उमाशंकर सिंह परमार का आलेख “मैं मोम हूँ मुझे छूकर नहीं देखा”
कैलाश गौतम |
कैलाश गौतम का नाम आते ही उनकी वह बेलौस हँसी याद आती है जो पूरी तरह निश्छल हुआ करती थी। इस मामले में हम खुशनसीब हैं कि हमने गौतम जी की वह हँसी अपने आँखों देखी थी। निराला के शब्दों में कहें तो उनकी 'वह हँसी बहुत कुछ कहती थी'। कैलाश गौतम वस्तुतः जनता के कवि थे। मंचों की हकीकत जानते हुए भी मंचों से जुड़े हुए थे। सही मायनों में वे जन कवि थे। जनता का दुःख-दर्द, जनता का जीवन अपने रुखड़ अंदाज में वहाँ साफ़-साफ़ दिख जाता है। दुर्भाग्यवश वे आलोचकों की फेहरिश्त से बाहर ही रहे या यूँ कहें कि 'बाहर कर दिए गए'। लेकिन इस तेवर का कवि आलोचकों की चिन्ता करे भी तो क्यों? ऐसे ही तेवर वाले जन-कवि कैलाश गौतम के गीतों पर एक आलोचकीय नजर डाली है उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं उमाशंकर का यह आलेख 'मैं मोम हूँ मुझे छू कर नहीं देखा'।
“मैं मोम हूँ मुझे छूकर नहीं देखा”
(सन्दर्भ : कैलाश गौतम के गीत)
(सन्दर्भ : कैलाश गौतम के गीत)
उमाशंकर सिंह
परमार
किसी ने कहा था 'शौक ए दीदार अगर है तो नजर पैदा कर'। इसका आशय है कि व्यक्ति किसी वस्तु या घटना को किस रूप में
ग्रहण करता है यह उसके नजरिए पर निर्भर करता है। अर्थात जैसा दृष्टिकोण होगा वैसे ही
घटनाओं को हम देखते हैं। दृष्टिकोण बहुधा विचारों पर निर्भर करता है। यदि विचार
वैज्ञानिक व तर्कसंगत हैं तो वस्तु या घटना के परिप्रेक्ष्य में हमारा नजरिया
परिपक्व होगा व रचनात्मक सरोकारों से पूर्ण होगा। यदि विचार अतार्किक, अवैज्ञानिक
और अन्धविश्वासपूर्ण हैं तो हम वस्तु या घटना के प्रति गलत बोध अर्जित करेंगे।
किसी कवि या लेखक की रचना-प्रक्रिया तय करने में दृष्टिकोण का बडा योगदान होता है।
दृष्टिकोण यथार्थ को ग्रहण करके उसके रचनात्मक पहलू को 'कला' या 'कविता' के रूप में बदलने की सृजनात्मक उत्प्रेरण
का काम करता है। कवि या लेखक समाज से अव्यवस्थित संवेदनाएं ग्रहण करता है पर उन्हें
अपने विचारों और नजरिए से सुव्यवस्थित कर देता है। यही सुव्यवस्थित संवेदनाएं
ज्ञान कहलाती हैं, जिनका उपयोग रचना में किया जाता है। कवि की संवेदना यदि
काल्पनिक नहीं है तो वह रचना अवश्य प्रभावी होगी। यथार्थ रचना को सामयिक बनाता है।
सामयिक सापेक्षता किसी भी कवि के लिए जरूरी मूल्य है इस मूल्य के अभाव कविता और
कवि दोनों छद्म की श्रेणीं में आ जाते हैं। कहने का आशय है कि यथार्थ, दृष्टि, और समय सापेक्षता
तीनों तत्व आपस में अन्तर्सम्बन्धित हैं। एक का अभाव दूसरे से पृथक कर सकता है। यही
तीनों तत्व किसी कवि की प्रतिबद्धता, लोकधर्मिता, का निर्धारण करते हैं। विचार यदि लोकधर्मी हैं तो समय
सापेक्षता किसी रचना को मानवता के उद्दात चरित्र का आख्यान बना देती है। प्रगतिशील आन्दोलन से लेकर
अब तक जितने भी जनपक्षीय कवि रहे सब यथार्थवादी रहे। शायद ही किसी ने अयथार्थ
मूल्यों को तरजीह दी हो। हर कवि के अपने रचनात्मक सरोकार रहे हैं। अपने सरोकारों
के तहत ही उनकी कविताएं अपने समय के साथ संवाद करती रहीं हैं।
यदि आलोचकीय
मापदंड वैचारिक सरोकारों से निर्मित हैं तो कवि के मूल्यांकन में गड़बड़ी नहीं हो
सकती है। वैचारिक आयाम युगबोध को तरजीह देते हैं। फार्मेट या शिल्प को तरजीह नहीं
देते हैं। जब रचना में कंटेंट को प्राथमिकता देना आज की जरूरत है तो शिल्प के स्तर
पर प्रभावी कंटेंट को नकार देना कहां तक उचित है। हमारी जरूरत कंटेंट है। वह किसी
भी फार्मेट में आए। यदि कंटेंट समय सापेक्ष व जनपक्षीय नहीं है तो शिल्प के कोई
मायने नहीं है। ऐसी रचना और उसके रचनाकार को खारिज कर देना
चाहिए। परन्तु हिन्दी आलोचना रीतिशास्त्र का विरोध करते-करते अपने द्वारा खुद एक
रीतिशास्त्र गढ बैठी है। वह रीतिशास्त्र है कि कोई भी कवि हो यदि वह गीत और छन्द के मार्फत कविता कह
रहा है तो चाहे उसकी प्रतिबद्धता और युगसापेक्षता कितनी भी स्पष्ट हो वह कविता की जमात से बहिष्कृत कर दिया
जायगा। इस रीतिशास्त्र ने कविता की समीक्षा में संकुचित दृष्टि अपनाई है। विचारों, युगबोध और दृष्टि जैसे आलोचकीय मूल्यों
को नकार कर अब शिल्प के आधार पर कवि होने या न होने का निर्णय दिया जाने लगा है। इसका
प्रतिफल यह हुआ कि बहुत से कवि जिनकी कविता में जनसंवेदना का लोकधर्मी स्वरूप प्राप्त
होता है जिनके गीत जन-जन की जुबान में गाए जाते रहे वह कविता के दायरे में नहीं आ
सकते। यह हिन्दी आलोचना की कमजोरी कहिए या इन कवियों की 'आदत' जो एक दूसरे की मिथकीय शास्त्रावली से बराबर दूर ही रहे।
गोरख पांडेय, कृष्ण मुरारी पहरिया, महेश्वर तिवारी, ओंकार सिंह ओंकार, कैलाश गौतम ऐसे ही कवि रहे जो आलोचकों के
बुर्जुवा रीतिशास्त्र के शिकार रहे हैं। इन पर नहीं लिखा पढा गया। या यूं कहिए कि
ऐसे कवियों को पढने-लिखने के लायक नहीं समझा गया। या तो इन कवियों को सिरे से
नकारा गया है या छोटा-मोटा आलेख लिख कर खानापूर्ति कर दी गयी है। आज जब अनेक छद्म
कविताएं पुरस्कृत होकर साहित्य के ऊंचे पायदान पर विराजमान हो रहीं हैं। जिन्हें कविता
की रचना-प्रक्रिया का भी नहीं पता वो बड़े-बड़े पुरस्कार लेकर चर्चित हो रहे हैं तो
इन कवियों का क्या दोष है? इनकी कविता किसी भी पुरस्कृत बडे कवि की कविता से श्रेष्ठ
है। हर दृष्टिकोण से श्रेष्ठ है। शिल्प की बात छोड दी जाय (क्योंकि शिल्प के स्तर पर तो समकालीन कविता का कोई भी कवि
इस धारा के कवियों के समकक्ष नहीं है)
तो कंटेंट के स्तर
पर भी ये कवि उन्नीस नहीं बैठेंगें बीस ही ठहरेंगे। इस परम्परा के कवियों मे सबसे महत्वपूर्ण
कवि कैलाश गौतम हैं। जनवादी दृष्टि से ग्राम्य संस्कृति और लोकाचारों का जितना
यथार्थवादी व लोकधर्मी विवेचन इस कवि ने किया है वह किसी भी प्रतिबद्ध कवि से किसी
भी कोण से कमतर नहीं है। कैलाश गौतम आकाशवाणी इलाहाबाद में नौकरी करते थे। वहां से
सेवानिवृत्त होने के बाद हिन्दुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष बने। इसी पद पर रहते हुए
९ दिसम्बर २००६ को इनका देहावसान हो गया। इन्होंने हरेक विधा पर अपनी कलम चलाई कुछ
रचनाएं प्रकाशित हुईं और कुछ रचनाएं अप्रकाशित रह गयीं। प्रकाशित रचनाओं में कविताएं अधिक
प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने इनके गीत सुने हैं वह कभी इनकी वाचन शैली भूल नहीं सकते
हैं। इनका व्यक्तित्व आकर्षक और मिलनसार था। अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं
का जितना विश्वास इस कवि ने कमाया शायद उतना विश्वास और प्रेम कोई दूसरा अर्जित नहीं
कर सकता है। इनके कविता संग्रहों में कविता लौट पडी, सीली माचिस की
तीलियां, तीन चौथाई आन्हर, सिर पर आग, चिन्ता नये जूते की हैं। कैलाश गौतम ने
बाल कविताओं की भी रचना की जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं तो कुछ अप्रकाशित हैं।
इंडियन प्रेस इलाहाबाद से इनकी सम्पूर्ण रचनाओं का पुन: प्रकाशन होने जा रहा है। अरिन्दम घोष जी ने मुझे बताया था
जल्दी ही बाजार में इनकी कविताएं उपलब्ध होंगी।
कैलाश गौतम की
कविता लोकधर्मी कविता है। लोकधर्मी कविता के सभी मौलिक लक्षण इनकी कविता में
उपलब्ध हैं। विचार, प्रतिबद्धता और संघर्ष के स्तर में कविता उत्कृष्ट है। बस
कमी है तो वही जिसकी मैनें ऊपर चर्चा की है कि इनकी कविता छन्द और लय के अदभुद
बन्धों में बंधी है। केवल छन्द और लयात्मक बन्धों के आधार पर युग के तपते हुए
कंटेंट को खारिज करना गलत है। लयात्मक बन्धों का प्रयोग लोकधर्मी कविता की अपनी खासियत
रही है। त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन के लयात्मक बन्ध सभी ने देखे और पढे होंगे। यदि
लयबद्धता के आधार पर खारिज करना है तो सभी खारिज हो सकते हैं। विजेन्द्र की कविता
में उत्कृष्ट लयात्मक बन्धों का प्रयोग मिलता है। आधुनिक कवियों में केशव तिवारी
की कविता देखी जा सकती है जहां लोक छन्दों की लयात्मक भंगिमा उपस्थित है। लय
लोकधर्मी कविता में मुख्य शैल्पिक आधार है। लोकधर्मी कवि ग्राम्य गीतों, लोकगीतों, परम्परागत छन्दों को अपने विषयानुसार
भाषा से संस्सकारित करके कविता रचता है। कवि का यह प्रयोग उसकी जमीन से जोडकर
यथार्थ का ही विस्तार करता है। यह कोई दोष नहीं है न ही कविता के लिए कोई संकट है
बल्कि जन से जोडने का सहज शैल्पिक उपागम भर है। लय का सबसे बडा विरोध बुर्जुवा
काव्यधारा प्रयोगवाद और नयी कविता ने किया था। पर लय का पूर्णत: विनाश नहीं कर सके क्योंकि लोकधर्मी कविता अपनी जमीन से
पृथक नहीं हो सकती। जब तक वो जमीन से और आम जनजीवन से जुडी है तब तक वो लोगों के
बीच प्रचलित गीतों, छन्दों की लयात्मक भंगिमाएं ग्रहण करती
रहेगी। लयात्मक बन्धों का दुरुपयोग भी हुआ है। बहुत से मंचीय कवि लय के आवरण में
अपनी फूहड कुंठाओं को कविता में तब्दील कर देते रहे हैं। ऐसी कविताओं से कैलाश
गौतम की कविता को अलग देखना पडेगा हालांकि कैलाश भी मंच से गीत गाते थे पर उनकी
चेतना लोकधर्मी थी और वो भी कविता की मंचीय कुरीतियों की तीखी आलोचना करते थे। उन्होंने
एक जगह लिखा है 'कुछ गीतकारों नें गीतों को ऐसा मांजना-भांजना शुरू किया कि वे कवि कम विदूषक ज्यादा हो
गए। उनके गीत भी स्कूल कालेजों की ड्रेस जैसे हो गए।' (भूमिका - कविता लौट पडी)
कैलाश की यह
टिप्पणी उनकी प्रतिबद्धता को जाहिर कर देती है कि उनके गीतों में लय का आशय क्या
था। उनके यहां लय केवल कविता को कविता बनाए रखने का आग्रह था उसमें वो किसी भी
प्रकार की कलाकारी, कसीदाकारी के खिलाफ थे। उन्होंने आगे
लिखा है 'वे रचनाकार ज्यादा श्रेष्ठ हैं जिन्होने
हर तरह की छींटाकशी एवं आंच को सहते हुए अपने को सक्रिय बनाए रखा और प्रकाशन से
लेकर मंच तक गीतों को न केवल जीवित रखा बल्कि उसके माध्यम से मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं, व संकल्पों को जनमानस में नये सिरे से
स्थापित किया (भूमिका -कविता लौट पडी)। इस स्वीकारोक्ति के बाद इस बात की गुंजाइश कम रह जाती है कि
कैलाश गौतम किस तरह की कविता के समर्थक थे। उनकी प्रतिबद्धता मानवीय मूल्यों के
प्रति थी न कि धार्मिक और अन्य अयथार्थ मूल्यों के प्रति। उनकी कविता का लक्ष्य जनमानस को प्रभावित करना था। जनता में
मानवीय मूल्यों के प्रति लगाव उत्पन्न करना था। उनके मानवीय मूल्य उनकी कविता में
उपस्थित हैं। उनको वही मानवीय मूल्य स्वीकार थे जिनकी स्थापना के लिए अब तक की
लोकधर्मी काव्य परम्परा ने संघर्ष किया। कैलाश गौतम के रचनात्मक सरोकार लोकधर्मी
कविता के इतिहास में एक अलग सी शिल्पगत नवीनता के साथ उपस्थित
होते हैं।
कैलाश गौतम के लिए
कविता की सार्थकता जीवन के प्रति संवेदना और जनपक्षीयता है। इस सरोकार के लिए वो
किसी भी फार्मेट और भाषा का प्रयोग करते हैं। लेकिन उनकी भाषा और फार्मेट भी उसी
जमीन के हैं जहां से वो जुडे हैं। चन्दौली में पैदा हुए और कर्मभूमि इलाहाबाद रही।
इलाहाबाद उनके साथ जुड गया है। मातृ भाषा भोजपुरी की प्रवाहमयता और इलाहाबादी
विनोदप्रियता दोनों उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। यहीं की भाषा, यहीं के शब्द, यहीं के लोकगीत, यहीं के स्थान, खेत, नदी, बाग, गांव सडक, मेला हाट, थाना, कोट, कचेहरी सब कुछ उनकी कविता में उपलब्ध है। एक प्रतिबद्ध
लोकधर्मी की खासियत होती है कि वो चरित्र का सृजन करता है। बगैर चरित्र के कविता
जनपक्षीय होने में आशंका उत्पन्न करती है लगभग सभी लोकधर्मी कवियों ने चरित्र रचे
हैं। कैलाश की कविताओं में भी चरित्र हैं। ये चरित्र बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे
विजेन्द्र की कविता में हैं। उन्हीं की जमीन का चरित्र है। बिल्कुल गांव का पडोसी
जैसा बोलता ओर आचरण करता। इस दृष्टिकोण से कैलाश गौतम लोकधर्मी कविता के परम्परागत
मापदंडों में भी खरे उतरते हैं। कैलाश की कविता को महज मनोरंजन जैसी अवधारणा कतई
नहीं मानते। जैसा कि मंचीय कवियों के बारे में अक्सर कहा जाता है। कविता उनके लिए
जीवन है वही जीवन का संघर्ष है। कविता ही सरोकार है कविता ही जिजीविषा है। इस
प्रतिबद्धता की बात उन्होने अपनी एक कविता 'कविता मेरी जीवन शैली' में कही है। उन्होंने कहा है
'आलम्बन का आधार यही
यही सहारा है
कविता मेरी जीवन
शैली
जीवन धारा है" (कविता लौट पड़ी)
इस प्रतिबद्धता और
जीवन संवेदना की स्वीकारोक्ति होने के बाद कौन सा तर्क शेष है आलोचकों के पास जो
इस कवि को खारिज करने के लिए गढा जाय। शायद उनका प्रतिपाद्य? पर प्रतिपाद्य को समझने के लिए कैलाश को
युग से जोड कर देखना होगा जैसा कि सभी कवियों को देखा जाता है। यदि युग की पीडाएं, विसंगतियां, विद्रूपता और असंगति कविता मे उपस्थित है
तो कैलाश को मुख्यधारा से वंचित रखने का कोई कारण नहीं बनता है।
कैलाश गौतम की
कविता बुर्जुवा आग्रहों की कविता नहीं है उसका मूल स्रोत है जीवन का यथार्थबोध। इस
यथार्थ के तिक्त अनुभवों को ढोने वाला विशाल जनसमुदाय उनकी कविता का हेतु है। जो
जाने-अनजाने में समय के खतरनाक संकटों को भुगत रहा है। इस त्रासद अवस्था में आम
आदमी की अवस्थिति व्यवस्था के सापेक्ष निर्रथक हो जाती है। इस निरर्थकता के
अन्वेषण में कैलाश केवल बिम्ब बना कर आलोचना नहीं करते बल्कि यहां कैलाश की दृष्टि असंगतियों पर
केन्द्रित हो जाती है। यहीं पर उनकी कविता लोकधर्मी कविता या सामान्य कविता से
पृथक मार्ग अख्तियार कर लेती है। उनकी कविता के केन्द्र में व्यवस्थाजन्य
असंगतियां रहती हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे धूमिल ने अपनी दृष्टि असंगतियों पर
केन्द्रित की है। धूमिल के व्यंग्य से कैलाश का व्यंग्य किसी भी स्तर मे कम नहीं
है। इस असंगति के विवेचन मे धूमिल की भाषा भदेस हो जाती है पर कैलाश की भाषा
लोकभाषा बन जाती है। उदाहरण के लिए गांव को लिया जा सकता है जो कैलाश की कविताओं
में कई जगह आया है। जिस देश में गांव को लोकतन्त्र की आधारभूत ईकाई समझ कर
लोकतन्त्र में रामराज की कल्पना की गयी हो उस गांव पर पहुंचते ही अधिकांश कवि
रोमैन्टिसिज्म का शिकार हो जाते हैं। उनकी नजर में गांव वालों का भोलापन आता
है, गांव की प्राकृतिक खूबसूरती व सुखमय
परिवेश का वर्णन करते वो अघाते नहीं हैं। यहां पर कैलाश गांव में पूंजीवादी व्यवस्था
की सबसे छोटी इकाई के दर्शन करते हैं। आजादी के बाद प्रदूषण की तरह फैली
लोकतान्त्रिक मूल्यहीनता, लालच, स्वार्थपरकता के दर्शन करते हैं। जो आज के गांवों का काला सच है। रागदरबारी
और गोदान के गांव में अन्तर युग और समय का अन्तर है। रागदरबारी का गांव शिवपालगंज
ही कैलाश गौतम का गांव है। वही तिकडम, कमीनगी सब दिखता है।
'गांव गया था
गांव से भागा
जला हुआ खलिहान
देखकर
नेता का दालान
देखकर
मुस्काता शैतान
देखकर
घिघियाता इंसान
देखकर
कहीं नहीं ईमान
देखकर
बोझ हुआ मेहमान
देखकर
गांव गया था गांव
से भागा
(गांव से भागा )
(गांव से भागा )
ऐसा गांव कहीं है हिन्दी
कविता में? अगर है तो रागदरबारी मे है जहां स्पष्ट
रूप से वर्गीय ढांचा भी प्रकट हो गया है। कैलाश गौतम केवल गांव की असंगति पर ही
ध्यान नहीं केन्द्रित करते वो ग्रामीण समाजों मे पू़ंजीकृत वर्गीय भेद भी देख लेते
हैं। जिस चालाकी से जमींदारों ने लोकतन्त्र का पुरोधा होने का ढोंग रचा उससे
भारतीय सामाजिक व्यवस्था मे विशेष फर्क नहीं पडा बल्कि वर्गीय ढांचा जैसा ब्रितानी
काल में था वही रहा। बस शासन का नामकरण नया हो गया। शोषण और जलालत की पद्धतियां
अपरिवर्तित रहीं। सबसे बडा मजाक तो जनतन्त्र के साथ हो रहा है। इस जनतन्त्र को
सामन्तों ने नये हथियार के रूप में प्रयोग किया है। इस जनतन्त्र ने जनता को भीड मे
तब्दील कर दिया है। कैलाश गौतम जैसा सचेत कवि इस असंगति को कैसे अनदेखा कर सकता है
वह शोषण और वर्गीय वर्चस्ववाद का उल्लेख अपनी कई कविताओं में करते हैं। उनकी एक कविता है 'तेज धूप में।' इस कविता में गांव की वर्गीय विंगतियां
और शोषण का नजारा देखिए
'जोता बोया सींचा पाला
बडे जतन से देखा
भाला
कटी फसल तो
साथ महाजन भी
उतरे खलिहान में "
किसान की फसल कटते
देर नहीं कि महाजन भी अपना तगादा लेकर खडे हो जाते हैं। यह गांव आज का सच्चा
हिन्दुस्तानी गांव है। किसानों की आत्महत्याओं को देखते हुए इस स्थिति से कहीं भी
कोई इंकार नहीं कर सकता है। जनता का हक छीन कर बडे धनपति बन चुके जमींदार ही अन्तत: चुनाव लडते हैं। पानी की तरह पैसा बहा कर और जनता को सब्जबाग
दिखा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। शोषण की उपज से धनपति बन चुके और ग्रामीण जनता को धोखा देने वाले कई
चरित्रों का उल्लेख कैलाश गौतम ने किया है इन चरित्रों के आचरण और वैभव देखकर
लोकतन्त्रिक व्यवस्था के प्रति अनास्था का बुनियादी भाव घर कर जाता है। आजादी के
बाद पुराने सामन्तों का नवपूंजीवाद के संवाहक के रूप उदय व्यक्ति और व्यवस्था के
बीच मूल तनावों का कारक रहा है। इस नवोदित वर्ग के चरित्र को कैलाश जी ने अपनी
कविताओं में खूब उतारा है। चाहे महतो हो या गया तिवारी अथवा गौरी ठाकुर ये सभी
व्यवस्था की अव्यवस्थित अवस्था के फासीवादी और शोषित चरित्र बन कर उभरते हैं। ऐसे
चरित्रों ने आजादी और लोकतन्त्र के मायने बदलकर समूची राजनीति को मटमैला कर दिया
है। एक ऐसे चरित्र महतो का वर्णन देखिए।
'खूनी कातिल चोर लफंगे
हर हर गंगे हर हर
गंगे
गूंज रही महतो की
जै जै
महतो मे बहुतों की
जै जै।
(महतो कविता )
(महतो कविता )
यहां महतो
सामन्तवाद का घिनौना चेहरा है जो लोकतन्त्र के इर्द गिर्द फैले पडे हैं। इनके पीछे
हजारों अपराधियों का हजूम है जो महतो की जै जै के साथ अपनी भी उपस्थिति दर्ज कर
अपना भी महत्व जनसेवक के रूप मे दिखा रहे हैं। महतो राजनीति और अपराधीकरण की एक
जीवन्त मिसाल है जो पहली बार अपनी समूची सत्ता को बरकरार रखते हुए कविता में
उपस्थिति है। इसी तरह का दूसरे चरित्र जो गौरी ठाकुर
और गया तिवारी हैं जो इसी लोकतान्त्रिक सामन्तवाद के प्रतीक बन कर कैलाश की कविता
में आए हैं। इनकी जमीन कवि ने अपनी जमीन मे दिखाई है इनकी सत्ता कवि की कर्मभूमि
है। ऐसे नेता केवल इलाहाबाद या हंडिया का चरित्र नही बयां करते अपित समूची हिन्दुस्तानी राजनीति का चरित्र बयां
करते हैं।
'गौरी ठाकुर गया तिवारी
गांव मुरैना पोस्ट
भिखारी
हंडिया गंगा पार
निवासी
सात साल से काशीवासी
काशी में रंग छांट
रहे हैं
जमकर चांदी काट
रहे हैं
हरदल सिर आंखों पर
रखता
अदभुद है ये
खद्दरधारी ।
(कविता लौट पडी )
(कविता लौट पडी )
चांदी काटना मतलब
लूटना चोरी करना भ्रष्टाचार करना। जनता की कमाई को काली कमाई में तब्दील करना है। ऐसे
ही कर्म आजकल के जनप्रतिनिधियों के हैं। आज भी हमारी व्यवस्था में गौरी ठाकुर और
गया तिवारी समाप्त नहीं हुए हैं बल्कि उदारीकृत लोकतन्त्र में और सबल होकर जनता के
हक पर काबिज हैं। लोकतन्त्र के बैनर तले फल फूल रहे पूंजीवाद की कैलाश गम्भीर और
वाजिब आलोचना करते हैं। उनकी कई कविताओं में पूंजीवाद और लूट का घोर प्रतिरोध किया
गया है। यह प्रतिरोध गांव की जनता के सबसे निकटस्थ संकटों का प्रतिरोध है। शहर से लेकर
गांव तक क्षेत्रीय नेताओं का जो नया बुर्जुवा वर्ग पैदा हो गया है उसने जनता के
हिस्से की आजादी को लूट लिया है। असली आजादी इसी वर्ग की है। आम आदमी की नही है
तहसीलों, कचेहरी, सरकारी दफ्तरों में दलाल के रूप में यही
वर्ग रहता है। यही वर्ग गांव मे महाजनी करता है। यही वर्ग चुनाव लडता है। समस्त
उत्पादन का नब्बे फीसदी पूंजीपतियों के साथ मिलकर यही वर्ग डकारता है। कैलाश गौतम
ने इस वर्ग की आलोचना की है इस वर्ग की पहचान कुछ ही कवि कर पाए हैं। जिन्हें
गांवों में आम की डार में झूला डालना है, जिन्हे खेतों में हरियाली की रंगीन अदाएं देखना है, जिन्हे पेड़ों के पत्तो और बारिश की छम-छम
में मधुरिम संगीत के दर्शन करने हैं, वो इस वर्ग को नहीं पहचान सकते गौरी ठाकुर से वही रूबरू
होगा जो गांव में पिकनिक की दृष्टि ले कर नहीं जाएगा बल्कि वर्गीय दृष्टि लेकर
जाएगा। देश में चाहे गेहूं कम हो चाहे पेट्रोल इस वर्ग को कभी समस्या नहीं रहती।
इसका पेट हमेशा भरा रहता है। इस वर्ग पर चोट करते हुए कैलाश कहते हैं कि
'सौ में दस की भरी तिजोरी
नब्बे खाली पेट
झुग्गी वाला देख
रहा है
साठ लाख का गेट
अन्धी है सरकार
व्यवस्था
अन्धा है कानून
कुर्सी वाला देश
बेचता
रिक्शे वाला खून
(कविता लौट पडी)
(कविता लौट पडी)
ये है भारत का नव
बुर्जुवा वर्ग जो आजादी प्राप्त होने के साथ ही समूची व्यवस्था में काबिज हो गया
है। इस वर्ग के चरित्र को कैलाश गौतम बडे यथार्थवादी तरीके से तर्क के साथ
प्रस्तुत करते हैं। प्रजातन्त्र के प्रति इस रोष को हम 'मोहभंग' या अनास्था कह सकते हैं जो उन्नीस सौ साठ
के बाद कविता का मूल स्वर रहा साठ के दशक में जो मोहभंग मिलता है उस मोहभंग से
कैलाश को अलग नही किया जा सकता। क्योंकि ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों
परिदृश्य विकराल होता गया और मोहभंग अनास्था में बदलता गया। जितने भी मुख्यधारा के
कवि रहे हैं वो सब मोहभंग से अनास्था तक का सफर तय किए हैं। यही मोहभंग और अनास्था
कैलाश में भी है और सर्वाधिक प्रमाणिक तथ्यों व चरित्रों के साथ है तो कैलाश मुख्य
धारा में क्यों नहीं रखे गये यह प्रश्न सालता है।
कैलाश बखूबी समझते
हैं लोकतान्त्रिक अवमूल्यन का शिकार संस्थाएं अब आम जनता के काम की नहीं रहीं
क्योंकी आज का यह संकट जिसे आदमी भुगतने को अभिशप्त है द्वन्दात्मक इतिहास का संकट
है। संस्थाओं का अन्त इनका उपचार नहीं है। वर्गीय अन्त इनका उपचार है। वो कहीं-कहीं तो खुलकर क्रान्ति और
व्यापक परिवर्तनों की बात करते हैं। इस समय वर्गीय वर्चस्ववाद ने ऐसा संकट खडा कर दिया है कि
मनुष्य का अपने आप से ही विश्वास उठ गया है। एक ओर आदमी विकास के मिथ्या दावों के बीच तेजी से पुरातन को
छोड रहा है तो दूसरी ओर नयापन के लिए उसके पास कोई साकार कल्पना नहीं कर पा रहा है। परिस्थितियों ने इस कदर जकड लिया है कि
उसकी चिन्तन पद्धति में बदलाव की उम्मीदें गायब हो चुकी हैं। उनकी कविता 'उतरे नहीं ताल में पंछी' में इस तथ्य की व्यंजना है न केवल इस
कविता बल्कि अपनी कई कविताओं में वो टूटे हुए सपनों की बात करते हैं। टूटे हुए सपने मतलब सारी उम्मीदें टूटकर
बिखर चुकी हैं आदमी त्रासद अकेलेपन से जूझ रहा है। यह अकेलापन साठ के दशक की कविता में खूब
रहा उम्मीदों का हश्र उल्लेख करते हुए वो कहते हैं
'सपने चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
(उतरे नहीं ताल में पंछी)
कैलाश इस परिस्थिति से एक प्रतिबद्ध कवि की तरह निजात चाहते है़। उनकी कई कविताएं आवाहन गीत की तरह है जिनमे जागरण गीत गाते उन्हे देखा जा सकता है। जनता के पक्ष में जागरण गीत गाना हिन्दी कविता की पुरानी परम्परा है। जयशंकर प्रसाद की 'बीती विभावरी अब जाग री'। महादेवी वर्मा का गीत 'जाग तुझको दूर जाना'। निराला का 'अब तो जागो एक बार '। इसी तरह त्रिलोचन, केदार, और विजेन्द्र ने भी जागरण गीत गाए हैं। जागरण गीत वही कवि गाता है जिसका जनशक्ति में अटूट विश्वास होता है और कवि समझता है उसके गीत जन गीत है। जनता के लिए हैं। गीत जनता की सोच में परिवर्तन कर सकते हैं।
'जागो मेरी नींद
जागो मेरी नींद सुहागिन
आज चांदनी में ।
(कविता लौट पडी)।
इस जागरण के अलावा कविता में जनविद्रोह के प्रतीक बादल भी उनकी कविता में मिलते हैं। उनका बादल सौन्दर्यधर्मी नहीं है न किसी किसान ललना के वस्त्र ठीक करके किसी प्रेमी का सन्देश भेजने वाला दूत है। कैलाश का बादल निराला के बादल राग जैसा क्रान्तिकारी व विप्लवधर्मी है। बादल कविता का एक अंश देखिए
'सोच रहा परदेशी कितनी लम्बी दूरी है
तीज के मुंह में बार बार बौछार जरूरी है
मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ न
छमछम और छमाछम बादल राग सुनाओ न।
बादल राग आप समझ रहे होंगें। यह वही बादल राग है जिसे निराला नें सुना था। इसलिए कैलाश निराला का ही शब्द बादल राग प्रयोग कर रहे हैं। एक बादल राग जो 'अस्थिर सुख पर दुख की छाया है।' जो अम्बर में भी राग अमर भर देता है जिसकी गरज से बडे बडे पूंजीपति घबरा जाते हैं। एक ऐसा राग जो बडे बडे परिवर्तनों का सूचक है। कैलाश क्रान्ति या परिवर्तन की बात केवल प्रतीकों में नही करते। वह सीधे सीधे भी परिवर्तनों की प्रस्तावना करते हैं। यह आरोप भी उनपर लग सकता है कि जब क्रान्ति की बात आती थी तो कैलाश छायावादी भंगिमा में प्रतीके सुरक्षित गढ में खडे जाते थे। दरअसल प्रतीकों में बात कहने की परम्परा रही तो उन्होने केवल इस परम्परा को वहन करने के लिए प्रतीकों में बात की। इस बात को वो अपनी कई में अभिधा रूप में भी कहते हैं। जो कवि सबसे अलहदा दृष्टि लेकर अंसगतियों के खुलासों में संकोच नहीं कर सकता वह क्रान्ति में कैसे करेगा। कैलाश ने गीतों के फार्मेट का भी प्रयोग परम्परा के निर्वहन हेतु किया है वो काव्य रुपों में परम्परा और कथ्य में आधुनिक युगबोध लेकर चलते थे। यही उनका अलहदापन है जो सब कवियों से उन्हे अलग कर देता है। यही अलहदापन उनकी पहचान बन गयी है। उनकी एक कविता है 'पनप रहा विद्रोह'। इस कविता में वो आक्रोश की सीमाएं भी तोड देते हैं। वो भी एक नए भाषिक अन्दाज में
'कडिंयां टूट रही कैदी की
अब फाटक भी टूटेगा
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
सबका भांडा फूटेगा
( पनप रहा विद्रोह )
भांडा फूटना मतलब रहस्य उजागर होना है। शोषक और शोषित के मध्य अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव पूर्ण परिवर्तनों का सूचक है। ये भांडा फूटना। कैलाश इस परिवर्तनों पर कतई युटोपियाई नहीं हैं। उन्होंने जनता की चेतना व प्रतिरोध का उल्लेख अपनी कविताओं मे किया है। कहा जाता है कि जब पू़ंजीवाद अपनी चरम अवस्था में होता है तो प्रतिरोध स्वत: जन्म लेता है कैलाश ने एक कविता में इस स्थिति को दिखाया है। आप भी देखिए
'बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा
कहूंगा कहूंगा कहू़गा कहू़गा
कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई
अकेले तुम्ही सब उडाओगे भाई (कविता लौट पडी)
अर्थात अब जनता कहने से चूकने वाली नहीं है। अब हद है पीडाओं का सिलसिला सहते सहते पानी सर से ऊपर हो चला है। यह स्थिति कवि का बयान भर नही मानना चाहिए। इसे जनता की मनोस्थिति से जोडकर देखा जाना चाहिए। यह बयान आम आदमी का है जिससे कवि को उम्मीदें हैं। क्रान्ति का इतना सख्त कवि शायद ही कोई हो जो सीधे सीधे जनता बनकर समूची व्यवस्था को ललकार रहा है। कैलाश जनपक्ष के ही नहीं जनक्रान्ति के भी कवि हैं। पर आश्चर्य है हिन्दी की बुर्जुवा आलोचकीय दृष्टि ने इन्हे क्यों जमात से बाहर कर देने का कुत्सित षडयंत्र किया। शायद उन्होने कैलाश को पढा नही होगा। लोकधर्मी कवि की सबसे बडी विशेषता होती है कि वह अपने 'लोक' की परम्परा रीतियों के साथ साथ चरित्रों का भी उल्लेख करता है। ये चरित्र लोक की विसंगतियों और त्रासदियों के भोक्ता होते हैं। इनके माध्यम से कवि या लेखक अपने सरोकारों की अभिव्यंजना करता है। ये चरित्र ही कवि के वैयक्तिक और सामाजिक सवालों का जवाब देते हैं। सब कुल मिलाकर लोक के अन्दर उठने वाले हर अन्तर्सघर्ष के प्रति कवि की दृष्टि इन चरित्रों में ही समाहित रहती है। कैलाश के चरित्र वर्गीय आधार पर गढे गए हैं अर्थात समाज की वर्गीय विभेदों को ध्यान मे रखते हुए कैलाश गौतम ने चरित्रों का प्रयोग किया है। एक ओर जहां गया तिवारी और गौरी ठाकुर, व महतो जैसे पूंजीवादी सामन्ती चरित्र आए हैं तो दूसरी तरफ संघर्षरत समुदायों के चरित्र भी उपस्थित हैं। संघर्षरत चरित्रों में स्त्री चरित्रों का कैलाश जी ने गजब प्रयोग किया है। प्रयोगकविता और रीतिकविता के स्त्रीवादी विमर्श से अलग चरित्र इनकी कविता मे उपलब्ध हैं। इनके स्त्री चरित्र मेहनतकश समुदाय से हैं जिन पर कवि ने रौमैन्टिसिज्म नहीं देखा न ही जबरिया नखसिख थोपा है। न प्रेम की गहराई मापी। अपितु उनके दैनिक जीवन मे आने वाली दिक्कतों का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत किया है। बडकी भौजी, नौरंगिया, ऐसे ही अलहदा चरित्र हैं। नौरंगिया का चरित्र देखिए और इस पर गौर करिए कि असली जनवादी स्त्री विमर्श कैलाश गौतम मे है कि नहीं। परम्परागत बुर्जुवा स्त्री विमर्श को तार तार करती हुई ये कविता उम्दा चरित्र संस्कार करते हुए स्त्री के प्रति वर्गीय दृष्टि का खुबसूरत रेखांकन करती है
'देवी देवता नहीं जानती
छक्का पंजा नहीं मानती
ताकतवर से लोहा लेती
अपने बूते करती खेती
मरद निखट्टू जनखा जोईला
लाल न होता ऐसा कोईला
उसको भी वो शान से जीती
संग संग खाती संग संग पीती
गांव गली की चर्चा में वह
सुर्खी सी अखबार की है
नौरंगिया गंगा पार की है
(कविता लौट पडी )
ऐसा चरित्र है किसी के स्त्री विमर्श में? अगर है भी तो कैलाश का विमर्श क्या किसी बडे कवि से कम जनवादी है। क्या इसमे संघर्षों की कमी है। उनकी कई कविताओं में भी छोटे छोटे चरित्र आ गए हैं जो विषय की प्रमाणिकता को कफी हद तक सिद्ध कर देते हैं। मुन्ना, बच्चा बाबू, आदि ऐसे ही चरित्र है। एक कविता है कचेहरी जिसमे एक चरित्र का उल्लेख आया है तिवारी। यह तिवारी भृष्ट व्यवस्था का आधुनिक कर्णधार है जो सरकारी आफिसों में निजी रिश्तों और परिचयों को भी ताक मे रखकर जोंक की तरह जनता को चूस रहा है।
'कचहरी हमारी तुम्हारी नही हैं
अलहमद से कोई यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचेहरी की महिमा निराली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
(कचहरी )
बडे से लेकर छोटे हर स्तर के चरित्रों का संस्कार कैलाश जी ने किया है। उनके चरित्र युगबोध की प्रमाणिक अवस्थितियों के साथ उनकी कविताओं में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इस दृष्टिकोण से भी कैलाश किसी भी कवि से कमतर नही ठहरते। अब कवि की भाषा और लयात्मक बंधों पर भी चर्चा हो जाय।
'सपने चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
(उतरे नहीं ताल में पंछी)
कैलाश इस परिस्थिति से एक प्रतिबद्ध कवि की तरह निजात चाहते है़। उनकी कई कविताएं आवाहन गीत की तरह है जिनमे जागरण गीत गाते उन्हे देखा जा सकता है। जनता के पक्ष में जागरण गीत गाना हिन्दी कविता की पुरानी परम्परा है। जयशंकर प्रसाद की 'बीती विभावरी अब जाग री'। महादेवी वर्मा का गीत 'जाग तुझको दूर जाना'। निराला का 'अब तो जागो एक बार '। इसी तरह त्रिलोचन, केदार, और विजेन्द्र ने भी जागरण गीत गाए हैं। जागरण गीत वही कवि गाता है जिसका जनशक्ति में अटूट विश्वास होता है और कवि समझता है उसके गीत जन गीत है। जनता के लिए हैं। गीत जनता की सोच में परिवर्तन कर सकते हैं।
'जागो मेरी नींद
जागो मेरी नींद सुहागिन
आज चांदनी में ।
(कविता लौट पडी)।
इस जागरण के अलावा कविता में जनविद्रोह के प्रतीक बादल भी उनकी कविता में मिलते हैं। उनका बादल सौन्दर्यधर्मी नहीं है न किसी किसान ललना के वस्त्र ठीक करके किसी प्रेमी का सन्देश भेजने वाला दूत है। कैलाश का बादल निराला के बादल राग जैसा क्रान्तिकारी व विप्लवधर्मी है। बादल कविता का एक अंश देखिए
'सोच रहा परदेशी कितनी लम्बी दूरी है
तीज के मुंह में बार बार बौछार जरूरी है
मेरे भीतर भी ऐसा विश्वास जगाओ न
छमछम और छमाछम बादल राग सुनाओ न।
बादल राग आप समझ रहे होंगें। यह वही बादल राग है जिसे निराला नें सुना था। इसलिए कैलाश निराला का ही शब्द बादल राग प्रयोग कर रहे हैं। एक बादल राग जो 'अस्थिर सुख पर दुख की छाया है।' जो अम्बर में भी राग अमर भर देता है जिसकी गरज से बडे बडे पूंजीपति घबरा जाते हैं। एक ऐसा राग जो बडे बडे परिवर्तनों का सूचक है। कैलाश क्रान्ति या परिवर्तन की बात केवल प्रतीकों में नही करते। वह सीधे सीधे भी परिवर्तनों की प्रस्तावना करते हैं। यह आरोप भी उनपर लग सकता है कि जब क्रान्ति की बात आती थी तो कैलाश छायावादी भंगिमा में प्रतीके सुरक्षित गढ में खडे जाते थे। दरअसल प्रतीकों में बात कहने की परम्परा रही तो उन्होने केवल इस परम्परा को वहन करने के लिए प्रतीकों में बात की। इस बात को वो अपनी कई में अभिधा रूप में भी कहते हैं। जो कवि सबसे अलहदा दृष्टि लेकर अंसगतियों के खुलासों में संकोच नहीं कर सकता वह क्रान्ति में कैसे करेगा। कैलाश ने गीतों के फार्मेट का भी प्रयोग परम्परा के निर्वहन हेतु किया है वो काव्य रुपों में परम्परा और कथ्य में आधुनिक युगबोध लेकर चलते थे। यही उनका अलहदापन है जो सब कवियों से उन्हे अलग कर देता है। यही अलहदापन उनकी पहचान बन गयी है। उनकी एक कविता है 'पनप रहा विद्रोह'। इस कविता में वो आक्रोश की सीमाएं भी तोड देते हैं। वो भी एक नए भाषिक अन्दाज में
'कडिंयां टूट रही कैदी की
अब फाटक भी टूटेगा
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
सबका भांडा फूटेगा
( पनप रहा विद्रोह )
भांडा फूटना मतलब रहस्य उजागर होना है। शोषक और शोषित के मध्य अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव पूर्ण परिवर्तनों का सूचक है। ये भांडा फूटना। कैलाश इस परिवर्तनों पर कतई युटोपियाई नहीं हैं। उन्होंने जनता की चेतना व प्रतिरोध का उल्लेख अपनी कविताओं मे किया है। कहा जाता है कि जब पू़ंजीवाद अपनी चरम अवस्था में होता है तो प्रतिरोध स्वत: जन्म लेता है कैलाश ने एक कविता में इस स्थिति को दिखाया है। आप भी देखिए
'बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूंगा
कहूंगा कहूंगा कहू़गा कहू़गा
कहां तक मुझे तुम दबाओगे भाई
अकेले तुम्ही सब उडाओगे भाई (कविता लौट पडी)
अर्थात अब जनता कहने से चूकने वाली नहीं है। अब हद है पीडाओं का सिलसिला सहते सहते पानी सर से ऊपर हो चला है। यह स्थिति कवि का बयान भर नही मानना चाहिए। इसे जनता की मनोस्थिति से जोडकर देखा जाना चाहिए। यह बयान आम आदमी का है जिससे कवि को उम्मीदें हैं। क्रान्ति का इतना सख्त कवि शायद ही कोई हो जो सीधे सीधे जनता बनकर समूची व्यवस्था को ललकार रहा है। कैलाश जनपक्ष के ही नहीं जनक्रान्ति के भी कवि हैं। पर आश्चर्य है हिन्दी की बुर्जुवा आलोचकीय दृष्टि ने इन्हे क्यों जमात से बाहर कर देने का कुत्सित षडयंत्र किया। शायद उन्होने कैलाश को पढा नही होगा। लोकधर्मी कवि की सबसे बडी विशेषता होती है कि वह अपने 'लोक' की परम्परा रीतियों के साथ साथ चरित्रों का भी उल्लेख करता है। ये चरित्र लोक की विसंगतियों और त्रासदियों के भोक्ता होते हैं। इनके माध्यम से कवि या लेखक अपने सरोकारों की अभिव्यंजना करता है। ये चरित्र ही कवि के वैयक्तिक और सामाजिक सवालों का जवाब देते हैं। सब कुल मिलाकर लोक के अन्दर उठने वाले हर अन्तर्सघर्ष के प्रति कवि की दृष्टि इन चरित्रों में ही समाहित रहती है। कैलाश के चरित्र वर्गीय आधार पर गढे गए हैं अर्थात समाज की वर्गीय विभेदों को ध्यान मे रखते हुए कैलाश गौतम ने चरित्रों का प्रयोग किया है। एक ओर जहां गया तिवारी और गौरी ठाकुर, व महतो जैसे पूंजीवादी सामन्ती चरित्र आए हैं तो दूसरी तरफ संघर्षरत समुदायों के चरित्र भी उपस्थित हैं। संघर्षरत चरित्रों में स्त्री चरित्रों का कैलाश जी ने गजब प्रयोग किया है। प्रयोगकविता और रीतिकविता के स्त्रीवादी विमर्श से अलग चरित्र इनकी कविता मे उपलब्ध हैं। इनके स्त्री चरित्र मेहनतकश समुदाय से हैं जिन पर कवि ने रौमैन्टिसिज्म नहीं देखा न ही जबरिया नखसिख थोपा है। न प्रेम की गहराई मापी। अपितु उनके दैनिक जीवन मे आने वाली दिक्कतों का यथार्थ बिम्ब प्रस्तुत किया है। बडकी भौजी, नौरंगिया, ऐसे ही अलहदा चरित्र हैं। नौरंगिया का चरित्र देखिए और इस पर गौर करिए कि असली जनवादी स्त्री विमर्श कैलाश गौतम मे है कि नहीं। परम्परागत बुर्जुवा स्त्री विमर्श को तार तार करती हुई ये कविता उम्दा चरित्र संस्कार करते हुए स्त्री के प्रति वर्गीय दृष्टि का खुबसूरत रेखांकन करती है
'देवी देवता नहीं जानती
छक्का पंजा नहीं मानती
ताकतवर से लोहा लेती
अपने बूते करती खेती
मरद निखट्टू जनखा जोईला
लाल न होता ऐसा कोईला
उसको भी वो शान से जीती
संग संग खाती संग संग पीती
गांव गली की चर्चा में वह
सुर्खी सी अखबार की है
नौरंगिया गंगा पार की है
(कविता लौट पडी )
ऐसा चरित्र है किसी के स्त्री विमर्श में? अगर है भी तो कैलाश का विमर्श क्या किसी बडे कवि से कम जनवादी है। क्या इसमे संघर्षों की कमी है। उनकी कई कविताओं में भी छोटे छोटे चरित्र आ गए हैं जो विषय की प्रमाणिकता को कफी हद तक सिद्ध कर देते हैं। मुन्ना, बच्चा बाबू, आदि ऐसे ही चरित्र है। एक कविता है कचेहरी जिसमे एक चरित्र का उल्लेख आया है तिवारी। यह तिवारी भृष्ट व्यवस्था का आधुनिक कर्णधार है जो सरकारी आफिसों में निजी रिश्तों और परिचयों को भी ताक मे रखकर जोंक की तरह जनता को चूस रहा है।
'कचहरी हमारी तुम्हारी नही हैं
अलहमद से कोई यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है
कचेहरी की महिमा निराली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
(कचहरी )
बडे से लेकर छोटे हर स्तर के चरित्रों का संस्कार कैलाश जी ने किया है। उनके चरित्र युगबोध की प्रमाणिक अवस्थितियों के साथ उनकी कविताओं में अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इस दृष्टिकोण से भी कैलाश किसी भी कवि से कमतर नही ठहरते। अब कवि की भाषा और लयात्मक बंधों पर भी चर्चा हो जाय।
जब तक कवि अपनी
भाषा को रचनात्मक उर्वरा गतिमयता से युक्त नहीं करता तो
कविता पाठक से सीधे संवाद नहीं कर सकती। कैलाश गौतम की
भाषा सबसे अलग है। भाषा के सम्बन्ध में उनकी अपनी रचनात्मक बाध्यताएं भी थी। वो
जनसामान्य के लिए कविता लिखते थे। आम आदमी के बीच सीधे जाकर पढते थे। इसलिए उन्हे पेशेवर काव्य भाषा की जरूरत
नहीं पडी। उनको ऐसी भाषा खोजनी पडी जो जनभाषा बन सके। इसके लिए उन्होने लोकभाषा से
शब्द खोजे हैं। लोकभाषा को कविता संचार की अन्दरूनी भाषा
बनाने का काम कैलाश गौतम ने किया है। उनकी भाषा परिवेश और व्यवस्था मे घिरे हुए आदमी का बखूबी
बयां भी कर देती है। सशक्त भाषा का कविता में वही स्थान होता है जितना कि प्रभावक
अर्थ सम्प्रेषण का महत्व होता है। कैलाश लोकभाषा का प्रयोग बहुस्तरीय ढंग से करते
हैं जिससे विषय की तल्खी व प्रमाणिकता के अतिरिक्त नयापन, चमक, ऊर्जा, सर्जनात्मकता सब गुण समाहित हो गए हैं। कैलाश गौतम के सभी योगदानों अगर नकार कर
केवल भाषा पर ही ध्यान केन्द्रित रखा जाय तो उनकी भाषा ही अपनी गतिमयता, ध्वान्यात्मकता, अर्थगम्भीरता से पाठक को चमत्कृत कर देती
है। भाषा के लिहाज से ऐसे सर्जनात्मक प्रयोग
केवल धूमिल में ही मिलते हैं 'गान्ही जी' कविता की टोन का उदाहरण इस सन्दर्भ में दिया जा सकता है। 'नौरंगिया गंगा पार की है' और बडकी भौजी, अमौसा का मेला, उनकी सर्जनात्मक भाषा के उत्कृष्ट उदाहरण
हैं। इनके अलावा वो शब्द जो आम जन के बीच ही प्रचलित है चाहे वो तत्सम हों या तदभव, देशी हो या विदेशी सभी का कैलाश ने
प्रयोग किया है। 'अन्हेरे, खद्दर, खपरा, चोकर, दालान, फौरन, टिकोरे, पिसान, मसोस, छाजन, भीत, गोजर, जैसे शब्द अपनी
लाजवाब अर्थवत्ता के साथ कैलाश की कविता में उपस्थित हैं।
'बचपन के अलबम में खोई
अगवारे पिछवारे
अमराई ही अमराई
सरसों लदी कियारी
फागुन धूप नहाई है
(कविता लौट पडी)
ऐसी रचनात्मक भाषा के साथ अगर काव्यत्व का सौन्दर्य भी जुडा हो तो कवि को जमात से बाहर घोषित करने का कोई कारण नहीं बनता है। कविता मे लयात्मक प्रवाह का प्रयोग अपने तरह की अनूठी परम्परा है। सम्पूर्ण छायावादी कविता इस लयात्मक संगति भरी है। निराला मुक्त छन्द के जनक कहे जाते हैं उनके मुक्त छन्दों में भी उत्कृष्ट लयात्मक संगति के दर्शन होते हैं। कैलाश छन्द के समर्थक थे। उनकी कविता में प्रयुक्त हुए लयात्मक बन्ध क्लासिकल और लोकछन्द दोनो कोटियों के हैं। इस सन्दर्भ में वो केवल फार्मेट में जकड कर नही बैठ जाते हैं कि छन्द और लय के फेर मे अपने अर्थ की बुनावट को गडबड कर दें। उनकी कविता में लयात्मक संगीत की बुनावट का आधार अर्थ संगीत है। शब्द संगति के साथ साथ अर्थ संगति के मिलने से उनकी कविता सर्वग्राह हो जाती है। केवल शब्द बन्धों के द्वारा हम लयात्मक कारीगरी तो कर सकते हैं पर कविता की सम्प्रेषण क्षमता का नुकसान हो सकता है। ऐसी शब्द संगति के जादूगर रीतिकाल में खूब हुए है। नई कविता में भी बहुत से कवि हुए हैं जो शब्दों के अनावश्यक प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। पर कैलाश ने शब्द संगति को अर्थसंगति के उपर प्रभावी नही होने दिया है अर्थसंगति ही प्रभावी रही है। दूसरी बात उनके शब्द और लयात्मक बन्ध दोनो लोकोपार्जित हैं इसलिए सम्प्रेषण की भंगता का सवाल ही नही खडा हो सकता है। यदि उनके शब्द अभिजन व पेशेवर काव्यभाषा के होते तो एकबारगी अर्थ भंग की रीतिशास्त्रीय परम्परा का दोष उन पर लग सकता था। लगभग सभी लोकधर्मी कवियों की तरह कैलाश ने भी संगीत और लय का आन्तरीकरण किया है। यह लय शब्दों के साथ अर्थ और उनके रचनात्मक सरोकारों में रच बस गयी है। इसलिए कविता सौन्दर्य की पराकाष्ठा पार करके अपने कथ्य को भी गरिमामय प्रभाविकता प्रदत्त करती है।
'तेज धूप में नंगे पांव
वह भी रेगिस्तान में
मेरे जैसे जाने कितने
हैं इस हिन्दुस्तान में।
(तेज धूप में )
इस कविता में रेगिस्तान और हिन्दुस्तान में केवल लयात्मक अन्त्यानुप्रास भर नहीं आया है बल्कि दोनो में अर्थ संगति भी बेहतरीन है। रेगिस्तान का आशय है तपती जमीन। जिसमे नंगे पांव चलना कष्टप्रद है। ठीक वही हालत हिन्दुस्तान में है जिसमे जीवन को सही तरीके जीना कठिन हो गया है। यह बिम्ब सामयिक हिन्दुस्तान के दर्द को बयां कर रहा है यह बता रहा है कि खतरों की व्यापकता इतनी गहरी है कि मनुष्य के लिए जीवन का संकट खडा हो गया है। कैलाश की लगभग समस्त कविताएं इसी भाव संगीत, अर्थसंगीत, और शब्द संगीत की मनोहारी भूमिका लेकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं। आज के समय जब गद्य और कविता के बीच अन्तर खत्म होता जा रहा है ऐसे समय कविता को उसकी मूल संगीतात्मक लोकधर्मी धारा से जोड देना एक बडा अवदान है। शायद इसीलिए अपने आखिरी संग्रह का नाम उन्होने 'कविता लौट पडी' रखा है जिसकी भूमिका में उन्होने गीतों की जनवादी भूमिका पर जोर दिया है।
'बचपन के अलबम में खोई
अगवारे पिछवारे
अमराई ही अमराई
सरसों लदी कियारी
फागुन धूप नहाई है
(कविता लौट पडी)
ऐसी रचनात्मक भाषा के साथ अगर काव्यत्व का सौन्दर्य भी जुडा हो तो कवि को जमात से बाहर घोषित करने का कोई कारण नहीं बनता है। कविता मे लयात्मक प्रवाह का प्रयोग अपने तरह की अनूठी परम्परा है। सम्पूर्ण छायावादी कविता इस लयात्मक संगति भरी है। निराला मुक्त छन्द के जनक कहे जाते हैं उनके मुक्त छन्दों में भी उत्कृष्ट लयात्मक संगति के दर्शन होते हैं। कैलाश छन्द के समर्थक थे। उनकी कविता में प्रयुक्त हुए लयात्मक बन्ध क्लासिकल और लोकछन्द दोनो कोटियों के हैं। इस सन्दर्भ में वो केवल फार्मेट में जकड कर नही बैठ जाते हैं कि छन्द और लय के फेर मे अपने अर्थ की बुनावट को गडबड कर दें। उनकी कविता में लयात्मक संगीत की बुनावट का आधार अर्थ संगीत है। शब्द संगति के साथ साथ अर्थ संगति के मिलने से उनकी कविता सर्वग्राह हो जाती है। केवल शब्द बन्धों के द्वारा हम लयात्मक कारीगरी तो कर सकते हैं पर कविता की सम्प्रेषण क्षमता का नुकसान हो सकता है। ऐसी शब्द संगति के जादूगर रीतिकाल में खूब हुए है। नई कविता में भी बहुत से कवि हुए हैं जो शब्दों के अनावश्यक प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। पर कैलाश ने शब्द संगति को अर्थसंगति के उपर प्रभावी नही होने दिया है अर्थसंगति ही प्रभावी रही है। दूसरी बात उनके शब्द और लयात्मक बन्ध दोनो लोकोपार्जित हैं इसलिए सम्प्रेषण की भंगता का सवाल ही नही खडा हो सकता है। यदि उनके शब्द अभिजन व पेशेवर काव्यभाषा के होते तो एकबारगी अर्थ भंग की रीतिशास्त्रीय परम्परा का दोष उन पर लग सकता था। लगभग सभी लोकधर्मी कवियों की तरह कैलाश ने भी संगीत और लय का आन्तरीकरण किया है। यह लय शब्दों के साथ अर्थ और उनके रचनात्मक सरोकारों में रच बस गयी है। इसलिए कविता सौन्दर्य की पराकाष्ठा पार करके अपने कथ्य को भी गरिमामय प्रभाविकता प्रदत्त करती है।
'तेज धूप में नंगे पांव
वह भी रेगिस्तान में
मेरे जैसे जाने कितने
हैं इस हिन्दुस्तान में।
(तेज धूप में )
इस कविता में रेगिस्तान और हिन्दुस्तान में केवल लयात्मक अन्त्यानुप्रास भर नहीं आया है बल्कि दोनो में अर्थ संगति भी बेहतरीन है। रेगिस्तान का आशय है तपती जमीन। जिसमे नंगे पांव चलना कष्टप्रद है। ठीक वही हालत हिन्दुस्तान में है जिसमे जीवन को सही तरीके जीना कठिन हो गया है। यह बिम्ब सामयिक हिन्दुस्तान के दर्द को बयां कर रहा है यह बता रहा है कि खतरों की व्यापकता इतनी गहरी है कि मनुष्य के लिए जीवन का संकट खडा हो गया है। कैलाश की लगभग समस्त कविताएं इसी भाव संगीत, अर्थसंगीत, और शब्द संगीत की मनोहारी भूमिका लेकर हमारे सामने उपस्थित होती हैं। आज के समय जब गद्य और कविता के बीच अन्तर खत्म होता जा रहा है ऐसे समय कविता को उसकी मूल संगीतात्मक लोकधर्मी धारा से जोड देना एक बडा अवदान है। शायद इसीलिए अपने आखिरी संग्रह का नाम उन्होने 'कविता लौट पडी' रखा है जिसकी भूमिका में उन्होने गीतों की जनवादी भूमिका पर जोर दिया है।
विचार और कला के
हर एक मापदंड में कैलाश गौतम खरे उतरते हैं
उनकी प्रतिबद्धता, लोकधर्मिता, जनपक्षधरता पर कोई सवाल नहीं खडा किया जा
सकता है। और भाषा के मामले में ऐसी रंगत पायी जाती है जो शायद ही किसी कवि
मे दिखे। सर्जनात्मक भाषा के सन्दर्भ में वो धूमिल
की बराबरी करते हैं। अपने लयात्मक बन्धों, गीतों के द्वारा एक तरफ वो अपनी जमीनी
लोक बद्धता का संस्कार करते हैं तो दूसरी ओर जीवन और परिवेश की पाशविक
परिस्थितियों, पूंजी द्वारा निर्मित विभेदों, नव जात सामन्ती समुदायों, असंगतियों की तीखी आलोचना करके सामयिक
एवं जरूरी प्रतिरोध का सृजन करते हैं। कैलाश गौतम काव्यालोचन के परम्परागत मूल्यों से लेकर
आधुनिक मापदंडों तक सब मे श्रेष्ठ हैं उनकी कविता अकाट्य
है उनके अभिमत अकाट्य है कैलाश गौतम जैसे जनकवि को केवल मंचों में जाने के कारण और
उनके फार्मेट के कारण हिन्दी कविता की मुख्यधारा से बहिस्कृत करके आलोचकों ने बडे
लोकधर्मी कवि को गुमनामी के अन्धकार मे ढकेल दिया है। इस वाकये पर मुझे बशीर बद्र का एक शेर
याद याद आ रहा है कि
'पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला।
मैं मोम हूं उसने मुझे छूकर नहीं देखा।
आँखों मे रहा दिल में उतर कर नहीं देखा।
किस्ती के मुसाफिर ने समन्दर नहीं देखा ।'
वाकई में इन किस्ती के मुसाफिरों ने समन्दर की अवहेलना करके हिन्दी कविता की जनधर्मी रीति की ही अवहेलना की है।
'पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला।
मैं मोम हूं उसने मुझे छूकर नहीं देखा।
आँखों मे रहा दिल में उतर कर नहीं देखा।
किस्ती के मुसाफिर ने समन्दर नहीं देखा ।'
वाकई में इन किस्ती के मुसाफिरों ने समन्दर की अवहेलना करके हिन्दी कविता की जनधर्मी रीति की ही अवहेलना की है।
उमाशंकर सिंह परमार |
सम्पर्क-
उमाशंकर सिंह परमार
मोबाईल - 09838610776
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है।)
Bahut achchha likha hai...kyun aise kvi ki upeksha hui ? Sawaal Hindi mein faile bhrashtachar ko darshata hai...Inhe padhne ki ichchha ho gai. Dhoondh kar padhunga...Aabhaar Uma Bhai , Santosh Bhai!!
जवाब देंहटाएंInka likha kahan uplabdh hai ?
हटाएं- Kamal Jeet Choudhary