सात्विक श्रीवास्तव की कविताएँ

 

सात्विक श्रीवास्तव



दुनिया के हर पिता की यह हसरत होती है कि उसकी सन्तान बेहतर जीवन जिए। वह इसके लिए हर सम्भव प्रयास भी करता है। लेकिन उसकी चाहतों के आड़े आता है अभाव। ऐसे में पिता का दुखी होना स्वाभाविक है। सात्विक श्रीवास्तव पिता को इस तकलीफ को अपनी कविता में रेखांकित करते हैं। कोई दो राय नहीं कि सात्विक के पास एक सजग कवि दृष्टि है। लेकिन भाषा के स्तर पर उन्हें अभी और काम करने की आवश्यकता है।  

'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह नवीं कड़ी है जिसके अन्तर्गत सात्विक श्रीवास्तव की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। इस शृंखला में अब तक हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू, आशुतोष प्रसिद्ध, और हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं पढ़ चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं सात्विक श्रीवास्तव की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवि सात्विक श्रीवास्तव की कविताएं।

 


छोटी काव्य संरचना के कवि सात्विक श्रीवास्तव


नासिर अहमद सिकन्दर 


“किसी को बुढ़ापे में उसकी

जवानी की याद दिलाती तस्वीर


किसी को फिर जवानी से

बचपन की ओर ले जाती तस्वीर


किसी को पुराने घर, पेड़ और

गली मैदान की याद दिलाती तस्वीर”

                (तस्वीर)


कवि सात्विक श्रीवास्तव अभी मात्र 23 वर्ष के हैं उनका जन्म 28 अक्टूबर 2001 को हुआ है। इस छोटी सी उम्र में कविता की काव्य संवेदना उनकी बड़ी है। वे एक साथ, सीधे अपने घर-परिवार, माता-पिता, जीवनयापन, बेरोजगारी, देश-समाज से जुड़ते हैं। वे उन अनुभवों से भी जुड़ते हैं जो उनके बहुत देखे हुए होते हैं हालांकि वे समकालीन काव्य परिदृश्य में अभी उभर कर नहीं आए हैं। 


यहाँ उम्र कोई अर्थ नहीं रखती, इतनी उम्र में तो ‘उर्वर प्रदेश’ और ‘तिब्बत’ जैसी कविताओं के कवियों को ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ मिल चुका था। दरअसल वह समय कुछ और था, अब का समय कुछ और है। पहले के कवि, आने वाले कवियों की कविता देखते परखते थे, अब शायद परिदृश्य ऐसा दिखलाई नहीं पड़ता।


सात्विक हिंदी कविता में छोटी काव्य संरचना के कवि हैं। उनकी कविताएँ ‘वो लड़कियाँ, ‘स्कूल चलें हम’, ‘बचपन’, ‘अंग्रेजी’, जो आकार में कुछ लंबी दिखाई तो देती हैं, दरअसल वह कथ्य-शिल्प में छोटी ही कविताएँ हैं। इन कविताओं में उन्हें संरचना की कसावट, भाषा की वृहद सर्जना, वाक्य विन्यास की संश्लिष्टता तथा कविता के भीतर कथ्य की ऊंचाई का कलात्मक स्वरूप अवश्य ही देखना होगा बल्कि अपनी काव्य प्रक्रिया के भीतर शामिल करना होगा। हालांकि उनकी ‘बस का सफर’, ‘कोई और है’, ‘तुझसे बेहतर कौन है’, जैसी छोटी कविताओं पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि वे यहाँ सफल दिखलाई पड़ते हैं। ‘बस में सफर’ को ही लें तो यह एक प्रतीकात्मक बिम्बों में रची गई कविता है, जहां दैनंदिन मध्यवर्गीय परिवार जीवंत हो उठता है।

 

“गौर से देखें तो 

किसी सीट पर दिख जाता है

एक हँसता खेलता परिवार

जिसमें हर कोई उस परिवार का

आनंद उठा रहा होता है

परिवार के साथ का


फिर अगर नजरें घुमाऊँ

दिख जाते हैं एक दो

नव विवाहित जोड़े

जो जिंदगी के सफर में

एक छोटे से सफर को

जी रहे होते हैं

अपने नए साथी के साथ



कहीं-कहीं दिख जाते हैं

जिंदगी के दो पड़ाव

बचपन और बुढ़ापा

एक साथ”

                (बस का सफर)


‘स्कूल चलें हम’ कविता को भी जांचें परखें तो वह भी इसी कला रूप में दिखलाई पड़ती है, जहाँ स्कूली बच्चों के अपने माता-पिता संग स्कूल खुलने के दृश्य को बड़ी मार्मिकता से उकेरा गया है। इस कविता में बच्चों की मासूम जिद्द, खुशियाँ और उनकी इच्छाएं भी शामिल है। यहाँ पिता की आर्थिक स्थिति का जिक्र उभरता है जो कविता को मध्यवर्गीय परिवार से ही जोड़ती है-


“स्टेशनरी की दुकानों में

फिर से इकट्ठे होंगे

कॉपी-पेन-बस्ता के लिए

रोज-रोज चक्कर लगेंगे


नन्हे शैतान लगातार

नई फरमाईश करेंगे

फिजूल खर्च समझाने का

माँ-पापा पूरा प्रयास करेंगे


स्कूल, राशन सबके खर्च जुड़ेंगे

रोज के मौज मस्ती फिर रुकेंगे

घर-परिवार बच्चों के लिए

अभिभावक फिर अपने शौक मारेंगे”

                                    (स्कूल चलें हम)


सात्विक की कविता की रचना प्रक्रिया के भीतर बिंब, प्रतीक, ब्यौरों तथा कला के नए शिल्प अभी और उभरेंगे, उनकी काव्य दृष्टि भी और विस्तार पायेगी, ऐसा भरोसा किया जा सकता है। वे अपनी कविता की नीव पक्की कर चुके हैं।






सम्पर्क 

नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छ.ग.

490006

मो.नं. 98274-89585




सात्विक श्रीवास्तव की कविताएँ



1. वो लडकियाँ


आते जाते

सुबह शाम, कभी-कभी

दोपहर में

दिख जाती हैं

दो चार लडकियाँ

स्कूल या अन्य किसी संस्था के

परिधान में,

या आम वेषभूषा में

बैग या पर्स लटकाए हुए

इन्हें देख कर

होती है एक अलग

आनंद की अनुभूति

इनके सामने गुजरने से

उठते हैं मन में कई सवाल, कि

क्या ये वास्तव में हैं इतनी ही खुश

जितनी खुश दिखाना चाह रही हैं

इस दुनिया को

पूछने लगता हूँ खुद से ही कई प्रश्न 

इन्हें देख कर,

क्या ये सभी स्वतंत्र मन से

बढ़ रही हैं अपना भविष्य बनाने

या इन्हें भी लेना पड़ा होगा,

परिवार से लोहा,

परिवार की रूढ़िवादी बंदिशों को तोड़ने के लिए 

इन्हें भी उठानी पड़ी होगी

कई तकलीफें

अपने आपको साबित करने के लिए!



2. स्कूल चलें हम


स्कूल खुलने से अब

बच्चों के चेहरे फिर खिलेंगे

सुनहरे अंदाज में भविष्य अपना 

फिर लिखेंगे


फिर से सड़कों पर

स्कूल बस दौड़ेगी

जिसे पकड़ने बच्चे

उसके पीछे दौड़ेंगे


माँ को मिली राहत थोड़ी

अब खत्म होगी,

रोज नई फरमाईश के आगे

किचन में दौड़ रोज लगेगी


समय पर तैयार होने की,

छूटी आदत फिर समय लेगी,

बस स्टॉप तक छोड़ने

पापा की नींद फिर टूटेगी


स्कूल न जाने के रोज

नए-नए बहाने बनेंगे

आज चले जाओ, कल न जाना

माँ-पापा के झूठे वादे फिर सुनेंगे


दादी-नानी के घर से

बच्चे बेमन से लौटेंगे

स्कूल खुलने की खीझ

मम्मी-पापा फिर झेलेंगे


स्टेशनरी की दुकानों में

फिर से इकट्ठे होंगे

कॉपी-पेन-बस्ता के लिए

रोज-रोज चक्कर लगेंगे


नन्हे शैतान लगातार

नई फरमाईश करेंगे

फिजूल खर्च समझाने का

माँ-पापा पूरा प्रयास करेंगे


स्कूल, राशन सबके खर्च जुड़ेंगे

रोज के मौज मस्ती फिर रुकेंगे

घर-परिवार बच्चों के लिए

अभिभावक फिर अपने शौक मारेंगे।



3. बाप को रोते देखा है


मन ही मन में पछताते

घुट-घुट कर मरते देखा है

ख्वाहिशें पूरी न होने पर

बच्चों से ज्यादा बाप को रोते देखा है


घर की जरुरतों के लिए

अपने ख्वाहिशों को दबाते देखा है

ख्वाहिशें पूरी न होने पर

बच्चों से ज्यादा बाप को रोते देखा है


दो पैसे बचाने के लिए

मीलों चलते देखा है

ख्वाहिशें पूरी न होने पर

बच्चों से ज्यादा बाप को रोते देखा है


नए जूते ले लो कहने पर भी

अभी हुआ ही क्या

ये ही कहते देखा है

ख्वाहिशें पूरी न होने पर

बच्चों से ज्यादा बाप को रोते देखा है


बच्चे सोए चैन से उसके

इसलिए खुद गर्मी में सोते देखा है

ख्वाहिशें पूरी न होने पर

बच्चों से ज्यादा बाप को रोते देखा है







4. बचपन


कितना सुंदर होता है

अपना छोटा सा बचपन,

कितना निश्छल

कितना सरल वह जीवन


याद आता हर पल है

अपना वो बचपन,

उम्र चाहे पंद्रह हो

या हो पचपन


माँ की लोरी, दादी की कहानी, 

पापा का भी प्यार था

उस बचपन का कितना सुंदर,

अपना उन्मुक्त संसार था


बचपन कितना बेगाना था

भेदभाव से अनजाना था


भेदभाव छल-कपट से

हम कोसो दूर रहते थे,

बचपन की मस्ती में

हम झूमते रहते थे


सबके घर थे आते-जाते

कभी हम तो कभी वो आते


खेलना-कूदना खाना-पीना

सब कुछ होता साथ था,

घर हो या गली मुहल्ला

सभी जगह अपना राज था


बचपन तेरा, बचपन मेरा

कितना सुंदर बचपन,

लौट कर फिर न आएगा

आनंद में डूबा वह बचपन


बचपन की यादें जब आती हैं

हम सबका मन भारी

और पलकें भीग जाती हैं



5. तस्वीर


किसी को पुराने दिनों की

हसीन याद दिलाती तस्वीर


किसी के अतीत के जख्मों को

फिर से कुरेदती तस्वीर


किसी को बुढ़ापे में उसकी

जवानी की याद दिलाती तस्वीर


किसी को फिर जवानी से

बचपन की ओर ले जाती तस्वीर


किसी को पुराने घर, पेड़ और

गली मैदान की याद दिलाती तस्वीर


सालों बाद किसी की सोई

प्रेम कहानी को जगाती तस्वीर


किसी को आगे आए जिंदगी में

फिर पीछे ले जाती तस्वीर


अपनों से अपनापन और पराए

से पराया का भेद कराती तस्वीर


शादी के बाद जीवन साथी के

बचपन और अतीत में ले जाती तस्वीर


किसी अपने की मौत के बाद

फिर उसकी याद दिलाती तस्वीर


किसी को सुख पहुँचाती

किसी को दुखी कर जाती तस्वीर!



6. कोई और है


फोन पर तो तू ही थी,

झूठ बोला कोई और है


मन में दिल में तू ही है,

पर तुझे लगता है कोई और है


कोई है ही नहीं किससे बात करुँ

जरा सा व्यस्त हूँ, तो कहती है कोई और है


जरा सा रूठ कर तुझसे

अगर मैं ना बोलूं तो कहती है कोई और है


जब से तू मिली है, कोई भाता नहीं

पर तुझे लगता है कोई और है


तस्वीर अब सिर्फ तेरी पसन्द आती है

बात सिर्फ तेरी सुहाती है

पर तुझे लगता है कोई और है


कोई साथ रहे ना रहे, फर्क नहीं पड़ता

चाहूँ बस तेरा साथ 

पर तुझे लगता है कोई और है






7. तुझसे बेहतर कौन है


बात करने में मुझसे

तुझसे बेहतर कौन है

मुझे चिढ़ाने में, सताने में

तुझसे बेहतर कौन है


चाहते हैं हम बेपनाह एक दूसरे को

पर ज्यादा कौन चाहता

ये जानता तुझसे बेहतर कौन है


ये जिंदगी है सफर आने-जाने का

आये बहुत, कुछ ने कहा

कुछ अभी भी मौन है

पर मेरे लिए तुझसे बेहतर कौन है


कहते रहते हैं दोनों एक दूसरे से

नहीं हैं एक दूसरे के लायक

पर जानते दोनों बेहतर हैं

कि दोनों के लिए

दोनों से बेहतर कौन है



8. बस का सफर


बस के सफर में भी

जिंदगी के अनेक पहलू

दिख जाते हैं एक साथ


गौर से देखें तो

किसी सीट पर दिख जाता है

एक हँसता खेलता परिवार

जिसमें हर कोई उस परिवार का

आनंद उठा रहा होता है

परिवार के साथ का


फिर अगर नजरें घुमाऊँ

दिख जाते हैं एक दो

नव विवाहित जोड़े

जो जिंदगी के सफर में

एक छोटे से सफर को

जी रहे होते हैं

अपने नए साथी के साथ


कहीं-कहीं दिख जाते हैं

जिंदगी के दो पड़ाव

बचपन और बुढ़ापा

एक साथ


दिख जाते हैं

देश के भविष्य

दो-चार बेरोजगार युवा

जो नौकरी की तलाश में

भटक रहे होते हैं

और कुछ मेहनत से पायी नौकरी के लिए

सुबह-शाम आना-जाना करते हैं


इन सबसे अलग

कुछ बस व्यस्त रहते हैं

बस के सफर में

उन्हें अच्छा लगता है

रास्ते में पड़ रहे

खेतों का लहलहाना, 

रास्ते में शहरों के बीच के

छोटे-छोटे गाँव


उन गाँवों में लगने वाले

छोटे-छोटे बाजार,

बस में चल रहे पुराने गाने

की मीठी शृंखला 


पर इन सबके चलते

इन सबसे अलग

कुछ खोए रहते हैं

अपने आप में

उन्हें मतलब नहीं होता

बस में बढ़ रही भीड़ से

उन्हें फर्क नहीं पड़ता

उसमें बज रहे गानों से

वो सिर्फ शांत बैठे रहते हैं

सफर के खत्म होने के इंतजार में!



9. अंग्रेजी


बदलते समय के साथ

बदलने लगे हैं

योग्यता के मापदंड

अब हमारी शिक्षा

निर्धारित नहीं करती

हमारी योग्यता

हमारी योग्यता निर्धारित होती है

हमारी शिक्षा के माध्यम से

हिंदी या अंग्रेजी

साथ ही दर्शाती  है

हमारी सोच को


घर के साथ-साथ

अन्य संस्थाएं

लटकाने लगे हैं

अपने नाम की तख्ती

अंग्रेजी में


माता-पिता भी

रखने लगे हैं जीवन का एक उद्देश्य

अपने बच्चों को

अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना


अब बड़े बुजूर्गों द्वारा

हिंदी में सीख देना

लगने लगे हैं पुराना और दकियानूसी विचार


अफसर, आला अधिकारी भी मानते हैं

अंगे्रजी को सर्वोपरि


मैं भी रंगने लगा हूँ

धीरे-धीरे खुद को इस रंग में

हिंदी से है मुझे अथाह प्रेम

अपने प्रियजनों को

संदेश भेजते हुए

हिंदी में ही लिखता हूँ-

गुड मॉर्निंग!



10. बेरोजगार


पढ़ाई पूरी होने के बाद

मैं जैसे बेकार हो गया,

दो-चार जगह हाथ-पैर मार कर,

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


घमंड था कि

छोटी नौकरी नहीं करूँगा

अफसर बनूँगा, शान से जिऊंगा

कुछ ही दिनों में सब कुछ

आईने की तरह साफ हो गया,

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


किताबी ज्ञान किताबों में ही रह गया

लोकतंत्र के दलालों के सामने

मैं जैसे बेबस हो गया

सारी योग्यता हो कर भी 

मैं जैसे अनपढ़, अयोग्य हो गया

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


अपने ही घर खाने में शर्माने लगा हूँ

दोबारा मांगने में हिचकिचाने लगा हूं

छोटी-मोटी जरूरत के लिए अब तक

माँ बाप से पैसे मांगने में

मैं शर्मशार हो गया,

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


मेरे रहते अब तक माँ बाप कमा रहे

बिना कुछ बोले मुझे अब तक खिला रहे

मेरी हर फरमाइश को पूरा करने

उनका पूरा जीवन निकल गया

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


घर की स्थिति

माँ के आंसू और पिता की

तकलीफ देख कर भी मैं

जान कर अनजान हो गया

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया


लोकतंत्र और देश को

खोखला करने का

जैसे कुछ लोगों का सपना

साकार हो गया

परिवार, समाज और

खुद की नजरों में

मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हो गया



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सात्विक श्रीवास्तव का जन्म 28 अक्टूबर 2001 को हुआ। इन्होंने बी. एससी. गणित (स्नातक) के साथ पीजीडीसीए का पाठ्यक्रम किया हुआ है।



संपर्क 


स्वामी करपात्री पार्क के पास, 

शीतला वार्ड, कवर्धा 

(छ0ग0), 491995


मोबाइल : 94255-78455

     90986-07700

टिप्पणियाँ

  1. हिन्दी साहित्यकाश के उभरते नौजवान कवि सात्विक की कवितायें निश्चित ही हिन्दी भाषा साहित्य के उज्जवल भविष्य की गाथा कह रही है। यूं उन्हें अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है, पर उनकी दृष्टि, दर्शन, अनुभव भारतीय समाज के सामान्य वर्ग का पूर्ण प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती है। उनके उज्जवल भविष्य की शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद सर। निश्चित रूप से आपके उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूँगा।

      हटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. कविताओं को पढ़कर इतनी अच्छी समीक्षा के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर🙏🏻😇

    जवाब देंहटाएं
  4. सात्विक श्रीवास्तव की कविताएं हमारे आसपास के अनुभव संसार की कविताएं हैं। कविता के कहन में बड़ी सादगी है सच्चाई है सरलता है। अब वह दिन नहीं कि कविता की दुरुहता को कविता की विशिष्टता मानी जाए।कविता की सादगी और सरलता ही कविता की बड़ी विशिष्टता है। सात्विक की कविताएं बेरोजगार,बस का सफ़र, बाप को रोते देखा है, स्कूल चले हम, बचपन आदि अनुभव पगी कविताएं हैं। भाषिक कसावट के लिए अध्ययन और अभ्यास की दरकार है। नासिर जी का उत्साह वर्धन युवा कवि के लिए टॉनिक का काम करेगा। बस लिखते रहो सात्विक बधाई.. शुभकामनाएं...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. महत्वपूर्ण समीक्षा के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर
      ऐसे ही मार्गदर्शन करते रहें 🙏🏻😇

      हटाएं
  5. Bahut accha satvik ji aapke kavitaon me vo baat hai jo aapko ek प्रतिष्ठित kavi bana sakti hai. Aasha karta hu aapki rachnaon me aage bhi esi prakar se kuch naya dekhne ke liye milega. Aap kavitaon ke madhyam se es jagat naye shire se prakash daale yahi umid hai.

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत-बहुूत धन्यवाद् भाई। निश्चित रूप से उम्मीद पर खरा उतरने का प्रयास करूँगा

    जवाब देंहटाएं
  7. waah satvik aapki kavita dil ko chu jaa rhi hai bas aap aise hi aage badhte rhiye

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं