कमलेश का संस्मरण 'एक अधूरे उपन्यास की तरह छूट गया सब कुछ'

 

अवधेश प्रीत 



अवधेश प्रीत हमारे समय के अग्रणी कहानीकारों में से थे। उनका लेखन उस लोक से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ था, जो उनके आस पास के जीवन की लय निर्मित करता था। लेखक प्रायः अपने स्वाभिमान के प्रति सतर्क रह करते हैं। वे खुशी खुशी दुर्दिन झेल लेंगे लेकिन कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। अवधेश जी इसी कोटि के रचनाकार थे। उनका मानना था कि  'ना लिखना, ना पढ़ना। यह भी कोई जीवन है।' अभी तो वे महज 67 साल के ही हुए थे। यह जाने की उम्र तो नहीं है लेकिन अचानक उनके निधन की खबर ने हमें स्तब्ध कर दिया। वरिष्ठ होने के बावजूद वे सहज थे। कोई युवा लेखक जब उनसे मिलता था तो उनके अपनत्व का कायल हो जाता था। कथाकार कमलेश लिखते हैं 'प्रीत सर ‘हिन्दुस्तान’ जैसे बड़े अखबार के फीचर संपादक और मैं ‘आज’ जैसे छोटे अखबार का नया रिपोर्टर। इसके बाद मैं खबरों की दुनिया में व्यस्त हो गया। लेकिन उनकी कहानी ‘हमजमीन’ और ‘अली मंजिल’ की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। इसी दौर में इनकी दो कहानियों ‘ग्रासरूट’ और ‘नृशंस’ ने बिहार में तहलका मचा रखा था। कहानियों को ले कर होने वाली हर गोष्ठी में इन दो कहानियों की चर्चा जरूर हो रही थी। ग्रासरूट पढ़ कर नामवर सिंह ने कथाकार मधुकर सिंह से कहा था- ‘ये कौन नया कथाकार है बिहार में। जबर्दस्त कहानी लिखी है भाई।' कथाकार कमलेश उनके साथ काम कर चुके हैं। वे उनके करीब भी रहे हैं। हमारे अनुरोध पर उन्होंने पहली बार के लिए एक आत्मीय संस्मरण लिखा है। आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवधेश प्रीत पर लिखा गया कमलेश का संस्मरण  'एक अधूरे उपन्यास की तरह छूट गया सब कुछ'।



'एक अधूरे उपन्यास की तरह छूट गया सब कुछ'


कमलेश


पटना के रानीघाट को छू कर बहने वाली गंगा नदी का किनारा जैसे खामोश हो गया है। घाट से जुड़ी गलियों में भी एक सन्नाटा सा है। एनआईटी के हॉस्टल के पास की चाय की दुकानों में गिलासों की खनखनाहट तो सुनाई देती है लेकिन अब वह खनकती हुई आवाज कहां- ‘जरा जोरदार चाय पिलाना भाई।’ इन दुकानों में ना तो रचनाकारों की भीड़ जुट रही है और ना वह ठहाका जो अवधेश प्रीत सर के होने की पहचान थी। इन चाय की दुकानों पर प्रीत सर ने ना जाने कितने नये लेखकों की कहानी सुनी और युवा कवियों की कविताएं। लेकिन अब जैसे सब झटके से खत्म हो गई है। अली मंजिल में सन्नाटा है, अम्मी की आंखों के आंसू नहीं सूख रहे और कजरी बार-बार सूनी निगाहों से उन्हें तलाश रही है। 


अवधेश प्रीत सर पिछले कई महीनों से अपनी बीमारी से जूझ रहे थे। हर पल उन्हें अहसास हो रहा था कि उनकी जिन्दगी के दिन कम हो रहे हैं। सारा दुख उन्होंने अकेले अपने परिवार के साथ काटा। लेकिन किसी मित्र को अपने दुख और कष्ट की हवा भी नहीं लगने दी। किसी से किसी भी तरह की मदद नहीं मांगी। जब तक आंखों और सांसों ने सहारा दिया तब तक लिखे और पढ़े। जब बीमारी ने पूरी तरह बिस्तर पर पटक दिया तब भी सिरहाने किताबें रहने दी। पढ़ न सके तो कम से कम देखते तो रहे। अपने निधन के लगभग दस दिन पहले उन्होंने मुझसे कहा था- 'ना लिखना, ना पढ़ना। यह भी कोई जीवन है।'




कभी नौकरी और कभी पारिवारिक जरूरतों से मैं लगभग दस वर्षों से पटना से दूर था। लेकिन प्रीत सर से कभी अलग नहीं हो सका। हर दो या तीन दिन पर उनका फोन आता। उसमें तीन सवाल होते- आजकल क्या पढ़ रहे हैं? क्या लिख रहे हैं? और पटना कब आ रहे हैं? पटना पहुंचने के साथ उनका फोन आता- ‘जल्दी घर आइये। आपको नई कहानी सुनानी है। मछली भी तली जा रही है।’


पिछले एक वर्ष के दौरान मैं जब भी उनसे मिला उनकी तबीयत पहले से खराब मिली। ऐसे तो वह कोविड के संकट के बाद से ही स्वास्थ्य संबंधी गड़बड़ियों से हमेशा परेशान रहे। लेकिन पिछला एक वर्ष उनके लिए सबसे भयानक था। सांस की इस बीमारी की शुरूआत लखनऊ में हुई थी। वहां वह एक कार्यक्रम में भाग लेने गये थे। लेकिन वहां उनकी तबीयत इतनी खराब हुई कि कभी दिल्ली तो कभी पटना के अस्पताल के चक्कर लगने लगे। धीरे-धीरे उनका घर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया। लेकिन इसके बावजूद पिछले पटना पुस्तक मेला में एक युवा लेखक की किताब के लोकार्पण में पहुंच गये थे। यहां कार्यक्रम के दौरान ही उनकी तबीयत और ज्यादा बिगड़ गई थी। 


पिछले साल जून के महीने में मैं उनके घर गया था। उनके कमरे से बाहर निकलने पर मनाही थी। दिन भर में तीन-चार घंटे ऑक्सीजन मास्क लगाना पड़ता था। तब उन्होंने एक नये उपन्यास को ले कर बात शुरू की थी। इस सिलसिले में वे बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ सीमावर्ती जिलों में जाना चाहते थे। तब उन्होंने कहा था कि जब वे ठीक हो जाएंगे तो मेरे साथ इस यात्रा पर चलेंगे।  लेकिन बीमारी ने उन्हें इसके लिए मौका नहीं दिया। इसके बाद तो उनका पूरा कमरा ही आईसीयू के कक्ष में तब्दील हो गया था। 




प्रीत सर से अपनी पहली मुलाकात की मुझे हल्की सी याद है। मेरे ‘आज’ अखबार में काम करने के दिनों में उन्होंने मेरे एक लेख की चर्चा मेरे संपादक से की थी। यह लेख रामेश्वर उपाध्याय की कहानियों पर था। तब ‘आज’ अखबार ‘दृष्टि’ के नाम से एक चार पृष्ठों का एक साप्ताहिक अंक निकालता था। एक बार अखबार के तत्कालीन संपादक चंद्रेश्वर जी ने ‘दृष्टि’ के चार अंकों को कहानी विशेषांक के रूप में निकालने की योजना बनाई थी। इस आयोजन के लिए बनी टीम में र्मैं भी शामिल था। विशेषांक की घोषणा होते ही लगभग तीन सौ कहानियां आ गई। हम लोग अधिकतम पचीस से तीस कहानियां ले सकते थे। इसके चयन के लिए जो टीम बनाई गई थी उसमें अवधेश प्रीत सर शामिल थे। 


सक्रिय पत्रकारिता में आने के पहले मैं प्रीत सर की कुछ कहानियां पढ़ चुका था। लेकिन कभी उनसे मिला नहीं था। कहानियों के चयन को ले कर हुई पहली बैठक में मैंने उन्हें देखा था। सजा-संवरा व्यक्तित्व, नफासत से संवारे गये केश, पैंट में इन करके पहनी गई खूबसूरत शर्ट, चमचमाते जूते और हाथ की अंगुलियों में फंसी सिगरेट। पहली बार में किसी सरकारी अधिकारी की तरह नजर आये थे। मैं बैठक में पीछे बैठा था। संपादक जी ने अवधेश प्रीत सर से कहा- ‘यही कमलेश है जिसके आलेख की चर्चा आप कर रहे थे।’ 


प्रीत सर अपनी कुर्सी से उठे और मुझ तक आये। मेरे कंधे पर हाथ रखा और गंभीर आवाज में कहा- ‘बढ़िया लिखे भाई। लिखते रहिये। कुछ और इस तरह का लिखा हो तो पढ़ाइये।’ 


ये मुख्तसर सी मुलाकात थी। प्रीत सर ‘हिन्दुस्तान’ जैसे बड़े अखबार के फीचर संपादक और मैं ‘आज’ जैसे छोटे अखबार का नया रिपोर्टर। इसके बाद मैं खबरों की दुनिया में व्यस्त हो गया। लेकिन उनकी कहानी ‘हमजमीन’ और ‘अली मंजिल’ की नाट्य प्रस्तुतियां देखीं। इसी दौर में इनकी दो कहानियों ‘ग्रासरूट’ और ‘नृशंस’ ने बिहार में तहलका मचा रखा था। कहानियों को ले कर होने वाली हर गोष्ठी में इन दो कहानियों की चर्चा जरूर हो रही थी। ग्रासरूट पढ़ कर नामवर सिंह ने कथाकार मधुकर सिंह से कहा था- ‘ये कौन नया कथाकार है बिहार में। जबर्दस्त कहानी लिखी है भाई।’ 




अवधेश प्रीत सर से कायदे से मुलाकात वर्ष 2001 में होनी शुरू हुई जब मैं हिन्दुस्तान में रिपोर्टर बन कर गया। उनका फीचर विभाग एक छोटे से हॉल में था जिसके एक कोने में उनकी कुर्सी और टेबुल लगी रहती थी। उनका यह कक्ष नये लेखकों से भरा रहता था। प्रीत सर बारह बजे के आस-पास आते लेकिन नये लेखक दस बजे से ही जुट जाते। लेखकों के अलावा कवि, शायर, नाट्यकर्मी और चित्रकार भी इनमें शामिल होते थे। सभी अपनी रचनाएं ले कर आते। प्रीत सर उन रचनाओं को पढ़ते, देखते और सुझाव देते। शाम में वरिष्ठ कथाकारों के आने का वक्त होता। उनके साथ वे बाहर निकलते, चाय की दुकान पर बैठते और घंटों बतियाते। हम लोगों को कई बार हैरत होती कि हमेशा लेखकों-कवियों से घिरे रहने वाले प्रीत सर अपना काम कब करते हैं। लेकिन यह भी सच था कि अपना काम निपटा कर सबसे पहले दफ्तर से निकलने वाले वही होते थे। हिन्दुस्तान अखबार का दफ्तर उनके घर से लगभग सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर था। लेकिन मैंने उन्हें कभी ऑटो या कार से आते-जाते नहीं देखा। वे हमेशा रिक्शा से जाते। रिक्शा वाला जितना किराया मांगता, दे देते। एक बार मैंने उनसे पूछा था- ‘सर, ऑटो से 15-20 रुपये में पहुंच जाएंगे फिर रिक्शे पर साठ-सत्तर रुपये क्यों खर्च करते हैं?’


उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- ‘एक तो रिक्शे से यह शहर नजदीक और साफ-साफ दिखाई पड़ता है। और दूसरा रिक्शा चालक के रूप में रास्ते भर बात करने के लिए एक साथी मिल जाता है।’ बतियाने और अड्डेबाजी करने में उनका कोई सानी नहीं था। जो भी मिलता उसे घर जरूर बुलाते और खूब बातें करते। और बात करने के लिए कितने सारे विषय उनके पास होते- साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, खेल, नाटक, राजनीति और मनोविज्ञान। जब मेरे एक अधिकारी मित्र से वे पहली बार मिले तो वह चकित रह गया था। बाद में उसने मुझसे कहा- ‘यार, कोई आदमी इतना कैसे पढ़ सकता है?’ 

 

एक बार बेगूसराय जिले के मंझौल में गंडक नदी में प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। गांव के गांव बह गये थे। पीड़ित लोग तटबंध पर आसरा लिए हुए थे। मैं बाढ़ की हालत को कवर करने गया था। तब मैंने दो-तीन रातें बाढ़ पीड़ितों के साथ बिताई थी। वहां से मैं जो खबरें भेज रहा था उन्हें देखने की जिम्मेवारी अवधेश प्रीत सर की ही थी। बाद में जब मैं पटना लौट कर आया तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और हमेशा की तरह कंधे पर हाथ रख कर कहा- ‘महाराज, आप कहानियां क्यों नहीं लिखते? बाढ़ को ले कर भेजी गई आपकी खबरों को पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि मैं कहानियां ही पढ़ रहा हूं।’ 


तब मैं जोश से भरा रिपोर्टर था जो अपने आस-पास होने वाली घटनाओं को केवल खबरों के नजरिये से देख रहा था। लिहाजा तब उनकी बात को बहुत गंभीरता से नहीं ली। लेकिन वे जब भी कहीं मिलते, यही कहते- ‘कुछ लिखा कि नहीं आपने? कुछ भी लिखिये तो मुझे दिखाइयेगा जरूर।’ 




आखिरकार मुझ पर उनकी नसीहतों का असर हुआ और मैंने एक कहानी लिखी और इसे ‘पाखी’ को भेज दिया। मैंने कहानी प्रीत सर को डर के मारे नहीं दिखाई थी। लेकिन ‘पाखी’ पत्रिका वे नियमित लेते थे। मुझे याद है वे उस दिन न्यूज रूम में वे मेरी कुर्सी के पास आये थे। पहले तो उन्होंने मुझे बधाई दी और इसके बाद नाराजगी भरे स्वर में बोले- ‘क्या आपने मुझे इस लायक नहीं समझा कि एक बार कहानी मुझे सुना देते? हम लोग कहानी पर थोड़ी बात कर लेते तो कहानी और बेहतर हो जाती।’ 


इस घटना के लगभग 15 साल हो गये। लेकिन मुझे आज तक अपनी कहानी अवधेश प्रीत सर को सुनाने का साहस नहीं हुआ। मुझे पता था कि उन्हें अपनी कहानी सुनाने के बाद मुझे उसे दुबारा-तिबारा लिखना पड़ेगा। नये लेखकों से अपनी रचनाओं पर वह खूब काम करवाते। मात्र यही नहीं, अपनी कहानियों पर भी वे नये से नये लेखकों की राय गंभीरता से सुनते थे। प्रीत सर जब भी कोई नई कहानी लिखते तो मुझे बुलाते। वे अपनी कहानी सुनाते और उस पर मेरी राय मांगते। उनके उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ और ‘रूई लपेटी आग’ के लेखन के दौरान तो कई बार ऐसा हुआ कि हम लोग दिन-दिन भर साथ बैठे रहे। उपन्यास के अंत को ले कर तो खूब बतकही हुई।


नये लेखकों की रचनाओं को पढ़ने के मामले में उनका कोई जवाब नहीं था। वे पत्रिकाओं में किसी नये लेखक की रचना पढ़ते तो उसे फोन जरूर करते। हौसला अफजाई करते और जरूरी सुझाव भी देते। एक बार उन्होंने मुझे एक नये लेखक का कहानी संग्रह दिया और कहा कि इसको पढ़िये। इस पर बात करनी है। अगली मुलाकात में मुझे टोका। जब मैंने कहा कि अभी किताब नहीं पढ़ी है तो थोड़े नाराज भी हुए। उन्होंने कहा- ‘वरिष्ठ लेखकों को जरूर पढ़िये। लेकिन नये लेखकों को भी पढ़ना चाहिये। इससे पता चलेगा कि हमारा समाज किस तरह बदल रहा है।’ उनके पुस्तकालय को देख कर हमेशा सोचा, काश ऐसा ही पुस्तकालय मेरे पास भी होता। 




अवधेश प्रीत सर मूल रूप से उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के रहने वाले थे। उत्तराखंड के रुद्रपुर में उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई। हिन्दी में एम ए करने के बाद वे पटना से सटे खगौल आ गये थे जहां उनके चाचा रहते थे। फिर तो वे पक्के बिहारी हो गये। लोगों का कहना है कि शुरूआती दौर में वे कविताएं लिखा करते थे। मैंने कई बार इस मुतल्लिक उनसे बात की लेकिन वे मुस्कुरा कर रह गये। उनसे कभी कविता सुनने का मौका नहीं मिला। खगौल की चर्चित नाट्य संस्था 'सूत्रधार' से लम्बे समय तक जुड़े रहे। इसी दौर में वे अपने दौर के चर्चित कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प के करीब आये और इसके बाद तो कहानियों से जो उनका लगाव हुआ वह ताउम्र बना रहा।


दोस्तों के लिए उनकी मुहब्बत का कोई जवाब नहीं था। उनका घर ठीक गंगा नदी के किनारे है। अक्सर उनके घर पर सुबह दस बजे यारों की जो बैठकी शुरू होती वह देर शाम तक जारी रहती। बैठकी में शामिल होने वालों के चेहरे बदलते रहते लेकिन प्रीत सर की खिलखिलाहट कभी नहीं बदलती। मौसम के अनुसार चाय-नाश्ते का दौर चलता रहता। कई बार इस बैठकी में भाभी जी भी शामिल होती। मुझे याद नहीं है कि भाभी जी ने इस बैठकी को ले कर कभी उनसे शिकायत की हो। जब मैं पटना हिन्दुस्तान में था तो सोमवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता था। मैं हर सोमवार को दोपहर में उनके घर पहुंचता और रात गये वापस लौटता। दूसरे शहरों में रहने वाले लेखक जब किसी कार्यक्रम में पटना आते तो उन्हें वे अपने आवास पर खाने पर जरूर बुलाते। एक बार कथाकार सत्य नारायण पटेल पटना आने वाले थे। उनका नया उपन्यास ‘गांव भीतर गांव’ आया था। प्रीत सर ने मुझे यह उपन्यास देते हुए कहा था- इसे पढ़ कर एक नोट बना लीजियेगा। सत्य नारायण पटेल पटना आ रहे हैं। मैं सोच रहा हूं इस मौके पर उनके इस उपन्यास पर कुछ बातचीत हो जाए। बाद में उस बातचीत में इतने लोग शामिल हो गये थे कि हम लोगों को उसे कालिदास रंगालय में करना पड़ा था। 


बीमारी के दौर में भी वे जब तक ताकत रही तब तक पढ़ते रहे। जिन कहानियों को वे पढ़ते उन पर मुझसे बात भी करते। इस दौरान गीताश्री की कहानी 'दमनक' जहानाबादी की 'विफल गाथा', आदित्य अभिनव की कहानी 'जैतून का पेड़' आदि कहानियों की खूब तारीफ की थी। उन्होंने इसी साल की शुरूआत में अपनी एक कहानी पूरी की थी। इसे वे सुना नहीं सकते थे इसलिए मुझे व्हाट्सअप पर भेजा था। वह शानदार कहानी थी। उस कहानी का क्या हुआ मुझे नहीं पता। मुझे लगता है कि शायद इस कहानी को वे कहीं भेज नहीं पाये। बीमारी के आखिरी दिनों में वे अपने दोस्तों को छू कर, उनके कंधों पर हाथ रख कर बात करना चाहते थे लेकिन हालात ऐसे नहीं थे। और जब दोस्तों ने उन्हें करीब से छूआ तो वे इसे महसूस करने के लिए मौजूद नहीं थे। अपने रिटायरमेंट के मौके पर युवा पत्रकारों के साथ बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा था- ‘जीवन किसी अधूरे और छूटे हुए उपन्यास की तरह नहीं होना चाहिये।’ अपनी तमाम रचनाओं के अलावा एक अधूरा उपन्यास और एक अप्रकाशित कहानी हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी। 


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अवधेश प्रीत का रचना संसार

छह कहानी संग्रह : हस्तक्षेप, नृशंस, हमज़मीन, कोहरे मे कंदील, मेरी चुनी हुई कहानियां और चांद के पार एक चाभी।

उपन्यास : अशोक राजपथ और रुई लपेटी आग।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख, साक्षात्कार, समीक्षाएं, व्यंग्य और कुछ कविताएं व लघु कथाएं प्रकाशित।

कई कहानियों का अंग्रेजी, उर्दू और अन्य भाषाओं में अनुवाद। 

'अली मंज़िल' और 'अलभ्य' कहानियों पर दूरदर्शन ने टेलीफिल्म बनाई।

‘अली मंज़िल’ कहानी पाकिस्तान में भी प्रकाशित। 'नृशंस' व 'एक मामूली आदमी का इंटरव्यू' कहानियों का एनएसडी में मंचन। ग्रासरूट, तालीम, हमज़मीन व चांद के पार एक चाभी कहानियों का देश की विभिन्न नाट्य संस्थाओं द्वारा मंचन।

सम्मान -हिन्दी कहानी के लिए बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, अखिल भारतीय विजय वर्मा कथा सम्मान, सुरेन्द्र चौधरी कथा सम्मान और बिहार सरकार का फणीश्वरनाथ रेणु कथा सम्मान।


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