येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताएँ


येव्गेनी येव्तुशेंको

केदार नाथ सिंह ने अपनी गद्य की किताब ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ में येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताओं का जिक्र किया है. ये कविताएँ उन्हें अनिल जनविजय ने उपलब्ध करायीं थीं. केदार जी अपने एक आलेख में कहते हैं कि ख्रुश्चेव के बाद के परिवर्तन की आवाज को येव्तुशेंको की कविताओं में स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है.इनकी आवाज को पाश्चात्य जगत में क्रुद्ध युवा पीढ़ी के पर्याय के रूप में देखा-सराहा गया. प्रारम्भ में येव्तुशेंकी मूलतः मायकोव्स्की के प्रशंसक थे पर बाद के दिनों में वे ऐसी दिशा में बढे जिसमें कविता क्षीण होती गयी और उनका आलोचनात्मक तेवर अधिक मुखर हुआ. मैंने अनिल जी से येव्तुशेंको की कुछ ऐसी कविताएँ भेजने का अनुरोध किया, जिससे हिन्दी समाज परिचित नहीं है. अनिल जनविजय के सुघड भावानुवाद ने येव्तुशेंको की कविता को जैसे जस का तस प्रस्तुत कर दिया है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रुसी कवि येव्तुशेंको की कविताएँ.           
येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताएँ 
(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय)

आगमन वसन्त का

धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे
औरत लोग

मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी

अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास

समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
"
औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ

मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा

पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत

मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है

सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे

बाकू के एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर

बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा--
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी...

और दंगाई...
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे--छिनाल

उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान

हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में

एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है

हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह...
पुराना दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीखता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो

हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं-मैं नहीं
मेरे बिना वह-वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही

मैंने तुम्हें बहुत समझाया

मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!

लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती...
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती...
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बरिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी

मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा

काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया

चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम

पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!

रूस की लड़कियाँ

"
खेत से
गुज़र रही थी लड़की
गोद में
एक बच्चा लिए थे लड़की"

यह गीत पुराना
जैसे झींगुर कोई गा रहा था
जैसे जलती ही मोमबत्ती का
पिघला मोम कुर-कुरा रहा था

ओ... सो जा रे, सो जा, सो जा तू...
जिसने ख़ुद को पालने में यूँ नहीं झुलाया
जिसने ख़ुद को सहलाने और मसलने दिया
खेतों में और झाड़ियों में,
लोरी गाकर नहीं सुलाया
तैयार करें वे अपनी बाहें
और गोद
किसी किलकारी को
पैदा होंगे नन्हे बच्चे
हर ऐसी ही नारी को

हर गीत के होते हैं
अपने ही कारण रहस्यमय
हर फूल के होती है योनि
और पराग-केसर का समय

ऐसा लगता है
खेत उन दिनों पड़ा था नंगा
और लड़की थी वह
अपने बच्चे के संग
पर क्या हुआ फिर बाद में इसके
भला कहाँ पढ़ेंगे, कहाँ सुनेंगे हम
कहानी वह निस्संग

और
वह गीत ख़राब-सा
कहवाघरों की शान बना कब ?
क्या शासन था तब ज़ार निकलाई का ?
या बोल्शेविकों का, हातिमताई का ?
लेकिन पता नहीं क्यों होता है ऐसा
चाहे कोई भी समय हो
भूख अशान्ति और लड़ाई
बच्चों को लिए अपनी गोद में घूमें
जैसे उन्हें नहीं कोई भय हो

लड़की वह
गुज़र रही थी रोती
बहकी-बहकी चाल थी उसकी
और गोद में नन्हीं बच्ची
नंग-धड़ंग थी उम्र की कच्ची
उखड़ी-उखड़ी साँसें उसकी
जैसे पड़ी हुई थी मार के मुस्की

मुँह फाड़कर रोई ऐसे
चीख़ी चिल्लाई हो जैसे
क्या फ़र्क पड़ता है वैसे
यह क्रान्ति से पहले हुआ था
या उसके बाद किसी दिन
उसे अपशगुनों ने छुआ था

इन क्रान्तियों का
मतलब क्या है ?
उनके रक्तिम-चिह्नों से भी
भला क्या हुआ है ?
सिर्फ़ रक्त बहे और आँसू बहे
जीवन ने कितने कष्ट सहे
उनसे पहले, उनके दौरान,
उनके बाद भी
जीवन नहीं हुआ आसान

हो सकता है हुआ हो ऐसा
क्या कहूँ मैं, कैसा-कैसा
सूख गए हों आँसू माँ के
मृत चेहरे पर तेरे
तेरे कोमल होठों पर वह
अपने सूखे होंठ फेरे
ले गई हो परलोक में
मृत्यु तुझको घेरे

हो सकता है
तू बड़ी हो गई हो
मूरत प्रेम की खड़ी हो गई हो
तब मृत्यु ने आ घेरा हो तुझे
इस तरह से हेरा हो तुझे
पलकों के नीचे तेरी जो
दो बड़े नीले फूल खिले थे
जैसे अब जा धूल मिले थे

हो सकता है
तू जान गई हो
बड़ी नहीं होगी, पहचान गई हो
भूख से मर जाएगी तू
इससे भी अनजान नहीं हो

या तुझे
खा गए हों रिश्तेदार
भेड़िए भूख से बेज़ार
वोल्गा के तटवर्ती इलाकों में कहीं
तू छोड़ गई हो यह संसार

हो सकता है
तू पड़ी मिली हो
किसी खोह में अँधेरी
और तुझे दफ़ना दिया गया
जब पहचान नहीं हो पाई तेरी

हो सकता है
जीवन में तूने
झेले हों असंख्य अत्याचार
कहीं खेतों के बीच पटककर
तेरे साथ भी किया हो किसी ने
घृणित बेरहम बलात्कार

हो सकता है
बड़ी होकर भी
रोई हो तू जीवन भर
साइबेरिया के ठण्डे बर्फ़ीले तिमिर में
फिर मारी गई हो किसी यंत्रणा-शिविर में

बच्ची वह
रोई थी ऐसे
चेहरा उसका ऐंठ गया था
चेहरे पर पीड़ा थी गहरी
लाल झण्डा वहाँ जैसे पैठ गया था

क्या होगा
क्रान्ति से भला ?
इस भयानक मार-काट के बाद
फिर से असहनीय रुदन फैला है
और रूस है आज़ाद

रूसी खेतों से
बेड़ी पहने
लड़कियाँ गुज़र रही हैं फिर से
उनके नन्हे बच्चों की चीख़ें
उमड़ रही हैं मेरे सिर पे।



अनिल जनविजय





सम्पर्क -

anil janvijay
Moscow, Russia
+7 916 611 48 64 ( mobile)

टिप्पणियाँ

  1. अनिल के अनुवाद लाजबाब हैं.धूप खिली है रिमझिम वर्षा..नाम से उसका संग्रह .में कविताओं के अनुवाद हैं.
    अनुवाद के लिये अनिल याद किये जायेगे..काश वे कवितायें लिखते..फिलहाल अनुवाद के लिये शुभकामना.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'