महाराज कृष्ण संतोषी की कविताएँ
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| कमल जीत चौधरी |
'परांस-8'
सबको अपनी खोई हुई चीज़ें मिल जाएँ
कमल जीत चौधरी
‘परांस-8’ की शुरुआत इस पंक्ति से कर रहा हूँ- ‘मैं किसी सूरज का कर्ज़दार नहीं।’ यह चाँदों के परिदृश्य से बहुत दूर, देखने में छोटे मगर होने में बड़े; एक तारे का काव्य-कथन है। इसके कवि महाराज कृष्ण संतोषी हैं:
‘चाँद के पास
वह जो टिमटिमा रहा है तारा
जैसे मैं हूँ
अपनी रोशनी में अकेला
पर यह सोचते हुए
कितना संतुष्ट हूँ
कि मैं किसी सूरज का कर्ज़दार नहीं हूँ।'
यहाँ अपनी रोशनी में जो अकेला है, वह अपनी नज़र में प्रतिष्ठित है। हालांकि यह कवि जिस संवेदना से सम्बन्ध रखता है, वहाँ अपमान, धक्का, विस्थापन, अँधेरा और निराशा अधिक है। मगर यहाँ जो दर्प है, वह स्वर्ग से सुन्दर है। यह मुग्ध भाव; अमरता का नहीं बल्कि उस धूल के होने का है, जिसके कारण सृष्टि में अनेक जीवन-मार्ग खुलते हैं। यहाँ दुख और संतोष की स्थिति विशदता की ओर ले जाती है।
कविता किसी 'एक' से सृजित नहीं होती। यह बात हिन्दी कविता पर भी लागू होती है। यह ऐसे महादेश (भारत) की कविता है, जो विविधता और सामूहिकता के लिए जाना जाता है। यहाँ की बहुल भाषाएँ, संस्कृतियाँ, धर्म, विचारधाराएँ, दर्शन और भौगौलिकता ही नहीं, बल्कि यहाँ अन्याय, ग़रीबी, अत्याचार, जातिवाद, धर्म का राजनीतिकरण, साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतें भी; कवियों को मौलिक और बड़ा होने का अवकाश देती हैं। मगर यह 'आपदा में अवसर' प्राप्त करने जैसा कदापि नहीं है। यहाँ चुनौती और खतरा प्रत्यक्ष रहता है। यह सुयोग; विशेष प्रतिभा, प्रतिबद्धता, दायित्वबोध और सच्चे कवि-व्यक्तित्व की अपेक्षा करता है। हिन्दी कविता जिन इलाकों से आती है, उनमें कुछ ऐसी जगहें हैं, जो हिन्दीतर भाषी हैं। ऐसी जगहों पर अलगपन और अच्छे की संभावनाएँ; और अधिक बढ़ जाती हैं। इन संभावनाओं को पूरा होते हुए देखना हो तो महाराज कृष्ण संतोषी सरीखे कवियों को अवश्य पढ़ना चाहिए।
इनके लेखन के पास एक चेहरा है। चेहरे पर कोई मुखौटा या आईना नहीं है। यह चेहरा सभी पाठकों को एकदम अपना लगता है। इनमें हम बहुत सादगी से अपनी-अपनी सुन्दरता-असुन्दरता देख सकते हैं। आलोच्य कवि में एक ठहराव है, यह बुढ़ापे का नहीं; बल्कि अनुभवजन्य बुज़ुर्गी का धैर्य है। आलोच्य कवि के पास असाधारण सहज मुहावरा है। वे बल का प्रयोग नहीं करते, न ही प्रयोग के बल पर अपनी जगह बनाते हैं। इनका लेखन; बुद्धि-परीक्षा नहीं लेता। इनके हृदय-संसार और पाठक के बीच किसी आलोचक-समीक्षक की अधिक ज़रूरत नहीं लगती। दरअसल यह ऐसा लेखन है, जिस पर कोई लिखे या न लिखे, इससे इनके लेखन को फर्क नहीं पड़ता। यहाँ ऐसे आलोचक या समीक्षक की कुछ आवश्यकता अवश्य हो सकती है, जो इनके निर्वासन/विस्थापन सम्बन्धी काव्य-प्रवृत्तियों से इतर भी कुछ बात कर सकता हो। इस पहलू से इन पर कम बात हुई है।
इनकी कविताएँ किसी को अपने कवि का कालर थाम लेने का अवकाश नहीं देतीं। यह कार्य कवि स्वयं अनुपम सत्यनिष्ठा से करते हैं:
'अभी भी ज़िन्दा है मेरे भीतर
गुरिल्ला छापामार
बेहतर दुनिया के लिए लड़ने को तैयार
पर एक कायर से
उसकी दोस्ती है
जो उसे यही समझाता रहता है
दूसरों के लिए लड़ोगे
तो मारे जाओगे
सच कहता हूँ
यही है मेरे जीवन की व्यथा
सपना देखा उस गुरिल्ला ने
जीवन जिया इस कायर ने।
(व्यथा)
कितने कवि ऐसे हैं, जो स्वयं का कालर पकड़ लेने की ईमानदारी रखते हैं? लगभग न के बराबर। इस कम की शाख पर संतोषी फूल की भांति सुशोभित हैं। 'व्यथा', 'स्वीकारोक्ति', 'काठ की तलवारें', 'पिता को याद करते हुए' आदि इनकी इस श्रेणी की कविताएँ हैं। ऐसी कविताएँ; मानवीय दुर्बलता, नियति, कायरता, स्वार्थ को दर्शाती; एकदम स्वाभाविक और सच्ची कविताएँ हैं। वे कहते हैं-
'मेरा यह दुर्भाग्य है
मैंने हमेशा
अपना लोहा आग से बचाए रखा।'
यह अपवाद की कविताएँ नहीं हैं। यह उस प्रायः की कविताएँ हैं, जिसे हम अधिकतर समय छुपाते हैं। संतोषी कश्मीर से आते हैं, जिसकी ज्ञान और सांस्कृतिक परम्परा अति समृद्ध है। आलोच्य कवि को अपने इतिहास और जड़ों का पता है। इनके पास 'कृपाराम के वंशज', ‘जन्मेजय’, ‘विचार नाग’, ‘बुल्ले शाह का मज़ार’, ‘कीचड़’, ‘लल्लेश्वरी’, नुन्द ऋषि, विरासत, ‘बुद्ध को सम्बोधित कविताएँ’ जैसी कविताएँ हैं। ऐसी कविताएँ एक तरफ भारतीय सहिष्णुता को और दूसरी तरफ राजनीतिक निहितार्थ को अभिव्यक्त करती हैं। 'व्यथा' शीर्षक कविता में व्यंजित है कि हम किसी युद्ध में दो-दो हाथ करने की भूमिका में नहीं हैं। यह मात्र कश्मीरी निर्वासितों की स्थिति ही नहीं है, बल्कि दुनिया भर के शोषितों का सत्य है:
‘हम काठ की तलवारें हैं
हमें डर लगता है
माचिस की छोटी-सी तीली से भी
हम मंच पर कलाकार का साथ तो दे सकती हैं
पर सड़क पर किसी निहत्थे की
रक्षा नहीं कर सकतीं
हम काठ की तलवारें हैं
हमारा अस्तित्व छद्म है
हमारी नियति में कोई युद्ध नहीं
कोई जोखिम नहीं
किसी का प्यार नहीं
हम रहेंगे हमेशा मौलिकता से वंचित
हम काठ की तलवारे हैं
हमें आग से ही नहीं
छोटे से चाकू से भी डर लगता है।’
(काठ की तलवार)
लेकिन इस तरह के भावों से हरगिज़ यह प्रकट करने का प्रयास नहीं होना चाहिए कि आलोच्य कवि; जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनमें साहस की कमी है। दिलेरी महज़ लड़ने से सिद्ध नहीं होती, यह सहन करने की चरम सीमा से भी दृश्यमान होती है। इस कसौटी पर यह कविताई; स्त्री जैसी सहनशक्ति रखने की कविताई है। इसकी क्रांति की परिभाषा प्रतिकूलता में भी प्यार करना है। मिट्टी को मस्तक पर लगाने वाले महाराज कृष्ण संतोषी एक प्रखर राजनीतिक कवि हैं। वे यह नहीं कहते कि भगत सिंह पड़ोसी के घर में ही पैदा हो। वे स्वयं भी जोखिम लेते हैं। जबकि उन्हें पता है:
'जाल बुनना एक कला है
मकड़ी ने तितली से कहा
तितली ने सुना
सोचा
फिर कहा-
कला से मिलती है मृत्यु
और उड़ गई फूल के पास।'
(जाल बुनना)
कला से मिलती है मृत्यु? यह कौन सी कला है? निःसंदेह वह, जो जीवन के हक़ में है। और एक बात; कि संतोषी की कविता में, 'कला; कला के लिए, और कला; जीवन के लिए' विचारों/सिद्धांतो का सुन्दर संयोजन देखा जा सकता है। वे त्याग, बलिदान और परहित को सर्वोपरि मानते हैं। इनकी कविताई में स्वीकार ही नहीं, इनकार का साहस भी है। 'उदास मसखरा', 'गणतंत्र में गौरैया', 'ऐनक', 'महाशय', ‘उदास मसखरा’, ‘लोकतंत्र में कव्वे’, ‘इस बार बर्बर’ जैसी कविताएँ राजनीतिक यथार्थ, चेतना, व्यंग्य और क्रूर सत्ताओं की शिनाख़्त करती कविताएँ हैं। इनकी कविताई में एक संविधान देखा जा सकता है। इसमें संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, न्याय, करुणा, प्रतिष्ठा जैसे लोकतंत्रिक मूल्यों की पैरवी है। यह कविताई; ईश्वर को अन्य कार्य सौंपते हुए, जन परिवेश में स्वयं हस्तक्षेप करती है। आम आदमी की पैरवी करती है:
बड़ी देर रात तक
मैं सुनता रहा
गोरखे के लाठी की ठक-ठक
कब सोया कुछ पता नहीं
मेरी नींद में
देखा उस गोरखे ने एक सपना
सपने में उसके पास
अपने परिवार के साथ सोने के लिए
एक पूरी रात थी।
(गोरखा)
महाराज कृष्ण संतोषी; अभिधा शब्द-शक्ति के सिद्धहस्त कवि हैं। इनके कहे में पहले इनका कहा अभिव्यक्त होता है, और फिर इनका कहा हुआ; अँधेरे और नींद में भी किसी यात्रा पर ले जाता है, उस यात्रा में हमारा मिलन अनकहे से भी होता है।
उन्नीस सौ नब्बे के बाद की हिन्दी कविता में जम्मू-कश्मीर की कविता ने कुछ नया जोड़ा है। इनमें विस्थापन और निर्वासन की पीड़ा से उपजी सघन स्मृतियां, सीमावर्ती क्षेत्रों का दुख, आतंकवाद की भयावहता, छावनियों तले जीवन, ज़मीन से बेदखली, पर्यावरण की चिंता, राजनीतिक प्रतिरोध, प्यार में राजनीतिक चेतना, पहचान का संकट जैसी प्रवृत्तियां प्रमुख हैं। इस आलोक में संतोषी का लेखन बीस ही साबित होता है। यह ठीक है कि कश्मीर से निर्वासित हुए लोगों की पीड़ा को जिन कवियों की कविताओं में बहुत प्रामाणिक रूप से देखा जा सकता है, उनमें संतोषी जी का नाम प्रमुख है; मगर वे सिर्फ़ इस संवेदना के कवि नहीं हैं। वे कश्मीर से निर्वासित न हुए होते तो भी वे इसी कद के कवि होते। निर्वासन से पहले ही इनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। एक बात रेखांकित कर रहा हूँ कि इनके दूसरे संग्रह का नाम 'बीज में लौटने का समय' होना चाहिए था, न कि 'यह समय कविता का नहीं', यह शीर्षक कहीं से भी न्यायसंगत नहीं ठहरता। हर समय कविता का समय होता है। बाकी पूत के पाँव पालने में नज़र आ गए थे। इनकी शुरुआत में ही इनका आज का होना देखा जा सकता है। फ़िलहाल इनके पास छह कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह हैं, मगर इनकी कविताई संख्या बल से प्रमाणित नहीं होती, बल्कि इनका लेखन; संख्या बल को निरस्त करता है, उस संख्या बल को भी, जिसे बहुत चालाकी से हिन्दी की ताकत बताया जा रहा है। यह 'आत्मा की निगरानी में' हैं। यह इनकी ताकत है। इस कविता संग्रह को इनकी कविताई का सार और चरम माना जा सकता है।
भले धार्मिक कट्टरपंथियों के कारण इन्हें अपनी मातृभूमि से विस्थापित होना पड़ा। इन्हें गोलियों, गालियों और आरियों का सामना करना पड़ा। मगर इनके लेखन को कश्मीर से कोई निर्वासित नहीं कर सका। इनकी संवेदना, उसी ज़मीन से आती है, और आज भी उसे सघन आँसुओं और खून से सींचती है। इसी ज़मीन पर खड़े हो कर वे, हृदयविदारक करुणा और पीड़ा से विश्व-कविता को छूते हैं:
‘आँगन में कुनकुनी धूप हो
हवाओं में पके हुए सेबों की महक हो
आना तुम
ओ मृत्यु !
दबोचना नहीं
जैसे इस जीवन ने लिया दबोच
छूना अंग अंग जैसे कोई कुंती
ख्यालों ही ख्यालों में छू रही हो
अपने किसी कर्ण को।’
(मृत्यु)
यहाँ कर्ण, कुंती और आलोच्य कवि एक ही किनारे खड़े हैं। यह 'वितस्ता का तीसरा किनारा' है। यहाँ तीनों की वेदना निशब्द कर देती है। ऐसी कविताएँ हर कोई नहीं लिख सकता। संतोषी इसकी क़ीमत दे रहे हैं। मृत्यु की ऐसी कामना 'उसने कहा था' कहानी के नायक लहना सिंह की भी याद दिलाती है। संतोषी का लेखन; कर्ण के उदात्त व्यक्तित्व और शापित जीवन की तरह है।
लल्लेश्वरी और नुन्द ऋषि से प्यार करने वाला यह प्यारा कवि; स्वयं को काफ़िर कहता है, और बुल्ले शाह की मज़ार को नहीं भूलता। इस कवि की परम्परा बताती है कि मिट्टी से बैर नहीं उपजता। नाम बदले जाने की सियासत के बीच अचानक 'नुन्द ऋषि' (शेख़ नूर-उद-दीन नूरानी) का नाम आ जाता है। वे अपने कवि से पूछते हैं कि आपको अपना कौन सा नाम प्रिय है। आलोच्य कवि को उनका छोटा नाम अधिक प्रिय लगता है। वे संतों को इतिहास के काठ दरवाज़े से बाहर निकल कर, एक दूसरे से मिलते-बतियाते देखते हैं। समकालीनता की सीमाएँ इन्हें रोक नहीं सकतीं। वे तमाम सरहदों, दीवारों और सीमाओं को लांघ जाते हैं। इनके ऋषि नुन्द को कश्मीर के घर-घर, गली-गली घूमने से कैसे रोका जा सकता है? मगर कश्मीर अब स्वर्ग नहीं है। इसलिए कवि उन्हें एक पहचान पत्र हमेशा अपने साथ रखने की हिदायत देते हैं। अब यह नानक, कबीर और बुद्ध का नहीं, दिल्ली दरबार का समय है:
‘तुम्हारे पास
अपना कच्चा धागा तो था
माँ ललेश्वरी!
मेरे पास
जले हुए कपास की स्मृतियां हैं
हाँ, सुन रहा हूँ मैं भी
घर की पुकार
मगर क्या करूं
नाव खींचने के लिए
अभी कितना कम पड़ रहा है
मेरा धागा!
(घर की पुकार)
संतोषी समेत सभी कश्मीरी कवि घर की करुण पुकार सुनते हैं। ऐसी कविताएँ अत्यंत मार्मिक हैं। निर्वासित हुए समुदाय का पुनर्वास; उनका अधिकार है। कविताओं में एक ज़िंदा सपना है। इस संघर्ष को सही दिशा देनी चाहिए। क्या यह दिशा कश्मीरी कवियों की कविताओं में नहीं दिखती? सियासत में बैठे लोगों और आम कश्मीरी अवाम को अपने कवियों को पढ़ना चाहिए।
संतोषी की मातृभाषा के कवि दीनानाथ नादिम को कामरेड माओ ने उपहार में एक पुराना कोट दिया था। इस घटना को आधार बना कर संतोषी अपना पक्ष स्पष्ट करते हैं:
'सोचता हूँ
नादिम की कविताओं में
कामरेड के उस कोट का
कहीं उल्लेख नहीं मिलता
न ही कोई चित्र ही दिखता है...
नादिम मेरे सपने में आए
कहा
तुमने यह जो कोट का प्रसंग छेड़ा है
तो सच बताऊँ
मैं वह कोट पहन कर
कविता नहीं लिख सकता।'
यानी संतोषी भी किसी का कोट (पुराना) पहन कर कविता नहीं लिख सकते। इनकी जनपक्षधरता और प्रगतिशीलता; समाजवादी सामूहिक सपनों से बल पाती है। इनकी उड़ान इन्हें कहीं बंधने नहीं देती। संतोषी सामने घटित हो रहे जीवन यथार्थ को दर्शाने वाले कवि हैं। वे प्रत्यक्षदर्शी हैं। वे भाव और कल्पना तत्व की ताकत से खूब परिचित हैं। 'चाँद के बहाने' शीर्षक कविता में इनकी उड़ान; देखने वाली है। इनकी अथाह कल्पना शक्ति; ज़मीनी हक़ीक़त को सरलता से व्यंजित करती है।
बुरे अनुभवों और चरमपंथियों को झेलते, प्रतिकूल हालात में रहते हुए भी; इनका मन नहीं बदला। क्यों? क्योंकि यहाँ तथागत-सा मन और स्त्री-सा प्यार प्रस्तुत रहता है। इस मामले में इतना कहना पर्याप्त है- 'लोग प्यार-प्यार कहते हैं, हमने प्यार किया है।' इनके अन्दर एक बहुत सुन्दर प्रेमी उपस्थित रहता है। इसी से इनकी राजनैतिक चेतना बल पाती है। इन्होंने आतंकवाद, फतवों और साम्प्रदायिकता को देखा है। विस्थापित शिविर का जीवन, उपेक्षा भरी नज़रों का सामना किया है। निर्वासन से पहले और दौरान इन्होंने जो-जो झेला, वह अत्यधिक दारुण-कथा है। कश्मीर के भयावह यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए वे लिखते हैं:
‘शब्द मृत्यु है यहाँ’
××
‘यहाँ हरियाली की तरह फैला है झूठ
और सच
जैसे कोई परकटा परिंदा'
××
'यहाँ दिन का अवसान
सूर्य डूबने से नहीं
गोली चलने से होता है।'
संतोषी कश्मीर में प्रार्थना की नई रच दी गई वर्णमाला पर शोकसंतप्त हैं। वे बंदूक, युद्ध, घृणा और दंगे के दौर में इतना लिख कर; चुप हो जाते हैं:
‘यह कैसा समय है
कि होने न होने के बीच
हमें इस तरह धकेल दिया गया है
जिएं तो वाह
और मरें तो मुक्त हो गए।’
(एक नागरिक का बयान)
और पाठक पढ़ कर बेचैन हो जाता है। यहाँ कवि ने 'जिएं तो वाह' और, 'और मरें तो मुक्त हो गए' में इस दौर का तल्ख़ सच लिख दिया है। यह अफीम चाटता काल है। किसी भी तरह जीना ही एवरेस्ट पर ध्वज फहरा देने जैसी उपलधि है, और किसी भी तरह मरना, मुक्त होना बताया जा रहा है।
महाराज कृष्ण संतोषी शिखर सूर्य तले अकेले भी 'परांस' लगा सकते हैं। इन्हें जंगल में अकेले छोड़ दिया जाए तो भी वे; बचे रह सकते हैं। ऐसा वे इसलिए कर सकते हैं क्योंकि इनका घर और मातृभूमि इनकी स्मृतियों में हैं। पहले भी लिखा है कि इन्होंने स्त्री के प्यार और उसके संसार को समझा है। प्रकृति से प्यार किया है। यह सब इन्हें सहेज लेता है। इनकी लेखनी में खिड़कियाँ, डोरें, पतंगें और हवा की उपस्थिति रहती है।
संतोषी जब 'बरसों बाद' शीर्षक कविता में वाल्टविटमैन की अग्रलिखित काव्य-पंक्ति को उद्धृत करते हैं: 'घास ईश्वर का रुमाल है।', तो इनकी कविताई की व्यापकता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा जाता। इनकी घास और पुरानी साइकिल पर बैठने का अवसर मिल जाता है, तो इनकी कविताओं के अन्य प्रवेश-द्वार भी आमन्त्रित करते हैं:
'कहने को हम माचिस की तीलियाँ हैं
पर संकल्पों की गंधक ओढ़े
छोटे छोटे अग्नि देवता हैं
हम नहीं माँगते
विप्रों से आहुतियाँ
हम नित्य तत्पर रहते हैं
यह विश्वास लेकर
कि पृथ्वी पर
इतने सारे दीये जल उठें
कि सबको अपनी खोई हुई चीज़ें मिल जाएँ।' (तीलियाँ)
यहाँ लघु की प्रतिष्ठा है। संतोषी के पास ऐसी अनेक कविताएँ हैं, जिनमें दीप की रोशनी में सुई में धागा पिरोया जा सकता है। इनके पास लोक से अर्जित कथाएँ, मिथक और बातें हैं। 'यक्ष की टोपी', 'लड़की और पेड़’, ‘अंधी लड़की’, 'कविता में लोककथा' जैसी इनकी कविताएँ; मर्मस्पर्शी आख्यान हैं। इनकी कविताओं में एक कथाकार का हृदय धड़कता रहता है।
हिरण और शेर' कविता में यह आदमी कौन है, जिसके सौन्दर्य-बोध से हर चीज़ को खतरा है? हिरण और शेर को बराबर खतरा है। उस आदमी की शिनाख़्त हो, जिससे इन्हें खतरा है। हिंसक विचार की लाठी से कवि डर जाता है। 'लाठी' शीर्षक कविता में वे ऐसे लोगों से डरने की बात करते हैं, जो बच्चों को ग़लत दिशा में ले जा रहे हैं।
मुझे इनकी जिन दो-एक कविताओं में सरलीकरण के खतरे दिखे, इनमें 'यह कैसा-ख्वाव था' एक ऐसी ही कविता है। ‘ताम्बे की नाक’ इनकी एक अन्य हस्ताक्षर कविता है। यहाँ कवि ताम्बे की नाक बेच रहा है। यह अजब विक्रेता हैं, जो ताम्बे की नाक बेचता हुआ, हमें जीवन की सुन्दरता सुंघा जाता है। सच बोलने की ताकत को कवि; भली भांति जानता है। यह झूठ के गुब्बारों के लिए एक पिन की तरह बनने की इच्छा रखता है। इस पिन रूपी हथियार को पास रखने के लिए इन्हें किसी लाइसेंस की भी ज़रूरत नहीं है:
‘सच बोलना
जैसे अपने रक्त में उपस्थित
लौह कणों से निर्मित करना
एक तेज़ नुकीली पिन
और उसे फिर
अपने साथ रखना
आत्मा की निगरानी में
एक हथियार की तरह...’
(एक छोटी सी पिन)
महाराज कृष्ण के पास आत्म-बल, आत्म-संशय और आत्म-स्वीकार उक्तियाँ हैं। यह मुख्य तौर पर 'मैं' के कवि हैं। उसके बाद 'हम' के कवि हैं, और उसके बाद 'अन्य' के कवि हैं। इनका 'मैं', इनके 'हम' से भी अधिक समष्टिगत है। इनका 'मैं' इन्हें विश्व नागरिकता प्रदान करता है। इन्होंने विश्व नागरिक होने की पात्रता वैश्विक संवेदना से अर्जित की है। वे पूरी धरती पर सुन्दर जीवन देखना चाहते हैं। कवि-हृदय तनिक अलग तो होगा ही, यही कारण है कि वे अमरता नहीं, जीवन चाहते हैं:
'जिन्हें चाह थी अमरत्व की
पत्थर हो गए
अब वही पत्थर
आस-पास खिले फूलों से ईर्ष्या कर रहे हैं।'
(जिन्हें चाह थी)
वे दुखों का स्वागत करते हैं; और सुखों को विकार की तरह नहीं अधिकार की तरह देखते हैं। इन्हें भोगते-गाते हैं। दुख-सुख जीवन के अटल सत्य हैं। खुशी और उदासी अक्सर व्यवस्था द्वारा जनित होते हैं। उदास होने के पीछे कुदरत का कोई हाथ नहीं है। आलोच्य कवि अनुसार, 'यह आदमी की शर्म का विषय है। 147 देशों के हैपिनेस इंडेक्स (विश्व खुशहाली रिपोर्ट) में हम 118वें स्थान पर हैं। इसका दोषी कौन है? कुदरत तो नहीं ही है:
'फूल कपास का हो
या कोई और
उसकी उदासी कुदरत का दोष नहीं
आदमी की शर्म का विषय है।'
महाराज कृष्ण संतोषी संवाद के साथ वाद-विवाद के भी कवि हैं। 'चाय के बारे में कुछ वाक्य' और 'विचार नाग' शीर्षक कविताएँ इन्हें परस्परता, मैत्री और तार्किकता का पक्षधर कवि सिद्ध करती हैं। कवि का यह विश्वास कि ‘चाय की प्याली दुनिया बदल सकती है।’, वास्तव में इस ओर इंगित करता है कि संवाद में ही समाई है। क्या ही बात हो कि चाय बैठक-परम्परा का एक इतिहास लिखा जाए। छोटे-छोटे इतिहास भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं; मसलन चौपाल, पनघट, मेलों, जूतों, आभूषणों, खेलों आदि का इतिहास। इन इतिहासों को श्रवण कौशल माध्यमों से सार्वजनिक जगहों पर प्रचारित किया जाए। इसी तरह शिक्षा और ज्ञान पर अलग कदम उठाए जाएँ। महाराज कृष्ण संतोषी अपने पाठक को इस ओर ले जाते हैं। 'पढ़ पशु' और 'पाठशाला' जैसी कविताएँ; उस सोच-विद्यालय में ले जाती हैं, जहाँ बिक चुकी और विशेष सांचे में ढाली जा रही शिक्षा; बेमानी लगती है, जबकि आलोच्य कवि की पाठशाला का आदर्श बहुत सुन्दर और बड़ा है:
‘आज जब सोचता हूँ उन दिनों के बारे में
तो लगता है यह दुनिया ही एक पाठशाला है
जिसकी छत आकाश
पेड़ दीवारें
पृथ्वी आँगन
वनस्पतियाँ किताबें
बदलते हुए मौसम पाठ्यक्रम
जहाँ पहाड़, नदियाँ, घास
छोटी-बड़ी पगडंडियाँ सब अध्यापक
न कभी डांटें न कभी पीटें
न पूछें प्रश्न ही...’
(पाठशाला)
यह पाठशाला; गुरु नानक देव द्वारा लिखी गगन थाल नामक आरती तक ले जाती है। इसमें पूरी सृष्टि समाहित है। हमारे कवि के लिए भी पुरी दुनिया ही पाठशाला है। वनस्पतियाँ यहाँ किताबें; और मौसम पाठ्यक्रम हैं।
पहाड़, नदियाँ, घास आदि कोई सवाल नहीं पूछते। कुछ थोपते नहीं। बस सिखाते हैं। प्रकृति के पास सभी उत्तर हैं। आलोच्य कवि पुल पर खड़े हो कर अपनी किताबों का बस्ता नदी में फेंक देना चाहता है। वह जीवन को पढ़ना चाहता है, नीरस, उपदेशात्मक और प्रायोजित पाठ्यक्रमों को बिल्कुल नहीं।
ताबूत में आईना रख देने वाले इस कवि का सौन्दर्य-बोध अलहदा है। इनके कदमों में खेल के मैदान और चरागाहों की सुन्दरता है। क्रिकेट की भाषा में वे मध्यम गति के गेंदबाज़ और मिडल ऑर्डर के बल्लेबाज हैं। ट्वेंटी-ट्वेंटी खेलने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। वे कड़े मौसम में टेस्ट क्रिकेट खेल रहे हैं। महाराज कृष्ण संतोषी अपनी कविता में ग़ज़ल लिख रहे हैं। फूल, घास, पत्ते, पेड़, कागज़, पहाड़ और दीप इनकी कविताओं के अलंकार हैं। नदियाँ इनके छंद हैं। मिट्टी इनकी भाषा शैली है। इन्हें कहीं भी रहना पड़े, इनका स्थाई पता चिनार ही रहेगा। जहाँ यह लिखकर छोड़ आए हैं:
'युद्ध शुरू होते ही
कहाँ गई होंगी तितलियाँ
किसे पता
पर ध्वस्त हुए शहर में
एक बूढ़ी औरत
यह सोचकर साफ कर रही
अपने घर का बगीचा
कि खिलेंगे फूल तो फिर से फूलों पर
दिखाई देंगी मंडराती हुई तितलियाँ।'
(युद्ध और तितलियाँ)
सम्पर्क:
कमल जीत चौधरी
E-mail : jottra13@gmail.com
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| महाराज कृष्ण संतोषी |
महाराज कृष्ण संतोषी की कविताएँ
मधुमक्खियां
हम नष्ट हुए छत्ते की
मधुमक्खियां हैं
वह देखो
धुंआ हमारा पीछा कर रहा है
और हम छिपाकर
अपनी स्मृतियों में
फूलों का स्पर्श
उड़ रही हैं हर दिशा में
और धरती पर उतरने से डर रही हैं
कभी कोई तिनका घास का
हमें वापस लौटने का
निमंत्रण देता है
उस क्षण हम
बहुत भावुक हो जाते हैं
और रोने लगते हैं
क्या किसी ने देखा है
मधुमक्खियों को रोते हुए...।
स्वीकारोक्ति
मेरा दुर्भाग्य यह नहीं
कि मुझे वह सब कुछ नहीं मिला
जो मुझे चाहिए था
मेरा दुर्भाग्य यह है
मैंने हमेशा
अपना लोहा आग से बचाए रखा।
लाठी
ईश्वर की लाठी के बारे में
हमने सुन रखा था
फिर देखी
गाँधी जी के हाथ में लाठी
पर कभी कोई डर नहीं लगा
लेकिन अब जब धर्मपूजकों ने
हथिया ली है लाठी
डर लगता है
लाठी से नहीं
उन चेहरों से
जो उन्हें बच्चों को सौंप रहे हैं।
बंदूक की नोक पर बैठी चिड़िया
कुछ देर के लिए बंदूक की नोक पर बैठी चिड़िया
और ऊनींदे सिपाही की आँखों में डाल गई
एक तिनका ओस भीगा
चिड़िया ने क्या देखा बन्दूक से
कोई नहीं जानता
पर सिपाही को अब बंदूक से केवल
चिड़िया ही दिखाई देती है
जिसे वह अपने भीतर चहचहाते हुए
अनुभव करने लगता है
सोचता है सिपाही
कहीं उसकी मृत बेटी
चिड़िया बनकर तो नहीं आई थी!
अब हर बार जब सिपाही
ट्रिगर पर ऊँगली दबाता है
उसे अपनी बेटी की चीख सुनाई देती है
और वह काँप जाता है।
इन्द्र का हाथी
(एक लोक कथा से प्रेरित )
फसल तबाह करने
क्यों चले आते हो
हमारे खेत में
हम जानते हैं
तुम इन्द्र के हाथी हो
और तुम्हारी पूंछ पकड़ कर भी
हमें स्वर्ग नहीं मिल सकता
गजराज
तुम्हारा स्वर्ग
तुम्हें मुबारक
पर हमारे खेत तबाह करने
कभी मत आना।
सभ्य नागरिक
शरद की धूप में
कुछ देर सुस्ताते हुए
मुझे सहसा यह आभास हुआ
कि मैं एक पेड़ में रूपांतरित हो रहा हूँ
और अच्छा लगा यह अनुभव करना
कि अब मैं सिर्फ एक पेड़ हूँ
जो न दूसरे पेड़ों से घृणा करता है
न ईर्ष्या
न हिंसा
मुझे अच्छा लगा यह अनुभव करना
कि पेड़ ही पृथ्वी के सभ्य नागरिक हैं।
मिट्टी के हिरण
हमें नहीं कोई डर
सामने शेर भी हो अगर
हम सजावट हेतु रखे गए
मिट्टी के हिरण
हमें न भूख लगती है
न प्यास
हमने सुना है
जंगल के बारे में
कहते हैं वहाँ
हरी हरी घास होती है
पेड़ होते हैं अनगिनत
बेपरवाह घूमते हुए पशु होते हैं
और चहकते हुए परिंदे
हम मगर दिनभर
आदमी की पनाह में रहते हुए
इतने सभ्य हो गए हैं
कि जब टेलिविज़न पर
किसी शेर को दहाड़ते हुए सुनते हैं
तो अभिवादन में कहने लगते हैं
सलाम हमारे शिकारी दोस्त
हमारे इस अभिवादन का
उत्तर दिए बिना
जब शेर कहीं ग़ायब हो जाता है
तो ज़रा भी बुरा नहीं मानते
और पुन:
सच से घबराए हुए
आदमियों की चख चख
सुनने लगते हैं
हम मिट्टी के हिरण
न सत्य से
हमारा कोई बास्ता
न झूठ से
हम तो बस
आदमी के सौन्दर्यबोध का प्रतीक
और किसी दिन
शेल्फ से उतर जाएँगे
ज़रूरी नहीं
हमारी जगह
कोई दूसरा हिरण ही आ जाए
हो सकता है इस बार
कोई भूसा भरा हुआ शेर
आदमी के सौन्दर्यबोध का
शिकार बन जाए।
कपास के फूल
सूई से पूछता है
फटा वस्त्र
कहाँ है तुम्हारा धागा
और सूई की आँख से
गिरता है आँसू
धागे की खोज में निकलती है सूई
पूछती है बुनकर से
क्या तुम्हें भी इंतज़ार है धागे का
एक दीर्घ निःश्वास लेता है बुनकर
फिर दोनों मिलकर
निकल पड़ते हैं
धागे की तलाश में
रास्ते में उन्हें मिला
एक हताश प्रमी
जिस के पास टूटा हुआ धागा था
अपने अभाव की एकता में
तय किया उन तीनों ने
वे जाएगे कपास के फूल के पास
और उससे अपनी व्यथा कहेंगे
उस समय
बहुत उदास था कपास का फूल
और उसकी उदासी का कारण
सिर्फ यह था
कि अभी-अभी कोई भूखा नंगा बच्चा
रोते हुए गुज़र गया था
सूई, बुनकर, प्रेमी एक ही संवेदना के
पुल पर खड़े सोचते रहे
किस तरह दूर करें
कपास के फूल की उदासी
फिर क्या था
सूई ने सुनाए
पुराने दिलचस्प किस्से
बुनकर ने गाए
लोक जीवन के सुन्दर गीत
प्रेमी ने पढ़े
अपने कुछ प्रेमपत्र
धीरे-धीरे हटने लगा
कपास के फूल से
उदासी का आवरण
और फिर से वह
पहले जैसा दिखने लगा
पर एक बात
मैं यहाँ ज़रूर कहना चाहता हूँ
फूल कपास का हो
या कोई और
उसकी उदासी कुदरत का दोष नहीं
आदमी की शर्म का विषय है।
पढ़पशु
क्या यही है
कबीर का घर
न ड्योडी
न भव्य द्वार ही
छत भी जर्जर
क्या यही रहता है
राम का जुलाहा
बन्धु!
कौन हो तुम
क्या मेरे करघे का बुना कपड़ा
खरीदने आए हो
नहीं
मैं हूँ सर्वजित
ज्ञान में तुम्हें हराकर
नाम अपना सार्थक करने आया हूँ
लेकिन
फैसला तो हो चुका है
बोला कबीर
सुनकर
विस्मित हुआ सर्वजित
पूछा:
कब किस ने किया
यह फैसला
उत्तर मिला:
तुम्हारे इस बैल ने
जिस पर तुम
लादकर लाए हो
बड़े बड़े ग्रन्थ।
दुनिया को बदलने की ताकत
चाय पीते हुए
मुझे लगता है
जैसे पृथ्वी का सारा प्यार
मुझे मिल रहा होता है
कहते हैं
बोधिधर्म की पलकों से
उपजी थीं चाय की पत्तियाँ
पर मुझे लगता है
भिक्षु नहीं
प्रेमी रहा होगा बोधिधर्म
जिसने रात-रात भर जागते हुए
रचा होगा
आत्मा के एकान्त में
अपने प्रेम का आदर्श!
मुझे लगता है
दुनिया में
कहीं भी जब दो आदमी
मेज़ के आमने-सामने बैठे
चाय पी रहे होते हैं
तो वहां स्वयं आ जाते हैं तथागत
और आसपास की हवा को
मैत्री में बदल देते हैं
आप विश्वास करें
या नहीं
पर चाय की प्याली में
दुनिया को बदलने की ताक़त है...।
आतंक और एक प्रेम कविता
अभी जैसे कल की बात हो
जब मुझे उसने चूमा था इस पार्क में
उसके चुम्बन का सुख
भीतर ही भीतर छिपाते हुए
मैंने उससे कहा था
और मत करना साहस
अभी जैसे कल की बात हो
जब मौसम था बसन्त का
और पेड़ फूलों से भरे हुए थे
इन्हीं फूलों की महक में
हम बातें करते रहे
भूलते हुए समय को
और लौटते हुए घर
जब उसने मुझे भर लिया बाहों में
मैंने उसे चेताया
कहा
यहाँ हवा जासूस है
कुछ भी छिपा नहीं रहता
अभी जैसे कल की बात हो
जब उसने
पुल और नदी को गवाह बना कर
मुझे अपने प्यार का विश्वास दिलाया था
उस समय बहुत डर गई थी मैं
कहीं कोई दुश्मन चेहरा
हमें देख तो नहीं रहा था
पर अब जैसे थम गया हो समय
मारा गया मेरा प्यार
बीच सड़क पर
अपनी असीम सम्भावनाओं के साथ
क्या इसलिए वह मारा तो नहीं गया
कि वह प्यार के सिवा
कुछ जानता ही न था
ऐ मेरे वतन की हवाओ!
सचमुच यहाँ खतरनाक है
प्यार करना
फिर भी कहना
मेरे हमउम्रों से
जोखिम उठा कर भी प्यार करना
जैसे हमने किया
समय के ख़िलाफ़
समय को भूलते हुए।
बुल्लेशाह का मज़ार
मेरे दोस्त^
तुम देख आए पाकिस्तान में
बुल्लेशाह का मज़ार
दिल करता है तुम्हारा माथा चूमूँ
पर तुमसे एक शिकवा भी है
वहाँ से थोड़ी मिट्टी ही लाए होते
जिसे छूकर मैं धन्य अनुभव करता
मैं तुम्हें हज़ार दुआएँ देता
और सीना तानकर सबसे यह कहता-
बैर मिट्टी से नहीं उपजता।
(दोस्त^- पंजाबी के वरिष्ठ कथाकार ख़ालिद हुसैन)
मृत्यु
आँगन में कुनकुनी धूप हो
हवाओं में पके हुए सेबों की महक हो
आना तुम
ओ मृत्यु !
दबोचना नहीं
जैसे इस जीवन ने लिया दबोच
छूना अंग अंग जैसे कोई कुंती
ख़यालों ही ख़यालों में छू रही हो
अपने किसी कर्ण को।
जाल बुनना
जाल बुनना एक कला है
मकड़ी ने तितली से कहा
तितली ने सुना
सोचा
फिर कहा
कला से मिलती है मृत्यु
और उड़ गई फूल के पास।
तीलियाँ
हम माचिस में बंद तीलियाँ नहीं
छोटे छोटे अग्नि देवता हैं
हम मगर पूजा पाठ से
प्रसन्न नहीं होते
हम तब प्रसन्न होते हैं
जब हमसे ऐसी आग प्रकट होती है
जो भूख और अंधेरे को मिटा डालती है
कहने को हम माचिस की तीलियाँ हैं
पर संकल्पों की गंधक ओढ़े
छोटे छोटे अग्नि देवता हैं
हम नहीं माँगते
विप्रों से आहुतियाँ
हम नित्य तत्पर रहते हैं
यह विश्वास लेकर
कि पृथ्वी पर
इतने सारे दीये जल उठें
कि सबको अपनी खोई हुई चीजें मिल जाएँ।
व्यथा
अभी भी ज़िंदा है मेरे भीतर
गुरिल्ला छापामार
बेहतर दुनिया के लिए लड़ने को तैयार
पर एक कायर से
उसकी दोस्ती है
जो उसे यही समझाता रहता है
दूसरों के लिए लड़ोगे
तो मारे जाओगे
सच कहता हूँ
यही है मेरे जीवन की व्यथा
सपना देखा उस गुरिल्ला ने
जीवन जिया इस कायर ने।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क:
113 A/4, आनन्द नगर,
तालाब तिल्लो, जम्मू-180002
दूरभाष- 9419020190





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