जीवन सिंह का आलेख 'मुक्तिबोध-पूंजी बाज़ार का समय और मुक्तिबोध की कविता


मुक्तिबोध


स्वतन्त्रता के बाद के भारतीय काव्य परिदृश्य को जिन दो कवियों ने अधिकाधिक प्रभावित किया है उनमें निराला के साथ-साथ मुक्तिबोध का नाम भी बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।  
मुक्तिबोध (13 नवम्बर 1917 से 11 सितम्बर 1964) ने प्रगतिशीलता के साथ-साथ नयी कविता को वह स्वरुप प्रदान किया जो उसकी विशिष्टता के रूप में आज भी रेखांकित की जाती है। अपनी कविताओं में मुक्तिबोध ने विज्ञान का जिस तरह से उपयोग किया वह हमें चकित करता है। और यह विशिष्टता उन्हें औरों से अलगाती है। वर्ष 2014 मुक्तिबोध के निधन का पचासवां वर्ष है। अपने समय में मुक्तिबोध ने जो चिन्ताएं व्यक्त की थीं वे आज विकराल रूप धारण कर हमारे सामने खड़ी हैं। प्रख्यात आलोचक जीवन सिंह ने पूँजी बाजार के आज के समय में मुक्तिबोध को कविता के महत्व को आंकने का प्रयास किया है अपने इस आलेख में। तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख।       

पूंजी बाज़ार का समय और मुक्तिबोध की कविता

जीवन सिंह

सितम्बर 2014 में मुक्तिबोध का देहावसान हुए पचास वर्ष हो रहे हैं। गौरतलब है कि समय के बदलने और आगे खिसकने के बावजूद मुक्तिबोध की कविता और संस्कृति--चिंतन आज पहले से ज्यादा प्रासंगिक हुए है। इस बीच यद्यपि गंगा में बहुत पानी बह चुका है। इसी अवधि में  दुनिया में विचलित कर देने वाले ऐसे श्रम--विरोधी परिवर्तन हुए हैं,  जिनसे बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विश्व के मेहनतकश की फलती-फूलती संस्कृति के मार्ग में   गंभीर अवरोध पैदा हुए और विश्व स्तर पर समग्रता की बजाय विखंडन की विश्व-दृष्टि प्रभावी हुई। मुक्तिबोध के जमाने में ऐसा नहीं था। उस समय विश्व की श्रम-चेतना के अनुरूप भारत की श्रमशील जनता का भी एक सपना था, जो औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ाई लड़ते हुए भारत के सामान्य मेहनतकश ने देखा था और उसके तत्कालीन मध्यवर्गीय नेतृत्त्व ने उसे ऐसा दिखाया भी था। यह सपना था -भारतीय समाज को समाजवादी समाज बनाने का। जब कि उसी अवधि में इसके विपरीत देशी पूंजीपति वर्ग कुछ अलग तरह से सोचता था। उसको एक ऐसे समाज की जरूरत थी, जिसमें उसकी पूंजी अबाध गति से मुनाफ़ा बटोर सके। कहना न होगा कि उसे समाजवादी समाज की जगह पूंजीपरस्त व्यक्तिवादी समाज की जरूरत थी। इसलिए देश को आजादी मिलने के प्रारंभिक दिनों से ही हमारे यहां राजनीतिक व्यवहार में श्रम और पूंजी की टकराहटें  शुरू हो गयी थी। गौरतलब है कि आज़ादी पाने के लिए सतत चले संघर्ष के बावजूद,  साम्राज्यवादी ब्रिटेन और अमरीकी पूंजी से देशी पूंजी की दोस्ती अभी तक बनी हुई थी और वह गहरे होने की कोशिशों में लग गयी थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि जैसे श्रम अपनी संस्कृति का अलग से निर्माण करता है  वैसे ही पूँजी भी अपनी मुनाफाखोर सभ्यता से एक अलग व्यक्तिवादी संस्कृति का निर्माण करती है। पहली जहां पूरे समाज की परवाह करती है वहीं दूसरी  अकेले व्यक्ति की। इस तरह पूंजी स्वयं श्रम की संस्कृति के विरुद्ध अपनी व्यक्तिवादी संस्कृति का निर्माण करती है। साहित्य आदि कलाओं में वही रूपवाद को प्रतिष्ठित करती है, जबकि श्रम-संस्कृति को अपनी एक नयी समाजवादी संस्कृति का निर्माण करना होता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध इसी श्रम--संस्कृति की रचना अपनी नयी कवितामें कुछ अलग तरह से करते हैं, जिसमें समाजवादी संस्कृति और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई विरोध नहीं होता। वे व्यक्ति और समाज की द्वंद्वात्मकता में रिश्तों का अवलोकन और परीक्षण करते हैं। यही वजह रही कि उनकी कविताओं में विश्लेषण की जो ज्ञानात्मक पद्धति उभर कर आती है वह दूसरे कवियों के यहां नहीं है। वे स्वयं उस समय की नयी परिस्थितियों में अपनी कविता की एक नयी पद्धति का निर्माण करते हैं। इसीलिये वे अलग तरह के कवि की तरह दिखाई देते हैं सबसे अलग। जबकि उस समय के कई अन्य कवियों का झुकाव पूंजी की व्यक्तिवादी संस्कृति की तरफ होने लगता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध अपनी कविता, आलोचना और जीवन के तीनों स्तरों पर इस लड़ाई का अपना मोर्चा संभालते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य में जो सौंदर्य नामक प्रभावशाली गुण पैदा होता है, वह वास्तविक जीवन और कवि-जीवन के मूल्यों की एकता होने से। ऐसा नहीं हो सकता कि वास्तविक जीवन में कवि के मूल्य कुछ और हों और कवि-जीवन में कुछ और। इसके विपरीत उस समय के जीवन का यथार्थ यह रहा कि कवि-जीवन और वास्तविक जीवन में बढ़ते हुए अलगाव को कुछ कवि--चिंतक जायज ठहरा रहे थे। यह संघर्ष आज तक चला आ रहा है। आज बहुत कम साहित्यकार होंगे, जो बाज़ार, निजीकरण, उपभोक्तावाद से बच कर वास्तव  में श्रम की संस्कृति की रचना में  प्रवृत्त होंगे। श्रम की संस्कृति की रचना जब तक रचनाकार अपने जीवन में नहीं करता, तब तक वह अपनी रचना को भी विश्वसनीय और प्रामाणिक नहीं बना पाता। मुक्तिबोध मानते हैं कि अपनी नासमझी या अनुभव के अभाव में एक निष्ठावान और आत्मविश्वासी व्यक्ति भी स्वयं से और अपनी कविता से फ्रॉड कर सकता है। यह फ्रॉड तब होता है, जब लेखक यह जानता ही नहीं कि वह फ्रॉड कर रहा है। लेखक को पूरा विश्वास होता है कि जो बात वह कह रहा है, सही कह रहा है अर्थात जहां लेखक ईमानदारी से मूर्ख होता है। लेखक को यह भी विश्वास होता है कि उसकी बात केवल सच्ची ही नहीं, सुन्दर भी है और कल्याणकारी भी।“  यह उन्होंने अपनी डायरी में अपने मित्र यशराज के मुख से कहलवाया है। वे जान रहे थे कि उनके कई साथी--सहचर कवि किस तरह देश को आजादी मिलते ही पद, पुरस्कार, और प्रतिष्ठा के प्रलोभन में स्वयं से ही फ्रॉड करने लगे थे। देखा जाय तो अनभवहीनता में व्यक्ति सबसे ज्यादा फ्रॉड करता है और एक जमाने में अर्जित अपने जीवनानुभवों की ही कमाई जीवन भर खाता रहता है।
     
 ऐसी स्थिति में इन शुरुआती दिनों में ही जीवन के स्तर पर  श्रम और पूंजी के दर्शन में भी संघर्ष की स्थितियां बन गयी थी। ऐसे माहौल में जब तक श्रम--शक्तियां जागरूक और संगठित न हों, तब तक वे शासक वर्ग में शामिल होकर श्रम-संस्कृति के लिए कुछ नहीं कर पाती। यह कहना प्रीतिकर होगा कि मुक्तिबोध ने इस यथार्थ को अपनी विश्व-दृष्टि से समझ लिया था, जिसे आमतौर पर उस समय के दूसरे कवि अनदेखा कर रहे थे। मुक्तिबोध कदाचित उन कवियों में हैं जो अपने फ्रॉड के प्रति भी काफी सजग हैं। इसीलिये वे तत्कालीन अवसरवाद की गिरफ्त में आने से बच सके। जबकि उसी समय एक वर्ग ऐसे कवियों का था, जो सफलता हांसिल  करने को ही अपने जीवन का ध्येय बनाकर काव्य-रचना में प्रवृत्त हो रहा था। जबकि इसके विपरीत मुक्तिबोध अपने जीवन में सफलता की जगह सार्थकता क़ो ज़ीवन क़ा लक्ष्य मानते थे। और इसी वजह से वे सफल या सार्थक जीवनोद्देश्य का सवाल अपनी कविताओं में बहुत शिद्दत से उठाते हैं। उनका मतलब स्पष्ट था कि निरतर धन-अर्जित करना,ऊंचे पद हासिल करना, पुरस्कार पाना, विदेश भ्रमण की लालसा और  पूंजी-संचय को एकमात्र जीवनोद्देश्य मानना, सफलता का प्रमाण तो हो सकता है, सार्थकता का नहीं। व्यक्ति के इस मनोविज्ञान के बारे में उनकी एक महत्त्वपूर्ण कविता है-कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं “----

इस कविता में मुक्तिबोध ने एक जरूरी सवाल उठाते हुए कहा है कि पूंजी -बाज़ार पर आधारित व्यवस्था व्यक्ति का जीवन--उद्देश्य पूरी तरह बदल देती है। वह पूरी तरह अपना समर्पण पूंजी के लिये कर देता हैं। पूंजी की अपनी विशेषता होती है कि अपनी व्यवस्था में वह सबसे पहले जीवन की सार्थकता का सवाल गायब कर उसके स्थान पर सफलता को एकमात्र जीवनोद्देश्य बनाकर इस तरह प्रस्तुत करती है कि लोग सफलता को ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बना लेते हैं। आज तक यही हो रहा है और इसी से समाज में सारी व्यवस्थाएं पूंजी-बाज़ार के आस पास केंद्रित होने लगी हैं। उत्तरआधुनिक समय में जब से सटोरिया पूंजी का वर्चस्व कायम हुआ है तब से यह प्रवृत्ति तेजी से फ़ैली और गहरी हुई है। यही कारण है कि समाज में संबंधों के स्तर पर तेजी से अलगाव और अजनबीपन बढ़ रहा है। इसीलिये मुक्तिबोध उस विकास को नकारते हैं जो पूनो की चांदनी की तरह मनुष्यहीन-निर्जन प्रसारों में फ़ैली हुई नज़र आती है। जो एक वर्ग के हित  के लिए काम करती है। यह आकस्मिक नहीं कि पूंजी-बाज़ार की सभ्यता में आकंठ डूबे उच्च-शासक एवं उसके सहायक उच्च-मध्य वर्ग के  स्वभाव एवं चरित्र की तुलना वे घुग्घुओं, चमगादड़ों, भूत-प्रेतों और पिशाचों से करते हैं। वे कहते हैं --

सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में
बैठे हुए घुग्घुओं और चमगादड़ों के हित
जंगल के सियारों और
घनी घनी छायाओं में छिपे हुए
भूतों और प्रेतों तथा
पिशाचों और बेतालों के लिए ही ------
मनुष्य के लिए नहीं---फ़ैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति--यश रेशम की पूनों की चांदनी।

आज पूरे देश को इसी पूनो की चांदनी के झूठे सब्जबाग दिखला कर धोखे में रखने का काम किया जा रहा है। यहां पर सूखे हुए कुए पर झुके हुए झाड़ों में बैठे हुए घुग्घू और चमगादड़ शायद ही अपने अलावा किसी दूसरे को पसंद करते हों और अपने अलावा किसी का ख्याल करते हों। उनका एकांत सूखे कुओं की  तरह भयानक और अंदर से बेहद वीभत्स होता हैं जो यह भी संकेत करता है कि आवारा वित्तीय पूंजी का विस्तार आत्मकेंद्रिकता और स्वार्थभाव को प्रचंड  तरीके से फैलाने और मन की खंदकों को गहराने का काम करता है। जैसाकि आज पता चल रहा हैं क़ि पूंजीवादी व्यवस्था, समाज के भीतर एक ऐसे जंगल का निर्माण करती जाती है, जिसमें व्यक्तियों का रूपांतरण मनुष्य बनने के बजाय  घुग्घुओं, चमगादड़ों, सियारों आदि में होने लगता है। वह स्वयं से ही कटता  चला जाता है। हर व्यक्ति अपने लिए जीने लगता है। पारिवारिकता टूटने लगतीं हैं और वह व्यक्ति को अकेला करती जाती है। यहाँ पर प्रसिद्ध विचारक थियोडोर अडोर्नो की एक बात इसे पुष्ट करती है ----”पूंजीपति अपने जीवन का लक्ष्य पूंजी का संचय मानता है और इस प्रक्रिया में वह सुख की चिंता से स्वयं को वंचित भी करता है। अगर कभी वह कला के अनुभव की कोशिश भी करता है, तो उससे कोई निर्णायक आनंद प्राप्त करने का लक्ष्य उसके सामने नहीं होता, बल्कि वह एक प्रकार से सार्थकताओं से शून्य जीवन को सजावट से ढंकने की कोशिश करता है। दिक्कत की बात यह है कि व्यक्ति इसके कारणों को सहज तौर पर नहीं समझ पाता। यदि वह कोई सार्थक अभिव्यक्ति करता भी है तो वह केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित होकर रह जाता है। इसी वजह से पूंजी के शासन के शोषण के विरुद्ध विकल्प का एक बौद्धिक तंत्र तो अवश्य बनता दिखाई देता है किन्तु वास्तविक जीवन के स्तर पर वैसा होता नज़र नहीं आता। वास्तविक जीवन में उसका उलटा ही ज्यादा होता दिखाई देता है। मानवतावादी शक्तियां पिछड़ती जाती हैं और उनकी जगह घनघोर रूप से सांप्रदायिक संकीर्ण शक्तियों का दबदबा कायम होने लगता है। इसीलिये मुक्तिबोध अपने रूपक में निर्जनता पसंद प्राणियों का एक पूरा कुनबा प्रस्तुत करते हैं। ये सभी चालाक, स्वार्थी ,धूर्त आत्ममुग्ध और निर्जनता को पसंद करने वाले प्राणी हैं। बिलकुल, यही हाल समाज के उच्च और उच्चमध्य वर्ग का रहता है, जो अपने सिवा और किसी को न चाहता है, न उसे किसी गिनती में रखता है। उसके सहायक वर्ग भी उसी की चाकरी और गुलामी करते रहने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लेने को अपने जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानते हैं। 


देखने की बात यह है कि मुक्तिबोध यहाँ न केवल पारम्परिक लोक-प्रतीकों, बिम्बों और रूपकों से अपने काव्य-शिल्प की संरचना कर रहे  हैं वरन उनकी पूर्वनिर्धारित अर्थपद्धति को तोड़ भी रहे हैं। पूनों की चांदनी का प्रतीकार्थ यहां अब तक चले आते साहित्यिक प्रतीकार्थ से कितना भिन्न, नया और अलग हट कर है कि एक ही जगह पर वे जिससे परम्परा और नवीनता का ऐसा द्वंद्व रचते हैं कि उनकी भाव और विचारधारा स्पष्ट तौर पर यहां जीवन के एक निराले सांगरूपक में बदल जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि मुक्तिबोध अपने समय के लोक जीवन के नज़दीक रह कर भूत-प्रेत-पिशाचों की लोक प्रचलित कहानियों को यहां एकत्र कर उसकी भयानक वीभत्सता और उसके फैलाये जाल को प्रकट कर देते हैं। कहना न होगा कि यह उन्ही की बात को उन्ही की भाषा में उनको लौटा देना है किन्तु उसका नया काव्य--पाठ रच कर। ये पारम्परिक प्रतीक सामान्य जन की जिंदगी में प्रचलित लोक--कथाओं की तरह  पाठक के नज़दीक ले जाने का काम भी करते हैं। कहना न होगा कि प्रतीकों और बिम्बों की ऐसी लोक-दृश्यात्मकता बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है। हालांकि, इस तरह के प्रतीकों से यहां किसी तरह के अद्भुत परिदृश्य का संयोजन करना कवि का उद्देश्य नहीं रहा है, वरन यह देश के उस उच्च और उसके सहायक उच्च मध्य वर्ग के जीवन के वीभत्स यथार्थ का अंकन करने की कला का हिस्सा है, जो आज व्यवस्था का सञ्चालन कर रहा है। एक महाकवि की लोकजीवन से निकटता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि वह जंगल के सूखे कुओं और उन पर झुके हुए झाड़ों में छिपी हुई जंगली हरकतों का रूपक उस जिंदगी के पास ले जाकर सजीव तौर पर रख देता है, जहां सभ्यता और उसके विकास की दुन्दुभियां बजाई जा रही हैं और ढोल पीटे जा रहे हैं। सवाल पैदा हुए बिना नहीं रहता कि क्या आज से पचास साल पहले की पूंजीवादी व्यवस्था का यह  वीभत्स यथार्थ आज पहले से और ज्यादा वीभत्स होकर व्यापक स्तरों तक नहीं उभरा  है? क्या आज की पूनों की चांदनी वास्तविक मनुष्य के लिए है या उन्ही घुग्घुओं-चमगादड़ों-बेतालों के लिए? वर्गीय जीवन के इस भयावह यथार्थ को आज कितने कवि हैं जो इस तरह के लोक-रूपक में बाँध पाने की सामर्थ्य रखते हैं? यहां जैसे वीभत्स, भयानक और रौद्र रूपों का एक भयावह जंगल हमारी आँखों के सामने घूम जाता  है। दरअसल, ऐसा लोक--रूपक वही बना सकता है, जिसने स्वयं इस तरह के जीवन की मार झेली है। असल बात यह है कि यहां लोक--जीवन की सर्वहारा सैद्धांतिकी न होकर, जीवन में उसके व्यावहारिक और यथार्थ रिश्तों का एक ऐसा सम्पूर्ण आख्यान है, जो साहित्य-रचना के लिए कुछ अलग किस्म के जीवनानुभवों की मांग करता है। इसी वजह से मुक्तिबोध अपने जमाने में भी कुछ अलग तरह से सोचने-समझने और काव्य-रचना करने वाले कवियों में माने जाते थे। इसी वजह से उनकी काव्य--भूमि को समझे जाने की प्रक्रिया, परम्परा से चली आती कविता से कुछ अलग हट कर होती है। यह मात्र संयोग नहीं है कि वे नयी कविता की उस प्रगतिशील धारा के कवि हैं, जो समाजवादी सपने और व्यक्ति-स्वातंत्र्य में कोई अंतर्विरोध नहीं देखती। वे मानते थे कि यदि समाजवादी सपने के साथ सापेक्षतया व्यक्ति-स्वाधीनता नहीं होगी तो एक दिन सपनों का यह सभा--भवन ढह जाएगा। मुक्तिबोध की यह भी खासियत रही कि वे हिंदी के साथ मराठी-मनीषा को भी लेकर चलते थे और उसका  सही मायने में एक भारतीय रूपक रचते थे। उनकी शिल्प-संरचना इस मामले में  कुछ विलक्षण और भिन्न है कि इसमें  हिंदी के साथ उनके मराठी होने का संस्कार भी समाविष्ट है। उनकी बिम्ब--रचना की प्रणाली और  उनके गहरे तथा व्यापक मनोभावों को ग्रहण कर पाने में पाठक को भी इसीलिये तकलीफ हो सकती है कि यथार्थ की गवेषणा वे व्यक्ति के मनोभावों तक पंहुच कर अपनी जमीन पर  एक भिन्न तरीके से करते हैं।  वे उन कवियों में हैं जो आत्मबद्धता के खतरों से सजग रहकर, आत्मपरकता के बिना काव्य-सृष्टि को अपंग मानते हैं। वे मानते हैं कि साहित्यकार की आत्मसमृद्धि उसके द्वारा वस्तुपरक जीवन को अधिकतम स्तर तक हृदयंगम किये बिना संभव नहीं है। इसीलिये उनके रचना-संसार की आत्मपरकता में वस्तुपरकता रीढ़ का काम करती है और इसी तरह वस्तुगतता में आत्मपरकता की भूमिका रहती है। आमतौर पर यह देखने में आता है कि हर युग एक ही तरह की काव्य--टोन और काव्य-प्रवृत्तियों को  शब्द बदल कर प्रस्तुत करता है। लेकिन मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते। वे अपने जीवनानुभवों की रोशनी में प्राप्त वस्तुतत्त्व की रचना कुछ अलग तरह से करते हैं, जीवन में गहरे उतर कर। वे व्यक्ति की मानस-तरंगों को उसके कार्य--कारन संबंधों तक समझने का प्रयास करते हैं। यह आकस्मिक नहीं कि  उनको साहित्य से ज्यादा चिंता, जीवन की रहती है। उनके लिए वही रचना सबसे सार्थक होती है जो  काल-दर-काल न केवल कविता की समझदारी को आगे बढ़ाती  है वरन जिंदगी के आपसी रिश्तों की सही समझ भी पैदा करती है और उनका निर्वहन कार्य-कारण संबंधों तक ले जाकर करती है। इसीलिये वे किसी भी स्थिति पर अपनी दो टूक राय देने से नहीं चूकते-

पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं
केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में
निर्जन प्रसारों पर
सिर्फ एक आँख से
सफलताकी आँख से
दुनिया को निहारती फ़ैली है
पूनों की चांदनी।
  
कहने का तात्पर्य यह है कि इस खंडित चांदनी की एक आँख से जीवन--सत्य को नहीं समझा जा सकता। यह जान कर आश्चर्य होगा कि यह उस मुक्तिबोध की काव्य--संरचना और भाषा नहीं है, जो फैंटेसी की कला के लिए जाने जाते है और अपने विशिष्ट एवं श्रृंखलाबद्ध रूपक निर्माण के लिए। सच तो यह है कि उन्होंने शिल्प और भाषा के स्तर पर कई तरह के प्रयोग किये हैं। एक भाषा -प्रयोग यह भी है, जहां न समास बहुलता है, न संधि और न ही तत्समता का कोई आग्रह। यहाँ एक खुली और संवादपरक भाषा में कवि अपने भावरूपक को रख रहा है। कहना न होगा कि  इस तरह की खुली शब्द--संरचना वाली कविताओं में एक दूसरी तरह के मुक्तिबोध हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। वे आगे इसी कविता में अपने पाठक को सुनाते हुए कहते हैं --

मैं पुकार कर कहता हूँ ----
सुनो, सुनने वालो
पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।
उसके विद्रूप शत
शाखा--व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अन्धेरा है, अन्धेरा है घनघोर ---
वृक्ष के तने से लिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक जबरदस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।
 
यहां कवि--भाषा पहले से बदली हुई है। उसमें सामासिकता और तत्समता की एक हल्की--सी नयी परत बनी है। लेकिन पूरा रूपक अपनी जगह पर स्पष्ट है, कहीं कोई अस्पष्टता-अमूर्तता नहीं। यह विक्षोभ को व्यक्त करने वाली सबसे सटीक भाषा है क्यों कि वह ऐसे समय के बियाबान जंगल की बात कर रहा है, जहां मरी हुई आत्मा का एक जबरदस्त पिशाच शासन कर रहा है और लोग उसी की  तरफदारी में खड़े हुए हैं, जो स्वयं मृतात्मा बनते जाते हैं।  क्या यह सच नहीं है कि आज के पूंजी और उपभोक्ता बाज़ार की यह व्यवस्था व्यक्ति की आत्मा का शिकार सबसे पहले करती है। आत्मा मर जाने के बाद फिर व्यक्ति में रह ही क्या जाता है। जिंदगी में समझौता करते रहने के सिवाय कोई रास्ता लोगों को न दिखाई देता है, न वे देखना चाहते हैं? ऐसे माहौल में समझौता-प्रवीण चाटुकार आगे बढ़ते जाते हैं और आत्मकेंद्रिकता और स्वार्थभावना ही समाज की धुरी का काम करने लगते हैं। स्वार्थभावना के इस विकराल बरगद पर सफलता और भद्रता की पूनों की चांदनी फैलती जाती है। इस वातावरण में जो शामिल हो जाता है वह भी घुग्घू और सियार बनता जाता है। दरअसल, आज धीरे--धीरे व्यवस्था ने मध्यवर्ग को इसी चांदनी का भोक्ता बना देने में सफलता हासिल कर ली है। यहां मुक्तिबोध साफ़ शब्दों में आगाह करते हैं-

पशुओं के राज्य में 
जो पूनों की चांदनी है 
नहीं वह तुम्हारे लिए 
नहीं वह हमारे लिए।  

क्या आज के विकास की अवधारणा का इस पूनों की चांदनी से कोई मेल दिखाई नहीं देता? क्या आज के माहौल पर यह कविता कोई सार्थक और संवेदनशील--जागरूक  टिप्पणी नहीं करती? क्या यह आज लिखी जा रही कविताओं से कहीं पिछड़ी हुई संवेदना और चेतना की कविता नज़र आती है? कुछ भौतिकतावादी चिंतक यहां आत्मा शब्द के प्रयोग पर एतराज कर सकते हैं किन्तु सोचने की बात यह है कि मुक्तिबोध के यहां आत्मा अपने भौतिक और पारम्परिक भाषिक प्रतीक की ही आधुनिक वाहक होकर आती है। यही उनकी कविता में भारतीयता को नए अर्थ में प्रयुक्त करने का प्रमाण है। मुक्तिबोध अपने भाषिक व्यवहार में किसी तरह का एकांत आग्रहवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाते। सामान्य जन के लिए आत्मा शब्द आज भी चूंकि बहुत गंभीर अर्थ रखता है, इसलिए वे उसकी शब्दवत्ता को व्यावहारिक तौर पर स्वीकार करते हैं।

 
यह बात विचारणीय है कि आज का श्रम-विरोधी पूंजी-बाज़ार जिसे विकास-विकास कह कर आसमान सिर पर उठाये हुए है, मुक्तिबोध ने आज से पचास-साठ साल पहले इसे जंगल के सियारों का विकास कहा है। तस्वीर साफ़ है कि आज यह देश की 125 करोड़ जनता में ऊपर के एक विशिष्ट वर्ग  का विकास है। विकास के भोक्ता उस छोटे से वर्ग की तुलना मुक्तिबोध घुग्घुओं, चमगादड़ों, सियारों, भूतों, प्रेतों, पिशाचों और बेतालों से करते हैं, जहाँ वास्तविक श्रमशील मनुष्य होता ही नहीं। इस विकास--प्रक्रिया से सच्चा श्रमशील मनुष्य बाहर रहता है। इसीलिये वे कहते हैं कि पूनों की यह चांदनी कुछ भूत-पिशाचों के लिए है। इस कविता में कवि सबसे ज्यादा आत्मा को मरने और बिकने से बचाने की सलाह देता है लेकिन यह सलाह उसके अपने उस वर्ग को है, जिसका अभी ईमान बचा हुआ है, सोचने--समझने की बुद्धि बची हुई है, ह्रदय के सरोकार बचे हुए हैं। वह अब भी आत्मा के भवन बनाने की हैसियत रखता है। आत्मा बची रहेगी तो आगे सब कुछ हो जाएगा। आत्मा ही मर गयी तो फिर कुछ भी बचा पाना मुश्किल होगा। कहना न होगा कि आवारा पूंजी के खुले खेल ने व्यक्ति की आत्मा पर ही सबसे संघातक प्रहार किया है। पूंजी-बाज़ार, धन का ही व्यापार नहीं करता, आत्मा का भी व्यापार करता है। धन्नासेठों के बड़े--बड़े प्रकाशन-भवन और बड़ी पूंजी के पुरस्कार, विदेश यात्राओं के प्रलोभन, ऊंचे पद आदि साहित्यकार, बुद्धिजीवी, चिंतक,  पत्रकार आदि की आत्मा को भी खरीद लेते हैं।  कहना न होगा कि आत्मा का मरना यहां मनुष्यता का मर जाना है। अब यह प्रत्यक्ष है कि अपनी आत्मा को मारकर न जाने कितने लोग इस व्यवस्था को साधे रखने का काम करते हैं। 
     
सच तो यह है कि मुक्तिबोध अपने समय में आरम्भ से ही पूंजी के बढ़ते  वर्चस्व के प्रति बहुत सावधान और चिंतित थे।  उन्होंने स्वयं अनुभव किया था कि देश को आज़ादी मिलने के बाद पैदा हुए मध्यवर्गीय अवसरवाद ने कितने ही उनके साथी-सहचरों की आत्मा को अपना ग्रास बना लिया था। इसीलिये ही अपने युग के ऐसे अन्य कई सहचर कवि-मित्रों से उन्होंने अपना रास्ता अलग कर लिया था। इस सवाल को लेकर वे सर्वाधिक गंभीर और चिंतित रहे कि व्यक्ति अवसर  के अनुरूप अपना रास्ता कैसे बदल लेता है? तारसप्तक में उनके  विचारधारात्मक स्तर पर सहचर-साथी रहे कवि अपना रास्ता बदल रहे थे। यह सब उन्होंने देखा ही नहीं, भोगा भी था। उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध उस समय के उन बहुत कम साहित्यकारों में से एक थे, जो अपनी जगह पर अडिग और खतरे उठाने के लिए तैयार रहे। इसी अडिगता ने उनकी कविता-कहानी को अंत तक न केवल जीवित रखा वरन उनकी मृत्यु के बाद शीर्ष पर पंहुचाया। उनकी कविता और आलोचना ने एक बड़े और नए रोशनदान का काम किया। देखा जाय तो कवि के साथ उन्होंने आलोचक का दायित्त्व जिस  तरह से सम्भाला, वह चकित करता है। अपने साहित्य-कर्म में वे विरले ईमानदार लोगों में एक हैं। जैसा कि कहा जा चुका है कि बाज़ार-पूंजी का वर्चस्व जिस कदर देश में बढ़ा है, इस तथ्य को मुक्तिबोध ने अपने समय में ही भाँप लिया था। सौभाग्य की बात यह है कि गरीबी में दिन गुजारते रहने के बावजूद उन्होंने अपनी जीवन--दृष्टि से कोई समझौता नहीं किया। यही कारण है कि व्यावहारिक जीवन-सचाई की मौलिकता, समग्रता और भावनाओं के अंतर्संबंधन की जो ताकत उनकी कविता में है, वैसा विरल कवियों के लिए ही सम्भव हो पाता है।  मुझे यहां मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ द्वारा एक साक्षात्कार में शायरी के बारे में कही गयी यह बात बहुत उचित एवं बेहद प्रासंगिक लगती है कि अच्छी शायरी करने के लिए तकलीफ और गम जरूरी हैं। तभी शायरी में जिंदगी की असलियत सामने आ पाती है।इसीलिये वे कहते हैं कि ‘“अच्छी शायरी वो है, जो कला के निकष   पर ही नहीं, जिंदगी की कसौटी पर भी खरी उतरे।  अडोर्नो भी कहते हैं कि यातना की आवाज बनना ही सच की वास्तविक शर्त है।“  कहना न होगा कि मुक्तिबोध की कविता इन कसौटियों पर खरी उतरती है। उनके यहां यह मालूम ही नहीं पड़ता कि कहां वह कला है और कहाँ जिंदगी।  वह सर्वत्र यातना की आवाज के रूप में सुनाई पड़ती  है। जैसे कबीर, तुलसी, मीरा, निराला, प्रेमचंद के यहां है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध को भक्तिकाल की कविता की न केवल गहरी जानकारी थी वरन मराठी और हिंदी संतकाव्य परम्परा से उनका गहरा लगाव भी था। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि वे अपनी कविताओं में आत्मा की बात बहुत करते हैं। यह संयोगवश नहीं है। यही बिंदु है जो उनको पूरी भारतीय चिंतन परम्परा से जोड़ देता है। हालांकि वे यहां आत्मा की पारम्परिक धारणा को नए और भौतिक अर्थ में प्रस्तुत करते हैं।  इस तरह वे अपनी जमीन पर बहुत मजबूती से खड़े होकर प्रतीकार्थों में तबदीली करते हैं। यह उल्लेख करना गलत नहीं  होगा कि उनके प्रतीक, उनके रूपक, उनके बिम्ब उनके आसपास के लोक जीवन से आते हैं और विश्व में विकसित नयी वैज्ञानिक चेतना से भी। उन्होंने इसी कविता में आत्मा की इंजीनियरिंग की है। आत्मा के भवन बनाने का एक सांग -रूपक इसी कविता के बीच में आता है। ऐसे रूपक उपनिषदों में, वाल्मीकि, कबीर ,सूर, तुलसी आदि की रचनाओं में खूब आये हैं। त्रिलोचन के यहां भी एक सॉनेट में तुलसी का वह पूरा रूपक आया है, जहां उनके राम, अस्त्र-बल के सामने आत्मबल को तरजीह देते हैं। मुक्तिबोध भी अपना रूपक कुछ इसी तरह से बनाते हैं। वे अपने सहचर वर्ग को उसकी ताकत का अहसास कराते हुए कहते हैं --

तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ एक चीज है -
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गैंती है,
ह्रदय की तगारी है-तसला है
नए नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
ह्रदय की तगारी में ढोते हैं हमी लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।   

 कैसी विडम्बना है कि आज की इंजीनियरिंग में और सब कुछ सिखाया जाता है, नहीं सिखाया जाता तो वह है आत्मा की इंजीनियरिंग करना। इसीलिये कवि को आत्मा का इंजीनियर कहा जा सकता है। अपनी एक दूसरी कविता-  हर चीज, जब अपनी“- में मुक्तिबोध कहते हैं कि इस पूंजी के प्रभुत्त्व वाले समय में आदमी, आदमी के बीच तेजी से अलगाव बढ़ रहा है जिससे हवा सिर पर से लहराती हुई गुजर रही है,पहचाने भी ज़रा-सी छूती हैं और उड़ जाती हैं, वे दिल में बस नहीं पाती। और यह दुनिया, लोगों को अपने स्वार्थ से अलग अलग रूपों में नज़र आती है। आज जो आधुनिक वैज्ञानिक जीवन-दर्शन मानवता को हासिल हुआ है, उसे लगभग छोड़ा जा रहा है। वे पूंजी के इस वर्चस्वी समय में एक मंदिर के रूपक के माध्यम से अपनी भावना को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं ------
                                           
उन्ही में से एक में
मेहराबदार ताक
ताक में अन्धेरा
अँधेरे में देव--देवताओं की मूर्तियां ---
पुरानी मूर्तियां जो जरूरत पड़ने पर
फिर काम आ सकें,
दाम ला सकें।

यहां मेहराबदार ताक /ताक में अन्धेरा /अँधेरे में पुरानी देव--मूर्तियां -आज के यथार्थ को व्यक्त करने वाला यह रूपक जैसे हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा है। यह बतलाना  उचित  होगा कि कविता  का निष्कर्ष यहां दाम लाने पर है।  काम आना और दाम लाना ---यही तो बाज़ार--पूंजी का दर्शन होता है। पूंजीवादी व्यवस्था दाम, दंड और भेद के बल से ही व्यक्ति से  अपनी गुलामी कराती है।  इसी दुष्चक्र में व्यक्ति फंस जाता है या फंसा लिया जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था ,फिर चाहे वह लोकतंत्र के नाम से चलती है ,एक तरह की निरंकुश सत्ता हासिल कर लेने का माध्यम होती है , जो पिछले सामंतवाद से समझौता तक करने में कोई परहेज़ नहीं करती। इसी लिए वे इस व्यवस्था के लिएसल्तनतसंज्ञा का प्रयोग करते हैं। आज के बाज़ार का यह रूपक उन्होंने प्रस्तुत कर लिखा था  ------

इस सल्तनत में
हर आदमी उचक कर चढ़ जाना चाहता है
धक्का देते हुए बढ़ जाना चाहता है ,
हर एक को अपनी -अपनी /पडी हुई है।
चढ़ने की सीढ़ियां
सिर पर चढ़ी हुई हैं।
    

क्या ऐसा मानना सही नहीं होगा कि लोकतंत्र की प्रक्रियाएं अन्ततः अपनी एक सल्तनत बनाती हैं। आज से पहले ही मुक्तिबोध यह जान गए थे कि पूंजीपरस्त यह व्यवस्था भविष्य के मनुष्य को क्या बनाने जा रही है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें नफरत और नफासत दोनों का दिखावा साथ साथ चलता हैं और व्यक्ति अपनी बीवी के साथ भी सियासत करने से नहीं चूकता। पूरा जीवन एक पहिये की तरह घूम रहा है। वे लिखते हैं -----

चक्के हैं, चक्के हैं, चक्के हैं,
सब लोग सब कहीं जा रहे हैं,
लेकिन कोई कहीं नहीं जा रहा है।
रफ़्तारें तेज हैं
लेकिन ,देखो तो। जबर्दस्त
तेजी के भीतर एक
जमीन --जुड़ा
अटल चबूतरा -----
लंबा-सा घाट  है
घाट तो पहले से वहीं का वहीं है
सिर्फ लहरें दौड़ रही हैं
गति आभास हैं

यह उल्लेख करना यहां सही होगा कि मुक्तिबोध के जीवन काल में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को समाजवादी समाज रचना के राजनीतिक प्रतीक पुरुष के रूप में देखा जाता था। मुक्तिबोध इस वजह से उनको बहुत मानते थे।  यद्यपि उन परिस्थितियों की आलोचना भी खूब करते थे, जो समाजवादी समाज रचना के आड़े आ रही थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके लिए उन्होंने कभी नेहरू की आलोचना नहीं की और न ही उनको इसके लिए जिम्मेदार माना। कदाचित यह उनकी सबसे बड़ी दुविधा थी। मुक्तिबोध इस यथार्थ को भली भाँति समझ रहे थे कि स्वतंत्र भारत की अर्थ व्यवस्था में देशी पूंजी और साम्राज्यवादी पूंजी का जो भीतरी गठजोड़ चल रहा है, आगे चल कर वह समाजवादी समाज की रचना में बहुत बड़ा रोड़ा बन सकता है,  फिर भी उनको नेहरू की विचारधारा और उनके सपने पर पूरा भरोसा था, जैसा कि उस समय के अन्य अनेक वामपंथियों को भी था। वे उस समय सोवियत संघ की विश्व-भूमिका को भी आशान्वित होकर देख रहे थे, यद्यपि देशी--विदेशी बुर्जुआ पूंजी के स्वतंत्र भारत में बढ़ते गठजोड़ के प्रति उनके मन में आशंकाएं भी कम नहीं थीं। यह उस समय के उनके राजनीतिक-आर्थिक रिश्तों पर लिखे लेखों में व्यक्त विचारों और पक्षधरता से जाहिर हो जाता है। इस मामले में मुक्तिबोध बेहद सजग, संवेनशील और ज्ञान-गवेषक रचनाकार थे। उनकी रचना-दृष्टि की सबसे बड़ी खूबी उनकी वह सजग और संवेदनशील विश्व-दृष्टि है, जो कभी-कभी और किसी-किसी को ही सुलभ हुआ करती है। यही कारण है कि उनकी काव्य--अनुभूतियाँ अपने समय के प्रति जितनी आचरणधर्मी, संवेदनापूर्ण, बहुआयामी, चौकन्नी और जन-निष्ठ हैं, उतनी उस समय के बहुत कम रचनाकारों की थी। देश ही नहीं वरन पूरी -दुनिया के रिश्तों पर उनकी पैनी नज़र यह जाहिर करती है कि आज की नव--उदारवादी जन -विरोधी अर्थव्यवस्था की बुनियाद के पत्थर उसी आरम्भकाल में लगा दिए गए थे , यद्यपि उस समय उनके ऊपर समाजवाद का प्लास्टर कर दिया गया था।

आज  की  नयी परिस्थितियों में तेज़ी से बढ़ते  निजीकरण के उफान और उसकी आमतौर पर मान ली गयी स्वीकृति ने सार्वजनिक उत्पादन-क्षेत्र और उससे सम्बंधित चिंतन--व्यवहार के हाथ--पाँव फुला दिए हैं। मुक्तिबोध जब तक जीवित थे- आशंका के द्वीप -अँधेरे में होने के बावजूद आशा के कुछ प्रज्ज्वलित दीप भी बचे हुए थे। हालांकि  मुक्तिबोध की सारी आशंकाएं आज सच साबित हुई हैं। अब यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि ऐसा दूरदर्शी और मानव मन का पारखी कवि कभी कभी ही हुआ करता है। जो कवि मानव मन को बहुत ऊपरी सतह पर जानता है वह उसके उन अज्ञात-अँधेरे कोनों की खबर नहीं ले पाता, जो समाज को कु या सु गति प्रदान करते हैं। मुक्तिबोध की एक प्रदीर्घ कविता है - भविष्यधारा” -जिसमें उस सारी प्रक्रिया को जगह दी गयी है, जो व्यक्ति मन में उत्पादन के स्वामित्त्व संबंधों के साथ चलती और बदलती रहती है। इस तरह के विषय अन्य कवियों के यहां बहुत कम आये है जहाँ मानव मन को लगातार टटोला गया हो। इस कविता में मुक्तिबोध, साहित्यकार और वैज्ञानिक का सहसा सम्बन्ध नहीं जोड़ते वरन उसकी आज के वैज्ञानिक युग में बहुत बड़ी जरूरत मानते हैं। विज्ञान-दृष्टि का अभाव ही व्यक्ति को वर्गचेतना से हटाकर भेद--बुद्धि की ओर ले जाता है और वह अपने स्वार्थों के वशीभूत हो अपने संवेदनात्मक उद्देश्यों से किनारा कर लेता है। कवि को दृष्टा इसी अर्थ में कहा गया है कि जो कुछ ऊपरी सामान्य जीवन -सतह पर दिखाई नहीं दे रहा है, उसे भी वह सतहों के भीतर तक प्रविष्ट हो देख-जान और समझ ले। मुक्तिबोध ऐसे ही अति--विरल कवियों में हैं, जो अनचीन्हे को चीन्ह लेते हैं। इस भविष्यधारा कविता में वे अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के सवाल को उठाते हुए कहते हैं कि हमारा आज का यह वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में प्रज्वलित गैस स्टोव के पास क्यों सो गया है? वैज्ञानिक के सो जाने को मुक्तिबोध एक भयानक घटना के रूप में देखते हैं। यह तथ्य है कि व्यक्ति के भीतर का वैज्ञानिक अक्सर सोया हुआ मिलता है। यहां तक कि स्वयं विज्ञान की दुनिया से सम्बद्ध लोगों का  भी यही हाल है। इतिहास--गति बतलाती है कि विज्ञान ही है जो नव आविष्कृत समीकरण सूत्र निकाल कर समाज को देता है, किन्तु समाज में ऐसी ताकतें सक्रिय रहती हैं, जो विज्ञान चेतना को बेहोशी की दवा पिला देती हैं। वे आस्था के नाम पर व्यक्ति के भीतर के वैज्ञानिक की ह्त्या करने से भी बाज नहीं आती। ऐसी परिस्थितियों का निर्माण स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था अपने उन्ही साधनों से करती है, जो विज्ञान ने उसे सुलभ कराये हैं। मुक्तिबोध अपनी इस-भविष्यधारा-कविता में इस परिस्थिति का चित्रण करते हुए लिखते हैं

जल रहा गैस स्टोव पास
सूना कमरा गहरा उदास
नीली अरुणिम लौ की कलिका
पर एक परीक्षण -नलिका वैसी-की-वैसी
यंत्र पर रखी।।
वह कौन जबरदस्ती जिसने कर डाला है
यों अंतर्मुख वैज्ञानिक को ?
बलात काट दी स्वाभाविक  
विजयिष्णु वृत्तियाँ बाह्योन्मुख
धोखा वैज्ञानिक सूक्ष्म बुद्धि को दिया?

यहां सब कुछ स्पष्ट, गद्यात्मक और विवरणपरक है। यह वैज्ञानिक एक प्रदीर्घ और टूटी नसेनी पर अपने पैर रखकर एक जादुई दीपक के ऐसे जीवन-सत्य को लेकर आसमान में चढ़ रहा है, जो पूंजी की व्यवस्था के काम का नहीं रहा है।  क्योंकि मनुष्य की गति उसके अनुरूप नहीं है।
 
जैसा कि प्रारम्भ में भी कहा जा चुका है कि मुक्तिबोध की कविता कई मामलों में उनके अपने जमाने से आज ज्यादा प्रासंगिक और अर्थवान हो गयी है, जो अपने उद्देश्य में लोकधर्मी है, किन्तु सबसे ज्यादा खबर उन कारकों की लेती है, जो जनोद्देश्य तक पंहुचने में बाधक बनते हैं। वे आदर्श के हवाई किले बनाने वाले कवियों में नहीं हैं, बल्कि अपने सपने के साथ यथार्थ की गहराइयों में उतरने वाले कवियों में हैं। मुक्तिबोध चीजों को समग्रता में जांचने-परखने वाले कवियों की परम्परा में आते हैं-जैसे आदि कवि वाल्मीकि, तुलसी, निराला और गद्य में प्रेमचंद। ये पेड़ के मूल को पकड़ते हैं, जबकि अधिकांश उसकी शाखा-प्रशाखाओं, पल्लवों-पुष्पों तक ही सीमित रह कर अपनी काव्य यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं या फिर जीवन भर उसी को दुहराते रहते हैं। मुक्तिबोध ने भावानुभूत ज्ञान को कला का विषय माना है। जो ज्ञान भावानुभूत नहीं है, वह शास्त्र का विषय हो सकता है, कला का नहीं। इसी तरह कविता में जो भाव-ज्ञानानुभूत नहीं है, वह कोरा भावोच्छवास है, जो उसके पाठक को दिग्भ्रमित करने के अलावा किसी काम का नहीं। सच्ची भावानुभूति तब तक सम्भव नहीं है, जब तक कि कवि की अपनी जीवन--क्रियाएँ पूरी तरह उसके अपने समय के  रिश्तों की पेचीदगियों की अंतर्गुहाओ को न जानती हों। सच तो यह है कि जब तक श्रमिक-किसान वर्ग के जीवन-संघर्षों से कवि-जीवन का गंभीर साहचर्य न हो और उन कारणों की गहरी  छानबीन करने की विवेक-बुद्धि न हो, तब तक उसकी कविता में एक तरह का आधा-अधूरापन बना रहेगा। कहना न होगा कि मुक्तिबोध ने निराला की तरह स्वयं को अपने समय के जीवन में भाव , ज्ञान और आचरण के तीनों स्तरों पर एकाकार कर लिया था, तभी वे साहित्य के आकाश की ऊंचाइयों को छू सके थे।

जैसा  कि बतलाया जा चुका है कि मुक्तिबोध का ज़माना हूबहू आज जैसा नहीं था, देश की जनता ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी से उनके समय में ही मुक्त हुई थी, उन्होंने औपनिवेशिक पराधीनता का वह क्रूर काल देखा था, जिसमें हिन्दुस्तान के नागरिक को ब्रिटिश सत्ता की अनुकम्पा पर अपने दिन काटने पड़ते थे। ब्रिटिश शासक देश की श्रम-अर्जित पूंजी और यहां के प्राकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूट कर, जहाँ भारत को विपन्न बनाते थे वहीं  अपने देश ब्रिटेन को संपन्न। इसी लूटी हुई सम्पन्नता की ताकत से इंग्लैंड का तेजी से औद्योगिक विकास हुआ। जैसाकि अतिरिक्त पूंजी संचित हो जाने और पूंजीवादी व्यवस्था में हुआ करता है। किन्तु उनके शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध लगातार संघर्ष होते रहे, तभी जा कर उनकी  गुलामी से मुक्ति हासिल हुई। उस समय तक भारतीय जनता में एक अलग तरह का जज्बा बना हुआ था। 1857 और उससे भी  पहले से भारत में जो जन--संघर्ष स्वाधीनता के लिए अनवरत चले, उनकी परिणति 1947 में मुक्तिबोध की आँखों के सामने हुई। देश को औपनिवेशिक तंत्र से मुक्ति मिली। लेकिन यह कहना भी गलत नहीं है कि मुक्तिबोध के लिए यह अभी पूरी मुक्ति नहीं थी। क्योंकि  इस मुक्ति में जो हिस्सेदारी देशी और विदेशी पूंजी को यहां मिल गयी थी, वह श्रम को नहीं मिली थी। मुक्तिबोध की विचारधारा से यह मुक्ति तो थी किन्तु इसका सबसे ज्यादा फायदा उस देशी पूंजी को मिलने की पूरी सम्भावना थी जो उस समय सबसे आगे और नेतृत्त्वकारी भूमिका में थी। किसान--मजदूर सरीखे मेहनतकश वर्ग को  अपने वर्ग की ताकत का न पूरा राजनीतिक बोध था और न ही निचले स्तर पर उसे आर्थिक संबंधों की पेचीदगियों की जानकारी थी। उसका प्रतिनिधित्त्व वह मध्यवर्ग करता था, जो अपनी सुविधाओं के जाल में खुद फंसा रहता है। मुक्तिबोध के शब्दों मे कहें तो उच्च-मध्य वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो जितना देश से लेता है, उसकी तुलना में देता बहुत कम है। इस बारे में उनकी प्रसिद्ध कविता-अँधेरे में -से वास्तविकता की उदघाटक ये काव्य पंक्तियाँ आज भी मन को भीतर तक झकझोर देती है

                                              अब तक क्या किया,
                                              जीवन क्या जिया।.
                                             
                                             बताओ तो किस किस के लिए तुम दौड़ गए,
                                             करुणा के दृश्यों से हाय।  मुंह मोड़ गए,
                                            बन गए पत्थर,
                                             
                                            बहुत  बहुत ज्यादा लिया,
                                            दिया बहुत -बहुत कम,
                                             मर गया देश, अरे., जीवित रह गए तुम ।।  

अपने लिए ही जीवित रहने की यह प्रबल स्वार्थ-भावना उच्च-मध्य वर्ग की बहुत बड़ी कमजोरी रही है। इसी वजह से देश का तत्कालीन मेहनतकश वर्ग एक बड़ी राजनीतिक हस्तक्षेपकारी भूमिका में नहीं आ पाया था। आया भी था तो बहुत खंडित और आधे--अधूरे रूप में। जबकि स्वाधीनता संघर्षों में वह और उसकी विचारधारा कभी पीछे नहीं रही थी। इसके बावजूद वह पूर्ण नेतृत्त्वकारी भूमिका में नहीं आ पाया था। उस समय पूंजीपति वर्ग और उसकी विचारधारा को पुष्ट करने वाले उच्च और उच्च--मध्यवर्गीय राजनेता ही खासतौर से देशी शासकवर्ग में प्रतिष्ठित हुए। महात्मा गांधी सर्वधर्म समभावी की तरह अर्थनीति में भी सर्व-अर्थ-समभावी की विचारधारा को मानकर चलते  थे, जिसका मतलब था पूंजी के हाथ में सत्ता का केंद्रित होते जाना।

स्वतंत्र और नियंत्रणहीन पूंजी से निजी बाज़ार का विस्तार होता है। पूंजी हमेशा खुले बाज़ार में ही फलती-फूलती है। पूंजी का मतलब होता है बाज़ार और बाज़ार का मतलब होता है पूंजी। समझने की बात यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े चिंतक शब्दों की बाज़ीगरी बहुत किया करते हैं। जब एक शाब्दिक धारणा बहुत बदनाम हो जाती है तो वे अपनी हेरफेर करने वाली छल बुद्धि से उसे बदल देते हैं। जब पूंजीवाद शब्द बहुत बदनाम हुआ तो उसकी जगह मुद्रा की तरह एक नया सिक्का चला दिया बाज़ार। जबकि बाज़ार और पूंजी दोनों का मतलब एक ही होता है। बाज़ार तो हर युग में रहा है किन्तु जहाँ उसकी  नकेल समाज के हाथों में रही है वहाँ उसे जन-हित में काम करने को मज़बूर होना पड़ता है। नियंत्रणहीन बाज़ार अतिरिक्त पूंजी पैदा करता है, और वही अतिरिक्त पूंजी, बाज़ार का विस्तार करती हऔर यह श्रम-पूंजी के स्थान पर उसे  सटोरिया पूंजी में बदलती जाती है। इससे श्रम, उद्योग और पूंजी का अलगाव कर दिया जाता है। यही कारण है कि पूंजी बाज़ार अपने विस्तार के लिए  अपनी सामरिक ताकत को भी निरंतर बढ़ाता जाता है। युद्ध और बाज़ार दोनों का एक रिश्ता बन जाता है। हथियारों का व्यापार इसीलिये बढ़ती पूंजी के साथ साथ बढ़ता जाता है। इसीलिये मुक्तिबोध ने काव्य--सृजन के साथ साथ समाज के उत्पादन-संबंधों पर भी बहुत गहराई से विचार व मनन किया है, जिससे उनकी संवेदना का ज्ञानात्मक स्वरुप निर्मित हुआ। उनकी कविता की संवेदना का धरातल ज्ञानात्मकता से बनता है। कहा जा सकता है कि उनकी कविता--नदी का एक तट यदि उसकी भावधारा से बनता है तो दूसरा तट ज्ञानधारा से। दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। मुक्तिबोध मानते हैं कि हर कलाकार एक बाह्य जगत में रहता है और वह उसके अनुरोधों और आग्रहों को स्वीकार भी करता है किन्तु उनको पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाता या व्यक्त कर पाने की कोशिश नहीं करता। वह चुप हो जाता है या अपनी दिशा बदल लेता है। मुक्तिबोध इस मामले में बहुत सजग हैं और जमाने से आगे चलने और अलग रास्ता अख्तियार करने की  वजह से वे अपने समय में उपेक्षित भी रहते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि काल के अश्व पर वे ही सवारी करते हैं।
      
मुक्तिबोध अपने जीवन में साहित्य के साथ राजनीतिक—सामाजिक और आर्थिक -सांस्कृतिक जीवन के प्रति भी सजग और विचारशील रहने वाले रचनाकार थे।  कहने की जरूरत नहीं कि देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से ही अपनी सीमाओं के साथ देशी पूंजी का बाज़ार फलने--फूलने लगा था। जाहिर है कि आज के नव--उदारवादी बाज़ार की बुनियाद का एक बड़ा पत्थर उसी समय लगा दिया गया था, जिसे मुक्तिबोध की अंतर्दृष्टि ने दूर से देख लिया था। यह कदाचित सभी को मालूम है कि मुक्तिबोध ने स्कूल शिक्षक होने के बाद 1956 से 1958 तक नागपुर से प्रकाशित दो साप्ताहिक पत्रों –‘नया खून’ और ‘सारथी’-में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लगातार लेख लिखे थे, जिनमें से अधिकांश किसी छद्मनाम से लिखे गए थे। मुक्तिबोध इस तथ्य से बाख़बर थे कि देश को आज़ादी मिल जाने के बाद भी यहां की अर्थव्यवस्था में विदेश पूंजी की दखलंदाज़ी बनी हुई है। इसमें सबसे ज्यादा पूंजी थी ब्रिटेन की और इसके बाद अमरीका की। 3 अक्टूबर 1954 के सारथी साप्ताहिक के अंक में मुक्तिबोध ने यौगन्धरायण के नाम से-अंग्रेज गए, परन्तु इतनी अंगरेजी पूंजी क्यों?’ शीर्षक एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने बतलाया है कि बिड़ला और टाटा विदेशी पूंजी के आमंत्रण को भारत के लिए (यानी स्वयं उनके लिए) हितकर समझते हैं। बिड़ला महोदय स्वयं अनेक ब्रिटिश उद्योगपतियों से पूंजीबद्ध हैं। तो टाटा महोदय अमरीकी पूंजीपतियों से। अपने मुनाफे की वृद्धि के लिए भारत शासन पर निर्णायक प्रभाव रखते हुए वे साम्राज्यवादी पूंजी को बुलाते हैं, उस पूंजी के जूनियर पार्टनर की हैसियत से काम करते हैं और उनसे पूंजीबद्ध हो जाते हैं। पंचवर्षीय योजना ने उनको इस कार्य में अधिक उत्साहित किया है। स्पष्ट बात यह है कि ये कल के राष्ट्रवादी  पूंजीपति आज भारत को केवल औपनिवेशिक क्षेत्र बनाये रखने की ओर ही कदम बढ़ा रहे हैं, कि उसके वास्तविक औद्योगीकरण की ओर। “(मुक्तिबोध रचनावली भाग--6 ,राजकमल पेपरबैक, पृष्ठ 66-67) इसी सम्बन्ध में उनका एक दूसरा लेख नया खून साप्ताहिक में 1955 में प्रकाशित हुआ, जिसमें वे कुछ सवाल समाजवादी समाज रचना को लेकर उठाते हैं. इस आलेख में मुक्तिबोध अपने पाठकों का ध्यान उन आठ बिन्दुओं की तरफ  आकर्षित करते हैं, जो समाजवादी समाज रचना के मार्ग में रोड़ों की तरह दिखाई देते हैं। पहले सवाल में वे पूछते हैं कि अगर देश में  पूंजीवादी समाज-रचना के स्थान पर समाजवादी ढंग की समाज--रचना लाने की ओर प्रयत्न किया जा रहा है तो (यह महत्त्वपूर्ण बात है) देश के गरीब वर्ग अधिकाधिक गरीब और श्रीमान वर्ग अधिकाधिक श्रीमान क्यों होते जा रहे हैं। गरीब वर्गों और धनी वर्गों के बीच की खाई अब पहले से ज्यादा बढ़ गयी है। यहां तक कि मध्यवर्ग और निम्नमध्य वर्ग के बीच भेद की दीवार और न फांदी जा सकने वाली खाई पडी हुई है, जो बढ़ती जा रही है।“ (मुक्तिबोध रचनावली, छठा भाग, पेपरबैक, पृष्ठ 67-68 ) आज सड़सठ साल बाद यह सवाल अपनी भयानकता के साथ हमारे सामने गरीब वर्ग को चिढ़ाता हुआ उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है।  इस बढ़ती भयानक खाई को लेकर आज पूंजीपति वर्ग के ही कुछ बुद्धि-विमर्शी  समय समय पर अपनी चिंता जाहिर करते रहते हैं।

उस समय की एक समस्या और सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि  नयी सत्ता और उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के मोह जाल में मध्यवर्ग के फंसते जाने की प्रबल संभावनाएं सामने थी, जिनमें अनेक साहित्यकार उलझ भी गए थे। मुक्तिबोध का पहला और स्वयं के स्तर पर यही संघर्ष था कि वे अपने साथी अन्य लेखकों की तरह नयी सत्ता से समझौता कर लें या फिर अपने उसी रास्ते पर चलते रहें, जो औपनिवेशिक काल के समय से ही सोच लिया गया था। वह रास्ता वह नहीं था, जिस पर देश की स्वाधीन देशी सरकार चल रही थी। यह रास्ता देशी पूंजी और देशी बाज़ार की प्रभुता में बना था यद्यपि इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था नाम दिया गया था। यह राजनीति में नेहरू युग के नाम से जाना जाता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की ही यद्यपि सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां थी, जिसमें निजी पूंजी को अपना विकास येन-केन-प्रकारेण करते चले जाने की पूरी छूट मिली रहती है, जिससे कालांतर में निजी पूंजी इतनी सशक्त और प्रभत्त्व संपन्न हो जाती है कि एक दिन पूरी सत्ता वही हस्तगत कर लेती है। मुक्तिबोध की कविता आज इन नए जीवन--सन्दर्भों में और अधिक प्रासंगिक हो गयी है। यह उसकी महाकाव्यात्मकता का एक सबूत है।

महान आलोचक और विचारक रामविलास शर्मा की मुक्तिबोध के बारे में यह राय रही है कि वे देश के मज़दूर जीवन से तो वाक़िफ़ थे, किसान जीवन से नहीं। यह सम्भव है कि मुक्तिबोध, किसान-जीवन के सीधे संपर्क में नहीं रहे हों क्योंकि वे अपने समय के मध्यवर्गीय परिवार से आते थे, जो आमतौर  पर आज की तरह कस्बों और शहरों में अपनी जिंदगी बसर करता है किन्तु यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके जीवन काल तक हमारे देश के किसान-श्रमिक जीवन में वैसी फाँक, खाई और अलगाव पैदा नहीं हुआ था कि वे आपस में एक दूसरे को जान न सकें, जैसा कि आज नज़र आता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका समय ऐसा समय था, जब आज जैसा श्रम-विभाजन नहीं हुआ था, जिसमें मजदूर वर्ग, किसान समुदाय से अलगाव की स्थिति में आ जाता है। हमारे देश में मजदूर भी यद्यपि आता किसान समुदाय से ही है किन्तु शहर में रहते हुए और खेती -किसानी से कटते चले जाने के कारण उसकी समस्याएं कुछ अलग किस्म की हो जाती हैं। हमारे देश में एक बड़ा श्रमिक समुदाय ऐसा भी है, जो संगठित रूप में कभी सामने नहीं आया। खेतिहर किसान ऐसे ही श्रमिक वर्ग की श्रेणी में आता है। इन सबका साबका हर रोज शहर से पड़ता है। कहना न होगा कि मुक्तिबोध इनकी एकता के पोषक रचनाकार हैं। उनकी कई कवितायेँ ऐसी हैं जिनमें किसान समुदाय के जीवन से सम्बंधित रूपक आये हैं। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वे किसान जीवन से वाकिफ नहीं थे। उस समय की उत्पादक शक्तियों से उनकी गहरी और वास्तविक सहानुभूति भी थी और उनकी जानकारी भी। उनकी अल्प-चर्चित एक कविता है-इसी बैलगाड़ी को“- इस कविता में कवि शहरी और ग्रामीण मेहनतकश और मध्यवर्ग के बीच केवल आबोहवा का फर्क देखता है अन्यथा जिंदगी की बैलगाड़ी को दोनों-तीनों ही अपनी अपनी तरह से खींच रहे हैं यद्यपि वर्तमान में मध्यवर्ग पूंजी बाज़ार का पहले से ज्यादा क्रीतदास बनता जा रहा है।  मुक्तिबोध कहते हैं --

इसी बैलगाड़ी को पहाड़ी ढालों पर
चढ़ाता-उतारता बढ़ाता हूँ मैं
इसी बैलगाड़ी को
बहुत दूर तुम
खींच रहे हो शहरी अँधेरे में
वही बैलगाड़ी
वही हांकना
सिर्फ एक फर्क है
                  फर्क आबोहवा का

मुक्तिबोध की कविता की खूबी यह है कि वे उन जीवन मूल्यों की खोज और रचना करते हुए खासतौर से नज़र आते हैं जो व्यक्ति के आतंरिक सौंदर्य को उदघाटित करते हैं। कविता जीवन की जटिलताओं के बीच उसकी आतंरिक उदात्तता को खोज कर उसकी  रचनात्मक परिणति का नाम है। जहां बाहर और भीतर के  सौंदर्य का फर्क मिट जाता है। जैसे महाकवि रवीन्द्र दो मजदूरों को एक दूसरे के कन्धों पर हाथ धरे हँसते हँसते चले जाते हुए देख कर अनिर्वचनीय सौंदर्य का अनुभव करते हैं।  वे कहते हैं कि उनको देखकर मेरे मन में यह विचार नहीं उठा कि ये मामूली मजदूर हैं। उस दिन मैंने उनकी अंतरात्मा को देखा, जहां चिरकाल कामानव है।यहीं महाकवि सौंदर्य को परिभाषित भी करते हैं। वे कहते हैं -”बाह्य रूप से जो नगण्य लगता है, उसका जब हम आतंरिक अर्थ देखते हैं तो वह सुन्दर लगता है। यहां  कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध इसी अंतरात्मा के सौंदर्य की तलाश और उसकी रचना करने वाले एक समर्थ और कालजयी रचनाकार हैं। उनकी सम्पूर्ण रचना पूंजी बाज़ार की इस नयी सभ्यता का एक बड़ा और वास्तविक  प्रतिरोध खड़ा करती है, जो मनुष्यता को हमेशा आँख ओट रखने और रखाने का काम करती है। इतना ही नहीं वह उसका एक वैकल्पिक विज़न भी प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध अपनी इसी बैलगाड़ी को कविता में लिखते हैं----

इस वक्त
परेशान हमने एक काम किया
रास्ते में एक ओर
कंडे की लाल आग
टिक्कड़ लगी सेंकने
बहुत बहुत परेशान थके हुए हम भी हैं।
लेकिन सुगंध उस
                  टिक्क्ड़ की खूब जोकि
आत्मा में फैलती है
ईमान की भाप बन।

कहना न होगा कि मुक्तिबोध जीवन भर आत्मा में फैलने वाली इसी ईमान की भाप के लिए बेहद ईमानदारी से वास्तविक जीवन संघर्ष करते हुए साहित्य--सर्जना में संलग्न रहे। ईमान की इसी भाप ने उनको एक कालजयी रचनाकार बनाया।  


 
जीवन सिंह

सम्पर्क-
जीवन सिंह
1 /1 4, अरावली विहार,
काला कुआ,
अलवर (राजस्थान) 301002
mob---09785010072
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 
(वागर्थ से साभार)

टिप्पणियाँ

  1. मुक्तिबोध पर हमारी समझ को विस्तार देता आलेख ।कविताओं को कवि के समय की चेतना से जोङता और समकालीन लेखन को आज के खतरों से आगाह करता, इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए पहली बार को धन्यवाद ।

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शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'