लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा पर यतीश कुमार की समीक्षा 'खून और पसीने से सींची हुई कहानी'।
कोई भी आत्मकथा केवल उस व्यक्ति की अपनी कहानी नहीं होती। उस कहानी में जिक्र होता है उस समय का। जिक्र होता है समय के संघर्षों का, तथा इन संघर्षों में सहभागी बने व्यक्तियों का। इस आलोक में देखें तो लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा ‘जब से आँख खुली हैं’ केवल उनकी नहीं बल्कि सतपुड़ा के जंगलों में विस्थापित हो कर पहुँचे खान-मज़दूरों, दलित-अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों की भी कथा है। इस कथा में जड़ रूप में जीवन देने वाली मां है, जिसके बिना कोई आत्मकथा ही क्या, कोई भी कथा, कविता अधूरी होती है। मंडलोई जी अपनी इस आत्मकथा में बचपन की यादों में विचरते दिखाई पड़ते हैं। इसके साथ ही इस आत्मकथा में बकौल यतीश कुमार "यहाँ बिना अस्पताल के जड़ी-बूटियों, पत्तियों से इलाज के अजूबे तरीक़े मिलेंगे, इसी के साथ उजड़ते जंगल में तितलियों के उड़ते रंग भी। पेड़–पौधों की ख़ुशबू अपने पूरे दृश्य-संयोजन के साथ इस किताब में उपस्थित है। बचपन का कोई भी किस्सा, कैरियों की दाँतकट्टी खटास और इमली की खटमिट्ठी झाँस के बिना कहाँ संभव? जंगल की बात हो तो शिवप्रिय बेर और उसके काँटे का स्वाद याद आना स्वाभाविक है। सब कुछ पूरी रोचकता के साथ दर्ज किया गया है । 'बरोह’ यानी बरगद की ललाई पत्तियों का रस और छालों का अर्क किसी दवाई से कम नहीं। उस लोक के लोग श्रद्धा से पेड़ को नमन करते हैं—यह हम सबके लिए आज भी सीख है।लेखक अनार, इमली, पानी-फल (सिंघाड़ा), अमरूद, जामुन आदि फलों की विशेषता और जंगल जीवन में उनकी उपलब्धता और उपयोगिता का दर्शन कराते हैं। हर एक फल का औषधीय गुण और चिकित्सीय पक्ष पर ध्यान आकर्षित कराते हैं।" कवि यतीश कुमार ने इस आत्मकथा से गुजरते हुए इसे सूक्ष्म दृष्टि से देख कर इस की समीक्षा की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं लीलाधर मंडलोई की आत्मकथा पर यतीश कुमार की समीक्षा 'खून और पसीने से सींची हुई कहानी'।
'खून और पसीने से सींची हुई कहानी'
यतीश कुमार
किताब के पहले पन्ने पर ‘अबेरना’ जैसे शब्द को देखते ही मैं उस लोक में प्रवेश कर गया, जहाँ की मिट्टी असल में इस रचना की असली ज़मीन है। घटित यथार्थ के आवर्तन की यह अनुगूँज पहले पन्ने से ही मुझे अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी। स्मृतियों की धमक और तत्कार को यूँ सुन पाना सबके बस की बात नहीं। कसक–मसक की भाषा गढ़ने से गुज़रा हूँ, इसलिए ये बातें अंतस में उतरती रहीं हुबहू।
“मैं स्मृतियों में एक नट की तरह अपने को गिरने से बचाता रहा हूँ।” — जैसी पंक्तियाँ पाठकीय सुकून की पालनहार हैं।
कोयला-मजूरी और विस्थापन का सच अभी-अभी फड़फड़ाना बस शुरू ही हुआ है, भय के अंतर्भुक्त प्रभाव ने अभी फूँकना शुरू किया है और वह धीरे-धीरे मेरी सिहरन का सबब बनता जा रहा है।
विस्थापन का दंश पहले पन्ने की उपज है। पिपरिया से सतपुड़ा के बीच दर्द का जंगल—पेट की भूख और छालों से ज़ख़्मी पाँव लिए—जिस रास्ते से एक युग आया था, उसी रास्ते से डगमगाती लौट रही है आज बेतरतीबी से यादें जिसे लेखक ने अलग-अलग छोटे अध्यायों में समेटा है। उन शुरुआती यादों में दीदी का प्यार, उनका झुँझलाना और गुदड़ी का झूला साफ दिख रहा है। दीदी की चूड़ी में माँ की चूड़ी की खनखन—उनके न होने पर भी होने-सा—उपस्थित है।
दुःख को पाटने के जितने उपाय माँ के पास होते हैं, उतने किसी के पास नहीं। लेखक लिखते हैं—कुदाल, फावड़े और तसले की ध्वनियों में माँ-पिता की मौजूदगी थी। बीड़ी की गंध में उनके होने की याद आज भी लेखक को विचलित कर देती है।
बचपन के लाड़–दुलार के परे एक जलता हुआ बचपन दिखा वहाँ। ‘चंदा मामा दूर के’ वाले गीत में बस पुआ का दर्शन न मिलना बहुत मार्मिक संदर्भ है। इस किताब से गुज़रते हुए इतने सुंदर देशज शब्दों के इतने बेहतरीन प्रयोग को देखकर मैं चकित हूँ—ओट, हिलगाये हुए, अबेरना, हिलगना, ढकना, रूपा देना, बुहारू, तगाड़ी, बरोह, पदना, टुकनियाना, खोंटना, कबेलू, लब्दो, गेवड़ा, सुआपी, सपन्ना सब इस किताब में टिमटिम तारें माफिक हैं।
यादें कितनी महीन दर्ज हैं इस किताब में। यहाँ चक्की के भीतर पाटों के दर्द को यूँ दर्ज किया गया है—कैसे छेनी-छेनी की चोट से उसे खुरदुरा बनाया जाता था ताकि दाने चक्की के संगीत के साथ महीन पिस सकें। दुःख और दर्द के ख़ज़ाने की चाबी जमा करके गुम कर देने की कला सिर्फ माँ के पास होती है, जिसे लेखक ने अत्यंत मार्मिक, परंतु बिना किसी अतिशयोक्ति के व्यक्त किया है—“न ख़ुद उसे खोलती, न किसी को खोलने देती।”
“मैं उसी का सताया ‘लौटता’ हूँ—बार-बार; यह जानते हुए कि इधर लौटना एक घिस चुका मुहावरा है या सिक्का, जिसकी इस बाज़ार में कोई क़ीमत शेष नहीं।” लेखक बचपन की यादों में विचरने को ‘लौटना’ कहते हैं, पर उनकी इस बात से इत्तफ़ाक रखना मुश्किल है कि लौटने की कोई क़ीमत नहीं, जबकि मुझे लगता है—आज का आधार, आज का संबल ही लौटना है।
स्मृतियों में जाना और डुबकी लगाना दुरूह कार्य है—और इस बात से भी इत्तफ़ाक रखा जा सकता है कि—“इस टुकड़खोर जीवन में यहाँ भी टुकड़ों में आता और आधा-अधूरा जिया जाता हूँ।” ‘चाय–मिसल क्या दुनिया बदल सकता है?’—यह किताब में एक अहम मोड़ है और इसे समय की धार के विरुद्ध उठा कदम कहा जाए तो ग़लत न होगा। पकते चने की खुशबू जैसा दूसरा अलौकिक आनंद भला और क्या होगा!
माँ के चित्रण में बहुगुणी होने के साथ-साथ नेतृत्व के सबसे गहरे रंग हैं। मुसीबत में सही निर्णय कितना ज़रूरी है—यह यहाँ दर्ज संदर्भों से, जैसे माँ का लिया निर्णय चाहे महुआ को घड़े में सूखा कर रखना हो या अपने सामर्थ्य से बढ़ कर कोपर (परात) खरीदने के निर्णय की बात हो, इसे समझा जा सकता है। माँ को इस किताब से निकाल दो तो ऐसा प्रतीत होगा जैसे इस किताब से इसकी आत्मा को अलग कर दिया गया हो।
यहाँ बिना अस्पताल के जड़ी-बूटियों, पत्तियों से इलाज के अजूबे तरीक़े मिलेंगे, इसी के साथ उजड़ते जंगल में तितलियों के उड़ते रंग भी। पेड़–पौधों की ख़ुशबू अपने पूरे दृश्य-संयोजन के साथ इस किताब में उपस्थित है। बचपन का कोई भी किस्सा, कैरियों की दाँतकट्टी खटास और इमली की खटमिट्ठी झाँस के बिना कहाँ संभव? जंगल की बात हो तो शिवप्रिय बेर और उसके काँटे का स्वाद याद आना स्वाभाविक है। सब कुछ पूरी रोचकता के साथ दर्ज किया गया है । 'बरोह’ यानी बरगद की ललाई पत्तियों का रस और छालों का अर्क किसी दवाई से कम नहीं। उस लोक के लोग श्रद्धा से पेड़ को नमन करते हैं—यह हम सबके लिए आज भी सीख है।लेखक अनार, इमली, पानी-फल (सिंघाड़ा), अमरूद, जामुन आदि फलों की विशेषता और जंगल जीवन में उनकी उपलब्धता और उपयोगिता का दर्शन कराते हैं। हर एक फल का औषधीय गुण और चिकित्सीय पक्ष पर ध्यान आकर्षित कराते हैं।
इन फलों से अलग एक फल रेठू का जिक्र है, जो इस घर में सबसे बुरे दिनों का साथी है, जिसे भूख को निगलने की आदत है। इन्हीं पेड़ों के जिक्र के बीच एक झाड़ी का जिक्र है जिसे ‘सेताब’ कहते हैं और लेखक को ऐसा लगता है कि इस पौधे के रहते इसकी गंध के कारण भूत प्रेत नहीं आ सकते।
बचपन के वे खेल—पदना, गिल्ली-डंडा, मूत-अटोनी, टिप्पू, सितोलिया—अब समय की चाल से लगभग कुचले जा चुके हैं, पर कहीं न कहीं किसी बरामदे या गली में आज भी साँस ले रहे हैं। लेखक उन स्मृतियों के ख़ज़ाने की चाबी लिए पूरे किताब में विचरता है।
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| लीलाधर मंडलोई |
पढ़ाई-लिखाई के शुरुआती सफ़र के साथ किताब सर्पिल मोड़ लेती है। शिक्षा के रास्ते अवर्ण–सवर्ण की दूरी को पाटने की कोशिश में निकले लेखक को स्कूल के दिनों में ही छुरा घोंपा जाना—कहानी का बड़ा मोड़ है।
इस कहानी को सींचा है खून और पसीने ने। यहाँ यह समझना बहुत मुश्किल है, कि एक ही कोयले की खान में पसीना बहाने के बावजूद लेखक का बालमन दोनों (माँ और पिता) का अंतर कैसे समझता है।
महुआ किसी की ज़िंदगी में भँवर के बीच पतवार का काम कर सकता है क्या? महुआ किसी के लिए किताब के घर आने का कारण बन सकता है। उसी किताबी दुनिया में बताया गया है कि महुआ एकमात्र शराब है जो फूलों से बनती है न कि फल से। महुआ बनाने की विधि का विवरण यहाँ इतना जीवंत है कि खदकते महुए की उत्तेजक गंध पाठक तक भी पहुँच जाती है। घड़ों में बंद महुए बुरे समय के भूख का साथी, जिसे माँ के हाथ का जादू चीले में बदल देता, यह पढ़ कर उस दुनिया को और नज़दीक से देखने का मन करता है।
बचपन के दोस्तों को याद करते हुए लेखक की नम आँखें महसूस की जा सकती हैं। फ़ारुख़ हो या मिर्ज़ा साझा खाना खाने की बातें दरअसल साझी ज़िंदगी जीने का मुहावरा है। उन दिनों दोस्तों का घर अपने घर से ज़्यादा अपना लगता था। जग्गू का पशु प्रेम और रज्जो से भूख की परिभाषा सीखा है लेखक ने जिसे पूरी ईमानदारी के साथ मासूमियत भरे अंदाज़ में कुबूला है लेखक ने।
यह संस्मरण गंध और गंध में स्वाद की कहानी है जहाँ पीड़ाओं का गवाह बनते-बनते कब आदम संघर्ष की लड़ाई में कूद जाता है पता ही नहीं चलता। दीदिया माँ का रूप कब धर लेती है पता ही नहीं चलता। कबीर के अनुयायी के घर में दर्द को भुलाने के गीतों का जिक्र भी है। आँधी आना किसी के घर में ख़ुशी की बात भी हो सकती है यह इस किताब ने समझाया। ज़िक्र है कि इस समय अधकच्चे फल टपक रहे होते जिससे घर में खटमीठ का स्वाद का जागना लिखा होता। उन दिनों कैरी और इमली उनके सच्चे साथी थे यह पता चला।
पेड़ों और पक्षियों ने रंग-बोध कराया। जंगल ने धुनों का परिचय करवाया, और अंतस में संगीत का रंग भरा।
खदान का एक पिंजड़ा—जो धरती के गर्भ में उतरते हुए टांगों को गुम कर देता है—ऐसे प्रसंग हवा में अटके हवाई जहाज़ के ज़मीन पर उतरने के झटके जैसे हैं। यह घर—पाठक के लिए भी अभावों की पाठशाला है।
इस किताब में भूख से लड़ कर स्वाद सिरजने की परंपरा है। इसी परंपरा में ख़ून का कतरा या महुए का खुर्मा बनाने की विधि का ऐसा जीवंत विवरण है कि स्वाद के पहले की ख़ुशबू पाठक तक पहुँच जाती है। खून की तरकारी किसी और संसार में नहीं बन सकती, पर उससे बने लोग एक दिन रचते हैं जीवन की सच्ची कविता, सच्ची कहानियाँ और बनते हैं सच्चे मन के लोग।
लेखक अक्सर लिखते समय जंगल के दृश्यों में ख़ुद को खोता हुआ पाता है और वे दृश्य हर अध्याय में और निखर कर पाठक से मिलते हैं। कहीं-कहीं तो रिश्तों का ताना बाना छोड़ जंगल का संगीत गुनगुनाने लगता है। लगता है जैसे लिखते समय, वह जल सुहाग की छवियों, रसीले मंजर, उस शाम के धुँधलके में उठी चिड़ियाँओं की तान और बागेश्री की विलंबित ताल को झाँकने के चक्कर में सब भूल रहा है, यहाँ तक यह भी कि यह उसका निजी संस्मरण है, आत्मकथा है और फिर वह लिख कर बैठ जाता है कि “एक कवि के सीने में इतना ख़्वाब भी पालना मुश्किल कि इस रसीले मंजर को बयान कर सके। इस धुआँ-धुआँ शाम के हुस्न के किसी एक लम्हे को पकड़ कर रोशन करने वाले अल्फ़ाज़ कहाँ?”
एक बर्तन—‘कोपर’—क्या आपकी पहचान बन सकता है? इस किताब में यह सच रोचक ढंग से रखा गया है, जहाँ उस बर्तन की कथा अब परंपरा की कथा में तब्दील हो चुकी है।
एक सुआपी यानी गमछे की कितनी विरल यादों को यूँ उकेरा है लेखक ने कि कब वह सुआपा पसीना पोंछता है और कब आँसू, कब वह सब्ज़ी का थैला बन जाता है कब कान ढाँपने का जुगाड़। असल में, जीवन में कुछ चीजें अंग की तरह होती हैं, साथ रहती हैं और उस अभिन्नता का अंदाज़ा उस समय नहीं होता जब तक साथ रहती हैं परंतु जब नहीं होती हैं साथ तो वे कितनी ज़्यादा खलती हैं। लेखक का गमछा इन दिनों खो गया है और उसे वो माँ के तकिये के पास कहीं दूर से देख रहा है, जिसमें पिता के पसीने की गंध भी मिली है।
भाई के भीतर का मरता हुआ राजकपूर, पहली बारिश में भीगने की ललक लिए माँ, सुगंध-स्वाद से भूख को पीछे धकेलती माँ, सुरैया के दीवाने पिता का बीड़ी के धुएँ में कबीर धुन गाते नीम-सा हो जाना; छोटे-छोटे सपनों में खोता लेखक; साथ देते और साथ छोड़ते उसके दोस्त—माँ, मासी और अजूबा परिवेश—कितना कुछ है इस किताब में।
संस्मरण या आत्मकथा पढ़ते हुए पाठक लेखनी और संदर्भों से इतना जुड़ जाता है कि घटनाओं में स्वयं को देखने लगता है। तरह-तरह से चोरी करके खाने के आनंद की मिठास ठीक वैसे ही मैं भी महसूस कर रहा हूँ। समय बदल गया, पर परिस्थितियों की तरह नहीं बदला—वह कुआँ—जो चालीस साल बाद भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करता है, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं।
सतपुड़ा के जंगल (गुड़ी गाँव) से भोपाल का धैर्य और विश्वास भरा काँटों पर चला सफ़र—एक दुखद मोड़ लेता है। इसी सफ़र में लेखक ने रोना भूलने की कला कैसे सीख ली, यह शायद दर्द के बेइंतहा होने के सिम्टम-सा मिलता-जुलता है। छोटे-छोटे सपने देखने वाला अब बड़े सपनों के लंबे सफ़र की ओर निकल चुका है।
अभी इस कड़ी की और कड़ियाँ जुड़ेंगी जिसका इंतज़ार रहेगा शृंखला के अगले भाग में।
लीलाधर मंडलोई एवं राजकमल प्रकाशन समूह को बधाई एक अत्यंत पठनीय किताब हम सब तक लाने के लिए।
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जब से आँख खुली हैं (आत्मकथा) : लीलाधर मंडलोई
राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण, 2025
मूल्य ₹ 315.00
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| यतीश कुमार |
सम्पर्क
यतीश कुमार
मोबाइल : 8420637209
में



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