अवधेश प्रधान का आलेख 'भोजपुरी लोक-मन में राम और सीता'
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| अवधेश प्रधान |
राम कथा की व्याप्ति विविध भाषाओं में थोड़े मोड़े हेर फेर के साथ लगभग एक जैसी मिलती है। लेकिन लोक अपनी तरह से इस कहानी को देखता है और खुद को व्यक्त करता है। सबके अपने अपने राम और अपनी अपनी सीता हैं। इस अलग अलग लोक में सीता को ले कर अनेक अलग अलग तरह की कथाएँ प्रचलित हैं। एक भोजपुरी लोक गीत को सुनते हुए लोक मर्मज्ञ राम नरेश त्रिपाठी यह लिखने के लिए बाध्य हुए कि "ऐसा हृदयद्रावक वर्णन न तो वाल्मीकि ने किया है, न कालिदास और भवभूति ने और न तुलसी और सूरदास ही ने।" अवधेश प्रधान भोजपुरी लोकगीतों के मर्मज्ञ हैं। नई किताब प्रकाशन से प्रकाशित उनकी एक महत्त्वपूर्ण किताब है 'सीता की खोज'। इस किताब का एक अध्याय है 'भोजपुरी लोक-मन में राम और सीता'। इस उम्दा आलेख को पढ़ कर आप भोजपुरी लोकगीतों के मुरीद हुए बिना नहीं रहेंगे। सीता राम की पत्नी हैं लेकिन जहां वे आहत होती हैं, वे राम के प्रति अपनी असहमति भी दर्ज कराती हैं। असहमति का अर्थ दुश्मनी नहीं होती। यह अपनों से ही जताई जा सकती है। भोजपुरी लोक की संवेदना दुर्लभ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवधेश प्रधान का आलेख 'भोजपुरी लोक-मन में राम और सीता'।
'भोजपुरी लोक-मन में राम और सीता'
अवधेश प्रधान
भोजपुरी लोकमानस में राम के वनवास सहित अनेक कथाएं बहुतएच गहराई से मौजूद हैं जिसके मार्मिक प्रसंगों का वर्णन विविध रूपों में मिलता है। कैकेयी ने राजा दशरथ से जो दो वर माँगे उसकी कहानी लोक में कुछ और है। राजा दशरथ एक बार 'केदली' के वन में गए, वहाँ उनकी उँगली में काँटा गड़ गया। घर आ कर बोले- जो मेरी उँगली का काँटा निकालेगा, मेरी पीड़ा को हर लेगा, वह जो माँगेगा, उसे मैं दूँगा! रानी कैकेयी घर में से सोलहों सिंगार किए निकलीं। उन्होंने काँटा निकाल दिया, पीड़ा हर ली और फिर अपनी माँग रखी राम लक्ष्मण बन को जायँ और भरत राज भोग करें (राजा राम लछन बन जायें भरत राज वेलसैं)। राजा दशरथ बिलख उठे- तुमने मेरे प्राणों का आधार माँग लिया, कौशल्या का अवलंब माँग लिया! जो राम चित्त से नहीं उतरते, पलक से ओझल नहीं होते, वे राम वन को चले जाएँगे तो मैं कैसे जी को बोधूंगा-
जे राम चित से न उतरें पलक से न बिसरें!
से राम बन चलि जैहँ, त कैसे जिउ बोधव हो।
(सोहर)
जब राम वन को जाने लगे, उन्होंने माता कौशल्या से पूछा- माँ मैं तो 'मधुवन' को जाऊँगा, तुम सीता को कैसे रखोगी? कौशल्या ने कहा- आँगन में कुँआ खनाऊँगी, सीता को घर में ही नहलाऊँगी, उन्हें चिरौंजी और खाँड़ खिलाऊँगी और हृदय में रखूँगी। सीता भी राम के साथ लग गई तो राम ने मना किया- सीता, मेरे साथ मत चलो, बहुत दुख पाओगी। लेकिन सीता ने दुख की चुनौती स्वीकार कर ली और कहा- मैं भूख-प्यास सह लूँगी, जेठ की दोपहर की धूप सह लूँगी, आपकी सूरत देख कर सब सुख पा लूँगी-
सहबइ मैं भुखिया पियसिया जेठ दुपहरिया।
पिया देखि हम तोहरी सुरतिया, सकल सुख पउबइ॥
इस प्रसंग का एक गीत भोजपुरी में अत्यंत प्रसिद्ध है-
हम रघुबर संग जाइब
हम ना अवध में रहबो।
सीता ने राम के साथ वन जाने के लिए कहा कि दुःख सहने में राम से बढ़ चढ़ कर रहूंगी। राम यदि रथ पर चढ़ कर जाएँगे तो मैं पैदल ही जाऊँगी, राम यदि जमीन पर कुश की चटाई बिछाएँगे तो मैं जमीन पर ही सो जाऊँगी, राम यदि वन फल खाएँगे तो मैं भूखे ही सो जाऊँगी और यदि राम युद्ध में जाएँगे तो मैं अकेली ही लड़ जाऊँगी लेकिन मैं अयोध्या में नहीं रहूंगी।
जब राम वन को गए, अभी उनकी रेख उठ रही थी, मसें भींग रही थीं-
रेख उठत मसि भींजत राम बनै गए हो।
सीता बोलीं- अभी तो मेरी बारह वर्ष की उम्र है, मैं कैसे दिन बिताऊँगी? हे राम, आपके घर रहने या विदेश रहने से क्या? आपने न कभी हँस कर मेरा आँचल पकड़ा, न कभी मुझसे रूठे। मायके से 'पियरी' पहन के आई थी, अभी उसे छोड़ कर कभी काली साड़ी नहीं पहनी, गोद में बालक नहीं लिया, छठी की पूजा नहीं की। मैं घर पर सोना, महल-भर रूपा (चाँदी) और घर पर ही छोटा देवर छोड़ कर जा रही हूँ। मैं अपने प्रिय के साथ रहूँगी। (सोहर)
एक अत्यंत प्रसिद्ध गीत में राम ने कौशल्या से अरज किया कि माँ, मुझे हुकुम दो, मैं वन को जाऊँगा। कौशल्या बिलख पड़ीं - जिस राम को मैंने घी डाल कर औटाया हुआ दूध पिलाया, उन्हीं राम को मैं कैसे वन जाने को कहूँ (बन भाखउँ), मेरा कलेजा बिहर रहा है।
राम त मोर करेजवा लखन मोरी पुतरिव।
अरे रामा सीता रानी हाथे कर चुरिया,
मैं कैसे बन भाखउँ।
राम तो मेरा कलेजा हैं, लक्ष्मण मेरी पुतली (आँख की) और सीता रानी हाथ की चूड़ी हैं, उन्हें कैसे बन भाखूँ? राम दोपहर को गए, लक्ष्मण तिजरिया (तीसरी बेला -अपराह्न) में और मेरी सीता सँझलौके में (शाम के झुटपुटे में) गई, मैं कैसे जी को समझाऊँ? मैंने घी की सोहारी (पूड़ी) बनाई, दूध की जाउर (खीर) बनाई - सारा व्यंजन मेरे लिए विष हो गया। घरों में दीप जलते हैं लेकिन मेरे लिए तो संसार अँधेरा हो गया। आँसू बहाती हुई कौशल्या बाहर निकलती है फिर सोचती हैं-राम लखन सीता की जोड़ी जाने किस बन में होगी। वे घर-घर में जा कर लड़कों को इकट्ठा करती हैं और लड़कों से धमाल मचाने को कहती हैं ताकि राम का दुख बिसरा सकें।
राम बिना सूनि अजोध्या लखन बिन मंदिल।
मोरी सीता बिन सूनी रसोइया कइसे जियरा बोधव॥
राम के बिना पूरी अयोध्या सूनी हो गई, लक्ष्मण के बिना घर सूना हो गया और मेरी सीता के बिना रसोई सूनी हो गई, मैं कैसे जी को समझाऊँ? घर में दीप जलाऊँगी, सेज लगाऊँगी, आधी रात को नन्हें शिशु को दुलराऊँगी, मानों राम अभी घर में ही हैं-
सवना भदवना क दिनवाँ घुमरि घन बरिसइँ।
राम राम लखन दूनो भइया, कतहुँ होइहैं भीजत॥
रिमिकि झिमिकि दयू बरसई मोरे नाहीं भावइ।
देवा ओहि बन जाइ जनि बरसहु जहाँ मोर लरिकन ॥
राम क भीजै मटुकवा लखन सिर पटुका हो
मोरी सीता क भींजै सेंदुरवा लवटि घर आवउ॥
सावन-भादों के दिन हैं, बादल घुमड़-घुमड़ कर बरस रहे हैं। कौशल्या माता को चिंता सता रही है- राम लखन दोनों भाई कहीं भींग रहे होंगे। कौशल्या माता अपने मन की आँखों से देख रही हैं कि राम का मुकुट भींग रहा है। वे मन ही मन मनाती हैं कि बच्चे लौट कर सकुशल घर आ जायें! (कविता कौमुदी, भाग 5, जाँत के गीत सं. 3)
करुण रस से ओत-प्रोत इस गीत की प्रशंसा करते हुए राम नरेश त्रिपाठी ने कितना सही लिखा है, "ऐसा हृदयद्रावक वर्णन न तो वाल्मीकि ने किया है, न कालिदास और भवभूति ने और न तुलसी और सूरदास ही ने।" (कविता कौमुदी, भाग 5, जाँत के गीत, पृ. 57)
विद्यानिवास मिश्र ने इस गीत की अनूठी व्याख्या करते हुए पूरा एक ललित निबंध ही लिखा है- 'मेरे राम का मुकुट भींग रहा है'! बन जाते समय राम ने सब राजसी अलंकार उतार दिए थे लेकिन माँ के मन में अब भी राम के सिर पर मुकुट है और उस पर राजछत्र न होने से वह भींग रहा है। पटुका का भींगना तो वास्तविक है और सीता का सिंदूर भींगना परम अमंगल! इसलिए सकुशल घर लौट आने की मंगल कामना है।
इसी भाव का एक और जंतसार भोजपुरी में है-
जवना बने सीकिया न डोले
बधवा न करजेला हो राम -
जिस वन में सींक भी नहीं डोलती, बाघ भी नहीं गरजता, उस वन में मेरे राम चले गए। अब तक कोई खबर नहीं मिली। मेरे घर के पिछवारे रहने वाले दरजी भैया, जल्दी आओ और मेरी दोनों आँखों में पट्टी बाँध दो, मैं अयोध्या की ओर नहीं देखना चाहती! मेरे पिछवारे रहने वाले ऐ सुनार भैया, जल्दी आओ और मेरे दाँतों में सिल्ली दिलवा दो, मैं अन्न नहीं खाऊँगी। ऐ काली और पीली बादरिया बहन, उस 'केदली' के वन में मत बरसना, मेरे तीनों बच्चे भींग जाएँगे। राम का मुकुट भींग रहा है- यह पंक्ति दोनों गीतों में है (इस गीत में लक्ष्मण के लिलार का चंदन भींग रहा है और सीता का सोलहों शृंगार और आँख का काजल भींग रहा है-
हमरा सीता के सौरहों सिंगार
नयन भर काजर हो राम।
इस गीत के अंत में रावण का वध हो जाने के बाद सब अयोध्या लौट आते हैं-
राम मोरे अइले अनगुतहा
लखन बेरिया ढरकत हो राम
आरे मोर सीता सुन्नर अइली मुहलुकवा
मोरे तीनों बचवा अइले हो राम।
रामजी के चुमेली मुकुटवा
लखन के चननवा हो राम।
अरे अपना सीता के सोरहों सिंगार,
रावन जीत के आवेले हो राम।
राम भोर में आए, लक्ष्मण ढलकती वेला में आए और मेरी सुंदर सीता मुँह-अंधेरे आई-तीनों बच्चे आ गए। माता कौशल्या राम का मुकुट चूमती हैं, लक्ष्मण के लिलार का चंदन और अपनी सीता के सोलहों श्रृंगार चूमती हैं। राम रावण को जीत कर अयोध्या को लौट आए हैं। (भोजपुरी श्रम लोकगीतों में जंतसारः राम नारायण तिवारी, पृ. 112)
इसी भाव के एक सोहर में वनवास के दौरान बारिश में राम बेला के नीचे भींग रहे हैं, लक्ष्मण बबूल के नीचे और सीता अशोक के नीचे भींग रही हैं। राम की चादर भींग रही है, लक्ष्मण की पगड़ी और सीता का सिंदूर भींग रहा है- तीनों प्राणी व्याकुल हैं। (गितियन, सोहर)
लोक में सीता के निष्कासन का जो कारण सबसे अधिक प्रचलित है वह है धोबी द्वारा सीता पर लांछन लगाना। राम रावण को जीत कर लंका से अयोध्या में आ कर राज करने लगे। एक दिन एक धोबी का अपनी धोबिन से झगड़ा हुआ, धोबन रूठ कर घर से निकल गई। धोबी उसे ढूँढता हुआ गली-गली फिर रहा था कि धोबिन से एक जगह भेंट हो गई। उसने गाली देते हुए कहा- तुझे घर नहीं जाने दूंगा, मैं तुझे घर से निकालूँगा। मैं श्रीराम नहीं हूँ जिन्होंने रावण के घर रह चुकी सीता जी को रख लिया। रावण ने उन्हें बारह बरस अपने पास रखा, फिर भी राम जो उन्हें घर ले आए। यह सुन कर राम मन में बहुत दुखी हुए। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- जल्दी सीता को घर से निकालो और 'निखुज' वन में पहुँचा आओ। यह सुन कर लक्ष्मण मन में बहुत दुखी हुए। बोले, ए भइया, सीता ने कौन-सा गुनाह किया जो उन्हें एमएम' निखुज वन' में पहुँचाने को कह रहे हैं। राम ने कहा- नहीं, सीता ने कोई गुनाह नहीं किया, वे सभी गुणों में आगर (सरव गुनवाँ आगर) हैं। हे भाई, धोबी ने आज जो ताना (मेहना) मारा है वह मेरे कलेजे को साल रहा है। लक्ष्मण सीता के महल में गए और बोले, हे भौजी! जल्दी सब साज सजाओ, गंगा का पूजन करने चलो। सीता ने सुनते ही पान-फूल, अक्षत, नारियल, कसैली (सुपारी) और 'पियरी' (पौली साड़ी) ले ली, सोलहों सिंगार कर लिए और गंगा को पूजने चल पड़ीं। एक वन को पार कर दूसरे वन में, फिर 'निखुज' वन में पहुँची। वहाँ कदम की छाँह में मंद सुगंध हवा बह रही थी। सीता को नींद आ गई। वहाँ से लक्ष्मण ने रथ हाँका और अयोध्या चले आए। सी-सा कर सीता उठीं, अचकचाकर चारों ओर देखने लगीं न वहाँ रथ था, न घोड़े थे, न लक्ष्मण दिखाई दिए। सीता बिलखने लगीं मुझसे कौन सा गुनाह हो गया जो मुझे 'निखुज' वन में पहुँचा दिया। सीता 'अछन' 'बिछन' करके रोने लगीं। सीता के रोने से धरती डोलने लगी, मुनि सब अकुला उठे। लोग कुटी से निकल कर देखने लगे कोई घने वन के भीतर रो रहा है। अपनी कुटी से निकल कर वाल्मीकि जी जंगल के बीच खड़े हो गए और बोले- सीता, तुम पर कौन सा संकट पड़ गया जो वन के भीतर रो रही हो। तुम किसकी बेटी हो, किसकी पतोहू हो, किस अभागे से तुम्हारे ब्याह हुआ जो वन के भीतर रो रही हो? सीता बोलीं- मैं राजा जनक की बिटिया हूँ और राजा दशरथ की पतोहू। हे मुनि जी, पति का नाम कैसे लूँ (पुरुष क नइयाँ कइसे लेई), लक्ष्मण मेरे देवर हैं। वाल्मीकि जी ने आश्वस्त करते हुए कहा- जनक तो मेरे चेले हैं और राजा दशरथ मेरे मित्र। तुम भी मेरी पुत्री लगोगी (चलो वन के भीतर। (कविता-कौमुदी, भाग-5, सोहर)
सीता-निर्वासन का एक और कारण लोक में प्रसिद्ध है- वह है ननद (राम की बहन) द्वारा अपनी भाभी सीता को छलपूर्वक लांछित करने का षड्यंत्र। ननद और भौजाई दोनों पानी भरने गईं। ननद ने कहा- भौजी, जो रावण तुम्हें हर ले गया, उसे उरेह कर दिखाओ। सीता ने अपने मन का डर बताया- यदि मैं रावण को उरेहूँगी, उरेह कर दिखलाऊँगी और यदि आपके भैया सुन पाए तो मुझे देश से निकाल देंगे। ननद ने दुहाई पर दुहाई दे कर आश्वस्त किया- मैं भैया से कुछ न बताऊँगी। सीता बोलीं- तो फिर ठीक है, गंगा जल मँगवाओ, सामने की कोठरी लिपवाओ, उसी में रावण को उरेहूँगी (उसका चित्र बनाऊँगी)। गंगा जल मँगा कर कोठरी लीपी गई। सीता ने रावण का हाथ बनाया, पैर बनाया, आँखें बनाई, तभी श्रीराम आ गए। सीता ने आँचल से उसे ढक दिया। राम भोजन करने बैठे, बहन ने लाई लगा दी (चुगली कर दी) - अरे भैया लक्ष्मण! तुम विपत्ति के साथी हो। सीता को देश से निकाल दो, यह रावण का चित्र उरेहती है। लक्ष्मण घबड़ाए जो भौजी भूखे को भोजन देती हैं, नंगे को वस्त्र देती हैं, इस समय उनका शरीर गर्भ से भारी हो रहा है, मैं उन्हें कैसे देश से निकालूँ? राम बोले- अरे भइया लक्ष्मण! तुम विपत्ति के नायक हो। सीता को देश से निकालो। वह रावण को उरेहती है।
ननद द्वारा सीता पर लांछन की इस कथा में एक अंतर भी मिलता है। इसकी बात आगे कहूँगा।
लक्ष्मण ने सीता के पास जा कर कहा- हे भौजी! है सीता रानी! तुम बड़ी ठकुराइन हो। तुमको निमंत्रण आया है। सबेरे वन में चलेंगे। सीता ने कहा-
ना मोरे नैहर ना मोरे सासुर, देवरा!
न रे जनक अस बाप मैं केहि के जइहौं।
इस गीत में पता नहीं कैसे सीता ने कहा कि न मेरा नैहर है, न ससुराल, यहाँ तक कि पिता भी नहीं हैं। शायद सीता को आभास हो गया हो कि यह देश निकाला हो रहा है। पति-परित्यक्ता का कोई भी अपना नहीं रह जाता, सीता यही कहना चाहती हैं क्या? या यह गीत रचने वाली स्त्री का अपना मनोभाव है जिसे वह सीता के मुँह से कहला रही हैं? एक वन पार कर दूसरे वन में गई, दूसरे को पार कर तीसरे वन वृन्दावन में पहुँची तो लक्ष्मण से बोलीं- देवर जी, एक बूँद पानी पिला देते (प्यास से व्याकुल कुम्हला कर भूमि पर गिर पड़ीं। लक्ष्मण ने कदम के पत्ते तोड़े, उनका दोना बनाया दोनो में पानी भर कर लौंग की डाल में टाँग दिया और घर को चल पड़े। सो-सा कर सीता उठीं तो विस्मित रह गई- देवर लक्ष्मण कहाँ चले गए? मुझे कुछ न बताया। बताते तो उन्हें जी भर कर देख लेती, रो लेती। सीता बिलख पड़ीं कौन मेरे आगे-पीछे बैठेगी, कौन लट खोलेगी, कौन प्रसव के समय रात भर जागेगी, कौन बच्चे की नाल काटेगी? तभी वन से तपस्विनियाँ निकलीं। वे सीता को समझाने लीं- हम तुम्हारे आगे-पीछे बैठेंगी, हम तुम्हारी लट खोलेंगी, हम रात भर जागेंगी, हम नाल काटेंगी।
विहान होते ही, भोर की लाली लगते ही, बच्चे का जन्म हुआ। तपस्विनियों ने कहा- सीता, लकड़ी का उजाला कर के अपनी संतान का मुख देखो। सीता ने लकड़ी के उजाले में पुत्र का मुख देखा। उनका हृदय रो उठा हे पुत्र! तुम विपत्ति में पैदा हुए हो, बहुत साँसत में पैदा हुए हो, यहाँ कुश ही ओढ़ना है, कुश ही बिछौना है, वनफल भोजन है। अयोध्या में जनमे होते तो आज राजा दशरथ ने नगर लुटा दिया होता, कौशल्या रानी ले गहने लुटाए होते!
अब सीता को चिन्ता हुई कि पुत्र जन्म का यह शुभ समाचार अयोध्या कैसे पहुँचाया जाय? उन्होंने वन के नाई को बुलवाया और कहा- यह रोचना ले जाओ और अयोध्या पहुँचा आओ। पहले राजा दशरथ को देना, फिर दूसरे रानी कौशल्या को और तीसरे देवर लक्ष्मण को। ध्यान रहे, मेरे प्रियतम राम जी को पता न चले। नाई ने ऐसा ही किया। राजा ने बख्शीश में अपना घोड़ा दिया, कौशल्या रानी ने गहना और लक्ष्मण ने पाँचों जोड़ा (धोती, अँगरखा, पगड़ी, दुपट्टा और जूता) दिया। नाई बख्शीश ले कर खुशी-खुशी वन को लौटा।
राम तालाब के किनारे दतुअन कर रहे थे। उन्होंने लक्ष्मण से पूछा- तुम्हारा माथा दमक रहा है, रोचना कहाँ मिला, किसके घर नंदलाल हुआ? लक्ष्मण ने बताया- हमारी भौजी सीता रानी 'बिन्द्रावन' में रहती हैं, उनको नंदलाल हुआ है? वही रोचना मैंने सिर पर धारण किया। यह तो राम के लिए बड़ी भारी चोट थी। इतने आनंद-मंगल का समाचार! और सीता ने एक मुझी को छोड़ कर बाकी सबको रोचना भिजवाया! उनके हाथ की दतुअन हाथ में रह गई, मुँह की मुँह में। आँखों से मोती टपकने लगे, पीताम्बर भींगने लगा। उन्होंने वन के नाई को हाँक लगा कर बुलवाया और पूछा - सीता का हाल बताओ। मैं सीता को ले आऊँगा। नाई ने बताया-
कुस रे ओढ़न कुस डासन बनफल भोजन।
साहब लकड़ी क किहिन अँजोर संतति मुख देखिन॥
नाई ने बस दो पंक्तियों में सीता का सारा दुख उड़ेल दिया- कुश ओढ़ना है, कुश बिछाना है, वन फल भोजन है। साहेब! जब लकड़ी का उजाला किया तब अपनी संतति का मुख देख पाई। राम बिलख उठे- अरे रे लछिमन भइया विपतिया के नायक। मेरे भाई, एक बार मधुवन को जाते और अपनी भौजाई को ले आते! लक्ष्मण वहाँ गए और सीता से कहा- भौजी राम क फिरा है हँकार त तुमका बुलावैः राम की पुकार फिरी है- तुमको बुला रहे हैं! सीता ने साफ मना कर दिया-लक्ष्मण। अपने घर लौट जाओ, मैं नहीं जाऊँगी। मेरे नंदलाल जिएँगे तो उन्हीं के कहलाएँगे।
जौ रे जियें नंदलाल तो उनहीं के बजिहैं।
(कविता कौमुदी भाग 5, सोहर सं. 49)
मैथिली सोहर में है जब राम ने नाई (हज़ाम) के जरिये सीता को वापस अयोध्या में आने को कहा तो सीता क्रोध में भर कर बोलीं-
आगि लगेबइ हम अजोध्या आ बज्र अवधपुर रे
ललना रे पहिल बियोग जब मोन पोड़य बनहि से बन जाई रे!
(मैं अयोध्या को आग लगाऊँगी और अवधपुर पर वज्र गिराऊँगी। वह पहला वियोग जब याद आता है, इच्छा होती है, इस वन से किसी दूसरे वन में चली जाऊँ।) हमारे गाँवों में स्त्रियाँ कहती सुनी जाती हैं- राम क जीवन दुखे में बीतल, सीता क जीवन वने में बीतल! अयोध्या के प्रति सीता का क्रोध अब भी लोक की स्मृति में जाग्रत है। मैंने सुना है, मिथिला के लोग अपनी बेटी अयोध्या की ओर ब्याहना अशुभ मानते हैं।
सीता आजीवन वन से वन को ही तो जाती रहीं। अयोध्या एक सभ्य, आधुनिक, समृद्ध सम्पन्न वन था जहाँ राज्याभिषेक होते होते राम को वनवास हुआ, उनके साथ सीता जिस वन में आई वह असभ्य, पुराना, पिछड़ा, अभावग्रस्त वन था लेकिन राम का संग-साथ था, प्रेम था, एक विस्तृत परिवार था- वृक्षों-वनस्पतियों का, पहाड़ों और नदियों का, पशुओं और पक्षियों का। वहाँ से अपहरण कर फिर एक सभ्य, आधुनिक, समृद्ध-सम्पन्न नगर-वन (लंका) में ले जाया गया। वहाँ से मुक्त हुई तो फिर अयोध्या के नागरिक वन में आ कर प्रेम की गृहस्थी नए सिरे से जमाने लगीं। नागरिक वन अधिक क्रूर निकला। लांछित करके वहाँ से निकाली गई तो फिर वहीं चिर-परिचित वन उनका आश्रय बना। ओढ़ने को और बिछाने को घास-पात, कुश-काश, खाने को वन के फल, पौने को नदी या झरने का पानी। लकड़ी जला कर उजाला किया तो संतान का मुँह देखने को मिला।
अब जो घर से निकालने वाले पति का बुलावा आया तो सीता क्या कहतीं? अयोध्या जाना तो एक और भयावने वन में जाना था- एक समृद्ध, सम्पन्न, विकासशील नहीं, विकसित नागरिक वन में। इससे अच्छा यही था उस वन से और गहन वन में चले जाना! वहाँ अभाव होगा पर हृदय का भाव आहत तो न होगा।
धोबी - जिसका काम ही है कपड़े का मैल-गंदगी धोना- उसने सीता पर लांछन लगा कर गंदगी फैलाई। उसे ठीक ही 'दुर्मुख' कहा गया। लेकिन लोक ने धोबी-धोबिन के झगड़े की जगह यह सीता की ननद और राम की बहन शांता की कुटिलता की कहानी क्यों गढ़ी? लोक वाणी को ही सच्ची विश्ववाणी मानने वाले लोकदर्शी विद्वान् वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है, "भवभूति के उत्तररामचरित में सीता परित्याग का दुरात्मा किसी अज्ञात धोबी के रूप में है। राम की अपनी बहिन शान्ता को सतवंती सीता के परित्याग की दुरात्मा बता कर लोक ने उसका बदला तो नहीं लिया है?" (वासुदेवशरण अग्रवाल के पत्र, पृ. 41) सतवंती सीता पर लांछन लगा कर उन्हें घर से निकलवाने का जो आरोप जनसाधारण के मत्थे मढ़ दिया गया था वह लोक-मानस की जाँच में राजमहल के भीतर का ही कुकर्म निकला। कहाँ राम की एक साधारण प्रजा-धोबी और कहाँ राम की अपनी बहन शान्ता। लोकमानस ने राजघराने में ही पोल ढूँढ़ निकाली। आखिर राम के बनवास की भी जड़ राजघराने में ही थी।
लोकमानस लोकगीतों में इतना निर्भय हो कर कैसे बोल पाता है? इसका क्या कारण हो सकता है? वासुदेव शरण अग्रवाल की व्याख्या सुनिए- "साहित्य का जो 'विराज' क्षेत्र है उसमें राजा और प्रजा के बीच इस प्रकार की नोंक-झोंक समझ में आ सकती है। ऐसे काल की गोद में जहाँ भय का अंकुश नहीं है, जहाँ राजा की राजशक्ति समाप्त हो जाती है, जहाँ दंड की पहुँच नहीं है, प्रजा जंगल के वनस्पति और तृण-लताओं की तरह अपनी भयहीन कल्पनाओं के साथ जीवित रहती है। लोक साहित्य की धात्री यही निर्भय और स्वच्छंद पृष्ठभूमि है। इस भूमि पर खड़ी हो कर राम की बहिन शांता साधारण मानवी के मनोभावों से तोली जा सकती है।" (वासुदेव शरण अग्रवाल के पत्र, पृ. 41) लोक ने इस भूमि पर शांता को भौजाई के पीछे पड़ी रहने वाली ईर्ष्यालु और विघ्न संतोषी ननद के रंग में रंग कर कहानी को कुछ और स्वाभाविक और विश्वसनीय बना दिया।
यह कहानी अग्रवाल जी ने गाजियाबाद जिले में दौलतपुर गाँव के खच्चेड़ नाम के एक वृद्ध किसान से सुनी थी। राम-लक्ष्मण आखेट के लिए बाहर गए थे। ननद शांता ने भौजाई सीता से रावण का चित्र लिखने को कहा। सीता नहीं मान रही थीं। लेकिन शांता ने भाई की सौगंध खाई तब सीता तैयार हो गई। लिपी पुती भीत पर उन्होंने रावण का चित्र पूरा लिख दिया तभी राम वन से लौट आए। सीता घबड़ा कर भागीं, घबड़ाहट में रावण की जाँघ पर रंग का एक 'डोब' गिर गया। "यही सीता के लिए, काल हो गया।" शांता ने राम को बताया- भैया, भाभी ने रावण को देखा है और वह चित्र दिखलाया। जाँघ देख कर राम का विश्वास हिल गया। खचेडू की कही कहानी में यही एक अंतर है, और यह बड़ा अंतर है। इससे शांता के लांछन को और राम के संदेह को एक बड़ा आधार मिल जाता है। लोकमानस ने सीता के भूमि-प्रवेश को भी स्मृति से ओझल नहीं किया। वाल्मीकि के बाद इस प्रसंग का मार्मिक आख्यान फिर लोकगीतों में ही मिलता है। राम ने माघ (एक दूसरे गीत में, चैत) की नौमी तिथि को यज्ञ ठाना (जग्गि रोपेन)। सीता के बिना यज्ञ उन्हें सुना लग रहा था। अपनी इच्छा जाहिर की- सीता को लाया जाय। उन्होंने वसिष्ठ मुनि के पाँव लग कर कहा- गुरुवर, आप के मनाने से सीता आ जायँगी (मना लाइए। घोड़े पर आगे-आगे गुरु वसिष्ठ, पीछे-पीछे लक्ष्मण देवर चले। वे वाल्मीकि ऋषि की कुटिया ढूँढने लगे जहाँ सीता तप कर रही थीं। सीता आँगन में खड़ी खड़ी राह की ओर निहार रही थीं। तभी उन्होंने देखा कि ये तो मेरे गुरु जी आ रहे हैं और उनके पीछे लक्ष्मण देवर हैं। सीता ने पत्ते का दोना बनाया, उसमें गंगा जल ले कर आई और गुरु के चरण पखारने लगीं और उस जल को माथे से लगाने लगीं। गुरु वसिष्ठ ने कहा- सीता, तुमको इतनी विचार-बुद्धि है. तुम बुद्धिमती हो। फिर किसने तुम्हारा ज्ञान हर लिया जो राम को बिसार दिया। सीता ने कहा- गुरु जी, आप तो सब हाल जानते हैं। फिर भी अनजान बन कर पूछ रहे हैं। गुरु जी! राम ने मुझे इस तरह दग्ध किया। उनसे कैसे चित्त मिल सकता है?
अगिया में राम मोहि डारेनि लाइ भूंजि काढ़ेनि।
गुरु गरुए गरभ से निकारेनि त कैसे चित मिलिहै।
(राम ने मुझे आग में डाला, फिर भून कर निकाला। मेरा गर्भ पूरा हो गया था, उस दशा में घर से निकाल दिया। फिर उनसे कैसे चित्त मिल सकता है?) एक अन्य गीत के अनुसार सीता ने कहा- राम ने मुझे सोने की तरह तपाया।
सोनवा की नइयाँ राम तायेनि।
भून कर आग से बाहर निकाला, राम ने इस तरह 'डाहा' (दग्ध किया) कि सपने में भी उनसे चित्त नहीं मिल सकता-
गुरु अस कै राम मोहि डाढ़ेनि
सपने ना चित मिलै हो राम!
सीता की इस ज्वलंत वाणी का जोड़ किसी महाकवि की वाणी में भी मुश्किल से मिलेगा। राम के लिए इतना सब कहने के बावजूद सीता ने गुरु के प्रति तनिक भी अनादर का भाव न आने दिया। वे बोलीं- गुरुवर! आपका कहा इतना जरूर करूंगी कि दो कदम आपके साथ चलूँगी लेकिन अब अयोध्या नहीं जाऊँगी। विधाता अब 'उनसे' न मिलावे!
राम ने कहार को बुलवाया, चंदन की पालकी ले कर सीता को लाने स्वयं चले। एक वन गए, फिर दूसरे वन में गए, फिर तीसरे 'विन्द्रावन' में पहुँचे। वहाँ उन्होंने दो बालकों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा और देख कर मोहित हो गए। राम ने उनसे पूछा-तुम लोग किसके बेटे हो, किसके नाती हो, किसके भतीजे हो? बच्चो! किस माता की कोख से जन्म ले कर तुम लोगों ने जी जुड़ाया? बच्चों ने कहा- हम बाप का नाम नहीं जानते? हम लक्ष्मण के भतीजे हैं। हम राजा जनक के नाती और सीता के दुलारे हैं। इतना सुनते ही राम की आँखों से तरर-तरर आँसू चूने लगे। बच्चे एक अनजान आदमी को रोते देख कर पता नहीं क्या समझें इसलिए राम ने अपने पटुके (दुपट्टे) से आँसू पोंछ डाला। कुछ दूर आगे ही ऋषि वाल्मीकि की कुटिया थी। राम उसके निकट पहुँचे। वहाँ एक घने कदम के पेड़ के नीचे सुहावना चबूतरा (जगत) बना था। वहीं कदम के तले बैठ कर सीता अपने केश सुखा रही थीं। उन्होंने पीछे उलट कर देखा तो राम जी खड़े थे। राम बोले-
रानी छोड़ि देहु जियरा विरोग अजोधिया वसावउ।
सीता तोरे बिन जग अँधियार त जिवन अकारथ॥
हे रानी! जी की सारी जलन, सारी नाराजगी छोड़ दो, चलकर अयोध्या को बसाओ। सीता! तुम्हारे बिना सारा जग अँधियारा है, सारा जीवन व्यर्थ है! सीता कुछ नहीं बोलीं-
सीता अँखियाँ में भरलीं बिरोग एकटक देखिन।
सीता धरती में गई समाय कुछौ नाहीं बोलिन ॥
(कविता कौमुदी-5, सोहर सं. 51)
सीता जीवन भर की नाराजगी, जीवन भर की जलन, जीवन भर की शिकायत आँखों में भरे हुए एकटक देखती रहीं और धरती में समा गई। सीता कुछ नहीं बोलीं। इस पर राम नरेश त्रिपाठी की टिप्पणी है- "इस एकटक देखने और कुछ न बोलने ही में सीता ने सब कुछ कह डाला है।" (कविता कौमुदी भाग-5, पृ. 64) अनेक साहित्य-मर्मज्ञों ने लोक गीतों को संस्कृत के क्लासिक कवियों से भी ऊँचा स्थान दिया है और करुण रस में तो अद्वितीय माना है। इस लोक गीत के बारे में राम नरेश त्रिपाठी ने लिखा है, "करुण रस का जैसा सुंदर चित्र इस गीत में है वैसा किसी महाकवि की कविता में नहीं मिलता। भवभूति की कविता में भी नहीं।" (वही, पृ. 65) एक खड़ी बोली (कौरवी) के गीत में सीता के भूमि-प्रवेश की इस कहानी में स्त्री-कवि ने कुछ और नई कल्पनाएँ जोड़ी हैं। राम और लक्ष्मण दोनों भाई वन को सिधारे। एक वन में गए, फिर दूसरे वन में। तीसरे वन में जाते-जाते प्यास लगी। किसी और देश का राजा समझ कर एक बालक कलश में जल भर कर लाया। राम ने कहा- लड़के, तुम्हारे हाथ का पानी मैं तभी पिऊँगा जब तुम अपने माता-पिता का नाम बताओ। लड़के ने कहा- मैं अपने पिता का नाम नहीं जानता। मेरी माँ का नाम सीता है। लड़का उन्हें ले कर माँ के पास गया। सीता चंदन की चौकी पर बैठ कर नहाने जा रही थीं। उन्होंने अपने केश छिटका दिये थे। उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा तो राम खड़े थे। सीता ने कहा- हे धरती माता, तू फट जा। धरती फट गई और बोली- अरी सीता! आ, समा जा। सीता धरती में समा गई। उनके केशों की हरी-हरी दूब हो गई। सीता कहती गई- मैं इस पुरुष का मुँह नहीं देखूँगी। इसने मुझे जीते जी वनवास दे दिया। इस काया पर (जो मिट्टी से आई थी, फिर मिट्टी हो जाएगी) दूबें जमेंगी, श्रीराम गौएँ चराएँगे। इस काया पर हल चलेंगे, श्रीराम खेती करेंगे। इस काया पर गंगा बहेंगी, श्रीराम अपनी गाँवों को जल पिलाएँगे!
फट जा री धरती समा जा री सीता
कैसों की हो गई दूब हो राम।।
इस रे पुरुष का मुख नहीं देखूँ
जीवत दिया बनवास हो राम॥
इस रे काया पर हल भी चलेंगे
खेती करेंगे श्रीराम हो राम।
इस रे काया पर दूब जमेंगी
गाँवें चरावें श्रीराम हो राम॥
इस रे काया पर गंगा बहेंगी
नीर पिलावें श्रीराम हो राम॥
(कविता-कौमुदी, भाग 5, मेले के गीत सं. 8, पृ. 465-66)
सीता को एक ओर इतना आक्रोश है कि वे राम का मुँह भी नहीं देखना चाहतीं, इसके बजाय वे धरती में समा जाना पसंद करती हैं। दूसरी ओर इतना गहरा प्रेम भी है कि मर जाने बाद, मिट्टी में मिल जाने के बाद भी राम का प्रिय करने को, उन्हें सुख देने को लालायित हैं। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। इस लोक गीत में वाल्मीकि का तेज और भवभूति की करुणा दोनों का अपूर्व संगम हुआ है।
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