी को भी जासूस या आतंकी कह देना भी तो उचित नहीं...।’’ मैंने दबी जुबान से प्रतिवाद किया।


    ‘‘अरे भाई किसी के माथे पर थोड़े न लिखा होगा कि वह आतंकवादी है। आतंकवादी ऐसे ही तो वेष बदल कर, सभी से घुल-मिल कर रहते हैं ताकि किसी को उन पर शक न होने पाए। पता है आपको.....पिछले दिनों जो कई शहरों में माल में, बाजार में, स्टेशन पर, कचहरी आदि सार्वजनिक स्थानों में बम विस्फोट हुए हैं उनमें ऐसे ही लोगों की भूमिका पायी गई है। ऐसे लोग होते कुछ और हैं और दिखते कुछ और हैं। समझे आप...?’’


     ‘‘अरे भाई ! आप लोगों को तो पहले ही सतर्क हो जाना चाहिए था। इसको यहॉं बसने ही नहीं देना था। आप की कालोनी में इतने दिनों से एक संदिग्ध विदेशी रह रहा है और आप लोग ऑंखें बंद किए पड़े हैं ? इसे यहॉं से भगाने के बजाय आप इसकी तरफदारी कर रहे है। कल को कोई दुर्घटना हो जाएगी तो पुलिस और सरकार को दोष देंगे।’’ पहले के चुप होते ही दूसरा बोल पड़ा।


    उन  दोनों ने मेरे सामने ढ़ेर सारे प्रश्नों और तर्कोंं की ऐसी झड़ी लगा दी कि निरूत्तर हो गया मै। क्या उत्तर देता ? यद्यपि उस गरीब मियॉं के साथ मेरी पूरी हमदर्दी थी फिर भी उसके इतिहास और क्रिया-कलापों के बारे में क्या कह सकता था मैं? सो चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुनता रहा। मुझको अपनी बातों से लाजबाब करने के बाद वे दोनों अपनी गाड़ी में बैठे और चले गए।


    ‘‘वे लोग तुम्हारे ऊपर आतंकवादियों से सम्बन्ध होने का शक कर रहे हैं इसलिए यहॉं से हटने के लिए कह रहे हैं। आजकल जैसा माहौल चल रहा है उसमें किसी भी अजनवी पर शक होना स्वाभाविक है। लेकिन तुम घबड़ाओ नहीं..... मैं एक-दो दिन में कालोनी के कुछ और लोगों से भी बात कर लूूंगा....फिर हम सभी लोग मिल कर पुलिस को इस बात का आश्वासन दे देंगे कि तुम गलत आदमी नहीं हो।’’ घबड़ाए खड़े, पत्ते की तरह कॉंप रहे मियॉं को मैंने समझाया और वापस घर आ गया।


     दो दिन और बीते। तीसरे दिन रात लगभग सवा ग्यारह बजे मियॉं अपने पूरे परिवार और पूरी गृहस्थी सहित मेरे गेट पर खड़ा, मेरे पास रखा अपना पैसा मॉंग रहा था।


    ‘‘अरे ! तुम तो नाहक घबड़ा रहे हो। कुछ नहीं होगा.....जैसे रह रहे हो वैसे ही रहते रहो.। सामने वाले सक्सेना जी से बात की है मैंने..। एक-दो दिन में तुम्हारी समस्या का हल निकाल लेंगे हम लोग।’’ मैंने मियॉं को ढ़ाढ़स बॅंधाया। दरअसल मुझको अधिक चिन्ता इस बात की हो रही थी कि यदि मियॉं चला गया तो हमारी साफ-सुथरी कॉलोनी फिर से गंदगी और बदबू से भर जाएगी। 

   
     ‘‘नईं बाबू। अब अम इदर नईं रहने सकता। वो लोग मार ड़ालेगा अमको। पइले भी अइसा ही बोल गया था। अबी घंटा भर पहले चार ठो आदमी फिर आया था...... बंदूक भी लिए था। बोल गया कि किरासन का तेल डाल कर फूँक देंगा रात में। अब अम नहीं रहने सकता। तुम अमारा पोइसा नई देना चाहता तो मत दो.....अम जाता है।’’ मियॉं ने रूॅंधे गले से, कॉंपती आवाज में कहा और मुड़ कर जाने लगा।


    ‘‘अरे ! नहीं....नहीं रूको। अपना पैसा ले कर जाओ।’’ मैंने कहा और अंदर से ले आ कर उसके रूपए उसको दे दिया। सिर पर गठरी, बोरा लादे, डंडे में खुंसे झाड़ू और बॉंस को कंधे पर रखे मियॉं और उसके बीबी, बच्चे चले गए। मैं उन्हें कालोनी से बाहर निकलने तक देखता रहा, फिर गेट बंद कर के अंदर आ गया। उसके बाद सारी रात सो नहीं सका मैं। लगातार यही सोचता रहा कि मेहनत, मजदूरी कर के जैसे-तैसे जी रहे इस गरीब बेचारे से भला किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है। भला इससे किसी को क्या खतरा हो सकता है। इसे कौन किसी की जमीन, जायदाद या संसाधनों पर कब्जा करना है। बांग्लादेश हो या कि हिन्दुस्तान गरीब की नियति तो एक ही है। उसे तो दो वक्त की रोटी की दरकार है बस। लेकिन वह भी चैन से नहीं खाने देते लोग।


       कालोनी से मियॉ  के जाने और उसकी कोई सहायता नहीं कर सकने का अफसोस मुझको कई दिनों तक सालता रहा लेकिन मियॉं को कालोनी से भगाए जाने की पहेली अधिक दिनों तक अबूझी नहीं रह सकी। तीसरे या चौथे ही दिन शाम के समय मैं उस तिकोनी जगह जहॉं मियॉं का परिवार रहता था की ओर से निकला तो देखा कि वहॉं ईंट, सीमेंट, मौरम और सरिया आदि फैला पड़ा था तथा कुछ मिस्त्री, मजदूर काम कर रहे थे। उस दिन मियॉं को हड़काने के लिए जो लोग आए थे उन्हीं में से एक खड़ा हो कर काम की निगरानी कर रहा था। मुझको आता देख उसने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया। मैं भी अनावश्यक किसी लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था इसलिए चुपचाप घर आ गया। उस अवैध निर्माण को लेकर पूरी कालोनी में खुसुर-फुसुर होती रही लेकिन किसी ने भी आगे बढ़ कर पूछने की हिम्मत नहीं दिखायी।


     देखते ही देखते महीने भर के अंदर वहॉं एक पक्का कमरा बन गया, कमरे के ऊपर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल का झंड़ा लहराने लगा और बाहर एक बड़ा सा बोर्ड टॅंग गया जिस पर बड़े-बड़े अखरों में लिखा था- ‘सम्पर्क कार्यालय, मोहम्मद करीम अंसारी, पार्षद, अलीगंज’।     


सम्पर्क-

मोबाईल - 09415215139 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है) 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'