रवि नन्दन सिंह का आलेख श्रीनरेश मेहता का विकट जीवन संघर्ष'

     

नरेश मेहता 


आमतौर पर समाज किसी भी व्यक्ति की सफलता ही देखता है। उस सफलता के पीछे उसके संघर्षों की भूमिका कितनी रही है, इसे प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है। श्रीनरेश मेहता साहित्य में जाना माना नाम है। लेकिन शैशव काल से ही जीवन का जो संघर्ष आरम्भ हुआ वह काफी समय तक चलता रहा। कई रचनाकार तो ऐसे ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने आजीवन संघर्ष किया। उत्कृष्ट रचनाएं लिखी लेकिन जीते जी  वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाए जिसके वे वास्तविक तौर पर हकदार थे। नरेश जी को जीवन के आखिर में साहित्यिक सम्मान, पहचान और स्वीकृति मिल गई। स्वतन्त्र लेखन करने का निर्णय ले पाने का साहस सब कहां कर पाते हैं। रेडियो की लगी लगाई नौकरी छोड़ कर स्वतन्त्र लेखन करने का निर्णय लेना कोई रचनाकार ही कर सकता है। अपनी आत्मकथा में नरेश जी लिखते हैं "धीरे-धीरे मुझे अपने पर से जैसे विश्वास उठता जा रहा था कि स्वतंत्र लेखन करने का मेरा निर्णय क्या सही था? और यदि सही नहीं था तो अब क्या होगा? लौटने के लिए पीठ ओर कहीं कोई भूमि दूर-दूर तक नहीं थी। दिल्ली में लोगों ने इस आत्मघाती निर्णय के लिए कितना समझाया था प्रत्येक दिन के बीतने के साथ जीवन की दुर्दान्त विभीषिका और निकट आ गयी लगती। अजीब दुरभि थी कि चाहते हुए भी लिखना ही नहीं हो पा रहा था। कई बार मन में आता कि स्वतंत्र लेखन का निर्णय केवल जिद थी। लेखन तो किया जा सकता था क्योंकि वह यदा-कदा की बात है लेकिन स्वतंत्र लेखन शायद सबके बस की बात नहीं होती और कम से कम मेरे बस की बात तो नहीं ही है।" आज नरेश जी की पुण्यतिथि है। पहली बार की तरफ से हम उन्हें नमन करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रवि नन्दन सिंह का आलेख श्रीनरेश मेहता का विकट जीवन संघर्ष'।



श्रीनरेश मेहता का विकट जीवन संघर्ष'                                      


रवि नन्दन सिंह        


आज श्रीनरेश मेहता की पुण्यतिथि है। वे हिंदी के यशस्वी कवि हैं, श्रेष्ठ उपन्यासकार हैं तथा हिंदी जगत के अनेक सम्मानों (ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, भारत भारती) से सम्मानित है। उनकी कृतियां विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में कहीं न कहीं लगी हुई हैं तथा उन्हें पाठकों का भरपूर प्यार मिलता है। नरेश मेहता के बारे में यह सब बातें हिंदी के अध्येताओं को कमोवेश मालूम हैं। किंतु उनका जीवन संघर्ष कितना बड़ा था, यह बात कम लोगों को पता है। ऐसे लोग जो लेखन करने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की तलाश करते हैं, उन्हें नरेश मेहता के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेनी चाहिए। आजीवन त्रासदपूर्ण और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी उन्होंने लेखन का दामन कभी नहीं छोड़ा। उनके जीवन की परिस्थितियां इतनी विकराल थीं कि सामान्य आदमी टूट कर बिखर जाता। किंतु श्रीनरेश मेहता अलग मिट्टी के बने थे, उनकी जिजीविषा बहुत बड़ी थी।

               

अपनी पूरी सृजन यात्रा में श्रीनरेश मेहता पर क्या गुजरी, इसके बारे में उनकी कृति 'हम अनिकेतन' बहुत कुछ चीख-चीख कर कहती है। यह किताब उनके पचास वर्षों के लेखकीय जीवन और अनुभवों का जीवंत दस्तावेज है। इसकी भूमिका में श्रीनरेश मेहता लिखते हैं कि "मुझे प्रायः पारिवारिक एल्बम को देख कर असुविधा हुई होगी। लगता है कि कैसे किरिच-किरिच, टुकड़ों-टुकड़ों में टूटते हुए हम यहाँ तक पहुँचे हैं। काले घुँघराले बालों वाले तब के दैहिक कसेपन से ले कर आज के खल्वाट वाले सफेद बालों की महिमामंडित इस शुभ्रता तक कैसे काँख-कूँख कर पहुँचे हैं जिसकी आधारभूत बनावट में रोज-रोज की छोटी-छोटी भूलें, साहित्यिक असफलताएँ, आर्थिक हाहाकार, परिवेशगत असन्तोष आदि के न जाने कितनी ही तरह के कलाबत्तू से बेल-बूटे कढ़े हुए हमारी ओर देख रहे हैं, विवश दिखने के स्तर पर जो कामदानी, जरी पोशाक है वह हमारे अन्तस में मन को कैसी चुभ रही होती है, कसी-कसी सी लगती है कि साँस लेने में तकलीफ होती है। लेकिन इस बानक को क्या किसी दिन किसी को भी पूरी तरह बताया जा सकता है, या कहा जा सकता है? नहीं न, क्योंकि व्यवहार जगत में कहना नहीं, सहना होता है। वस्तुतः हम यहाँ दिखने के लिए ही हुए होते हैं, न कि होने के लिए। होना, हमारा निजपन है, प्रदर्शन नहीं। फिर भी भाषा की सारी शालीनता के बावजूद कुछ तो छलक ही जाता है और इस 'हम अनिकेतन' को भी ऐसा ही कुछ माना जा सकता है।"

          

श्रीनरेश मेहता का जीवन संघर्ष दो ढाई बरस की उम्र से ही शुरू हो जाता है जब उनकी मां का देहांत हो गया। पिता सरकारी नौकरी में अधिकतर बाहर रहते थे। एक मात्र बड़ी बहन का विवाह हो चुका था। ऐसी स्थिति में उस बालक के लिए बस दादा-दादी ही परिवार थे। कुछ दिन बाद उनके काका पं. शंकर लाल मेहता अपने पास नर्मदा के किनारे स्थित एक कस्बे धरमपुरी ले गए। वहां भी अकेलापन और परिवारहीनता ने पीछा नहीं छोड़ा। हालांकि आवास बहुत बड़ा था, नौकर चाकर सभी थे किंतु परिवार नही था। काका विधुर थे। वे लिखते हैं - "गर्मियों की चाँदनी रातों में अचानक नींद उचट जाती। बगल के पलंग पर मसहरी में लेटे काका गहरी निद्रा में होते। उस बड़े से खुले आँगन में हवा में उड़ती मसहरी में मेरा मन न जाने कहाँ उड़ने लगता। आकाश की नीली गहराइयों में तारे कैसे स्फटिक से चमक रहे होते। उस बड़े से रेतीले प्रांगण में सन्नाटा कैसा लिखा लगता। दूर-दूर तक कहीं कोई शब्द नहीं, पर मेरे भीतर जैसे कोई पुकार रहा होता-माँ!! और यही एक संबंध था जो अनाम तारा बन कर ब्रह्माण्ड की गहराइयों में कभी दिखता, कभी डूब जाता। प्रायः लगता कि मैं चल कहाँ रहा हूँ, विपरीत अनमापी दूरियों के बीच घिसट रहा हूँ। वर्षा के दिनों में जब खूज नदी में पानी होता तो चट्टानों पर उसका जल कितने वेग से बहते हुए शोर कर रहा होता। मैं भी तो इसी प्रकार अपने जलों के साथ टूट-टूट पड़ रहा हूँ, शोर भी है परन्तु इस न सुनायी पड़ने वाले शोर का एकमात्र श्रोता मैं ही होता हूँ। क्या किसी दिन मेरे जलों को फोड़ कर मेरा यह चीखना कोई अन्य भी सुन सकेगा?" (हम अनिकेतन, पृष्ठ 16) अकेलेपन की ऐसी स्थितियों में उन्हें बचपन याद आता है। अलह सबेरे चक्की पर आटा पीसते हुए मां याद आती है, उसके द्वारा गाया गया गीत उभरने लगता है। मां की गोद में सोना याद आता है, जो दुनिया की सबसे बड़ी नियामत होता था। इन परिस्थितियों में वह बालक जीना सीख लेता है। एकांत से संधि कर लेता है। अक्सर वह बालक नर्मदा के बेट (द्वीप) पर पहुंच जाता। वहां के मौन सन्नाटे से संवाद करता, पेड़ों के साथ झूमता, धूप के साथ दौड़ता और हवा के साथ गुनगुनाता। इसका चित्रण करते हुए श्रीनरेश मेहता लिखते हैं कि - "निश्चित ही उस आयु में ऐसी भाषा नहीं थी पर भाव तो यही था। नर्मदा की बड़ी धारा में जलों में उतरा प्रवाह उस बिल्लौरी जल में भागता दिखता जैसे वह नर्मदा से पहले ही भड़ौच पहुँच जाना चाहता है। मध्य धारा में उभरी वह हाथी चट्टान स्त्रियों की भाँति अंग छुपाये पानी में धँसी नहा कर बाहर निकलना ही भूल गयी है। परली पार के निमाड़ी गाँव, घरों की खपरैलों पर बिल्लियों सा चलता धुँआ कैसे आमंत्रण देते लगते। सामने के सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आकाश उठाये-उठाये पता नहीं कहाँ से आती हैं और पश्चिम में कहीं दूर निकल जाती हैं। ऐसे न जाने कितने दृश्य, दृश्यों के टुकड़ों एक कंथा की भाँति हर रोज, दिन उठाये-उठाये हममें से गुजरता है और हमें जीवन की सीढ़ी चढ़ा जाता है।" (वही, पृष्ठ 17)

         

श्रीनरेश मेहता धरमपुरी से बदनावर, नरसिंहगढ़ होते हुए आगे कालेज की पढ़ाई के लिए उज्जैन गए। यहां आ कर उनकी किताबों की साध पूरी हो गई। अब एक ही काम था, राजबाड़े के पास वाले पुस्तकालय से किताबें लाना और दिन भर बिस्को पार्क में बैठ कर किताबें पढ़ना और कविताएं निकलना। लिखते हैं -"उन दिनों मालवा में गर्मियाँ भी बड़ी खुशगवार होती थीं। पार्क में एक बड़ा सा गुलमोहर था। गर्मियों में उसके फूल खूब खिले होते थे। नीचे चारों ओर फूल की पत्तियाँ झरी होतीं तो लगता जैसे किसी ने अल्पना कर रखी है। पेड़ के तने से किराये की साइकिल टिका कर मुंशी प्रेमचंद, शरद बाबू, बंकिम के उपन्यास तो पढ़ता ही था 'लेकिन कुछ दिनों से बच्चन का "निशा- निमंत्रण" और नरेंद्र शर्मा का "प्रवासी के गीत" पढ़ने का भी मौका मिला। इन दोनों संग्रहों से काफी प्रभावित हुआ बल्कि कहना चाहिए कि उसी भाषा और छन्द में बड़े ही अविश्वसनीय रूप से कविताएँ लिखीं। मैं जान रहा था कि ये कविताएँ मेरी नहीं हैं परन्तु मैं लिखता रहा। इन दोनों संग्रहों की अनेक कविताएँ तो कंठस्थ भी हो गयी थीं। अभी मैं काव्य-लेखन में अनुकरण की सीढ़ी पर ही खड़ा था। धीरे-धीरे यह अनुकरण ही स्वाभाविक लगने लगा। और जब गर्मियों की छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं तब देखा कि कापी में ढेरों कविताएँ हो गयी हैं। कभी लगता कि मेरी कविताएँ इन दोनों संग्रहों से कमजोर नहीं है परन्तु जब ध्यान आता कि ये अनुकरण हैं तो एक दिन उन सबको नष्ट कर दिया। चूँकि ये मेरी अपनी कविताएँ नहीं थीं इसलिए उन्हें नष्ट करने का कोई खास दुःख भी नहीं हुआ। परन्तु बाद में लगा कि यह अनुकरण मुझे प्रशिक्षित करने के लिए आवश्यक था। इस प्रक्रिया में से गुजरने के बाद उज्जैन पहुँचने पर मुझे लगा कि मैं चाहूँ तो अपने को कवि समझ सकता हूँ। इसके पूर्व तक ऐसी कोई इच्छा नहीं जागी थी।" (वही, पृष्ठ 47)। उज्जैन का साहित्यिक वातावरण बहुत उर्वर था। उन दिनों वहां पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', प्रभाकर माचवे, मुक्तिबोध जैसे बड़े रचनाकार तथा श्याम परमार, हरि नारायण व्यास, नरेंद्र नीर जैसे उदीयमान रचनाकार मौजूद थे। यहीं कवि सम्मेलन में काव्य-पाठ की शुरुआत हुई और ऐसे ही कवि-सम्मेलनो में सोहन लाल द्विवेदी तथा सुभद्रा कुमारी चौहान से मुलाकात हुई।

         

श्रीनरेश मेहता आगे की पढ़ाई के लिए उज्जैन से काशी गए और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। साहित्यिक दृष्टि से काशी उस समय बहुत समृद्ध नगर था। विश्वविद्यालय में गुरू के रूप में केशव प्रसाद मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा नंददुलारे बाजपेई जैसे मूर्धन्य आचार्य मिले। विश्वविद्यालय का समृद्ध गायकवाड़ पुस्तकालय मिला, जहां घंटो बैठ कर नरेश मेहता ने अंग्रेजी माध्यम से वेदों से परिचय प्राप्त किया। उस समय तक प्रेमचंद, प्रसाद और रामचंद्र शुक्ल दिवंगत हो चुके थे। श्याम सुंदर दास, शांतिप्रिय द्विवेदी, केशव प्रसाद मिश्र, कविराज गोपीनाथ, नंद दुलारे बाजपेई, अमृत राय, चंद्रबली सिंह, शंभूनाथ सिंह, जैसे विभिन्न विचाराधारा के साहित्यकार काशी में मौजूद थे। इनमें से केशव प्रसाद मिश्र तथा कविराज गोपीनाथ का संरक्षण नरेश मेहता को प्राप्त हुआ तथा उन्होंने अपने विकास का श्रेय इन्हीं दोनों महापुरुषों को दिया है। 


            


काशी के उन आरंभिक दिनों में श्रीनरेश मेहता ने अपने सहपाठियों और मित्रों के साथ मिल कर एक साहित्यक संस्था बनाई, जिसका नाम था "साधना परिषद"। हर रविवार को परिषद की बैठक होती थी। लोग मिलते और कविताएं, कहानियां पढ़ते। इस परिषद में शहर के किसी न किसी महत्त्वपूर्ण लेखक को बुलाया जाता था, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा नंद दुलारे बाजपेई तो होते ही थे। कभी कभी शंभू नाथ सिंह भी आते थे। एक वर्ष बाद परिषद ने वार्षिकोत्सव मनाने का निर्णय लिया। तय हुआ कि बच्चन जी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाय। इलाहाबाद जा कर उनसे संपर्क करने का जिम्मा नरेश मेहता तथा उनके एक मित्र को सौंपा गया। इसका रोचक वर्णन श्रीनरेश मेहता ने इस प्रकार किया है - "हम दोनों किसी प्रकार पूरे उत्साह के साथ उनके यहाँ पहुँचे। उस दिन रविवार था। बच्चन जी यू० ओ० टी० सी० में टीचर की हैसियत से अफसर थे। हम जब पहुँचे तब वह ड्रेस पहनने में व्यस्त रहे होंगे। हमें काफी देर तक बरामदे में प्रतीक्षा करनी पड़ी। बच्चन जी मिलिट्री भूषा में बाहर आये। उन्होंने दो विद्यार्थियों को देखा तो बड़े ही उपेक्षा के भाव के साथ हमारे आमंत्रण को सुना और लिया। अपने आने के बारे में उनकी शर्त थी कि प्रथम श्रेणी का किराया और सौ रुपये लेंगे। हम दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। हम ज्यादा से ज्यादा किराया दे सकने की स्थिति में तो हो सकते थे परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं। सच तो यह कि बच्चन जी का सारा व्यवहार कविजनोचित नहीं लग रहा था और हम बेरंग वहाँ से लौटे। गनीमत यह हुई कि हम लोग राम कुमार वर्मा को आने के लिए तैयार कर सके, और हमारा वार्षिकोत्सव बहुत अच्छी तरह सम्पन्न हुआ। उन दिनों डाक्टर राज बली पांडे हमारे बिड़ला हास्टल के वार्डन हुआ करते थे। उनकी तरह कई और प्राध्यापक आये। शहर से भी कुछ लोगों को बुला लिया था। इस अवसर पर हम लोगों ने सात विद्यार्थी-कवियों का एक संकलन "तथागत" भी प्रकाशित किया। राम कुमार वर्मा, नंद दुलारे वाजपेयी, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, राज बली पांडे, शांति प्रिय द्विवेदी, आदि की उपस्थिति से वह वार्षिकोत्सव स्मरणीय बन गया।" (वही, पृष्ठ 56)

             

श्रीनरेश मेहता का कठिन दौर काशी से ही शुरू हुआ। कई बार ऐसा भी समय आया जब उन्हें आर्थिक कष्टों ने झकझोर दिया। कई अवसर पर उन्हें भूखे रहना पड़ा। फिर भी उनके जीवन में काशी का महत्त्व बहुत बड़ा था। वे लिखते हैं कि -"काशी का अवदान दिखने वाली घटनाओं में नहीं था। यदि होता तो जिन दुर्दान्त स्थितियों में चार साल बीते उसमें मैं टूट तो जाता ही, साथ ही काशी के प्रति मेरे मन में हमेशा के लिए वितृष्णा आ जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि इसके ठीक विपरीत हुआ। शायद इसके पीछे घंटों घाटों पर बैठ कर गंगा को अपने भीतर अनुभव करना ही था। अहिल्या घाट पर बंगला कीर्तन और कथाओं ने मुझे पुनर्जन्म दिया। गमछा लपेटे तैल लगाते साहू, डंड पेलते गुरु, बाँस की गोल छतरियों के नीचे संकल्प कराते पंडे, डुबकियाँ लगाते लोग, सीढ़ियाँ चढ़ते दंडी स्वामी, चाट और चना-मुरमुरा बेचते दुकानदार इन सबने मुझे उन दुर्दान्त परिस्थितियों में टूटने से बचा लिया। कितनी ही बार भूख की अकुलाहट के बावजूद एक भी पैसा पास में न होने पर भी मालवा वापस लौट जाने का विचार नहीं ही आया होगा क्योंकि सब कुछ के होते हुए भी काशी मेरी अस्मिता बन चुकी थी।... परिस्थितियों ने भले ही लाख मुझे तोड़ा लेकिन काशी ने प्रतिदान में मुझे आद्यंत एक काव्य-छंद बना दिया" (वही, पृष्ठ 56-57)

             

काशी में एक ऐसा अवसर आया जब दुर्गापूजा की छुट्टियां हो गई थीं, हॉस्टल खाली हो चुका था। श्रीनरेश मेहता हॉस्टल में अकेले रह गए थे। इसका कारण था कि मालवा जाने के पैसे नही थे। प्रतिदिन बिना पैसे के भारी होता जा रहा था। एक परिचित सज्जन से पैसे उधार मांगने गए तो उन्होंने इसके बदले एक अटपटी शर्त रख दी, एक जगह कविताएं सुनाने की। उन्ही के शब्दों में देखिए - "मैं उनके संकोची प्रस्ताव पर हँस पड़ा। आखिरकार हम दोनों कुंजगली पहुँचे। कुंजगली बनारसी साड़ियों का प्राचीन ढंग का भूलभुलैया जैसा केन्द्र है। मित्र मुझे ले कर एक दुकान पर पहुँचे। लोग साड़ियाँ खरीदने में लगे थे। मित्र ने दुकानदार से कान में कुछ कहा तथा लौट कर मुझे कविता पढ़ने के लिए कहा। थोड़ा अजीब जरूर लग रहा था कि मैं वैदिक कविताएँ गा कर सुना रहा हूं और लोग साड़ियों के क्रय विक्रय में व्यस्त हैं। काव्य पाठ की समाप्ति पर साहूकार ने अपने गल्ले से दस का नोट मित्र को थमा दिया। इस प्रकार तीन-चार जगह और कविताएँ पढ़नी पड़ीं और मालवा तक का मेरा खर्च निकल आया था।" (वही, पृष्ठ 58)

              

काशी से एम. ए. करने के बाद श्रीनरेश मेहता ने वहीं पी-एच. डी. में प्रवेश लिया, गाइड थे नंद दुलारे बाजपेई। अचानक बाजपेई जी के सागर विश्वविद्यालय जाने से श्रीनरेश मेहता का शोध कार्य अधूरा रह गया और अब इसे इलाहाबाद से पूरा करना चाहते थे। इलाहाबाद के लिए निकले मेहता जी पहले लखनऊ अपने चचेरे भाई के पास पहुंचे। वहां चार-पांच दिन में ही गांठ की पूंजी समाप्त हो गई। चचेरे भाई स्वयं छोटी सी अध्यापकी में संघर्ष कर रहे थे। दोनो बाहर से एक ही थाली मंगाते और मिल कर आधा पेट खा लिया करते। इलाहाबाद जाने के लिए पैसे का जुगाड नहीं हो पा रहा था। उन दिनों गिरिजा कुमार माथुर रेडियो में प्रोग्राम ऑफिसर थे। उनसे मुलाकात हुई और दो चार महीने पर रेडियो में कार्यक्रम मिल जाया करते थे किंतु इतना पैसा कभी नहीं जुटा सके कि उसके सहारे इलाहाबाद जा पाते। उन दिनों अखबार और पत्रकाएं कविताओं के लिए कुछ भी पारिश्रमिक नहीं दिया करती थीं। इस दौर में कितना झेलना पड़ा, इसे नरेश मेहता ने इस तरह बयां किया है -"केवल रेडियो ही एकमात्र स्रोत हो सकता था लेकिन इसके लिए कितने और कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़े वह सब आज दिलचस्प लग सकता है परन्तु उन दिनों तो वह जानलेवा संघर्ष था। पूरा लखनऊ पैदल नाप कर जाना पड़ता था। कई बार पूरे-पूरे दिन बिना खाये रह जाना पड़ता था तथा और भी बहुत कुछ प्रिय-अप्रिय भी करना सहना पड़ता था लेकिन उन दिनों भी इस सबका कोई मलाल नहीं था क्योंकि एक तो मैं अब तक काफी कुछ झेल चुका था और कहीं यह विश्वास था कि यह सारी विषमता एक दिन अवश्य समाप्त होगी। वैसे किसी भी व्यक्ति को दोष देना व्यर्थ है। सबकी अपनी सीमा होती है, गिरिजा कुमार माथुर की भी थी। ... दो वर्षों के इस संघर्ष का अंत अगत्या रेडियो में कार्यक्रम अधिकारी की मेरी नियुक्ति से हुआ। ... हाँ, इस प्रसंग में एकमात्र बात जो आज भी कसक देती है वह थी कि इंटरव्यू देने के लिए दिल्ली जाना था और इसके लिए मुझे अपनी माँ की एकमात्र अंगूठी गिरवी रखनी पड़ी, जिसे फिर कभी नहीं छुड़वा सका।" (वही, पृष्ठ 61)

             

श्रीनरेश मेहता रेडियो में चुन लिए गए और इलाहाबाद में तैनाती भी हो गई। लिखते हैं कि "यह कैसा योगायोग था कि जिस इलाहाबाद पहुँचने के लिए में शुरू से ही आतुर था वहाँ इतने वर्षों बाद और वह भी न जाने कितने पापड़ बेलने के बाद पहुँच सका। हालाँकि यहाँ कोई ऐसी आत्मीयता भी नहीं थी जिसके लिए लालायित होता परन्तु उन दिनों इलाहाबाद साहित्यिक मक्का था।" इलाहाबाद में शुरू में वे मिंटो रोड पर अमृत राय के घर डेरा डाले और उनके साथ प्रलेस की बैठकों में फेलो ट्रेवलर की तरह आते जाते रहे। परिमल की गोष्ठियों में भी उनका आना जाना होता रहता था। यहीं अचानक एक दिन बिना पूर्व सूचना के कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर बना दिए गए। सरकार तक इनके कम्युनिस्ट होने की सूचना पहुंचा दी गई। इस संबंध में मेहता जी लिखते हैं कि "इसी बीच सरकार तक मेरे कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर होने की सूचना पहुँची या पहुँचा दी गयी थी। मुझे मालूम है कि किन महाशय ने यह कार्य सम्पन्न किया था। क्योंकि जिस सेल-मीटिंग का हवाला दिया गया था उसमें पार्टी के ही वह सदस्य मौजूद थे, जो मित्र भी थे, लेखक भी थे, साथ ही रेडियो में सहकर्मी भी थे। वैसे सरकार को मेरे संबंधों की कुछ भनक लखनऊ से ही हो चुकी थी परन्तु प्रमाण इलाहाबाद में प्रस्तुत किया गया। और उन दिनों के डायरेक्टर जनरल सी० बी० राव ने, जो कि हिन्दी के कवि भी थे, जाँच पड़ताल के बाद मेरा तत्काल तबादला नागपुर कर दिया। एक अजीब उखड़ा उखड़ापन अनुभव कर रहा था।" अभी इलाहाबाद में जमे भी नहीं थे कि दरबदर होना पड़ा। अब वे समझ चुके थे कि रेडियो की नौकरी ज्यादा दिन नहीं चल सकेगी। अब स्वतंत्र लेखन के बारे में भी सोचने लगे। लिखते हैं कि " मेरा सोचना लौकिक और व्यावहारिक दृष्टि से यथार्थवादी नहीं था लेकिन चूँकि मैं अभी अकेला ही था इसलिए ऐसा निर्णय ले सकता था। शायद कुछ ज्यादा ही अपने युवा उत्साह में मैंने अपने जीवन के यथार्थ को वायवीय आदर्शवादिता के सामने खड़ा कर दिया। निश्चित ही व्यावहारिक दृष्टि से यही कहा जाएगा कि स्वतंत्र लेखन का निर्णय, खासी संभावना वाली सरकारी नौकरी के मूल्य पर आत्मघात जैसा ही था। परन्तु ऐसे निर्णय युवाकाल में ही संभव होते हैं। ऐसा लगता है कि अकेलेपन का जो भाव बराबर मेरे साथ रहा वही अब शक्ति बन कर मुझे प्रशांत महासागर में छलाँग लगा जाने के लिए प्रेरित कर रहा था लेकिन अभी एक वर्ष मुझे और प्रतीक्षा करनी थी और यह प्रतीक्षा नागपुर में करनी थी तथा मुक्तिबोध जैसे परम आत्मीय के सान्निध्य में सब कुछ सम्पन्न होना था।" (वही, पृष्ठ 67)। और नागपुर में एक वर्ष बीतते उन्होंने रेडियो से इस्तीफा दे दिया और स्वयं संघर्ष का मार्ग चुन लिया।


            

रेडियो से मुक्त हो कर श्रीनरेश मेहता दिल्ली अपने भाई नंद किशोर भट्ट के आग्रह पर दिल्ली पहुंचे और वही भाई के आग्रह पर 1957 में उनका विवाह भी हो गया। पत्नी महिमा कानपुर में अध्यापिका थीं जो विवाह के बाद नरेश मेहता के कहने पर नौकरी छोड़ कर दिल्ली आ गईं। दिल्ली में मेहता जी का सर्जनात्मक मन अब नहीं लग रहा था। वे इलाहाबाद जाना चाहते थे। दिल्ली में पूरे छह वर्ष रहने के बावजूद 'कृति' पत्रिका तथा काव्य संग्रह 'बनपांखी सुनो' के प्रकाशन के अलावा कुछ खास लेखन नहीं कर सके। 

             

उस समय जब हिंदी के रचनाकार दिल्ली की ओर भाग रहे थे, श्रीनरेश मेहता दिल्ली छोड़ कर सपरिवार इलाहाबाद आ गए। 99, लूकरगंज, इलाहाबाद में गृहस्थी जम गई। उन्हीं के शब्दों में देखिए -"एक चटाई तथा चटाई पर दरी वाली गृहस्थी का यह पहला दिन कभी नहीं भूल पाता। घर में वस्तुहीनता थी परन्तु पूरे घर में हम दोनों के स्वत्व कैसे भरे-पूरे लगते घर हममें था या हम घर में थे कहना कठिन था दालान में बैठ कर कच्चे आँगन में पैर लटका कर बैठा जाता तथा भावी सुखद दिनों की कल्पना में पूरी शाम बितायी जाती। जीवन में स्वप्न देखना कोई युवावस्था से सीखे। सामान था ही कितना जिसे सजाने में कोई कठिनाई होती। ले-दे कर किताबें थीं जिन्हें दो अलमारियों में सजा दिया गया। कमरे के बीचोंबीच दरी बिछा दी गयी। बिजली का पंखा तो नहीं पर चौक से हाथ वाले दो ताड़-पंखे खरीद लिये गये। घंटाघर से एक फर्शीमेज भी आ गयी ताकि लेखन किया जा सके।" (वही, पृष्ठ 79)। इलाहाबाद आ कर संघर्ष और गहराने लगा। अब तो परिवार की जिम्मेदारी भी आ चुकी थी। जमा-पूंजी धीरे धीरे रोज-रोज के नमक-हल्दी में खत्म होती जा रही थी। इस संबंध में श्रीनरेश मेहता लिखते हैं कि "धीरे-धीरे मुझे अपने पर से जैसे विश्वास उठता जा रहा था कि स्वतंत्र लेखन करने का मेरा निर्णय क्या सही था? और यदि सही नहीं था तो अब क्या होगा? लौटने के लिए पीठ ओर कहीं कोई भूमि दूर-दूर तक नहीं थी। दिल्ली में लोगों ने इस आत्मघाती निर्णय के लिए कितना समझाया था प्रत्येक दिन के बीतने के साथ जीवन की दुर्दान्त विभीषिका और निकट आ गयी लगती। अजीब दुरभि थी कि चाहते हुए भी लिखना ही नहीं हो पा रहा था। कई बार मन में आता कि स्वतंत्र लेखन का निर्णय केवल जिद थी। लेखन तो किया जा सकता था क्योंकि वह यदा-कदा की बात है लेकिन स्वतंत्र लेखन शायद सबके बस की बात नहीं होती और कम से कम मेरे बस की बात तो नहीं ही है।" (वही, पृष्ठ 79)।

          

चार छह महीने बीतते बीतते पास की जमा पूंजी समाप्त हो गई। पत्र-पत्रिकाओं से भी कोई राहत नहीं मिल रही थी। लिखते हैं कि -"इस गाढ़े समय में सुरेश अवस्थी ने हिन्दी निदेशालय की एक समिति का मेम्बर बनवा दिया। इसकी मासिक बैठकें होती थीं और कुल मिला कर साठ-सत्तर रुपये मिल जाते थे। मैं शायद टूटने के बिन्दु की ओर बढ़ रहा था। अपने इस हाहाकार में थोड़ा-बहुत पत्नी के अतिरिक्त मैं किसी को सहभागी भी नहीं बना सकता था। लगभग दो वर्ष हो रहे थे और मैं एक पंक्ति भी नहीं लिख पा रहा था। मैं अपने स्वभाव से परिचित था कि सायास नहीं लिख सकता। इस स्वभाव को ले कर मैं शायद कभी भी प्रचलित अर्थ वाला स्वतंत्र लेखन नहीं कर सकता। तो क्या फिर कोई नौकरी करनी होगी? मुझे लगने लगा कि जीवन की बाजी में मुझे प्यादे से न केवल शह बल्कि मात देने की कोशिश हो रही है। उस हारी स्थिति में क्या होगा? इलाहाबाद में अभी आया ही था और परिमल के समकालीनों ने मेरे यहाँ आने और केवल लेखन करने को जिस प्रकार लिया उसे परिभाषित न करना ही बेहतर है। सिविल लाइन का वह चौराहा आज तक याद है जहाँ मेरे इलाहाबाद रहने और लेखन करने का एक स्वर से उन समकालीनों ने मजाक उड़ाया था कि देखें, तुम कैसे यह सब करते हो?" (पृष्ठ 80)

             

हर अंधेरे का अंत एक दिन जरूर होता है। हर रात के बाद सुबह अवश्य होती है। ऐसे ही गाढ़े वक्त 'भारती-भंडार' के वाचस्पति पाठक की आत्मीयता का संबल मिला। उस समय श्रीनरेश मेहता आर्थिक रूप से टूट चुके थे, फिर से कोई नौकरी करने के बारे में सोचने लगे थे। वे पाठक जी के पास अक्सर जाते थे और पाठक जी भी उनके घर आ जाया करते थे। दोनो साथ में काफी हाउस भी जाते थे। अतः पाठक जी उनकी स्थिति भांप चुके थे। संयोग से इला चंद्र जोशी रेडियो की प्रोड्यूसरी से अलग हो रहे थे और वह जगह खाली थी। पंत जी उस समय चीफ प्रोड्यूसर थे। पाठक जी ने श्रीनरेश मेहता के लिए बात कर ली और पंत जी तैयार भी हो गए। किंतु जब उन्होंने अपनी पत्नी महिमा से बात किया तो उन्होंने असहमति जताई और कहा कि अगर नौकरी ही करनी होगी तो वह स्वयं करेंगी। महिमा ने नरेश मेहता के स्वत्व को, लेखकीय व्यक्तित्व को बुझने से ही नहीं बचाया बल्कि पुनः उत्साहित किया। मुझे सिर्फ लेखन करने के लिए प्रेरित किया। नतीजा हुआ कि वह प्रोड्यूसरी इंकार कर दी गई। परिणाम हुआ कि मेहता जी दूसरे दिन ही लिखने बैठ गए और अपने अधूरे उपन्यास 'वह पथ बंधु था' के लगभग साढ़े पांच सौ पृष्ठ लगभग महीने भर में ही पूरा कर डाले। धीरे धीरे इस उपन्यास के अलावा 'संशय की एक रात' और कहानी, कविता, नाटक आदि कृतियों की आठ पांडुलिपियां तैयार हो गईं। उन पांडुलिपियों को ले कर इलाहाबाद के कई प्रकाशकों के पास गए, किंतु कोई भी अग्रिम देने के लिए तैयार नहीं हुआ। किसी तरह वाचस्पति पाठक के प्रयास से बंबई के 'हिंदी ग्रंथ रत्नाकर' ने तीन हजार अग्रिम दे कर आठ पांडुलिपियां प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी। इस संबंध में श्रीनरेश मेहता लिखते हैं "शायद मई का महीना था। जम कर गर्मियाँ थीं। ऐन दोपहरी में सिर पर तौलिया लपेटे चश्मे छाते से लैस पाठक जी ने अपने खास लहजे में "मेहता जी" पुकारा तो विश्वास नहीं हुआ कि ऐसी तपती दुपहरी में पाठक जी आ सकते हैं। घर में न तो बिजली का पंखा था और न कूलर ही। सारा घर झुलसा पड़ रहा था। उनके साथ एक सज्जन और थे - विद्या धर मोदी। विद्या धर मोदी से परिचय कराते हुए पाठक जी बोले कि मेरी सारी बातें हो गयी हैं। इन्हें मैं पांडुलिपियाँ दे दूँ और यह आपको अभी दो हजार अग्रिम देंगे तथा एक हजार बंबई से भेज देंगे। मैं अवाक था कि 'हिंदी ग्रंथ रत्नाकर' जैसी नामी प्रकाशन संस्था से मेरी आठ किताबें छपेंगी। .....सब कुछ इतने तुरत-फुरत हुआ था कि विश्वास नहीं हो रहा था। उन दिनों तथा उस स्थिति में दो हजार की राशि का महत्व मेरे अलावा और कोई नहीं समझ सकता। सच तो यह है कि इस घटना ने मुझे रातों-रात साहित्य में महत्वपूर्ण बना दिया।" (वही, पृष्ठ 82)। धीरे-धीरे किताबें छपने लगीं। पत्नी महिमा भी एक सी. टी. ग्रेड स्कूल में मासिक पचहत्तर रुपयों में पढ़ाने लगीं। अब लेखन अविरल चलने लगा, लेकिन जीवन की कठिनाइयों का अंत अभी नहीं हुआ था।

             

एक दिन श्रीनरेश मेहता जब साइकिल उठा कर कॉफी हाउस के लिए निकल रहे थे तभी पत्नी ने याद दिलाया कि आज बेटे ईशान का प्रथम जन्मदिन है। उस दिन घर में एक पैसा नहीं था। इस बारे में मेहता जी लिखते हैं कि "बेटे ईशान का प्रथम जन्मदिन था लेकिन मुझे नहीं याद था। मैं हस्बमामूल रोज की तरह ही साइकिल उठा कर काफी हाउस के लिए रवाना होने लगा तो महिमा ने जन्म दिन का स्मरण कराया और संकोच से यह भी कि घर में एक भी पैसा नहीं है। मैं चौंका जरूर परन्तु चिंतित नहीं हुआ। शायद मेरे स्वभाव में जीवन की परेशानियों को बहुत अधिक ओढ़ना नहीं है। जबकि दूसरी तरफ साधारण सी बात भी रातों की नींद हराम कर सकती है। काफी-हाउस जाते हुए सोचता रहा कि बेटे का पहला जन्म दिन है, मुझे भले ही कुछ न लगे परन्तु किसी माँ को कैसा लग सकता है न? लेकिन पैसों का प्रबंध कहाँ से, कैसे हो? ...इस बीच 'लोकभारती' के तत्कालीन दोनों पार्टनर राधे बाबू और दिनेश ग्रोवर मुझे एक तरफ ले गये और पहली बार उपन्यास छापने की इच्छा प्रगट की।... मैं (एक उपन्यास) उन्हें भविष्य में लिख कर देने का आश्वासन देकर चल दिया। परंतु पेशगी के रूप में कुछ भी माँगना मुझे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगा। ... मैंने अपनी साइकिल उठायी। यही सोच रहा था कि अपने बेटे का प्रथम जन्म दिन हम उसे खूब प्यार करके मनाएँगे। अभी मैं सामने के मैदान का अहाता पार कर ही रहा था कि दिनेश (ग्रोवर) पुकारते हुए दौड़े आ रहे थे। मैं रुका और मैं कुछ पूछें करूँ, इसके पूर्व ही एक लिफाफा थमाते हुए बोले, अभी यह रखें, बाकी का उपन्यास मिलने पर देखेंगे। मुझे अवाक होना ही था। घर जाने पर वह लिफाफा, मैंने सारा किस्सा बयान करते हुए महिमा को थमाया जिसमें पाँच सौ रुपये थे। निश्चित ही हम दोनों की आँखों में आँसू जैसे आ गये लेकिन पता नहीं प्रसन्नता के थे या स्वतंत्र लेखन की विवशता के थे।" (वही, 85)

            




इसी तरह की एक घटना और घटी। महिमा को होम साइंस का प्रैक्टिकल लेने मथुरा जाना था। महीनों पहले से प्रोग्राम मालूम था, लेकिन समय बीतता गया और कोई व्यवस्था नहीं हो पाई। जो प्रकाशन का अग्रिम मिलता था, उससे घर गृहस्थी चलती थी। अब किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत फिर आ गई। सवाल था कि किससे मांगा जाय। रुपयों की व्यवस्था कैसे हुई इस संबंध में मेहता जी लिखते हैं कि "इस स्थिति में महिमा के मथुरा जाने के लिए पैसों का प्रबंध कैसे हो? माँगने में हर बार आत्मसम्मान आड़े आता अतः उस दिन भी जब मैं पैसों का प्रबंध करने लोकभारती गया तो चुपचाप बेरंग लौट आया। गर्मियाँ थीं तब दालान खुला हुआ करता था। खुले दालान में जैसे-तैसे एक पर्दा टँगा था। देखा, पसीने से लथपथ एक महाशय बैठे हैं। भीतर पहुँचने पर मालूम हुआ कि एक घंटे से बैठे हैं, शायद कोई नवोदित प्रकाशक हैं। मैं झल्लाया हुआ तो था ही अतः उन महाशय, जो कि प्रकाशन आरंभ कर रहे थे, ने उपन्यास की चर्चा चलायी तो मैंने बहुत बेरुखी दिखायी। उन्होंने एक लिफाफा थमाया कि यह रखें और जब सुविधा हो तब उपन्यास दें। मैं फिर अवाक रह गया क्योंकि महिमा के लिए पैसों का प्रबंध इस प्रकार होगा इसे मैं सोच भी नहीं सकता था।" (वही, पृष्ठ 87)। ऐसे ही एक अवसर पर बेटे के लीवर के इलाज के लिए दवा आदि के लिए दो सौ रुपयों की जरूरत पड़ी और महिमा को अपने सोने की चूड़ियां बेचनी पड़ी। इस बात को ले कर नरेश मेहता जीवन भर अपने को क्षमा नहीं कर सके। 

          

इन्हीं नाजुक परिस्थितियों में एक घटना का जिक्र मेहता जी के शब्दों में देखिए- "कुछ दिनों से हमारे घर प्रायः मेरी अनुपस्थिति में मोहल्ले के एक प्रसिद्ध लेखक महाशय घर आते और घंटों महिमा से बातें करते हुए समझाते कि वह क्यों नहीं अपने साथ हो रही इन ज्यादतियों को लिखतीं? यदि वह लिखें तो वह उन्हें छाप देंगे। क्यों वह ऐसे पति को सहन कर रही हैं जो कुछ नहीं कमाता? क्यों वह नौकरी में खटती हैं? सारी गृहस्थी का भार वह क्यों ढो रही हैं? तात्पर्य यह कि वह क्यों नहीं अपने पति को तलाक दे देतीं? महिमा रोज-रोज के इस 'सत्परामर्श' को बड़े रस के साथ मुझे सुनातीं। यह महाशय ऐसा सामाजिक नारी उत्थान का काम कुछ लेखक परिवारों में कर चुके थे। परन्तु जब महिमा निहायत ही भोलेपन से उन्हें सुनती होतीं और कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करतीं तो कालान्तर में वह महिमा को यदि एक घाघ स्त्री समझने लगे हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन मैंने किसी दिन उनसे इस बारे में कोई चर्चा नहीं की।" (वही, 91)

         

गमों ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था "सन् 1966 में बेटी बुलबुल (वान्या) अभी तीन माह की ही रही होगी कि पत्नी ने बिस्तर पकड़ लिया और वह भी महीनों के लिए। इतनी छोटी बुलबुल की देखरेख की समस्या तो थी ही। उन दिनों पाँच-छह रुपयों में नौकर मिल जाया करते थे। हालाँकि इतना दे सकने की भी हमारी स्थिति नहीं थी परन्तु विवश थे। महिमा काफी समय बीमार रहीं और लंबी छुट्टियों पर थीं। वह अभी स्थायी भी नहीं हुई थीं तथा स्कूल भी लगभग प्राइवेट था इसलिए वेतन का प्रश्न ही नहीं था। महिमा को उचित दवा-दारू और फलों की आवश्यकता थी। अपनी इन परिस्थितियों में ऐलोपैथी का इलाज कराना संभव ही नहीं था। एक तो पैसा नहीं था दूसरे इस इलाज पर कभी विश्वास भी नहीं था। होम्योपैथी ही एकमात्र इलाज संभव था। उन दिनों इलाहाबाद में डा० जे० के० मेहता, जोकि विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर बयोबृद्ध गांधीवादी अर्थशास्त्री थे, शौकिया होम्योपैथी करते थे। उनका बड़ा नाम था अतः उनकी शरण में गये। तीन-चार महीनों के इलाज के बाद महिमा कुछ स्वस्थ हुई।" (वही, पृष्ठ 95)

               

ऐसा कहा जाता है कि पौ फटने के पूर्व अँधेरा कुछ ज्यादा ही सघन हो जाता है। ऐसा ही कुछ अँधेरा अपनी सघनता के साथ श्रीनरेश मेहता के ऊपर भी घिरने लगा "जब सन् सत्तर के आसपास फाल्गुन में रुमेटिक आर्थराइटिस और साइटिका का पहला अटैक महिमा को हुआ। हम सब स्तब्ध थे। पिछले वर्षों में किसी तरह गाड़ी खिंच रही थी परन्तु इस अटैक ने तो वाचाहीन बना दिया। महीनों महिमा बिस्तर पर भी एक इंच नहीं खसक पाती थीं। बाद में भी वह पलंग पकड़ कर या दीवार का सहारा ले कर किसी कदर घिसट पाती थीं। अजीब विषमता थी। दूर-दूर तक कहीं कोई नहीं था जिसे पुकारा जा सकता था। सास-ससुर अपनी सीमा में भरसक हमारे साथ थे। ऐसी परिस्थितियों में जो चीज सबसे बड़ी सहायक होती है- अर्थ, वही हमारे पास नहीं था। साहित्य में उपेक्षा, विरोध सब अपनी जगह बदस्तूर था।.... प्रत्येक वर्ष फगुआ चलना जैसे ही आरंभ होता घबराहट होने लगती। इन्हीं दिनों तो पिछले कुछ वर्षों से महिमा बिस्तर पकड़ लेती रही हैं। जब शुरू में महिमा बीमार हुई थीं और बुलबुल तीन-चार माह की ही थी, मैं दालान में बैठा हुआ भावी आसन्नता के बारे में सोचने लगता। लोग-बाग यह भी कहते सुने गये कि मैं जान-बूझ कर महिमा का उचित इलाज लग कर नहीं करवाना चाहता इसलिए होम्योपैथी करवा रहा हूँ।" (वही, पृष्ठ 96)

         

किंतु अस्सी के दशक में समय बदलने लगा और नरेश मेहता के जीवन में हरियाली आने लगी। ऊबड़ खाबड़ परिस्थितियों के बावजूद लेखन बदस्तूर जारी था। 1982 में जीवन के साठ वर्ष पूरा होने पर 'लोक भारती' प्रकाशन ने षष्ठिपूर्ति के अवसर पर भव्य आयोजन किया। अज्ञेय जी ने पहली बार मंच से श्रीनरेश मेहता के लेखन को रेखांकित किया। इसी बीच 1984 में उज्जैन की प्रेमचंद पीठ पर शमशेर के चार वर्ष पूरे करने के बाद वह जगह खाली हो गई। उस पीठ पर मेहता जी की नियुक्ति हो गई। उज्जैन गए थे केवल दो वर्षों के लिए, लेकिन पूरे सात साल रह गए। इस अवधि में अप्रत्याशित रूप से अनुकूल घटनाएं घटी। बेटी वान्या की एक कुलीन परिवार में शादी हुई, एक के बाद एक तीन प्रतिष्ठित पुरस्कार (साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ, भारत भारती) घोषित हुए, युगोस्लाविया के विश्व काव्य समारोह में भारत का प्रतिनिधि बन कर गए, कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद हुआ। अब नरेश मेहता का आर्थिक संघर्ष समाप्त हो चुका था। वर्षों बाद उन्हें खुली हवा में सांस लेने का मौका मिल रहा था। अब वे अपने स्वत्व का अनुभव कर रहे थे। 

                

कलाकार और रचनाकार का कृतित्व तो दुनिया देखती है किंतु उस कृतित्व के पीछे का आंतरिक तनाव, उसकी सर्जनात्मक वेदना शायद ही लोग महसूस कर पाते हैं। श्रीनरेश मेहता की रचनाएं पाठक को उद्वेलित करती हैं, प्रेरित करती हैं, प्रशंसित होती हैं किंतु इसके पीछे कितना कुछ दर्द छिपा हुआ है यह पाठक को दिखाई नहीं देता। "हम अनिकेतन" इसी जीवन संघर्ष का उद्घाटन भर है। रचनाकार की इसी त्रासदी की ओर साहिर लुधियानवी इशारा करते हैं --


       जो साज से निकली है वो धुन सबने सुनी है

       जो साज पे गुजरी है किस दिल को पता है। 


रवि नन्दन सिंह 



सम्पर्क 


मोबाइल : 9454257709

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