आदित्य विक्रम सिंह का आलेख 'हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते'

 

धर्मेन्द्र 


सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र का कल 24 नवम्बर 2025 को निधन हो गया। हिन्दी फिल्मों की शृंखला में उन्होंने कई ऐसी यादगार फिल्मों में अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी जो आम आदमी की स्मृतियों में आज भी करीने से दर्ज है। उनके अभिनय में आम आदमी जैसे अपना ही अक्स महसूस करता था। सुपर स्टार राजेश खन्ना जब अपनी कामयाबी के शिखर पर थे तब यह धर्मेंद्र ही थे जो 'जीवन मृत्यु', 'राजा जानी', 'लोफ़र', 'सीता और गीता' और 'मेरा गांव मेरा देश' जैसी बड़ी-बड़ी हिट फ़िल्में दे रहे थे और कॉमेडी से ले कर, रोमांस और एक्शन हर अंदाज़ में बेहतर प्रदर्शन कर रहे थे। फ़िल्म 'अनुपमा' में एक संवेदनशील लेखक, समाज से सरोकार रखने वाला 'सत्यकाम' का आदर्श ज़िद्दी नौजवान, कॉमेडी से लोटपोट करने वाला 'चुपके-चुपके' का प्रोफ़ेसर परिमल.., इन सारी भूमिकाओं में धर्मेन्द्र परफेक्ट दिखाई पड़े। 1975 में 'शोले' आते-आते तो उनकी यानी वीरू की लोकप्रियता शीर्ष पर थी। चाहे टंकी पर चढ़ जाने वाला ये सीन हो- "वैन आई डेड, पुलिस कमिंग.. पुलिस कमिंग, बुढ़िया गोइंग जेल.. इन जेल, बुढ़िया चक्की पीसिंग एंड पीसिंग एंड पीसिंग" या तांगे वाली बसंती के साथ तांगे पर रोमांस करता वीरू हो- इस फ़िल्म ने धर्मेंद्र के स्टारडम को चार चाँद लगा दिए। आदित्य विक्रम सिंह अपने श्रद्धांजलि आलेख में लिखते हैं : " 'शोले' में जय (अमिताभ बच्चन) की गंभीरता और वीरू की हल्कापन एक दूसरे के पूरक हैं। धर्मेंद्र ने उस ‘हल्केपन’ को गहराई बना दिया। यह उनकी प्रतिभा थी कि दर्शक उनके हास्य में भी संवेदना देख लेते थे। धर्मेंद्र की कॉमेडी कभी केवल मनोरंजन नहीं रही। 'चुपके-चुपके' (1975) इसका प्रमाण है। यहाँ वे एक हिंदी-प्रेमी प्रोफेसर की भूमिका में हैं, जो अंग्रेज़ी-प्रेमी ससुराल वालों से मज़ाक करता है। पर इस मज़ाक में कोई दंभ नहीं, बल्कि आत्मीय व्यंग्य है। वे अपने हास्य से हँसी के साथ-साथ आत्म-स्वीकार कराना जानते थे। जब वे कहते हैं, “सौरी, मैंने इंग्लिश में बोल दिया न!” तो दर्शक मुस्कराता है, पर भीतर कहीं अपने सामाजिक दिखावे पर भी झिझकता है। यही धर्मेंद्र की संवेदना थी — जो मनोरंजन में भी समाज का चेहरा दिखा देती थी।" धर्मेंद्र ने 250 से भी ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया। 1997 में उन्हें 'फ़िल्मफ़ेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड' से नवाज़ा गया। अटल बिहारी वाजपेयी के कहने पर उन्होंने राजनीति में क़दम रखा। बीकानेर से लोक सभा चुनाव लडे और जीते. हालांकि वे राजनीति में आने को अपनी सबसे बड़ी भूल मानते थे। धर्मेन्द्र पूरे देश में लोकप्रिय थे, लेकिन सबसे ज़्यादा प्यार उन्हें देश के गांवों और छोटे शहरों के दर्शकों ने दिया। भले ही आज वे सशरीर नहीं हैं लेकिन जनता के दिलों पर आज भी वे राज करते हैं। उनकी सहजता स्वाभाविक थी। उनकी यह साधारणता ही उन्हें असाधारण बनाती थी। पहली बार की तरफ से हम इस नायाब अभिनेता को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आदित्य विक्रम सिंह का आलेख हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते'।


ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था   

'हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते'        


आदित्य विक्रम सिंह 

                               

धर्मेंद्र अब नहीं रहे — यह वाक्य सुनते ही जैसे भारतीय सिनेमा के एक स्वर्णिम अध्याय की रोशनी धीमी पड़ जाती है। वे केवल अभिनेता नहीं थे, वे एक भाव-स्थिति थे, एक युग की नब्ज़ थे, जिसने परदे पर मर्दानगी, प्रेम और संवेदना की परिभाषा को एक साथ जिया। 89 वर्ष की आयु में उनका जाना केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि सिनेमा के उस दौर का अंत है, जब अभिनय मेहनत से जन्म लेता था और नायक की छवि दर्शकों के हृदय में बस जाती थी।

                       

पंजाब के नसराली गाँव से चल कर बंबई की जगमगाती दुनिया तक पहुँचना कोई साधारण बात नहीं थी। धर्मेंद्र जब पहली बार कैमरे के सामने आए तो उनकी आँखों में न तो अभिमान था, न भय बस एक किसान-सी सादगी थी। यह सादगी ही उनके अभिनय की आत्मा बनी। 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' से आरंभ हो कर 'फूल और पत्थर' तक का सफर संघर्षों और असफलताओं से भरा था, पर भीतर की जिजीविषा ने उन्हें कभी थकने नहीं दिया। वे उस मिट्टी के बेटे थे जिसने मेहनत को इबादत माना, और यही कारण है कि पर्दे पर उनके संवादों में खेतों की मिट्टी की महक, आकाश की खुली साँस और गाँव की ईमानदारी झलकती रही।                  




धर्मेंद्र की अभिनय-यात्रा किसी एक भाव तक सीमित नहीं रही। एक ओर शोले का मस्ती भरा वीरू था, जो अपनी प्रेमिका से कहता है — “बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना,” तो दूसरी ओर 'चुपके-चुपके' का शालीन प्रोफेसर, जो हँसी में व्यंग्य और व्यंग्य में प्रेम बो देता है।उनके भीतर एक दुर्लभ बहुरूपिया था — जो आँसू और मुस्कान, दोनों को बराबर सहजता से जीता था। उनका चेहरा ‘हीरो’ की पारंपरिक परिभाषा से अलग था — मांसल शरीर, परंतु कोमल हृदय; कठोर निगाहों के पीछे गहरी करुणा। यही विरोधाभास उन्हें विशिष्ट बनाता है। वे न तो देवदास जैसे उदास नायक थे, न अमिताभ की तरह क्रोध के प्रतीक; वे उस मध्य-भूमि के नायक थे जो अपने दिल की सच्चाई से दर्शक का दिल जीतता था।

                              

सिनेमा में अक्सर सौंदर्य को शरीर तक सीमित कर दिया जाता है, पर धर्मेंद्र ने दिखाया कि शरीर तभी सुंदर है जब उसमें संवेदना का प्रवाह हो। उनके संवाद बोलने से पहले आँखें बोलती थीं। 'अनुपमा' और 'सत्यकाम' जैसी फिल्मों में उन्होंने जिस नर्मी से चरित्र को जिया, वह उनकी भीतरी गहराई का प्रमाण था। वे ऐसे अभिनेता थे जिनकी आवाज़ में मर्दानगी थी, पर भावनाएँ कोमल थीं; जिनकी देह में बल था, पर मन में करुणा। यह संतुलन ही उन्हें हिन्दी सिनेमा का “ही-मैन” बनाता है — वह मर्द जो हिंसा नहीं, इंसानियत का प्रतीक है। समय बीतता गया, पीढ़ियाँ बदलीं, पर धर्मेंद्र का आभा-वृत्त कभी धूमिल नहीं हुआ। धर्मेंद्र की विरासत केवल फिल्मों की संख्या में नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई में है। 'मेरा गाँव मेरा देश', 'सीता और गीता', 'आया सावन झूम के', 'सत्यकाम' — हर फिल्म में उन्होंने भारतीय मनुष्य की जटिलता को सरल बना दिया। वे जन-नायक थे — परदे पर और परदे के बाहर दोनों जगह। उनका जीवन सिखाता है कि लोकप्रियता का अर्थ आत्ममुग्धता नहीं, बल्कि दर्शकों के प्रति आभार है। उन्होंने कभी अपनी सफलता को गले नहीं लगाया — बस मुस्कुरा कर कहा, “लोग मुझे प्यार करते हैं, यही मेरा पुरस्कार है।"


                


फिल्म 'अनुपमा' (1966) में उन्होंने एक मौन, संवेदनशील कवि का किरदार निभाया था। उसमें वे न संवादों की आड़ लेते हैं, न किसी बड़े इशारे की; बस आँखों से कहते हैं — और दर्शक सुन लेता है। इसी तरह 'सत्यकाम' (1969) में उन्होंने एक आदर्शवादी इंजीनियर का चरित्र निभाया, जो नैतिकता और जीवन की व्यावहारिकता के बीच संघर्ष करता है। यह धर्मेंद्र के करियर की सबसे सशक्त भूमिकाओं में से एक थी। यहाँ उनका अभिनय आक्रोश या प्रदर्शन नहीं, बल्कि अंतरात्मा की चुप ज्वाला बन जाता है। यह कहना अनुचित न होगा कि धर्मेंद्र ने “अभिनय” को “जीवन” में बदल दिया। वे किरदारों को निभाते नहीं थे, उन्हें जी लेते थे — और यह गुण बहुत कम अभिनेताओं में होता है।

                              

1975 की 'शोले' केवल धर्मेंद्र की नहीं, बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा की स्मृति का स्थायी प्रतीक बन गई। इस फिल्म में उनका “वीरू” वह किरदार है जो दोस्ती, प्रेम और मस्ती का अमर रूप है। धर्मेंद्र के भीतर का सहज, शरारती और दिलदार मन यहाँ पूरी तरह खुल जाता है। जब वे टंकी पर चढ़ कर कहते हैं — “अरे ओ बसंती, अगर तूने मुझसे शादी नहीं की न, तो मैं इस टंकी से कूद जाऊँगा!” — तो दर्शक हँसता भी है और भीतर कहीं पिघल भी जाता है। वह दृश्य हास्य नहीं, प्रेम का विनम्र स्वीकार है। धर्मेंद्र ने इस क्षण को एक साधारण दृश्य से उठा कर शाश्वत बना दिया। “शोले” में जय (अमिताभ बच्चन) की गंभीरता और वीरू की हल्कापन एक दूसरे के पूरक हैं। धर्मेंद्र ने उस ‘हल्केपन’ को गहराई बना दिया। यह उनकी प्रतिभा थी कि दर्शक उनके हास्य में भी संवेदना देख लेते थे। धर्मेंद्र की कॉमेडी कभी केवल मनोरंजन नहीं रही। 'चुपके-चुपके' (1975) इसका प्रमाण है। यहाँ वे एक हिंदी-प्रेमी प्रोफेसर की भूमिका में हैं, जो अंग्रेज़ी-प्रेमी ससुराल वालों से मज़ाक करता है। पर इस मज़ाक में कोई दंभ नहीं, बल्कि आत्मीय व्यंग्य है। वे अपने हास्य से हँसी के साथ-साथ आत्म-स्वीकार कराना जानते थे। जब वे कहते हैं, “सौरी, मैंने इंग्लिश में बोल दिया न!” तो दर्शक मुस्कराता है, पर भीतर कहीं अपने सामाजिक दिखावे पर भी झिझकता है। यही धर्मेंद्र की संवेदना थी — जो मनोरंजन में भी समाज का चेहरा दिखा देती थी।

                        

धर्मेंद्र का निजी जीवन भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं रहा। उन्होंने दो विवाह किए — प्रकाश कौर और हेमा मालिनी से — और एक बड़ा परिवार पीछे छोड़ा, जिसमें सनी, बॉबी, ईशा, और अहाना देओल जैसे कलाकार हैं। उनका प्रेम, उनकी नर्मदिली और अपनापन हमेशा चर्चित रहा। पर उन्होंने कभी अपनी निजी भावनाओं को प्रचार का विषय नहीं बनने दिया। हेमा मालिनी के साथ उनका प्रेम फिल्मी पर्दे से वास्तविकता तक पहुँचा। दोनों की जोड़ी 'सीता और गीता', 'ड्रीम गर्ल', 'शराफ़त' जैसी फिल्मों में अमर हुई। उस समय के दर्शक केवल उनके अभिनय नहीं, उनकी आँखों में झलकती सच्चाई से प्रेम करते थे। धर्मेंद्र के प्रेम में दिखावापन नहीं था; उसमें मिट्टी की तरह नम्रता थी। वे प्रेम को बल से नहीं, सहजता से जीते थे। जब 70 के दशक में हिन्दी सिनेमा में “एक्शन हीरो” का दौर शुरू हुआ, धर्मेंद्र को “ही-मैन” कहा गया। पर उनका “ही-मैन” होना देहबल से अधिक आत्मबल का प्रतीक था। वे ताकतवर ज़रूर थे, पर उनकी ताकत में करुणा थी। वे उन दुर्लभ नायकों में से थे जिनकी मर्दानगी में हिंसा नहीं, आत्मीयता थी। 'मेरा गाँव मेरा देश' (1971) में उन्होंने ग्रामीण जीवन और साहस को इस तरह जोड़ा कि वह फिल्म भारतीय सिनेमा की समाजवादी भावना का उदाहरण बन गई। वे नायक थे, पर आम आदमी के जैसे।


                      


समय ने धर्मेंद्र को कभी अप्रासंगिक नहीं होने दिया। 1980 के बाद भी उन्होंने अनेक भूमिकाएँ निभाईं — 'राज तिलक', 'हकीकत', 'लोहा', 'कातिलों का कातिल' जैसी फिल्मों में वे दर्शकों की पसंद बने रहे। बाद में उन्होंने राजनीति में कदम रखा, संसद सदस्य रहे, पर उनका आचरण वहीं का वहीं रहा — सादा, सरल, जमीन से जुड़ा। उन्होंने कहा था, “मैं किसान का बेटा हूँ, मुझे ज़मीन से ऊपर उठना अच्छा नहीं लगता।” यह वाक्य केवल विनम्रता नहीं, बल्कि उनके जीवन-दर्शन का सार है  2000 के दशक में जब वे अपने बेटों के साथ 'यमला पगला दीवाना' श्रृंखला में आए, तो दर्शकों ने फिर वही मुस्कान, वही ऊर्जा देखी। उम्र के साथ भी उनके अभिनय की चमक कम नहीं हुई — बस उसमें अनुभव की कोमल रोशनी जुड़ गई। 

                

धर्मेंद्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे दर्शक को केवल मनोरंजन नहीं देते थे, बल्कि उसे “महसूस” कराते थे। उनके पात्र हमें याद दिलाते हैं कि आदमी का असली बल उसके हृदय में है, न कि उसकी मांसपेशियों में। वे कभी अपने किरदार को बड़ा नहीं बनाते थे, वे उसे इंसानी बनाते थे। यही कारण है कि चाहे सत्यकाम का आदर्शवादी इंजीनियर हो या वीरू का चंचल प्रेमी — दर्शक दोनों में खुद को देखता है। उनकी अभिनय शैली में आडंबर नहीं था, बल्कि जीवन का सहज प्रवाह था। वे अपनी लोकप्रियता के बावजूद “स्टार” से पहले “मनुष्य” बने रहे। यही उन्हें राजकपूर, दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की पंक्ति में एक विशिष्ट स्थान देता है।


 
                      

आज जब उनके निधन का समाचार आया, तो पूरे देश ने एक साथ जैसे कोई परिचित चेहरा खो दिया। पर यह मृत्यु नहीं, एक रूपांतरण था — धर्मेंद्र अब परदे पर नहीं, स्मृतियों में जीवित हैं।उनकी हँसी अब भी हमारे भीतर गूँजती है; उनके संवाद अब भी जीवन की थकान को हल्का कर देते हैं। वे अब उस सिनेमा के प्रतीक हैं, जिसमें कला का अर्थ ईमानदारी था। 

           

आज जब सिनेमा में तकनीक, चमक और शोर का बोलबाला है, धर्मेंद्र की उपस्थिति हमें याद दिलाती थी कि अभिनय का असली सौंदर्य सादगी में है। उनकी मुस्कान, उनका ठहाका, उनका अपने दर्शकों के प्रति आत्मीय संबोधन — ये सब मिल कर उन्हें किसी किंवदंती का नहीं, बल्कि जीवन के अपनेपन का प्रतीक बनाते हैं। उनकी आँखों में अब भी वही रोशनी है जो पंजाब की मिट्टी से उठी थी, उनकी आवाज़ में वही गूंज है जो सच्चाई से पैदा होती है। भारतीय सिनेमा के इस महान कलाकार को नमन, जिसने हमें सिखाया कि अभिनय तब सच्चा होता है जब वह दिल से निकल lकर दिल तक पहुँचे।श्रद्धांजलि धर्मेंद्र को, जो परदे के हीरो नहीं, हमारे जीवन के सादे, सच्चे, अमर नायक हैं।


आदित्य विक्रम सिंह 



(आदित्य विक्रम सिंह, भारतीय रेलवे के एक उपक्रम में कार्यरत हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 9532008975

टिप्पणियाँ

  1. आदित्य विक्रम सिंह जब लिखते हैं डूब कर लिखते हैं । वे लेखक जो डूब कर लिखते हैं , पाठकों को अपने साथ बना लेते हैं ।

    धर्मेंद्र को शायद ही किसी ने ऐसे याद किया हो ।

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  2. जितना सुंदर लेख है, उतने ही सुंदर आदरणीय आदित्य विक्रम जी साधुबाद

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  3. Pahli bar ki satah par pahli bar aapka prashanshneeya lekh pdhkar aatmik sukh mila..
    Dharmendra ji ka hamare beech na hona apurneeya khshti hai.
    Unhe aatmik shanti mile.aap ese hi aapne naam ko sartak karte rahen .sadhuwad

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  4. सरल और सहज धर्मेन्द्र जी को उतनी ही सहजता से याद किया गया है आलेख में|

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  5. अत्यंत सुचिंतित और प्रवाहपूर्ण आलेख। आदित्य जी ने धरम पा के व्यक्तित्व के अनेक आयामों का सजग, व्याहारिक और संवेदनशील मूल्यांकन किया है। साधुवाद के पात्र हैं आदित्य जी।

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  6. विनम्र श्रद्धांजलि।
    आदित्य जी का आलेख, स्वर्गीय धर्मेंद्र जी के फिल्मी करियर का पूरा लेखा-जोखा है।

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  7. सर्वप्रथम इस हेतु हार्दिक बधाई.
    सिनेमा के प्रति आपकी सोच और शोध का परिणाम है यह आलेख.
    बहुत मुश्किल कार्य है यह, जो आपने किया.

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