रुचि उनियाल की कविताएं


रुचि उनियाल


जैसे जैसे हम समझदार होने की तरफ कदम बढ़ाते हैं वैसे-वैसे रूढ़ियां और परंपराएं हमें अपनी जकड़ में आबद्ध करने लगती हैं। मान्यताएं हमारी बौद्धिक चेतना से दो दो हाथ करने लगती हैं। कवि के सामने यह एक बड़ी चुनौती होती है। हिन्दू धर्म में पितरों को तर्पण देने की प्रथा ऐसी ही है। स्वाभाविक रूप से अपने पितरों के लिए हमारे मन में आदर और सम्मान होता है। हिन्दू परम्परा में पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देने का प्रचलन है। लेकिन हमारे पितर अब किस जीवधारी के रूप में होंगे, और उन्हें किस तरह तर्पण किया जाए, इसे ले कर कवयित्री रुचि उनियाल संशयग्रस्त हैं और अपने मनोभावों को कविता में इस तरह अभिव्यक्त करती हैं : "कैसे चीन्ह लूँ किसी कुत्ते में तुम्हारी छवि?/ कैसे करूँ विश्वास कि,/ तुम उसी कौवे के रूप लौटे हो/ जिसे तुम भी नहीं स्वीकारते थे/ काँव-काँव सुन कर/ और उड़ा देते थे छज्जे से उसे/ इस डर से कि,/ गौरैया के घोंसले से खा लेगा उसके अण्डे"। कविता के अन्त में वह एक सवाल खड़ा करती हैं जो मानीखेज है 'क्या तुम तृप्त हो जाओगे पिता?' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि उनियाल की कविताएं। 



रुचि उनियाल की कविताएं 



लज्जा के अग्निपुष्प

 

लौट रही है शरद ऋतु शनैः-शनैः

धीमे-धीमे बढ़ता जाएगा शीत का प्रकोप

हाड़ गलाती ठंड

आत्मा को ठिठुराती भयाक्रांत करना चाहेगी

जीव-जगत की अभ्यर्थनाओं में रहेंगे सूर्य

किन्तु मेरा मुख दमकेगा तुम्हारे प्रेम से ऊष्मित हो


सहसा स्मृति कोष में कौंधता है तुम्हारा आलिंगन 

और कपोल आरक्त हो उठते हैं


स्मृति कोष को जाती शिराओं में खिलते हैं लज्जा के अग्निपुष्प

और मेरा सर्वस्व आबद्ध हो जाता है प्रेम की त्वरा से


मह-मह महकती है अवनी

पक रही धान की बालियों की गमक से

सुनहरी धान की बालियाँ

भरती हैं श्रम के पाथेय को नवीन कौतुक से 

सुवासित हो उठा है अक्टूबर

झर रहे हरसिंगार की सुवास से


प्यार मेरे..... 


महकती जाती हूँ मैं 

अपने ही प्रेमिल अन्तस् में 

तुम्हारे प्रेम ने मुझे सभी फूलों से अलग एक श्रेष्ठ सुगन्ध से भर दिया है।



तर्पण


कैसे चीन्ह लूँ किसी कुत्ते में तुम्हारी छवि?

कैसे करूँ विश्वास कि,

तुम उसी कौवे के रूप लौटे हो

जिसे तुम भी नहीं स्वीकारते थे

काँव-काँव सुन कर

और उड़ा देते थे छज्जे से उसे

इस डर से कि,

गौरैया के घोंसले से खा लेगा उसके अण्डे


जानती हूँ कि भाई देगा तर्पण अंगूठे से गिरते जल से 

फिर भी.... 

ब्रह्म मुहूर्त की जाग के बाद से ही

पकाती हूँ तुम्हारा प्रिय भोजन

और जपती हूँ मन ही मन


'इदं नम: ऋषिभ्य: पूर्वजेभ्य: पूर्वेभ्य: पथिकृभ्य:' 


मन ही मन देती हूँ तुम्हें तर्पण

अपनी सबसे प्रिय संतान, इस बेटी के मानसिक तर्पण से

क्या तुम तृप्त हो जाओगे पिता?






 कविता-यात्रा


इसके लिए नहीं होती आवश्यकता

किसी आडम्बर की


किसी प्रकार का भी बाँध

नहीं रोक सकता इसके प्रवाह और गति को


यह बिखराव के नियमों से मुक्त हो 

दौड़ती है रक्त के आगे-आगे किसी दामिनी की द्युति समान 


उपलब्धियों का विज्ञापन नहीं है कविता लिखना 

एकांतिक विश्लेषण और परिष्कार है कविता का गुण 


कवि का मन ठीक उसी प्रकार होता है लबालब ममत्व से 

जैसे कोई सद्यः प्रसूता का वक्षस्थल भर उठता पियूष से 

अपने नवजात शिशु को देख 


यह निर्बल की वाणी भी है 

तो शक्ति सम्पन्न का भय भी


सुखों के शीशमहल मिलें यह आवश्यक नहीं

किन्तु पीड़ा उसका उद्गम स्थल अवश्य होती है।


दो बूँद गिरते ही उमड़ आए ऐसा बरसाती गदेरा नहीं

बल्कि धीरता का अथाह अम्बुधि होती है कविता


हो-हल्ला, नारेबाज़ी और जुलूस-प्रदर्शन नहीं

दरअसल कविता विचारों की एक सघन यात्रा है।



तुम क्या जानो 


मृत्यु का आह्वान करती प्रेम में डूबी स्त्री का दुःख

तुम क्या समझोगे परमपिता

कैसे चीन्होगे उसकी मर्मान्तक पुकार

कि केवल प्रेम की एषणा से सायुज्य होना चाहता है

उसके हृदय का विकल चातक


दैहिक कामनाएँ क्षरित होती जा रहीं 

यौवन का पुष्प कुम्हलाने को है 


नहीं करती आत्मा किसी भी भौतिक वस्तु की अभ्यर्थना 


जिह्वा लरज़ उठती है किसी और नाम के उच्चारण से भी 


किसी हठयोगी की भांति 

वाक् कुँञ्जिका मात्र उसी को उचारती है प्रतिपल 


कितना निष्कवच होता है प्रेम में डूबा हृदय 

कितनी वेध्य होती है स्त्री प्रेम में भीगने पर 

कितनी यंत्रणाओं को निष्फल कर देती है 

उसकी एक दृष्टि, उसकी एक प्रेमिल छुअन


तुम क्या जानोगे सृष्टि पिता!






धानी साड़ी 


वो एक धानी रंग में सूत की साड़ी थी

जिसके किनारों पर काढ़े गए थे

रेशमी गुलाबी धागे के फूल


उसके पल्लू में टांके गए थे

चमकीले गोटे


जब-जब माँ उस साड़ी को पहनती

मुझे वो पहले से भी अधिक सुन्दर लगने लगती


बाबा उस साड़ी को लाए थे किसी ख़ास मौके पर

तब हम भाई-बहन बहुत छोटे थे

इतने छोटे कि, छोटा भाई नादानी में तब माँ  से ही ब्याह की ज़िद करता था


तब माँ की वृद्धावस्था का विचार भी नहीं आता था कभी


माँ जब भी उस साड़ी में होती

मुझे वो किसी बुग्याल जैसी लगती

साड़ी में पड़ती चुन्नटें लगतीं, जैसे बुग्याल की हरी-हरी घास में हवा के झोंके लहर उठे हों


उसके किनारे काढ़े गए फूलों को देख लगता 

कि, बस अभी ही तो खिलखिलाए हैं ये फूल 

माँ से लिपट कर जैसे मैं खिलखिलाती हूँ


उसके पल्लू में टांके गए गोटे

लगते जैसे सूरज-चाँद दमकते हों

एक ही धरातल पर एक ही साथ


बाद के दिनों में भी रहा उस साड़ी से मुझे अनुराग


इतना अनुराग कि उसके धज्जी-धज्जी उधड़ने तक 

ख़ुद से लपेटती रही मैं,

खाती रही माँ की फटकार उसके मोह में ही डूब


ब्याह के बखत जब सहेजा जा रहा था मेरे लिए सामान


बेख़याली में निकल गया था मुँह से मेरे

"माँ, वो धानी सूत की साड़ी होती तो उसे ही माँगती दहेज़"

माँ उस साड़ी के लिए मेरा मोह देख हैरत में थी


इतने-इतने वस्त्रों के होते हुए भी

कई बार उठती है कामना मन में

माँ की उसी धानी रंग की सूत की साड़ी के लिए।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं