विजय शर्मा का आलेख 'ऋत्विक घटक : मैं पॉलिटिकल सिनेमा बनाता हूँ'

 

ऋत्विक घटक 


सिनेमा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। दर्शकों पर लम्बे समय तक इसका प्रभाव बना रहता है। ऐसे में सिनेमा की भूमिका और महत्त्वपूर्ण हो जाती है। ऋत्विक घटक सिनेमा को इस ताकत को पहचानते थे। इसीलिए वे इसका इस्तेमाल सार्थक रूप से करना चाहते थे। सिनेमा के प्रति एक जुनून के साथ साथ उनमें वह प्रतिबद्धता भी थी जो आजकल दुर्लभ हो चला है। वे ‘नई लहर’ सिनेमा के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनके शिष्यों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिनमें मणि कौल, कुमार साहनी और मलयाली निर्देशक जॉन अब्राहम के नाम अग्रणी हैं। मुक्तिबोध ने लिखा था 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?' ऋत्विक घटक ने खुले तौर पर कहा 'मैं पॉलिटिकल सिनेमा बनाता हूं।' उनका मूल्यांकन करते हुए विजय शर्मा लिखती हैं 'खुद को समाजशास्त्री न मानने वाले ऋत्विक घटक ने सत्यजित राय से पहले 1952 में अपनी पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ बना ली थी। पहली फ़िल्म उनके सिनेमा बनाने के उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है। फ़िल्म में शरणार्थियों की समस्या है। देश विभाजन ने रातों रात लोगों को बेघर-भिखारी बना दिया है। बेरोजगारी पर केंद्रित फ़िल्म आज भी समसामयिक है, समस्या घटने के बजाए बढ़ी है। नायक रामू पर परिवार चलाने का दायित्व है। बूढ़े माता-पिता, भाई की शिक्षा, बहन की शादी और निराशाजनक स्थिति। निर्देशक समस्या प्रस्तुत करता है। घटक मानते थे, समाधान देना निर्देशक का काम नहीं है, यदि चाहे तो दे सकता है। आज देख कर लगता नहीं है, किसी निर्देशक की पहली फ़िल्म है। विडम्बना है, फ़िल्म खो गई। अंतत: यह घटक की मृत्यु के बहुत बाद में 1977 में रिलीज हुई। कितने कम संसाधन और विकट परिस्थिति में उन्होंने यह फ़िल्म बनाई थी। काश! यह तब रिलीज होती, तो भारतीय सिने-इतिहास और स्वयं ऋत्विक घटक कितने भिन्न होते।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय शर्मा का आलेख 'ऋत्विक घटक : मैं पॉलिटिकल सिनेमा बनाता हूँ'।



'ऋत्विक घटक : मैं पॉलिटिकल सिनेमा बनाता हूँ'


विजय शर्मा


प्रतिभा का विस्फ़ोट हो, उसकी अभिव्यक्ति के लिए न साधन और सुविधा न हो, जिस व्यक्ति के भीतर अगाध दु:ख और क्रोध भरा हो, लेकिन जिसके निकलने की कोई राह न हो, दिमाग में नित नई योजना कुलबुला रही हो, योजना के मूर्तिमान होने की कोई सूरत न हो, तो क्या होगा? जिस व्यक्तित्व का निर्माण अपने जन्मस्थान का दो-दो बार बँटवारा झेलते, लोगों को विस्थापित-बेघर देखते, शरणार्थियों की पीड़ा को जानते-भोगते हुआ हो, जिस संवेदनशील इंसान ने बंगाल के मानव निर्मित अकाल में भूख से तिल-तिल मरते लोगों को देखा, वह कैसा होगा? 


ऐसा जुनूनी व्यक्ति पागल न हो जाए, ऐसा व्यक्ति अवसाद में क्यों न जाए! वह शराब का सहारा क्यों न ले? भले ही यह लत उसकी अपनी बर्बादी का कारण बने। मृत्यु शैय्या पर व्यक्ति जीना चाहता हो, ताकि खुद को अभिव्यक्त कर सके, सपनों को साकार कर सके। समय मोहलत नहीं देता है। मृत्यु मात्र 51 वर्ष की उम्र में उसे उठा ले जाती है। एक ऐसा जीनियस जिसे जीते-जी वो इज्जत और पहचान न मिली, जिसका हकदार वह था। आज भले ही हम उसके कार्य-विचार का पठन-पाठन के लिए उपयोग करें। भले ही उसकी शताब्दी मनाए। परन्तु वह हमारे बीच से क्रोधित, असंतृप्त और दु:खी ही चला गया।


इस बुद्धिमान व्यक्ति का नाम है, ऋत्विक घटक! फ़िल्मों में आया, लेकिन पैसे कमाने के उद्देश्य से नहीं। यहाँ की ‘रैट रेस’ में शामिल न हुआ। मानवता के दु:ख-दर्द को ले कर उसके भीतर जो व्यथा थी, उसे अभिव्यक्त करने आया। जिसने मात्र नौ फ़ीचर फ़िल्म बनाई, पर लोगों को सिनेमा देखने का संस्कार दे गया। वह सिनेमा देखने की सामूहिक भावना को मंदिर या मस्जिद-चर्च जाने की तरह देखता था। उसके भीतर विभाजन का काँटा गहरा धंसा था, जो कभी न निकला, रिसते-रिसते नासूर बन गया था। वह मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि अपनी पीड़ा बाँटने, विचारों को समृद्ध करने वाला सिनेमा बनाने आया। जो ताल ठोंक कर कहता है, मैं पोलिटिकल सिनेमा बनाता हूँ।




काश! समीक्षक समझ पाते। जीनियस ऋत्विक ने तीन साल में तीन बेमिसाल (1960, ‘मेघे ढ़ाका तारा’, 1961, ‘कोमल गांधार’, 1962, ‘सुवर्णरेखा’) फ़िल्म बना दी। हालाँकि ‘सुवर्णरेखा’ बाद में रिलीज हुई। जीते-जी केवल ‘मेघे ढ़ाका तारा’ ही प्रशंसित हुई। बाद में वे डिप्लोमा फ़िल्म निरीक्षण करने एफ़टीआईआई आमंत्रित किए गए। फ़िर शिक्षण करने लगे (5 जून 1965-30 सितम्बर 1965), जीवन का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। वे फ़िल्ममेकर’ फ़िल्ममेकर बन गए। उनके शिष्यों मणि कौल, कुमार साहनी और मलयाली निर्देशक जॉन अब्राहम ने उनकी राह पर चलने का प्रयास किया। कुछ ही समय संस्थान में रहने के बावजूद उनका ‘विजडम ट्री’ आज भी सिने-अध्येयताओं की प्रेरणा है। ‘नई लहर’ सिनेमा के एक जनक ने कभी नहीं माना कि वह दुनिया बदल सकता है।


फ़िल्म संस्थान ने उन्हें वो दिया, जिसके वे हकदार थे। उन्होंने पत्नी सुरमा को लिखा, ‘यहाँ मैं सबका प्यार पा रहा हूँ। यही वह एकमात्र स्थान बचा है, जहाँ लोग मुझे चाहते हैं।’ वे कलकत्ता का काम समेट कर संस्थान में पक्का वेतन, सम्मान और मनपसंद काम करने को लेकर बहुत उत्साहित थे। प्रयोगात्मक फ़िल्म बनाना उन्हें खूब आकर्षित कर रहा था। संस्थान में उनकी प्रतिभा की कद्र थी। मनमाफ़िक काम करने के अवसर, सुविधाएँ एवं उपकरण थे। काफ़ी समय तक गेस्ट लेक्चरर के रूप में रहे, बाद में वाइस-प्रिंसीपल के रूप में सफ़ल पाठ्यक्रम निर्मित किया और किंवदंति बन गए। अफ़सोस! पीने की लत और मानसिक व्याधि के कारण वे यहाँ लंबे समय तक न रह सके। सीमित समय में असीमित अभूतपूर्व कार्य कर गए। राधा चड्ढ़ा ने अपने पिता जगत मुरारी पर लिखी किताब ‘द मेकर ऑफ़ फ़िल्ममेकरकर्स’ में घटक के संस्थान-काल के विषय में विस्तार से लिखा है। 6 फ़रवरी 1976 को वे चल बसे। 


आज के बाँग्लादेश, पूर्व के पूर्वी बंगाल के ढ़ाका में 4 नवम्बर 1925 को जन्मे घटक कलकत्ता में रहे पर पूर्वी बंगाल उनकी मांस-मज्जा में गुँथा हुआ था। खुद को समाजशास्त्री न मानने वाले ऋत्विक घटक ने सत्यजित राय से पहले 1952 में अपनी पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ बना ली थी। पहली फ़िल्म उनके सिनेमा बनाने के उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है। फ़िल्म में शरणार्थियों की समस्या है। देश विभाजन ने रातों रात लोगों को बेघर-भिखारी बना दिया है। बेरोजगारी पर केंद्रित फ़िल्म आज भी समसामयिक है, समस्या घटने के बजाए बढ़ी है। नायक रामू पर परिवार चलाने का दायित्व है। बूढ़े माता-पिता, भाई की शिक्षा, बहन की शादी और निराशाजनक स्थिति। निर्देशक समस्या प्रस्तुत करता है। घटक मानते थे, समाधान देना निर्देशक का काम नहीं है, यदि चाहे तो दे सकता है। आज देख कर लगता नहीं है, किसी निर्देशक की पहली फ़िल्म है। विडम्बना है, फ़िल्म खो गई। अंतत: यह घटक की मृत्यु के बहुत बाद में 1977 में रिलीज हुई। कितने कम संसाधन और विकट परिस्थिति में उन्होंने यह फ़िल्म बनाई थी। काश! यह तब रिलीज होती, तो भारतीय सिने-इतिहास और स्वयं ऋत्विक घटक कितने भिन्न होते।





वे हार्डकोर मार्क्सिस्ट थे, बुद्धिमान थे, लेकिन जल्द ही पार्टी से उनका मोहभंग हो गया। पार्टी के आदर्शवादी मूल्यों पर वे प्रश्न उठाने लगे। किस सत्ता को प्रश्न अच्छे लगते हैं? अपने जीते-जी असफ़ल निर्देशक, स्क्रीन प्ले राइटर, कथाकार, इप्टा को राह दिखाने वाला, विचारक और-तो-और असफ़ल पति-पिता के जिम्मेदार कहीं-न-कहीं पार्टी एवं इप्टा भी हैं। दर्शकों एवं समीक्षकों की उपेक्षा से यह प्रतिभा नष्ट हुई। परन्तु उन्होंने जो अमिट छाप छोड़ी है, उसे कैसे नष्ट करेंगे? वे सिनेमा की ताकत जानते थे। यह उनकी भावनाओं एवं संवेदनाओं का अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम था। घटक ने अपना गुस्सा अपनी फ़िल्मों के जरिए अभिव्यक्त किया। पार्टी की दुमुँही नीति से असंतुष्ट घटक ने अपना गुस्सा ‘कोमल गांधार’ बना कर निकाला।


आईएमडीबी की माने तो उन्होंने 26 फ़िल्में निर्देशित की। 14 फ़िल्में लिखी तथा 5 में अभिनय किया। बहुत कम लोग जानते हैं, आत्महंता ऋत्विक घटक ने डॉक्यूमेंट्री बनाई, जिसमें ‘अमार लेनिन’, ‘रामकिंकर बैज’, ‘उस्ताद अलाद्दीन खान’, ‘द लाइफ़ ऑफ़ दि आदिवासी’ प्रमुख हैं। इसके अलावा ‘ओरांव’, ‘फ़ीयर’, ‘सिविल डिफ़ेंस’, ‘साइंटिस्ट्स ऑफ़ टुमारो’, ‘ये क्यों’, ‘पुरुलिया छऊ’, ‘दुर्बार गति पद्मा’ नाम से वृतचित्र घटक ने बनाए। इनका भी अध्ययन होना चाहिए, इनकी भी चर्चा होनी चाहिए। इसी तरह कई फ़िल्म वे कभी पूरी न कर सके। कुछ ऐसी भी फ़िल्में हैं, जो उन्होंने बनाई, पर वे खो गईं। काश! भविष्य में वे भी ‘नागरिक’ की भाँति परदे पर आ सकें।


1971 में पूर्वी पाकिस्तान (पूर्वी बंगाल) में एक बार विस्तापन हुआ। इस बार यह एक स्वतंत्र देश बाँग्लादेश बना। मगर नागरिकों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक बार फ़िर घटक का घाव रिसने लगा। इस बार उन्होंने यथार्थवादी फ़िल्म ‘तितास एक्टि नदीर नाम’ (‘ए रिवर काल्ड तितास’) बनाई। निर्देशक की आँख हर फ़्रेम में गरीबी को पकड़ती है। मछुआरा सती होने से एक लड़की को बचाता है, उससे शादी करता है। मगर इस सबमें उसका स्वार्थ छिपा हुआ है। आदमी एवं मशीन के अनोखे रिश्ते को दिखाती ‘अजांत्रिक’ देखना एक भिन्न अनुभव है।


कोन भूल सकता है, उनके लेखन पर बनी ‘मधुमति’ को। 1958 की फ़िल्म को बिमल राय ने निर्देशित किया। दिलीप कुमार, वैजन्ति को लेकर कोई माला, प्राण अभिनीत यह मर्डर मिस्ट्री आज भी दर्शकों को पसंद आती है। मगर खुद घटक इसे कभी अपनी फ़िल्मोग्राफ़ी में संजोना नहीं चाहते थे। ऋत्विक घटक ने सिनेमा लिखा, निर्देशित किया, कहानियाँ लिखीं, सिनेमा शिक्षण किया। एफ़टीआईआई में रहते हुए सिनेमा पर खूब लिखा भी। इनमें से कुछ लेखों को ‘ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट’ ने ‘सिनेमा एंड आई’ नाम से 1987 में पहला भाग प्रकाशित किया है। मेरे पास ई-बुक के रूप में है। आशा है, अन्य भाग शीघ्र प्रकाशित होंगे।


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(आजकल के नवम्बर 2025 अंक में प्रकाशित)



विजय शर्मा


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