अलेसिया मकोव्स्काया का आलेख बेलारूस में मेरी हिन्दी : बचकानी अभिरूचि से लेकर व्यावसायिक कार्य तक
अलेसिया मकोव्स्काया |
अपनी भाषा में रहते-जीते हुए हमें यह क्षणिक भी एहसास नहीं होता कि
इसी भाषा को अगर ऐसा व्यक्ति सीखना चाहे जिसकी मातृभाषा ही नहीं बल्कि संस्कृति और
परिवेश भी बिल्कुल अलग हो, तो उसे किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
इसी को जानने के क्रम में मैंने बेला रूस की अलेसिया मकोव्स्काया से
पहली बार के लिए एक आलेख लिखने के लिए अनुरोध किया। (रेगीना से मेरा परिचय फेसबुक
के जरिये हुआ।) रेगीना ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर यह आलेख लिखा है जिसमें
उन्होंने हिन्दी भाषा को सीखने सिखाने के क्रम में आने वाली परेशानियों का
तरतीबवार उल्लेख किया है। एक कहावत है ‘जहाँ चाह वहाँ राह।‘ अलेसिया मकोव्स्काया की
चाहतों ने उन्हें प्रयासों की तरफ उन्मुख किया और आज वे न केवल हिन्दी अच्छी तरह लिख
पढ़ लेती हैं बल्कि वे बेलारूस जैसे देश में हिन्दी को सिखाने का कठिन कार्य कर रही
हैं। प्रस्तुत आलख का प्रथम प्रकाशन मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय की वार्षिक पत्रिका “ विश्व हिंदी पत्रिका” में 2011हुआ था। तो आइए पढ़ते हैं अलेसिया मकोव्स्काया का यह दिलचस्प आलेख ‘बेलारूस में मेरी हिन्दी
: बचकानी अभिरुचि से व्यावसायिक कार्य तक’। अलेसिया मकोव्स्काया
के इस आलेख को हम ज्यों का त्यों यहाँ पर प्रकाशित कर रहे हैं।
बेलारूस में मेरी हिन्दी : बचकानी अभिरूचि से लेकर व्यावसायिक
कार्य तक
भारतवर्ष बहुत बातें करने के लायक है। और उस के बारे में हिन्दी ही में बातें करनी है।- रेगीना याकुबोव्स्काया
अलेसिया मकोव्स्काया
साल 1983, मिन्स्क नगर, बेलारूस। मैं केवल छः साल की ही हूँ। अपनी माँ के साथ पहली बार भारतीय फिल्म देखने के लिए जाती हूँ। फिल्म का नाम है “आवारा”। भारतीय कपडों की विचित्रता और रंगीनी, संगीत की सुश्राव्यता और गायकों के सुरीले स्वरों से प्रभावित होने के साथ-साथ, मैं उसी हिन्दी भाषा से प्रभावित हूँ, जो मैं पहली बार सुनती हूँ। अजीब बात है, लेकिन मुझे लगने लगता है कि मैंने इस भाषा को पहले कहीं सुना है और पहले से जानती हूँ। और, सच-मुच, हिन्दी की परिचित भी न होते हुए भी, मैं नायक के साथ गाती हूँ "आवारा हूँ, आवारा हूँ..."। छोटी उम्र में होने के बावजूद मैं सोचने लगती हूँ कि शायद मैं पूर्व-जन्म में भारत में ही, इन सुंदर लोगों के समीप रहती थी, ये रंगीले कपड़े पहनती थी, ये प्यारे-प्यारे गीत गाती थी और इस अति-सुंदर भाषा में बोलती थी। मानो वहाँ भारत में मेरा कुछ काम रह गया, जो मुझे इसी जन्म में पुरा करना अनिवार्य है। मानो इस जन्म में मेरा लक्ष्य है भारत की संस्कृति का पूरा स्मरण उठाना, और आगे चल कर उस से बेलारूसी लोगों का परिचय कराना।
तब से मैं भारत और उसकी संस्कृति से एक ही पल
के लिए जुदा नहीं हूँ।
... शुरू में यह सिर्फ फिल्मों के प्रति बचकानी
अभिरूचि थी। क्योंकि उस समय बेलारूस में फिल्मों के अलावा, भारतीय संस्कृति, विचार-धारा, रहन-सहन और
रीति-रिवाज़ों से परिचय लेने का दूसरा कोई उपाय नहीं था।
मैं सयानी हो जाती थी। स्कूल की शिक्षा समाप्त
की, अध्यापक-विश्वविद्यालय में प्रवेश किया, फिर स्कूल की अध्यापिका बन गयी। लगता था कि मुझे बचकानी
अभिरूचि छोड़नी ही होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पूर्व-जन्म का स्मरण ढीला नहीं हो गया। कालक्रम
से मुझ में इस मनोहर देश की संस्कृति का अध्ययन करने की इच्छा बढ़ती आती थी। मैंने भारतीय नृत्य
सीखना शुरू किया। कभी-कभी मैं मिन्स्क में भारतीय दूतावास आती थी, जहाँ मैं
"भारत संदर्श" पत्रिकाएँ ले कर, उन
से भारतीय कला, थिएटर, सिनेमा, इतिहास, भूगोल आदि का अध्ययन कर सकती थी।
लेकिन मैं यह भी समझती थी
कि मैं हिन्दी भाषा का अध्ययन किए बिना भारत की संस्कृति का पूरा ज्ञान प्राप्त कर
नहीं पाऊँगी। किसी भी देश की संस्कृति के सभी पहलुओं के गहरे विश्लेषण के लिए उस
देश की भाषा भी सीखना अनिवार्य होता है। 18 वर्ष की आयु में मैंने सोचा कि पूरी
गंभीरता से हिन्दी सीखने का समय हो गया। मैं बेलारूस और मिन्स्क में कोई हिन्दी पाठ्यक्रम या ट्यूटर ढूँढ़ने लगी। लेकिन
बहुत जल्दी यह साफ़ हो गया, कि न केवल मिन्स्क में, बल्कि बेलारूस में न कोई हिन्दी विश्वविद्यालय या स्कूल है, न कोई हिन्दी कक्षा या पाठ्यक्रम है। कोई व्यवसायिक ट्यूटर
भी नहीं है। इतना ही नहीं, बेलारूस में अभी तक कोई अपनी पाठ्यपुस्तक, स्वयंशिक्षक या कम से कम शब्दकोश नही है। जो पाठ्यपुस्तकें
बेलारूस में मौजूद हैं वे सब रूस से आते हैं। उन्हें पाना मिन्स्क में भी बहुत
मुश्किल है, और वे बहुत महंगी भी हैं। मेरी निराशा की सीमा
नहीं थी, कि मैं हिंदी सीखने की
अपनी प्यास कैसे बुझा सकती हूँ! मैं दूसरों को भारत की जानकारी कैसे दे सकती हूँ, यदि उसकी भाषा भी न जानती।
और, सचमुच, मेरा भाग्य खुल गया, कि उसी समय संयोगवश मुझे जूलिया नामक एक हिन्दी
की अच्छी अध्यापिका मिली। कई साल मैं उनकी सहायता से हिन्दी पढ़ रही थी। उनके मुख
से निकले एक-एक शब्द को मैं बड़े ध्यान से सुनती थी, जैसे वे शब्द न हो कर, कोई अनमोल रत्न हों। उसने मुझे अपनी पाठ्यपुस्तक तथा
शब्दकोश और किताबें या उनकी कापियाँ लाया करती थी, जो रूस और भारत से मंगाती थी। पढ़ाई में मेरे सामने कोई भी बाधा बाधा ही नहीं लगती थी। न
अध्यापिका जी का दूसरे नगर में रहना, न पढ़ाई की महँगाई, ना मेरे अध्यापक-विश्वविद्यालय मे परीक्षाएँ। मुझे अच्छी
तरह याद है कि हिंदी के पाठ के बाद मैं रात को घर लौट आ कर तीन-चार घंटे सोती थी, फिर अध्यापन-शास्त्र की किताबें पढ़ती थी और विश्वविद्यालय
की परीक्षाओं के लिए तैयारी करती थी। और फिर से हिंदी के अध्ययन में लीन हो जाती
थी। पाठ के अभ्यासों में से मुझे सब से ज़्यादा पसंद कौनसा था? इसका जवाब तो बिल्कुल सरल है। वह था हिंदी ही भाषा में
भारतीय फिल्म देखना या गीत सुनना और फिर उस का अनुवाद करना। और मैं अपनी प्रसन्नता कैसे रोक सकती थी,जब मैं प्रतिपाठ फिल्मों में और गीतों में अधिकाधिक शब्द समझती
थी।
साल 2004 में मुझे भारत में विदेशी छात्रों के लिए एक हिंदी पाठ्यक्रम के बारे में पता चला। और मेरी अध्यापिका जी की सहायता से, मुझे हिन्दी का अपना स्तर बढ़ाने का सुनहरा अवसर मिला, अर्थात् केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में पढ़ना। मैं बहुत खुश थी। ऐसा लगा कि मैं अपना घर लौट आई होऊँ। संस्थान में मैंने न केवल हिंदी और भारतीय जीवन और संस्कृति का विश्लेषन करने का अवसर पाया, बल्कि वहाँ मैं पहली बार हिंदी से रूसी में और रूसी से हिंदी में लेखों का अनुवाद करने की कोशिश की। तथा मैं अपना एक और पुराना सपना पूरा कर पाया : मैंने अपनी हिन्दी के प्रति अभिरूचि एक अन्य पुरानी अभिरूचि यानी बेलारूसी कविता से जोड़ दी। अर्थात मैंने बेलारूसी कवि-राज माक्सीम बोग्दानोविच की कई कविताओं का अनुवाद किया। ये हैं मेरी दो प्रथम कविताएँ :
तप्त संध्या,
प्रशान्त पवन, हरी टाल
मुझे आपने ही
सुला दिया धरती पर।
नहीं उड़ती है
धूल दीवार-सी रास्ते पर,
झाँकता है
फ़ीका-फ़ीका सींग चाँद का,
अंबर पर खिले है
सुंदर तारे।
और संध्या के मौन
से मोहित हो कर,
मेरा तन चला गया
है चेतना से परे;
प्रकृति से मिल कर
एक ही हो कर
देख रहा हूँ
तारों का कंपन,
ओर धरती पर उग
रहा है तृण...
2.
शुभ रात्रि तुमको, ऐ संध्या की लाली
!
पृथ्वी पर उतरता
है अंधेरा,
अवगुंठन में हर
चीज़ ओढ़ता है वह,
आकाश में तारे भी
छीटता है वह।
मेरे मन का
आलिंगन करता है यह सूनापन
नशपाती को
लोरियाँ सुनाता है मंद पवन;
आहिस्ता आहिस्ता
उसे हिलाता है;
धीमे स्वर में
दूर कहीं घंटियाँ हँसती हैं,
कहीं बुलाती है
मुझे नदी की चाँदी,
शुभ रात्रि तुमको, ऐ संध्या की लाली
उस के अलावा मुझे हिंदी सेवी सम्मान समरोह में, जो भारत के राष्ट्रपति के
प्रोत्साहन से चलाया गया था, भाग लेने का सौभाग्य मिला। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह
थी कि मैं देशवासियों, मूल-भाषियों से हिंदी ही
में बातें कर सकती थी।
घर लौटने के बाद मैंने
देखा कि बेलारूस में, पहले की तरह ही, कोई हिन्दी ट्यूटर नहीं है और हिन्दी
कहीं नहीं पढ़ायी जाती है। कोई व्यवसायिक हिन्दी का अनुवादक भी नहीं हैं। मैं
सोचने लगी कि मैं यह स्थिति कैसे बदल सकती हूँ? मैं बेलारूस में हिन्दी के प्रसारण के
लिए क्या कर सकती हूँ? जो
लोग हिन्दी नहीं जानते मैं उनका हिन्दी से परिचय कैसै करा सकती हूँ? जो लोग हिन्दी सीखना चाहते हैं लेकिन
यह भी नहीं जानते कि शुरू ही कहाँ से करना है, मैं उनकी क्या मदद कर सकती हूँ? तभी मैंने फैसला किया कि
मैं उन सभी को, जिसकी इच्छा हो, हिन्दी खुद क्यों न पढ़ाऊँ। सबसे पहले इच्छुक
लोगों को इकट्ठा करने के लिए मैंने अखबारों में, विभिन्न इंटरनेट साइटों पर, तथा पुस्तकालयों, शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थानों में विज्ञापन
देना शुरू किया। दुर्भाग्यवश शुरु में इसका कोई बड़ा परिणाम नहीं निकला। इसके कई
कारण थे। पहला कारण यह था कि मेरे विज्ञापन समाचार पत्रों में बहुत विरले प्रकाशित
किए जाते थे। दूसरा कारण यह था कि यदि सच पूछे तो बेलारूस में उन लोगों की संख्या
अधिक नहीं है, जो हिन्दी सीखना चाहते हैं।
और जो लोग हिन्दी सीखना चाहते थे, उन
में से बहुत ऐसे थे, जो
बेलारूस के अन्य नगरों में या दूरदराज क्षेत्रों में रहते थे, और हफते में कई बार पाठ लेने के लिए
मिन्स्क आया करना उनके लिए मुश्किल था। लेकिन इन कारणों के बावजूद मैंने मिन्स्क में
कई उत्साहियों को इकट्ठा कर लिया।
और अब मुझे फिर से
कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
सब से पहली समस्या यह थी
कि मिन्स्क में हमारी पढ़ाई के लिए कोई कक्ष ढूँढ़ना काफ़ी मुश्किल था। मैं उसे
मिन्स्क की सांस्कृतिक संस्थाओं, व्यापार केंद्रों आदि में ढूँढ़ने
लगी। हर जगह सिर्फ एक ही जवाब था, कि मेरे छात्रों की संख्या बहुत कम हैं, और
संस्था सिर्फ़ कई लोगों के लिए कोई कक्ष नहीं दे सकती। साथ ही, इस प्रकार के कक्षों का किराया बहुत
महंगा होता है, जिसका
मतलब है कि इस में पढ़ाई भी बहुत महंगी पड़ेगी। परिणाम यह हुआ कि मैंने अपने छात्रों
को बेलारूस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में पढ़ना शुरू किया और धीरे धीरे वही हमारा
पाठशाला बन गया। और जो लोग मिन्स्क नहीं आ सकते थे, उन को मैंने इंटरनेट
द्वारा पढ़ाने का फैसला किया। मैंने इंटरनेट में विज्ञापन दिया। और जल्दी ही कई
लोग मिले, जिन को मैं स्काइप, याहू आदि सॉफ्टवेयर्स द्वारा हिन्दी
पढ़ाने लगी। आगे चल कर, ऑनलाइन
पाठ लेने के लिए न केवल बेलारूस से बल्कि अन्य देशों से जैसे रूस, यूक्रेन, क़ज़ाख़स्तान, आर्मेनिया आदि से भी मेरे पास छात्र आने लगे।
फिर मेरे सामने
पाठ्यपुस्तकों की समस्या आई। अच्छी पाठ्यपुस्तक ढूँढ़ने में मुझे बहुत समय लग गया।
मिन्स्क में मुझे एक ही पाठ्यपुस्तक नहीं मिली। मुझे उन्हें मास्को से मँगाना पड़ा।
सौभाग्यवश, मेरे पास मेरी अपनी पुस्तके और कापियाँ रह गई थीं, जिस से मैं खुद हिन्दी पढ़ती थी। इसके
अलावा, मैं भारत से कुछ अच्छी
किताबें लायी थी। मैं इन किताबों की प्रतियाँ करके या तो अपने छात्रों को देती थी, या उन्हें इंटरनेट से भेजती थी।
पहली पाठ्यपुस्तक, जिस की सहायता से मैंने
अपने छात्रों को पढ़ाना शुरू किया, एक
रूसी प्रोफेसर ओलेग उल्त्सिफ़ेरोव द्वारा लिखी गई है। यह वही पाठ्यपुस्तक थी, जिस की सहायता से मैं खुद हिन्दी सीखती
थी। इस के कई सकारात्मक गुण हैं। यह पुस्तक भाषा खुद सीखने के लिए उपयोग किया जा
सकता है। यह पाठ्यपुस्तक लिखित और मौखिक अभिव्यक्ति में दक्षता उत्पन्न करती हैं। इसके
अलावा, रूस में यह पहली
पाठ्यपुस्तक है जो देश-ज्ञान पर आधारित है। इस में भारत के रहन-सहन, इतिहास, संस्कृति आदि के बारे में जानकारी
शामिल है। प्रत्येक पाठ का अपना ही विषय है। प्रत्येक टेक्स्ट के अन्त में नए शब्द
हैं। प्रत्येक शब्द का न केवल अनुवाद, बल्कि
ध्वनि -लेखन तथा संज्ञाओं का लिंग और क्रियाओं का भेद (सकर्मक या अकर्मक) बताया
जाता है। प्रत्येक टेक्स्ट की टिप्पणियाँ भी हैं। प्रत्येक पाठ में व्याकरण और
टेक्स्ट के अभ्यास भी है। अभ्यास इस प्रकार के हैं: प्रत्येक नए शब्द को दस-दस, पाँच-पाँच या दो दो बार
लिखना, हिन्दी से रूसी में, तथा रूसी से हिंदी में शब्दों या
टेक्स्ट का अनुवाद करना, क्रियाओं के सामान्य रूप से कृदंतों के रूप बनाना, रिक्त
स्थानों को भरना, सवालों के जवाब देना, कहानी सुनाना, आदि।
इस तरह बस एक ही वर्ष में
छात्र हिंदी का लग-भग पूरा व्याकरण सीख सकते हैं।
लेकिन इस पाठ्यपुस्तक के
नकारात्मक गुण भी हैं। यह विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए तो अधिक सहायक है, लेकिन नौसिखियों तथा भाषा
खुद सीखने वालों के लिए कम। इस पाठ्यपुस्तक में अभ्यास जो हैं, वे काफ़ी नीरस और उबाऊ
हैं। प्रत्येक पाठ में अधिक व्याकरण है, और
वह अत्यंत जटिल वाक्यों और शब्दों से समझाया जाता है, जो समझना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसके
अतिरिक्त, इस पाठ्यपुस्तक में न कोई तस्वीर है और न कोई खेल का अभ्यास। जोड़ी या
समूह में काम करने के लिए कोई अभ्यास भी नहीं है। साथ ही, इस पाठ्यपुस्तक में बहुत गलतियाँ और
छपाई की भूलें हैं।
कुछ समय के बाद मैंने एक
और पाठ्यपुस्तक प्राप्त की मास्को से। इसकी रचयित्री भी रूसी है - नतालिया
लाज़ारेवा। यह पाठ्यपुस्तक रूस के पाठशालाओं में हिंदी पढ़ रहे छात्रों तथा भाषा
खुद सीखने के इच्छुकों के लिए उचित है। इस पाठ्यपुस्तक का सकारात्मक गुण है कि यह
लगातार और एक ही समय छात्रों का परिचय देवनागरी वर्णमाला और व्याकरण से कराती है। अन्य
पाठ्यपुस्तकों के विपरीत, यह
पाठ्यपुस्तक उन लोगों के लिए अधिक उचित है, जो हिन्दी सीखना अभी अभी शुरू करते हैं। व्याकरण सरल शब्दों और वाक्यों से
समझाया जाता है। इस पाठ्यपुस्तक में बहुत उदाहरण भी हैं, जो
व्याकरण को समझने में भी मदद करते हैं। नए शब्द तालिकाओं के रूप में दिये
जाते है, जिन में ध्वनि -लेखन, लिंग और अनुवाद दिया जाता है। इस
पाठ्यपुस्तक में तस्वीरे और खेल के अभ्यास भी हैं। तथा जोड़ी या समूह में काम करने
के लिए कई अभ्यास हैं, जिन से पढ़ाई और अधिक रोचक और आसान हो जाती है। पाठ्यपुस्तक
के अंत में रूसी हिंदी और हिंदी रूसी शब्दकोश है, जिस में इसी पाठ्यपुस्तक
के सभी शब्द शामिल हैं। रूसी-हिन्दी वार्त्तालाप-पुस्तिका भी है, जो निस्संदेह भारत में मूल-भाषी लोगों
से संपर्क रखने में मदद कर सकती है। इस पाठ्यपुस्तक के साथ लिखाई के नमूने भी हैं
जो देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखने में बहुत मदद देते हैं। इसके अलावा, पाठ्यपुस्तक
के साथ दो ऑडियो सीडी हैं, जो भारतीय वक्ताओं द्वारा बोले जाते शब्दों और वाक्यों को स्पष्ट सुनना और खुद
बोलना सिखाते हैं। हालांकि, इस
पाठ्यपुस्तक के नकारात्मक गुण भी है। यह व्याकरण के केवल प्रारंभिक ज्ञान देती है।
पूरे वर्ष के दौरन में छात्र केवल सबसे सरल वाक्य और शब्दावली सीखते हैं, केवल
सामान्य वर्तमान काल का ज्ञान पाते हैं। अभ्यास बहुत छोटे हैं - उन में बस कई
वाक्य हैं।
जो पाठ्यपुस्तकें मैं
भारत से लायी, उस का भी उपयोग करती थी। लेकिन
वे सब भारतीयों के लिए अधिक उपयोगी है, जिनकी मातृभाषा हिंदी ही है। मैं बस कभी-कभी इन पाठ्यपुस्तकों के कुछ अभ्यासों
और व्याकरण का उपयोग करती थी।
इस तरह, मैं इन सभी पुस्तकों की सहायता से
पढ़ाने की कोशिशे करती थी। लेकिन मैं देखती थी कि पढाई उतनी अच्छी तरह नहीं हो रही
है, जितनी
मैं चाहूँगी। मैं जानती थी, सच यह है कि फिल्मों या गीतों के द्वारा पढाई दिलचस्प
बनाना मेरे यत्नों के बावजूद, अच्छी पाठ्यपुस्तक की आवश्यकता तो भी है। मौजूद
पाठ्यपुस्तकें काफी अच्छी हैं और काफी अच्छी तरह भाषा सीखने में मदद करती हैं।
लेकिन वे मेरी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती। इसलिए मैं सोचने लगी कि मेरी अपनी
पाठ्यपुस्तक क्यों न बनाऊँ। मैंने मौजूद पाठ्यपुस्तकों के आधार पर अपनी
पाठ्यपुस्तक बनाने का फैसला किया, इन
में कुछ परिवर्तन करके, पढ़ाई
अधिक मज़ेदार, दिलचस्प और आसान करने के लिए। आधार के लिए मैंने नतालिया लाज़ारेवा
की पाठ्यपुस्तक को चुना।
मेरी पाठ्य-पुस्तक में इस
प्रकर के अभ्यास हैं : रिक्त स्थान को भरना, सही
शब्द या अक्षर चुनना, शब्दों को जोड़ना, अनुचित शब्द चुनना, तस्वीरों का तुलना, तस्वीर का वर्णन करना। तथा मैं जोड़ी
में काम करने के लिए इस प्रकार के अभ्यास देती हूँ: साथी के सवालों के जवाब देना, साथी को कुछ बताना, साथी
से किसी विषय पर बात करना, आदि। मेरी पाठ्यपुस्तक में बहुत रचनात्मक तथा खेल के अभ्यास भी हैं, जैसे: रचना करना, वर्णन करना, वाक्य बनाना, गूढ़लेख स्पष्ट करना, चित्र अनुकूल शब्द से मिलाना, टेक्स्ट के अनुसार चित्र बनाना, आदि।
इस प्रकार, मैं धीरे-धीरे भारतीय फिल्मों, फिर संस्कृति और विशेष रूप से भाषा के
प्रति बचकानी अभिरूचि से व्यावसायिक कार्य तक पहुँची। आज-कल मैं हिन्दी लेखों, कहानियों, दार्शनिक-ग्रंथों, तथा विभिन्न दस्तावेजों आदि का अनुवाद
करती हूँ। बेलारूस में मेरे अलावा कोई अधिकृत हिन्दी अनुवादक नहीं है। मैं बेलारूस
के नोटरी चैंबर में पंजीकृत एक ही हिन्दी अनुवादिका हूँ। इसके अलावा, मैं बेलारूस
में एक ही हिन्दी की अध्यापिका हूँ। और इंटरनेट की बदौलत मैं न केवल बेलारूस के
नागरिकों, बल्कि अन्य सभी को अनुवाद
करने में तथा हिन्दी के अध्ययन करने में मदद दे सकती हूँ।
लेकिन हाँ, मैं अच्छी तरह समझती
हूँ, कि हिन्दी का मेरा
स्तर अब भी बहुत ऊँचा नहीं है। हिन्दी की किताबें पढ़ते हुए, भारतीय फ़िल्में देखते हुए, और भारतीय दोस्तों से बातें करते
हुए, मैं हिन्दी का अभ्यास
करने की कोशिश करती हूँ, लेकिन मैं समझती हूँ कि यह काफ़ी
नहीं है। इसके अलावा, भाषा हर वक़्त एक ही जगह पर न रह कर, लगातार आगे बढ़ती जाती है।
इसी लिए मुझे अपना हिन्दी
का स्तर बढ़ाना अनिवार्य है। और इसी लिए मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में, एम.ए. डिप्लोमा के
पाठ्यक्रम में भाग लेना चाहती हूँ।
आशा है कि मेरा यह सपना
भी एक न एक दिन जरुर पूरा होगा।
(उपर्युक्त पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग हिंदी बके वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
(उपर्युक्त पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग हिंदी बके वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
आलेख को पढकर अभिभूत हूं ।उनका हिन्दी प्रेम बेमिसाल है ।नतमस्तक हूँ ।इसे प्रकाश में लाने के लिए आपने जो प्रयास किया उसका मै क्या कहूँ !!
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