हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं
किसी अजनबी से मिलने पर हर आदमी उसके बारे में जानना चाहता है। नाम के बाद अक्सर यही सवाल पूछा जाता है कि 'वह कहां का रहने वाला है?' गांवों से ले कर शहरों तक आदमी के बसने की पृष्ठभूमि होती है। परिस्थितियों वश आदमी को अपना पता ठिकाना बदलना पड़ता है और जहां वह रहने लगता है वही उसका गांव, वही उसका शहर हो जाता है। हरीश चन्द्र पाण्डे मानवीय संवेदनाओं की गहन अनुभूतियों के कवि हैं। उनकी कविताएं सहज ही पाठक से जुड़ जाती हैं। यही उनके कविताओं की ताकत है। अपनी कविता में हरीश जी लिखते हैं "पूछ ही लेते हैं/ दो लोग जब पहली बार मिलते हैं/ 'आप कहां के हुए' या/ 'आपका घर?'/ जैसे 'आपका शुभ नाम'।/ यही होता आया है/ सौजन्य टूटा या परंपरा जो कहिए/ अबकी ऐसा नहीं हुआ/ उससे जब पूछा गया, 'तुम कहां के हो'?/ उसने कहा, 'जहां का मैं हूं/ वहां एक छोटी नदी बहती है/ वही वहां की मूल निवासी है/ या फिर उसके पड़ोसी - पहाड़, जंगल" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं।
हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं
आदमी नहीं
जो उखाड़ा पौधे को तो देखा
जड़ें अभी कई फूल खिलाने को हैं
उजाड़ने की जुनून में वह भूल ही गया
वे फूल है
आदमी नहीं
विशेषण की राह में
जर्मनी में अल्पसंख्यक होने का जो अपार दुख था
वहीं इज्राइल में बहुसंख्यक होने का सुख है
न होता एडॉल्फ हिटलर तो दुखों के पहाड़ न टूट पड़ते वहां
एक हिब्रू कविता का कहना है
आज भी यहूदी वहां ढूंढ रहे हैं अपनों की कब्रें
बच्चे परदादाओं की कब्रें मिल जाने पर
मारे खुशी के उछल रहे हैं
जो लोग पुरखों की कब्रें खोजवा रहे हैं
वही बच्चों की कब्रें खुदवा रहे हैं पड़ोस में
सारी कब्रों की ईंटें नफरत के एक ही विशाल पजावे से निकली हैं
इतिहास की लचर बाइंडिंग से एक पन्ना उखड़ कर बाहर आ गया है
उसके एक ओर आहत लिखा है तो दूसरी ओर हत्यारा
खुशफहमी की बात नहीं कि हिटलर नहीं रह गया है अब
हिटलर मरा नहीं करता
मृत्यु के पूर्व वह एक उपनाम था
अब एक नाम है
विशेषण की राह में...
तमीज
जब से निकली वह क्रीजदार रुमाल
बार-बार मुंह का जूठा पोंछ रही है
मगर गंदी नहीं हो पा रही है
दिखाने लायक झूठा कहीं था भी नहीं
बचा बचा बीन बीन कर खा रहा था इतने सलीके से वह
कि जूठा होना ही नहीं था
चेहरा भी उसका दर्पण था
उसी में देखा मैंने
जूठा मेरे चेहरे पर लगा था
अमर पात्र
हर कोई है मृत्यु का ग्रास
इस चराचर जगत में
मृत्यु से बड़ा स्वार्थी और कोई नहीं
वह चाहती है
केवल वही जीवित रहे और कोई नहीं
सबके सब मरेंगे कोई नहीं जिएगा
इसी मृत्यु महारास ने दिया होगा यह विचार
कि गढ़ लिए जाएं कुछ अमर पात्र
मृत्यु की इस सनातनता के बीच
कोई तो जीवित रहे
मिथकों में ही सही...
तुम कहां के हो
पूछ ही लेते हैं
दो लोग जब पहली बार मिलते हैं
'आप कहां के हुए' या
'आपका घर?'
जैसे 'आपका शुभ नाम'।
यही होता आया है
सौजन्य टूटा या परंपरा जो कहिए
अबकी ऐसा नहीं हुआ
उससे जब पूछा गया, 'तुम कहां के हो'?
उसने कहा, 'जहां का मैं हूं
वहां एक छोटी नदी बहती है
वही वहां की मूल निवासी है
या फिर उसके पड़ोसी - पहाड़, जंगल
नदी, पेड़ पौधों को फलता फूलता देख बहती रहती है
नदी को देख पेड़ पौधे फलते-फूलते रहते हैं
हम सब इन सबको देखकर बड़े हुए हैं
पर इनकी तरह न मेरा उद्गम है, न मेरी जड़ें
मैं पीढ़ियां बदल बदल कर घूमता रहता हूं
मेरे दादा कहते थे हमारे पूर्वज कानपुर के आसपास से आए थे
मेरे पड़ोसी पंत कहते हैं हम तो महाराष्ट्र से आए हैं
गांव में एक दुकान ठाकुर साहब की है
वे कहते हैं हम तो भाई राजस्थान से आए हैं
उनके दोस्त राणा साहब कहते हैं हम राजस्थानी नहीं नेपाली राणा हैं
उसने कहा, मैं गांव में घर बनाने वाले ओड़ से कभी पूछा नहीं उसके पूर्वजों के बारे में
एक दिन शब्द के रूप में मिल गया एक ओड़ निर्मला पुतुल की संथाली कविता में
मैंने चूड़ी की दुकान वाले अब्दुल से भी यह सब नहीं पूछा
गांव के उन दो परिवार वालों के बारे में क्या कहूं - जो दूर से ही पहचान लिए जाते हैं
जिनके बाल सुनहले और बहुत घुंघराले हैं
इन्हें अपनी दो-तीन पीढियों से पीछे का कुछ भी मालूम नहीं
हां, राहुल सांकृत्यायन इन्हें देख कर जरूर कह गए
ये मध्य एशिया से आए हुए आर्य प्रतीत होते हैं
उसने कहा, जब मैं थोड़ी ऊंचाई से अपने गांव को देखता हूं तो वह
एक छतनार पेड़ सा दिखता है
उसके घर जैसे शाखों पर बैठे चहकते पंछी हैं
वह हुलस कर मोबाइल निकाल कर अपने गांव को दिखाने लगा
लेकिन नजर कमजोर होने के कारण मैं ठीक से देख न सका उसका गांव
मेरे धुंधलेपन को देख कर उसने अपने गांव की तस्वीर को जूम किया
गांव की तस्वीर फैल रही थी
वह एक गांव दिखा रहा था
मैं एक देश देख रहा था
उसने मुझसे ही पूछ लिया
'तुम कहां के हो?'
दुश्मनियां जब...
उस साल सरसों खूब फूली हुई थी
उस साल आंधी के हिस्से नहीं आया एक भी बौर
समय से आए थे बादल
गर्मी और शीत समय से विदा हुए
मां ने कहा-
यह उस साल की बात है जब दुश्मनियां मेरे पेट में था
हां, उसका नामकरण हुआ था विधिवत
घर का एक पुकारू नाम भी था
बिल्ली उस नाम को सुनते ही उसकी गोद ढूंढने लगती थी
उसके दूसरे नाम को कक्षा में प्रथम स्थान मिला था
फलां की मां कह कर पहचानते थे लोगबाग
उसी को आज मां दुश्मनियां कहती हैं
जैसे उसका नामकरण हुआ ही नहीं था
कुछ पुल बनते बनते टूट जाते हैं
कुछ बौर अमिया तक ही पहुंच पाते हैं
मां कभी नाम नहीं लेती है उसका और कहती है
बदला लेने आया था चला गया धोखा देकर
एक कालखंड में चीजों का होना
उसके न होने से जाना जाता है आज भी
बार बार यही कहती है मां
जब दुश्मनियां मेरे पेट में था
जब दुश्मनियां पहली कक्षा में था
उसी साल मकान बना था हमारा
मां फिर आँचल की कोर ढूंढने लगती है
जबकि दुश्मन के जाने से लोग खुश हुआ करते हैं...
(कुमायूं के कुछ अंचलों में असमय काल कवलित बच्चे को मां स्नेहासिक्त उलाहना में 'दुश्मन' का स्मृति संबोधन देती है)
औरत पर कविता
तो तुम औरत पर कविता लिखोगे।
कैसे लिखोगे?
किससे लिखोगे?
कोख से लिखोगे अपनी?
या सरापा सुहाग प्रतीकों से
या फिर हिजाब और घूंघट से लिखोगे
किससे लिखोगे ?
कैसे लिखोगे?
कलम को पयोधरों की ऊष्ण सफ्फाफता में डुबो कर लिखोगे
या मासिकी की रक्तिमता में
सौभाग्य व्रत के किसी जलाभिषेक पल में लिखोगे
या करवा चौथ की निर्जल घड़ी में
या फिर किसी परित्यक्त शब्द को सुन सुन सुन
उसकी दुसह सिम्फनी में भिगो भिगो कर
अपने उपनाम और गोत्र को टांक सकोगे छूट गई देहरी की चौखट पर
तुम रसोई चौका बासन निपटा कर लिखोगे?
या सूर्य का उगना एक हाथ से रोक कर
सड़क पर चलते हुए सारी दिशाओं को दो आंखों से साधने वाली की
वह कौन सी दिशा छूट गई थी ताकने से
कि एक बौछार चेहरे पर उजाड़ बो गई
तुम गह्वर के गह्वर से निकली विकल चीख से लिखोगे
या झुलस गई घास सी बरौनियों से
कभी अपना चेहरा देखा है शीशे में?
अब यहां
कोठा खाली कराया जा रहा है
घुंघरूओं की छम छम न तबले की तक धिना धिन
सारंगी की तान न हारमोनियम के स्वर
और ना बाकी अदाएं
अब कुछ ना होगा यहां
कोठा खाली कराया जा रहा है
अतीत के समुद्र में समा रहा है एक टापू
साजिंदे उतर रहे हैं साजों के साथ
अदब और अदाएं लिए गणिकाएं
रसिक सब उल्टे पांव लौट रहे हैं
कोठा खाली कराया जा रहा है
भारी मन उतर रहे पांवों के बरक्स
सीढ़ी फलांगते चढ़ रहे हैं कुछ नए पांव
तिलचट्टो से आदि नागरिक दलाल
तदर्थ दरारों में छुप गए हैं
उनके कान कोठी की जानिब लगे हैं
जहां से अनुगूंजें आ रही हैं दबंग
लो, कोठा एकदम खाली हो गया है
अब यहां राज होगा एक दल का
नीति की नथ उतराई होगी
एक दिन का छोड़ा हुआ
जिस टिफिन बॉक्स को स्कूल जाते समय
झुंझला कर पटक आई थी मां के मुंह पर कभी
उसमें के छूट गए पराठों को
मैं अब रोज अपने बच्चों के टिफिन में रख देती हूं
एक दिन का छोड़ा हुआ कितना लंबा चलता है
तब दिन भर अनमनी रही थी मां घर पर
मैं स्कूल में सारा दिन जीतती सी रही
कल अचानक बेटे ने मेरा ही बचपन दोहरा दिया
मैं दिन भर घर में रही आंतें सहलाती बेचैन
बहुत उम्रदराज है मां अब
मैं फोन पर देर तक अपना कलपना बताती रही उसे
फिस्स से हंस दी मां...
ये लड़कियां
(टीवी पर एक साक्षात्कार को देखते हुए)
एक प्रश्न तुम क्या बनना चाहती हो के कई उत्तर थे
एक ने कहा मैं बछेंद्री पाल बनना चाहती हूं
अभिधा में पूछे गए प्रश्न का यह अभिधात्मक उत्तर था
अब कोई जीवन को पहाड़ समझ ले तो समझ ले
दूसरी राजनीति में जाने की प्रबल इच्छुक थी
मारग्रेट थैचर की ठसक लिए उसने कहा
मेरा आदर्श जैसिंदा ऑर्डर्न है
तीसरी के बारे में चौथी ने आगे बढ़ कर बताया
इसे हम लता कह कर पुकारते हैं यह गायिका बनेगी
एक लड़की नाक में बाली डाले घूम रही थी स्फूर्त
वह स्कूल की सानिया मिर्जा थी
यहां कोई मैडम क्यूरी है कोई कल्पना चावला कोई मेरीकॉम
देखता हूं प्रतिभाओं का खजाना है यह स्कूल
इन प्रतिभाओं को पंख मिलने ही चाहिए
मैं इस बारे मैं गंभीरता से सोच ही रहा था
कि मेरा सपना टूट गया
सारी प्रतिभाएं एक साथ गायब हो गईं
मैं अनमनेपन में ढूंढता रहा कुछ देर उनके चेहरे अगल बगल
पर कहां से मिलतीं वे
दरअसल वे भ्रूणों के रूप में पड़ी हुई थीं नदियों की तलहटी में
कल टीवी पर थोड़ी देर के लिए एक आदमी की वार्ता में आ गई थीं
नदी नालों झाड़ियों के हवाले कर दी गईं इन लड़कियों की युक्ति तो देखो
जीवन से बेदखल कर दी गईं टुकड़े टुकड़े तो
सपनों में आदमकद दाखिल हो गईं
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9455623173




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