प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के विकास की पृष्ठभूमि'
प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी |
किसी भी भाषा के उद्गम और विकास के अपने-अपने विशेष कारण होते हैं. हिंदी का विकास भी कई-एक कारणों के चलते संभव हुआ. इस विकास में संस्कृति के अलावा व्यापार४ और वाणिज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने के प्रयास में प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने यह महत्वपूर्ण आलेख लिखा है. यह आलेख नया ज्ञानोदय के हालिया अंक में प्रकाशित और प्रशंसित भी हुआ. इस आलेख की उपयोगिया के मद्देनजर हम इसे पहली बनार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइए पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का यह आलेख.
मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के विकास की पृष्ठभूमि
भारत के इतने विशाल भू-भाग को देख कर कोई भी
सहज कह सकता है कि, भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल में भी अवश्य ही स्थानीय
बोलियों का बोल-बाला रहा होगा. किन्तु, विश्व पटल पर मानवीय विकास के क्रम-बद्ध
अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट होती है कि मानव कभी एक ही क्षेत्र – अफ्रीका से शनैः-शनैः
विकसित होते हुए अपने वर्तमान स्वरूप तक पहुंचा था! इतना ही नहीं, विश्व भूगोल और
इतिहास के अध्ययन से यह भी स्पष्टतः स्थापित हो चुका है कि पूरा विश्व तब एक ही था
– एक एकीकृत
भू-क्षेत्र! तब ज़ाहिर है, धीरे-धीरे भू-सतह से बहुत नीचे ‘प्लेट्स’ के टकराने के
पश्चात् जब ये क्षेत्र पृथक-पृथक दूर-दूर हो गए, तब भी स्पष्तः कुछ समानताएं शेष
रह ही गयीं होंगी? इन्हीं समानताओं के साथ मानवीय विकास-क्रम मंथर गति से बढ़ा
होगा.......इसी लिए इतिहासकार से ले कर समाजशास्त्री, नृतत्व-वेत्ता और
भू-वैज्ञानिक सभी ‘मानव के समान अनुभव’ (‘शेयर्ड ह्यूमन
एक्सपीरियंस’) के तथ्य को रेखांकित करके ही, इस विषय में आगे बात करते
हैं. वस्तुतः मानव के सहभाग से प्राप्य अनुभव, भले ही ये अलग-अलग समय पर पृथक-पृथक
स्थानों, जिन्हें हम अब देश कहते हैं, वहाँ ही प्राप्त किया हों. इन्हीं साझा
अनुभवों के आधार पर मानव का समग्र विकास संभव हुआ था! और इसका सम्प्रेषण मानवीय
समुदाय में भाषा के माध्यम से ही हुआ था! चूंकि, तब भाषिक एकता थी, अतः विकास-क्रम
कभी भी प्रारम्भिक काल में अवरुद्ध नहीं हुआ और फिर, इस विकास क्रम ने अपनी बारी
में उसी भाषिक एकता पर बल दने के लिए विभिन्न विकसित भाषाओँ के साम्य को रेखांकित
करना शुरू किया. इस साम्य के भाव ने मानव अनुभव के साम्य को ही अन्ततः सुदृढ़ किया
और मानव-विकास क्रम के बावजूद भाषिक एकता के सूत्र कभी नज़रंदाज़ नहीं हुए? और, इसी
साम्य व एकता में एक एकीकृत मानव-समुदाय का भाव भी अन्तर्निहित था? और भाषिक साम्य
ने उस विकास की गति को बनाए रखा! मानव अंततः अपने अनुभव और प्रयोग आदि साझा करके
ही तो प्रगति कर सकता है. अब तो ‘सूचना-क्रान्ति’ के दौर में हम
सहज ही ‘विश्व-ग्राम’ की अवधारणा की
बात करते हैं.
अतः इस पृष्ठभूमि
से ही एक तथ्य और स्थापित होता है कि सिर्फ भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) ही नहीं, सभी
भाषाओँ में अनेक समानताएं थीं और इसी से मानव का विकास संभव हो सका! मानव के
विकास-क्रम में जिस एक तत्व ने सर्वाधिक योगदान दिया था वह थी भाषा और इसी समान
भाषा के आधार पर साझा किये गए अनुभवों के द्वारा ही मानव का यह विकास संभव हो
पाया! एक पीढ़ी से अगली वाली पीढ़ी तक परंपरा और विरासत सिर्फ भाषिक माध्यम से ही
संप्रेषित की जा सकती थी और, इसी लिए मानव ने भाषा का विकास किया और उसी के आधार
पर वे अन्य जीव-जंतुओं से काफी आगे निकल गए! अपनी बात कह लेने से न केवल बातें,
अनुभव और संवाद स्थापित हुआ, अपितु एक सामुदायिक जीवन-शैली और समान भाषा का भी
विकास हुआ! जब ये भूखंड अनेकानेक भौगोलिक या भूगर्भीय कारणों से पृथक हुए तथा
सामुद्रिक विकास के क्रम ने उनके मध्य की परस्पर दूरी को और बढ़ाया, तब अलग-अलग
क्षेत्रों में अपनी भौगोलिक विशेषताओं के चलते, अपने विशिष्ट प्रकार से ये मानवीय
सभ्यताएँ विकसित होती चली गयीं और उनके साथ ही भाषाओँ के अंतर भी स्पष्टतः उभरने
लगे! न जाने कितनी शताब्दियों के इस विकास-क्रम को हम यहाँ संक्षिप्त रूप में
चित्रित करने की कोशिश कर रहे यह तो सर्वविदित है ही! किन्तु, इसी पृष्ठभूमि के
चलते अलग भाषाओँ के विकास के बावजूद भी आज भाषा-वैज्ञानिक इन भाषाओँ के सामान
उद्गम की बात न केवल मानते हैं अपितु उसे सदैव स्मरण रखने के लिए प्रायः रेखांकित
भी करते रहते हैं!
इस आलोक में हमें
अब अपने देश के आतंरिक भाषिक विकास के क्रम को भी विश्लेषित करने का प्रयास करना
चाहिए. प्रारम्भ से ही मानव पशुचारिता के चलते नित नए चारागाह की तलाश में भटकता
फिरता था और अपने बिछड़े मानव-समूहों से मिलता-भेंटता रहता था! इस क्रम में उस
प्रारम्भिक काल में उसे संवाद स्थापित करने में कोई बहुत असुविधा भी नहीं उत्पन्न
हुयी होगी. प्रथम तो न तो भूमि की कमी थी और न ही उस पर आज जैसी जनसँख्या का दबाव!
दूसरे, भाषा की समानता के चलते भी संवाद सहज और स्वाभिक रूप से स्थापित ही हुआ
होगा? यदि थोड़ी बहुत समस्या आई भी होगी तो इशारों से समझ कर उन शब्दों के अर्थ
ग्रहण ही नहीं किये होंगे, अपितु, इस आदान-प्रदान ने दोनों की बोलियों या भाषाओँ
को और समृद्ध करना शुरू किया होगा! इसी लिए भाषा-वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओँ की
समझ के लिए संस्कृत, प्राकृत, पाली के साथ ही पुरानी पहलवी, क्लासिकल यूनानी के
तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया है! इसी लिए जब आधुनिक शिक्षा पद्धति के अनुसार
कलकत्ता विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञानं का अध्यापन शुरू हुआ तब वहाँ ये सभी भाषाओँ
को पढाया जाना अपने-आप इसी बात को रेखांकित करता है! (देखें, उदय शंकर
तिवारी,....) इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन इस लिए आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य हुआ
क्योंकि हमारा देश शताब्दियों तक समाजार्थिक व सांस्कृतिक सम्मिश्रण का क्षेत्र
रहा है, जहां सभी जगह की संस्कृति, सभ्यताएँ सहज मिलतीं थीं. भले ही इनका मूल
उद्देश्य व्यापारिक लाभ रहा हो? भारत के प्रारंभिक काल के अवशेषों से और प्राचीनतम
सभ्यता के विकास के साक्ष्यों से यह स्थापित होता है कि, कैसे हमारे देश का अन्य
एशियाई व यूरोपीय देशों के साथ घनिष्ठ व्यापारिक-व्यावसायिक विनमय का सम्बन्ध था?
इन पारस्परिक सम्बंधों की जड़ें जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है, पशुचारिता के काल
से न केवल चली आयीं हैं अपितु, समय के साथ सशक्त, समृद्ध और संवर्धित भी होतीं
रहीं हैं!
भारत में
व्यापार-व्यवसाय के जल (सामुद्रिक एवं नदी-जल) तथा स्थल मार्गों ने न केवल हमारे
राष्ट्र के बाह्य व आतंरिक व्यापार को द्रुत गति ही प्रदान की अपितु इन पारस्परिक
विनमय के क्रम को भी जारी रखा, जिसके परिणामस्वरूप हमें अपनी भाषा/ओं में भी
समय-समय पर नए विकास देखने को मिलते हैं. भारत में भाषा के विकास का दूसरा महत्वपूर्ण
चरण हमें संस्कृत, प्राकृत व पाली के बाद अर्ध-पैशाचिक से ले कर, मागधी, सौरसेनी के
विकास के रूप में दृष्टिगोचर होता है! इस भाषिक विकास के पीछे भी उत्तरापथ व
दक्षिणापथ के व्यापार-व्यवसाय को ही हम उत्तरदायी पाते हैं. इसके बाद भारत में जब
साम्राज्यों का काल आया तब अनेकानेक प्रशासनिक, राजनीतिक कारणों से पूरे देश में
एक एकीकृत सी सरकार व राज्य हो गया. इसी के चलते, देश भर में भाषिक एकता के सूत्र न
केवल मजबूत हुए अपितु समृद्ध भी हुए! इन व्यापारियों को धन-लाभ हेतु वा व्यापारिक
हितों के लिए भाषाओँ की समानता का अभिप्राय स्पष्ट हुआ होगा? अतः
राजनीतिक-प्रशासनिक के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों व कारकों ने इस भाषिक
एकता को बल दिया!
इस के बाद के समय
में हर्षवर्धन ने जब अपनी राजधानी ही थानेश्वर से कन्नौज की तब व्यापार मार्ग और
गंगा-घाटी की ओर खिंच आया तथा इस परिवर्तन ने ही भावी ‘हिंदी-पट्टी’ या ‘मध्य-देश’ के निर्माण की
पृष्ठभूमि तैयार कर दी? और, ज़ाहिर है जब भाषा-संगम का क्षेत्र व केंद्र भारत के
पूर्व की ओर खिसका तब व्यापार मार्ग भी राजनीतिक, प्रशासनिक कारणों से इसी दिशा
में अग्रसर हुआ! अतः इन परिस्थितियों और विकास-प्रकरणों में हमें हिंदी के विकास
को नए सिरे से समझने की ज़रुरत है! हर्षवर्धन की पुल्केसिन III द्वारा पराजय से
भी उत्तर-दक्खन-दक्षिण का अंतर्संबंध समाप्त नहीं हुआ, क्यूंकि यह राजनीतिक कम,
सांस्कृतिक व आर्थिक आधार (व्यापार-व्यवसाय) पर अधिक निर्भर था! अतः भाषिक एकता
में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ! इसके पश्चात
हमें कन्नौज पर गुर्जर-प्रतिहारों के राजनीतिक प्रभुत्व के काल में यह
भाषिक एकता का भाव स्पष्टतः और अधिक सशक्त रूप में दृष्टिगोचर होता है. वैसे तो इस
वंश के नाम से भी बहुत सी बातें स्वतः स्पष्ट हो जातीं हैं. ये शासक मूलतः उसी
गुजरात के क्षेत्र से आये थे, जो दक्खन का भाग हो कर, उत्तर-दक्षिण के मध्य का
संधि-स्थल था और, इसी लिए समग्र भारत का यही संस्कृतक सम्मिश्रण का भी क्षेत्र था!
हर्षोत्तर काल के
सामंतवाद के दौर में राजनीतिक एकता का पतन और छोटी-छोटी राजनीतिक इकाईयों की
उत्पत्ति ने राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक एकता को प्रतिकूल रूप
से प्रभावित किया था! इसी के परिणामस्वरूप स्थानीय बोलियों के काल का उद्भव
अपरिहार्य हो गया! किन्तु इसी दौर में इन अव्यवस्थाओं के चलते वैदिक वांग्मय से
प्रारम्भिक पौराणिक काल तक के भक्ति के विकास को भी एक झटका लगा. किन्तु, चूंकि
व्यापार समुन्नत व समृद्ध था, अतः यह विकास क्रम उत्तर से दक्षिण की ओर विस्थापित
हो गया. शेष सभी समानताएं होने के चलते और उत्तरापथ व दक्षिणापथ के इस सशक्त
माध्यम से ही यह विकास-क्रम अपना अगला चरण वहीं दक्षिण में पूर्ण करता है और इसी
के साथ दक्षिण की भाषिक परंपरा भी आमफ़हम या संवाद की भाषा को और समृद्ध कर गयी.
(देखें, तारा चंद, इन्फ्लुएंस ऑफ़ इस्लाम आन इण्डियन कल्चर, ...) इसी के साथ, दक्षिण में इस्लाम और इसाई धर्म की
उपस्थिति ने न केवल भक्ति आन्दोलन को सुनिश्चित किन्तु उसे एक नया रूप ही प्रदान
किया. इसी के साथ देश की संपर्क भाषा को अन्य भाषाओँ के संवाद व विनमय के चलते भी
समृद्ध किया होगा! हमें स्मरण रखना है कि ये भाषाएँ क्रमशः अरबी-फ़ारसी-तुर्की के
साथ पुर्तगाली-फ्रेंच-अंग्रेजी आदि थीं, अर्थात ये सब भी भारोपीय ही थीं! अतः एक
ही उद्गम वाली भाषाओँ का यह मात्र पुनर्मिलन भर साबित हुआ, इसी लिए भाषिक साम्य का
अध्ययन या सामान्य जानकारी दिलचस्प, आश्चर्यजनक और अपरिहार्य भी प्रमाणित हुआ!
II
जैसा हम ऊपर देख
ही चुके हैं कि, ये भाषाएँ जो अब देश के दक्षिण भाग में इस सांस्कृतिक भक्ति
आन्दोलन को समृद्ध कर रहीं थीं, वे एक ही परिवार की भाषाएँ थीं, जिन्होंने
प्रारंभिक काल में एक ही उद्गम-बिंदु से निकल कर अलग-अलग लम्बी विकास-यात्राएं
पूर्ण की थीं और अब वे स्वयं भाषिक समानताएं देख कर भाष-वैज्ञानिक ढंग से न केवल भक्ति
के विकास अपितु भाषाओँ की समानताओं पर भी अध्ययन-विश्लेषण को बाध्य हुए थे! उन्हें
समझ आने लगा था, कि, ये समानताएं मानव-विकास क्रम में किसी मोड़ पर पृथक हो जाने के
बावजूद बीज रूप में एक होने के कारण ही समान प्रतीत होती थीं? किन्तु, बाद के
समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, विद्वानों ने इस भक्ति पर कभी इस्लाम (युसूफ हुसैन)
के तो कभी इसाई मत (वेस्टकोट) से प्रभावित होने का दावा किया. अकेले आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने जब अपने वृहद अध्ययन से स्थापित किया कि, “भक्ति का स्वरुप
बारह आने वैसा ही रहता........” अर्थात, इन धर्मों का प्रभाव सिर्फ २५%
ही था, किन्तु यदि हम तारा चंद का बारीकी से अध्ययन करें तो वे स्वतः ही स्पष्ट कर
देते हैं कि भक्ति आन्दोलन तो भारतीय विचार का विकसित रूप था. आखिर वे सूफ़ीवाद के
विकास-क्रम के विश्लेषण में हमें बताते तो हैं कि कैसे वैदिक वांग्मय से लेकर
उपनिषद् चिंतन का प्रभाव यूनान के माध्यम तक मध्य-पूर्व तक पहुंचा था और उसी ने
इसको जन्म दिया था! (देखें, तारा चंद,....)
आईये हम उस
प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें जिसमें भारत में उस परिवेश का निर्माण संभव हुआ
था, जिसके फलस्वरूप आचार्य द्विवेदी ने उक्त अवधारणा दी थी. वस्तुतः पूर्व मध्यकाल
की शुरुआत में ही इस सामंतवाद के चलते अमीरों ने ग्रामों की और रुख किया था. ज़ाहिर
है, जब अभिजात्य ग्राम्य-जीवन की ओर किसी भी कारण से आकृष्ट हुए तब उनका समस्त
ध्यान उधर ही केन्द्रित होना स्वाभाविक ही था. इस मध्यकालीन सामंतवाद में अगर
ढ़ेरों अवगुण थे तो एक विशेषता भी थी. इसने कृषि की ओर ध्यानाकर्षण के माध्यम से
कृषि-उत्पादन के साथ कुटीर उद्योग को भी प्रोत्साहित किया! जब कृषि पर अतिरिक्त
ध्यान गया तब ‘कृषक अतिरेक’ (‘एग्रीकल्चरल
सरप्लस’) स्वाभाविक परिणति थी. और, यह एक स्थापित आर्थिक तथ्य है
कि जब ‘कृषक अतिरेक’ होगा तब उसका सहज
परिणाम पुनः ‘शहरीकरण’ के रूप में उभरता है. जब सामंतवाद के
चलते, व्यापार-व्यवसाय का ह्रास हुआ था, तब श्रेणियाँ (‘गिल्ड्स’) निष्प्रभावी
हो कर उत्तर भारत में अपना अस्तित्व ही खो बैठीं! इसने दो प्रकार की प्रक्रियाओं को जनम दिया. जहां एक ओर, पुनः शहरीकरण की परिस्थितियों का निर्माण किया. वहीं,
दूसरी तरफ, श्रेणियों का स्थान परिवारों पर आधारित ‘पेशेवर
समूहों/समुदायों’ ‘प्रोफेशनल ग्रुप्स/कम्युनिटीज’ ने ग्रहण कर
लिया. ये ही समूह/समुदाय अंततः ‘जातियों’ या ‘ऑक्यूपेशनल
कास्ट्स’ में परिवर्तित हो गये. इसका वृहद अध्ययन प्रोफेसर
बी.एन.एस. यादव ने अपने ग्रन्थ, “सोसाइटी एंड कल्चर ऑफ़ नॉर्थन इंडिया इन द
ट्वेल्फ़्थ सेंचुरी” में किया है.
जिस प्रकार वंशीय
उत्तराधिकार का सिद्धांत राजनीतिक समूहों और सामंतवाद को उपसामंतता का स्वरुप
प्रदान करवा रहे थे, वे ही पेशेवर समूहों को ‘कर्म/पेशे आधारित
जातियों’ में तब्दील होने लगे. ये पेशेवर समूह, परंपरागत
वर्ण-व्यवस्था में स्थान प्राप्त कर नहीं सके थे, अतः उन्हें लगा कि उनके साथ
सामाजिक न्याय नहीं हो रहा है. वे भारतीय समाज में अभूतपूर्व व अमूल्य समाजार्थिक
योगदान दे रहे थे. उनके बिना कोई उपयोगिता के कार्य सम्भव ही नहीं थे, किन्तु वे ‘अन्त्यज’ के अंतर्गत रखे
जाते थे. अतः अपने समाजार्थिक अंशदान के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत स्थान
व प्रतिष्ठा प्राप्त न करने के कारण उन्होनें ‘वर्ण व्यवस्था’ के समानांतर ‘जाति व्यवस्था’ को जन्म दिया! इस
प्रकार वे अपने पेशे के हितों को सुरक्षित व निरंतर विकसित करने में समर्थ हो गये.
‘जाति व्यवस्था’ या जातियों के इस
उत्कर्ष ने उन्हें अपनी स्वाभाविक पहचान और अस्मिता प्रदान कर दी! इसीलिए रैदास
स्वयम को ‘चमार’ और कबीर खुद को ‘जुलाहा’ घोषित करते हुए
स्वाभिमान और समाजार्थिक महत्व की अनुभूति करते थे! उन्हें इस तरह के उद्घोष करने
में निश्चित ही अपने पृथक व संप्रभु अस्तित्व के चलते गर्व का अनुभव हुआ होगा! वे
निठल्ले जन्मना अभिजात्य नहीं अपने श्रम से अर्जित प्रतिष्ठित हैं?!
इसमें दो राय नहीं
हो सकती कि इन (तथाकथित अन्त्यज) वर्गों की महिलाओं के योगदान को भी नहीं भुलाया
जा सकता. महिलाओं की जागृति से ही समाज में वास्तविक चेतना का उद्भव व प्रसार होता
है. मानव के समाजीकरण का पहला चरण ही मान की गोद में संपन्न होता है, अतः महिलाओं
का जागरण इस दृष्टिकोण से सामाजिक गतिशीलता और परिवर्तिन के लिए अपरिहार्य ही होता
है. अतः इन ‘अन्त्यज’ वर्गों की महिलाओं की अपने-अपने पेशों
में पुरुषों के साथ सहभागीदारी, जहां उनके सक्रिय समाजार्थिक अनुदान का प्रमाण है
वहीं वह उनकी जागृति के साथ ही पीढ़ियों की जागृति का प्रभावी कारक हो जाता है!
उदाहरण के लिए हमें समकालीन देशज (बोलियों के) साहित्य में धोबी के साथ धोबिन;
कलवार के साथ ही कल्वारिन; माली के साथ मालिन; भटियारे के साथ भटियारिन के उल्लेख
निरंतर मिलते हैं....... बल्कि भरे पड़े हैं? वर्ण-व्यवस्था में जबकि महिलाओं की
कोई विशेष भूमिका कहीं भी निर्धारित नहीं थी, वहीं उसके समानांतर जन्मी इस
जाति-व्यवस्था में उनका अपने पुरुष-वर्ग के साथ बराबर की भागीदारी उन्हें बराबरी
के दर्जे का हक़दार बनाते हुए, एक नयी सामजिक जागरण का लक्षण तो था ही! अतः ज़ाहिर
ही है, इस वर्ग की महिलाओं की सक्रियता के चलते इस वर्ग में न तो पर्दा-प्रथा थी
और न ही संभव हो सकती थी? इस तरह सामंती-प्रथा में जो संकीर्ण विचार थे, वे इनकी
समाजार्थिक सक्रियता के चलते शिथिल पड़ने लगे? तुर्की आक्रमणों ने हालांकि, इस
प्रक्रिया में एक गति-अवरोधक का काम ही किया, क्योंकि, युद्ध के प्राचीन-मध्यकालीन
आचरण में महिलाओं को किसी ‘ट्रॉफी’ की तरह ही अर्जित
किया जाता था?
इसी सामाजिक
जागृति ने अब अन्य क्षेत्रों, यथा सामजिक-धार्मिक आयाम में भी परिवर्तन को हवा दी.
और, इसके फलस्वरूप, अब वे पुरातन वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत सर्वोच्च स्थान प्राप्त
ब्राह्मण/पुरोहित के इस सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक के प्रभुत्व को भी नकार रहे थे
और उनका स्थान, प्रतिष्ठा, पद सब ‘गुरु’ को प्रदान किया
जाने लगा! इतना ही नहीं, उन्होनें उस व्यवस्था को पूरी तरह से नकारने के लिए
पुरोहित के प्रभुत्व वाले धर्म, धार्मिक व्यवस्था, रस्मों, रीति-रिवाज़ों और
अनुष्ठानों को ही नहीं, उनसे सम्बद्ध भाषा अर्थात संस्कृत को नकार कर
पाली-प्राकृत-अपभ्रंश वाली परंपरा को समृद्ध करते हुए स्थानीय बोलियों को ही सशक्त
करना शुरू किया या उस प्रक्रिया को और सशक्त व गतिशील किया! इस प्रकार वे उत्तर
भारत में ‘भक्ति-आन्दोलन’ के उदय के लिए
आवश्यक, अनुकूल एवं उपयुक्त परिवेश निर्मित कर रहे थे! अपने समाजार्थिक अनुदान के
उपरान्त अब वे सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान की पृष्ठभूमि तैयार कर गए! आगे चल कर,
भक्ति-आन्दोलन ने इस प्रक्रिया को और सशक्त किया – दोनों ही
एक-दुसरे के पूरक ही थे! इसी लिए उत्तर भारत में भक्ति-सूफी आंदोलनों के साथ अनेक
पंथों का उद्भव संभव व सहज हो सका!
इसी सामाजिक
परिवर्तन के दौर में एक बात और रेखांकित करने लायक है. यह ‘सामाजिक क्रान्ति’ शांतिपूर्ण थी, न
कोई टकराव न संघर्ष! शांति से ही परिवर्तन भारतीय परंपरा का ही अनुपालन किया!
भारतीय परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता ही है, “सातत्य के साथ
शांतिपूर्ण परिवर्तन”. इसी लिए प्रारम्भिक मार्क्सवादियों
सहित अनेक पाश्चात विद्वानों ने भारतीय समाज को ‘अपरिवर्तनीय/
अपरिवर्तनशील’ या ‘स्टेटिक’ घोषित किया था.
यह तो सय्यद नुरुल हसन, सतीश चन्द्र, बी.एन.एस.यादव, रोमिला थापर आदि के आधुनिक
शोधों ने स्थापित कर दिया कि भारतीय समाज सदा परिवर्तनशील और संक्रमणशील था!
किन्तु यह परिवर्तन सातत्य के साथ होता था, अतः वे प्राचीन भारतीय आदर्शों के
अनुसार ही शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पक्षधर थे!
इसी आलोक में हम
पाते हैं कि, स्थानीय बोलियों का विकास अब उत्तर भारत में भक्ति के चलते और गतिवान
होता है. इन विचारकों, संतों को अपनी बात जन-जन तक प्रचारित करने के लिए उनसे
संवाद बनाने के लिए स्थानीय बोलियों का सहारा लेना पड़ा! किन्तु, सामंतवाद के
फलस्वरूप पृथक राजनीतिक इकाईयों में विभक्त यह पूरा भू-भाग वस्तुतः एक ही सामाजिक.
सांस्कृतिक, आर्थिक थाती की संवाहक थी अतः वे पुनः एक नयी सी भाषा को जन्म देने की
पृष्ठभूमि तैयार करने लगे! यही भाषा स्थानीय, अवधी, बुन्देलखंडी, मैथिली, भोजपुरी,
ब्रज-भाषा के संगम से उबरने को थी. तभी इसमें एक बार तुर्की सत्ता की स्थापना के
साथ पुनः एशियाई भाषाओं का एक और तड़का या छौंक लगा जिसने इस भाषा को न केवल एक नया
रूप प्रदान किया अपितु नया नामकरण, “हिन्दवी” भी प्रदान किया!
इस पूरे विकास-क्रम को सुल्तनत-कालीन राजनीतिक-प्रशासनिक एकता ने इस भाषा के विकास
को सुदृढ़ता प्रदान की और फिर मुग़ल काल में तो यह फलने-फूलने लगी और अकबर-कालीन
कवियों में इस भाषा के कवियों का भी बहुत सम्मान होने लगा था, जैसा,
अरबी-फ़ारसी-तुर्की-संस्कृत कवियों का था! उन्हें भी समान रूप से ही राजाश्रय प्रदान
किया गया और यह क्रम न केवल उत्तरोत्तर विकसित ही हुआ, अपितु और अधिक संपन्न व
समृद्ध ही हुआ!
जैसा हम शुरू से
कह रहे हैं, इस भाषा का विकास ही उत्तरापथ और दक्षिणापथ के व्यापार मार्ग के चलते
और व्यवसायिक विनमय के कारण और समृद्ध हुआ था, उसी क्रम में अलाउद्दीन खल्जी के
शासन काल के बाद उत्तर-दक्खन-दक्षिण के एकीकरण के चलते और सशक्त हुआ! उसी प्रकार
इस काल में भी इस राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक एकीकरण ने दक्खन में “रेख़ता” को जन्म दिया, जो
वस्तुतः “हिन्दवी” का दक्खिनी स्वरुप या संबोधन ही था – दोनों की विरासत
एक सी ही थी! और इसी लिए, उत्तर-दक्खन-दक्षिण को एक सूत्र में ये भाषा बांधे रही!
रही-बची कसार सूफी-भक्ति आंदोलनों के संतों, भक्तों, मतों-सम्प्रदायों के
प्रचारकों ने पूरी कर दी और हिंदी के विकास की भूमिका और परिवेश अब तैयार हो चुका
था! जिस भाषा को हम ‘आधुनिक हिंदी’ संबोधित करते
हैं, उसके विकास-क्रम की इस पूरी प्रक्रिया
को समझने के बाद आईये उसके एक साक्ष्य या प्रमाण पर भी दृष्टि डाल ली जाए? यह
प्रकरण चंदेल शासक विद्याधर और उसके राज्य पर गज़नी के महमूद से संबद्ध है!
महमूद ग़ज़नी ने
१०१९ में बुन्देल शासक, विद्याधर की राजधानी खुजराहो पर धावा बोला. किन्तु, वह
दुर्ग भेदने में असफल रहा और एक संधि कर के संतुष्ट हो कर वापस लौटा. किन्तु, उसके
मन में यह फाँस धंसी रह गयी और उसने पुनः तीन वर्ष पश्चात १०२२ में विद्याधर के
खिलाफ मोर्चा खोल दिया. विद्याधर ने कालिंजर के दुर्ग को अभेद्य बना कर वहीं
सफलतापूर्वक इस दुर्दांत आक्रमणकारी का प्रतिरोध करने का निश्चय किया! दोनों को ही
समझ आने लगा था कि यह युद्ध भी निर्णायक नहीं हो सकता! इतनी लम्बी चली घेरेबंदी से
दिक्कत तो होनी तो स्वाभाविक ही थी. दुर्गवासियों के साथ-साथ पूर्ण राज्य के ऊपर
ही संकट के बादल मंडरा रहे थे. और अनिश्चित काल के लिए दुर्ग को आपूर्ति-संकट से
भी नहीं बचाया जा सकता था. अतः व्यवहारिक समझदारी दिखाते हुए, विद्याधर ने महमूद
ग़ज़नी के पास “पद्यात्मक हिंदी” में एक
संधि-प्रस्ताव लिख भेजा. इस काव्यात्मक आवेदन, जिसे महमूद का आधिकारिक इतिहासकार, “लुघ्हत-ऐ-हिन्दुवी” में लिखा हुआ
बताता है. अबू सईद अब्दुल हय बिन अद-दहक बिन मोहम्मद गर्देज़ी ने “किताब-ज़ैनुल-अखबार” (जो १०४९ में
पूर्ण हुयी). वह लिखता है कि, आम हिन्दुस्तानियों की भाषा में लिखी गयीं ये
पंक्तियाँ महमूद अपने शिविर के कवियों व विद्वानों को दिखता है. तत्पश्चात अपने
उत्तर में वह उसके द्वारा रचित पद्यात्मक पंक्तियों की प्रशंसा भी करता है! इससे
स्पष्ट हो जाता है, कि, भाषा अवरोध नहीं अपितु संवाद का माध्यम बन रहा था! यह तभी
संभव था जब हम ऊपर वर्णित इति-क्रम को तार्किक ढंग से समझें हों?
इस पूरे प्रकरण से
दो बातें स्पष्ट हो जातीं हैं. एक, कि महमूद की सेनाओं में ऐसे विद्वान् मौजूद थे,
जो इस संपर्क भाषा से भली-भांति परिचित थे. यानी यह भाषा व्यापार आदि के चलते
एशिया के क्षेत्रों तक तो विस्तृत हो चुकी थी! दूसरी बात, यदि बुन्देली भाषा में
१०२२ में सुन्दर पद्य की रचना हो रही है तो स्पष्टतः ही यह भषा के परिपक्व काल का
ध्योतक ही है. यह भाषा अनेक शताब्दियों से फल-फूल रही होगी, जो अब सांस्कृतिक व भाषिक
परिपक्वता के दौर में साहित्य और उसमे भी कविता की भाह्सा बन चुकी थी? मध्यकालीन
इतिहासकार फ़रिश्ता हमें इस प्रकरण का वर्णन करते हुए बताता है कि, महमूद ने
विद्याधर द्वारा संप्रेषित पद्यात्मक पंक्तियाँ अपने शिविर में उपस्थित अरब, फारस,
एवं ‘अन्य’ देशों के
विद्वानों को दिखाई/पढवाई थी. यानि इन तमाम देशों के विद्वान लोग हमारी भाषा से
अभिज्ञ ही नहीं निष्णात थे! इसी लिए गज़नी राज्य के महमूद के उत्तराधिकारियों के
काल में भी इस भाषा को उसके राज्य में राजाश्रय प्राप्त रहा! उसके पौत्र, इब्राहिम
के दरबार में मसूद बिन सा’द (मृत्यु, ११२१ या ११३०) नामक कवि था,
जिसके दीवान में ‘अरबी’, ‘फ़ारसी’ और ‘हिन्दुवी’ भाषा के पद्यों
का संकलन है! इस दीवान की भूरि-भूरि प्रशंसा स्वयं अमीर खुसरो (१२५३-१३२५) ने की
है. हम तो यह भी कह सकते हैं कि, कवि मसूद की परम्परा को ही अमीर खुसरो ने बढाया
और समृद्ध किया. निश्चित ही मसूद के काल के डेढ़ सौ वर्ष बाद यह ‘संपर्क भाषा’ जिसे वे विदेशी “लुग्घत-ऐ-हिन्दुवी” या “हिन्दवी” कह रहे थे,
विभिन्न भाषाओँ के विनमय से और सशक्त ही हुयी होगी, जिसे फिर अमीर खुसरो जैसा
फ़नकार मिला! अपने गुरु, निज़ाम-उद्दीन औलिया की मृत्यु पर उसके प्रसिद्द उदगार की
पंक्तियाँ, “गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केश/ चल खुसरो घर आपने अब रेन
भाई चहुँ देश”, अपने-आप में इस बात का ध्योतक है कि, ह्रदय-स्पर्शी वेदना
और भावना की अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार सबसे सशक्त और दिल के नज़दीक भाषा के माध्यम
से करता है! निश्चित ही हम कह सकते हैं कि, अमीर खुसरो के काल तक ‘हिंदी’ अपना स्थान
अर्जित कर चुकी थी!
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हिंदी भाषा की ऐतिहासिक यात्रा पर हेरम्ब जी का अद्भुत लेख पढ़ा। दिन सार्थक हुआ ।लेखक को बधाई।
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