निर्मला ठाकुर की कविताएँ


निर्मला जी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के महुई नामक गाँव में 1942 ई. में हुआ. इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम ए किया. इसके पश्चात आकाशवाणी इलाहाबाद में कार्यक्रम अधिशाषी के रूप में काम करने लगीं. यहीं से वर्ष 2002 में सहायक केंद्र निदेशक के रूप में सेवा निवृत्त हुईं. वर्ष 2005 में निर्मला जी का पहला कविता संग्रह 'कई रूप कई रंग' और वर्ष 2014 में दूसरा कविता संग्रह 'हँसती हुई लड़की' राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ .'धर्मयुग' से ले कर 'वर्तमान साहित्य' तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित. अज्ञेय रचनावली में उन पर संस्मरण चित्र और 'पक्षधर' में शमशेर पर एक बेहतरीन आलेख प्रकाशित हुआ. 

निर्मला जी प्रख्यात आलोचक मलयज की बहन थीं. बचपन से ही मलयज और शमशेर का इन्हें सान्निध्य प्राप्त हुआ. वर्ष 1963 में परिवार से विद्रोह कर इन्होंने कहानीकार दूधनाथ सिंह के साथ प्रेम विवाह किया. विगत एक वर्ष से ये स्वास्थ्य सम्बन्धी गंभीर दिक्कतों से जूझ रही थीं. बीते बीस नवम्बर को निर्मला जी का इलाहाबाद में देहावसान हो गया. निर्मला जी की स्मृति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएँ और चित्र जो हमें हरनोट जी  ने उपलब्ध कराया है.  

निर्मला ठाकुर की कविताएँ
               



जीवित रहूंगी मैं


जीवित रहूंगी मैं
अपने बच्चों में
बेटी बताएगी अपने बचपन की बातें
जब भी अपने बेटे से
जब
वहीं कहीं मैं भी हूंगी

उन चर्चाओं में
उन यादों में।
बेटियां कभी नहीं भूलतीं
अपनी मांओं को
उनके सुख-दुख को
क्योंकि बेटियां बनती हैं एक दिन
मेरी तरह एक
मां
और मांएं
नानी बन
सजीव हो जाती हैं
किस्से-कहानियों में
जीवित रहूंगी मैं।

संगम की धारा को जब भी देखेगा बेटा
मुझे क्या भूल पाएगा?
जानती हूं
उसकी स्मृतियों में
मैं
संगम बन रहूंगी
जिसे समय-असमय
उम्र की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते
वह दुहराएगा जरूर।

कल मैं न रहूं
पर रहूंगी जीवित तब भी
उनकी धमनियों में
घुल-मिल कर।








जिन्दगी

धीमे-धीमे
सरकती जा रही यह
जिन्दगी
जाड़ों की धूप सी
प्यारी और प्यारी
लगती जा रही
यह जिन्दगी
लेकिन अजब है यह
कि बस
बन्द मुट्ठी में बंधी ज्यों रेत-सी
खिसकती जा रही
यह जिन्दगी।


(2)

जिन्दगी
स्वीट पी की खुशबू है
फैलती है यहां से वहां
आदिम चाह-सी
जिन्दगी जो खुला प्रांगण है
जिन्दगी जो
धूल, धूप, हवा
और पानी
गृहस्थी का उत्सव
और आंगन है
मात्र यही तो हर क्षण
धड़कनों का साक्षी
साथी है
फिर भी
अब, कहां
साथ छोड़ जाए
भरोसा नहीं
यह जिन्दगी।




(3)

बीतते जा रहे हैं
बरस पर बरस
रीतते जा रहे हैं
मौसम दर-मौसम
चुक जाएगा यह जीवन भी
एक दिन
एकाएक।
......यूं ही सोचते रह जाएंगे
अब करेंगे ऐसा कुछ
जाने कब से अपेक्षित था जो
ऐसा कुछ.........।

 

एक मनःस्थिति

देखो तो
अब निहार सकती हूं
मैं आकाश का विस्तार
धरती का रूप
अकेली सड़क का मधुर एकान्त
सुन सकती हूँ
झरते हुए पत्तों का
उदास, आत्मीय संगीत
नए पत्तों की लय
यह दुनिया कितनी खूबसूरत हो गई है
देखो तो
क्या से क्या हो गई हूं
मैं!

 

तुम्हारे जाने पर

(1)

अच्छा हुआ तुम चले गए
अब कुछ सोच समझ सकती हूं
उन संवादहीन दिनों को
एक नाम दे सकती हूं
रिक्तता की खाई
मौन से भर सकती हूं।
चलो, तुम छोड़ गए
गहरे पानी में
(कोई बात नहीं)

(2)

कहीं कुछ नहीं होता
और बहुत कुछ घटता
काटता चलता है
अंधकार में
लहरों के उत्थान-पतन में
अरारों का गिरना
किसने जाना?
-जिसने बांधा
वही
फिर-फिर उसी का टूटना
किसने तब जाना
घहरा कर
दम तोड़ना
एक नाटक
बिना मंच, बिना संयोजन के
होता है
मैं पात्र हूं (पर कहां हूं)
मेरे इर्द-गिर्द जो है
जो कुछ हो रहा है
वहां तो नहीं हूं
किन-किन व्यथाओं में
अभिभूत
उदास और रिक्त
और-
नामहीन हूं।

(3)

हंसी आती है अब प्रेम-प्रदर्शन पर
और विश्वास की बात
उदास कर जाती है
खुशियां हर बार
आहत हो
मौन के द्वार
टूट गिरती हैं।
राग जो अपना है
धुंध में डूबा है
वसन्त का अन्त
समझ में आता है।





सृजन

वह जब भी आता है
हवा की भीनी खुशबू
फैल जाती है
चारों ओर
वसन्त की आहट है वह
जब भी आता है
सुनहरी रश्मियां
खिड़कियों से
छन छन बिखरती हैं
अचानक सर्द मौसम
बदल जाता है
गर्माहट भरे इत्मिनान में
शरद की धूप है वह
जब भी आता है
आप्लावित करना है
अपते दिनों को
पावस है वह
स्वाति-नक्षत्र में
वर्षा की पहली बूंद-सा
सीपी में-मोती बन आता है
सृजन है वह।


रुको, मैंने कहा

मैंने कहा
आयी हो यूँ अचानक
अच्छा लगा
स्वागत है कविता तुम्हारा
थोड़ी देर बैठो
मैं आयी अभी
वह आ गया है
सफाईकर्मी
साफ़ करवा दूँ ज़रा नाली
गलियारा
यूँ तो डाकिया दे कर गया है
पत्र और इस मास की पत्रिकाएँ
कर रहा है मन देखने का भी
वह बाद में
अभी तुम हो
साथ हो,
बातें ढेर सारी हैं, पर क्या करूँ देखो
धोने के लिए कपड़े पड़े हैं
बच्चों के ड्रेस; ज़रूरी हैं, ज़रा धो लूँ
गैस पर चढ़ी है दाल, चावल पक रहा है
बीच में उठ कर इन्हें भी देख लूँगी
(
यह तो ज़रा-सा काम है)
करने को नहीं कुछ अब
आज रुक जाओ मेरी खातिर
फैला कर आती हूँ अभी कपड़े
बुझा दी गैस
समझ लो फ़ुर्सत के हैं क्षण
--
ओफ यह फ़ोन की घंटी
रुको कविता, प्लीज़...
मानी नहीं वह
गयी
फिर.


टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन और उम्दा कवितायें...'पहली बार' टीम इसके लिये बधाई की पात्र है. बेहद दुःख हुआ यह जानकर कि निर्मला जी अब हमारे बीच नहीं रहीं उन्हें भावभीनी श्रधांजलि...

    जवाब देंहटाएं
  2. पहली बार पढ़ रहा हूँ निर्मला जी की निर्मल कविताएं। 'रुको मैंने कहा' जैसी कविता एक स्त्री रचनाकर की रचना-प्रक्रिया का गवाह ही नहीं उसमें एक स्त्री को निःस्वप्न कर देने वाला संसार भी है। तकलीफ की आहिस्ता, बेआवाज-सी अभिव्यक्ति लेकिन पथरा गई संवेदनाओं पर सीधी और सधी चोट करती। 'तुम्हारे जाने पर' कविता तो जैसे घेर लेती है, निःशब्द करती जैसे भीतर खामोश रुलाई फूटती है।
    "एक नाटक
    बिना मंच, बिना संयोजन के
    होता है
    मैं पात्र हूं (पर कहां हूं)
    मेरे इर्द-गिर्द जो है
    जो कुछ हो रहा है
    वहां तो नहीं हूं
    किन-किन व्यथाओं में
    अभिभूत
    उदास और रिक्त
    और-
    नामहीन हूं।"
    कविताएं पढ़वाने के लिए धन्यवाद भाइयों!

    जवाब देंहटाएं

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