अवनीश यादव की कविता 'गांधी को देखते हुए'

 



गांधी जी केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि सही मायनों में एक महात्मा भी थे। गुरुदेव ने उन्हें यह उपाधि यूं ही नहीं दी थी। वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद गांधी और टैगोर एक दूसरे का सम्मान किया करते थे। भारतीय भाषाओं के साहित्य में जिस राजनीतिज्ञ का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है वह महात्मा गांधी ही हैं। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के कुछ ही वर्ष बीते थे कि गांधी साहित्यकारों के रचनाओं के विषय बनने लगे। हिन्दी भाषा के साहित्यकार एक लम्बे समय तक गांधी जी के जीवन और विचारों से प्रभावित रहे। गांधी फिल्मकारों के लिए विषय तो हैं ही, आज के भी कवियों, कहानीकारों और उपन्यासकारों के लिए आदर्श नायक हैं। बढ़ते कट्टरतावाद के इस त्रासद समय में यह हमारे लिए एक बड़ी आश्वस्ति है। युवा कवि अवनीश यादव ने गांधी जी पर एक कविता लिखी है। अवनीश ने अपनी कविताओं के माध्यम से ध्यान आकृष्ट किया है। गांधी जयंती पर प्रस्तुति के क्रम में आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं अवनीश यादव की कविता 'गांधी को देखते हुए'।



'गांधी को देखते हुए'


अवनीश यादव 


 
 भर नज़र से देखिए
 आपादमस्तक गांधी को
 झुका सिर
 विनम्रता और 
 चश्मा,
 दृष्टि का परिचायक 


 'स्वाधीन' भारत में
 भारतीय नोटों पर थे गांधी
 'आत्मनिर्भर' भारत में
 केवल रह गया उनका चश्मा शेष!
 गांधी से असहमति रखने वाले देख कर खुश हुए- 


 कि 
 नहीं रहे अब गांधी हमारी नोटों पर 
 पर यह विश्वास दिलाता हूं 
 गांधी हैं,
 पहले से अधिक विरल रूप में
 अपनी सघन उपस्थिति के साथ
 समाज को देखने की संतुलित दृष्टि देते हुए-
 वाया चश्मा!


 गांधी के यहां कुछ भी अतिरिक्त नहीं
 न चर्बी न कपड़ा
 जेंटलमैन गांधी ने
 अस्वीकार किया था तन का पट
 चंपारण में एक स्त्री की वस्त्र विवशता को देख कर
 बात शरीर की चर्बी की हो
 या कपड़े की
 अतिरिक्त का त्याग ही
 'पूंजीवाद' का प्रतिकार है
 जिसे वे उस दिन से अंतिम दिन तक 
 निभाते रहे अनवरत 


 कभी कहा था निर्मल वर्मा ने
 'भौतिक रूप से सबसे कम किंतु
 वैचारिक रूप से सबसे अधिक जगह घेरा गांधी ने' 
 देता हूं सहमति इस वाक्य पर
 अक्षर -अक्षर बोल्ड कर


 बटुए की भांति कमर में
 धोती के आलंब से
 लटकती घड़ी
 दोलन ही नहीं करती, 
 बल्कि बताती है
 अपने समय में होना
 समकालीन होना है
 और समकालीन होना 
 गतिशील होना है
 केवल समय के पहरों को
 नहीं लांघती यह घड़ी 
 लांघती है, हर ठहराव
 हर जड़ता को।


 गांधी के पांव
 जो न नापे सिर्फ़ भौगोलिक दूरियों को
 बल्कि चलते रहे अनवरत
 हर जोर-जुल्म और 
 भेद के खिलाफ़
 यह मनुष्यता को संजोने के लिए
 एक इंसान का चलता कदम है


 लाठी को रूढ़ कर दिया गया
 सहारे का अर्थ देते मुहांवरे में
 कानून में यही कैसे दर्ज़ करा देती है
 दफ़ा 107 या
 इससे भी संगीन अन्य-- -- 
 पर गांधी के हाथों में यह लाठी
 बुद्ध के अहिंसा सिद्धांत पर झुकती
 सहारे से अधिक आत्मबल का
 राह दिखाते राही का संबल बनती।


 गांधी का चरखा देखिए
 जो बनाता है हमें हुनरमंद, आत्मनिर्भर
 ठीक-ठीक कहूं तो
 चरखा स्वालंबन की भाषा है 
 इसके सूत वस्त्रों को ही नहीं बुनते 
 बुनते हैं इंसानियत को
 रफू करते हैं हर ज़ख्म को 
 "वैष्णव जन तो तेने कहिये,
  जे पीर परायी जाणे रे"


 कहना चाहता हूं बल दे कर 
 आपदमस्तक पढ़ लीजिए गांधी को
 इनसे निकले संदेश 
 संचरित हैं उन पृष्ठों पर
 जो बनाते हैं हमें अधिक मनुष्य
 अधिक दृढ़
 अधिक संयमी 
 अधिक स्वावलंबी 


 गांधी मिल जायेंगे
 मूर्ति से अधिक, विचारों में
 चरित्र की दृढ़ता में
 आचरण की पवित्रता में
 कर्म की लगनशीलता में
 विचारों की शुद्धता में 
 वाणी की सत्यता में।









सम्पर्क 

मोबाइल : 9598677625



टिप्पणियाँ

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  2. गहरे अर्थ लिए विचारवान कविता

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  3. सर आपने आदर्श और वर्तमान नजरिए के साथ गांधी जी के व्यक्तित्व को अपनी इस कविता में साधा है। गांधी जी की प्रासंगिकता और उनके आत्मनिर्भर भारत को भी आपने बखूबी से कविता में चित्रित किया है। "अतिरिक्त का त्याग ही
    'पूंजीवाद' का प्रतिकार है" इस रूप में आपने एक नई दृष्टि से पूंजीवाद को परिभाषित किया है। यह भी प्रशंसनीय है।

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  4. बहुत अच्छी व बहुत मानीखेज रचना
    बहुत बहुत बधाई अवनीश जी
    संतोष सर को सलाम करता हूँ

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