संध्या नवोदिता के कविता संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा

 




सन्ध्या नवोदिता उन कुछ गिने चुने कवि-कवयित्रियों में से हैं जो मूलतः एक्टिविस्ट हैं। आज जिस तरह कविता लिखने की परिपाटी है उससे अलग लीक पर चलते हुए वे अपनी कविताएं लिखती रही हैं। लेकिन यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि एक्टिविस्ट होने के बावजूद उनकी कविताएं गहन संवेदना से भरी हुई हैं। उनके लेखन में समानता का प्रबल आग्रह है। आज जब हर जगह धर्म कर्म का प्राबल्य है, जाति बिरादरी सब पर भारी पड़ती है, ऐसे में सन्ध्या उस मानवीय गरिमा को स्थापित किए जाने की बात करती हैं, जो रोज बरोज छिजती जा रही है। एक गम्भीर चिन्तन की परिणति है 'सुनो जोगी और अन्य कविताएँ' नामक उनका कविता संग्रह जिसमें भरपूर जीवन है, विचार है, बेबाकी है, चिन्तन है और साथ में दर्शन भी है। सन्ध्या के इस संग्रह पर एक सुचिंतित समीक्षा लिखी है कवि यतीश कुमार ने। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संध्या नवोदिता के कविता संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा 'आपबीती के बहाने जगबीती के राग'।



आपबीती के बहाने जगबीती के राग

(सुनो जोगी और अन्य कविताएँ : संध्या नवोदिता)



यतीश कुमार


'एक दिन हमने खेल किया था' इसे पढ़ते हुए यही लगा कि बस एक पंक्ति आपके मन में कई तरह के कौतूहल पैदा करने के लिए काफ़ी होती है। उस पर आप आग और पानी के बीच खेल की बात करेंगे तो रात का मसला दिन में शुरू हो जाएगा। हरेपन में नहीं, कविता में होता है सबसे मुखर आदमी, बिना जाने कि आदमी नहीं कविता सबसे मुखर होती है। कुछ कविताएँ छू कर गुजरती हैं और आप अहिल्या की मूर्ति बन जाते हैं। काष्ठ सूरत कुछ बोलने की स्थिति में नहीं कि अभी सिर्फ़ कविता को बोलने दो, ऐसा मुझे - `मैं हरेपन में बोलती हूँ’ कविता को पढ़ते हुए महसूस हुआ। 


मेरी जिह्वा अभी पाठ करते हुए लहू की वैतरणी पर अटक गई है और मैं देख रहा हूँ पत्थर को रेत में बदलते वाले शब्दों का प्रहार। 


'सबसे सुंदर समय' कविता पढ़ते हुए मुझे प्रिय कलाकार, अदाकार आदरणीय राजेंद्र गुप्ता जी की बात याद आ गई, वो कहते हैं - बस इस पल में रहना है, इसे ही जीना है। जो बीत गया, अच्छा या बुरा, उसे याद करने के चक्कर में आज अभी का यह पल बीत जाएगा। सबसे सुंदर समय वही है, जब वर्तमान में ख़ुद के साथ हैं। 


काली नदी के सबसे गहरे हिस्से में खड़ा हो कर वर्तमान से भूत को अलग होते देखना, देखना अपनों को मिट्टी में बदलते, हवा बनते, विलीन होते और ऐसा देखते हुए कविता लिखना और लिखते हुए कभी ख़ुद को चौराहे पर खड़ा महसूस करना। यह पूरा प्रोसेस कविता में उतरना या आप में कविता का उतरना समझते हुए इन कविताओं को देखता हूँ और फिर देखता हूँ कविता में चौराहा, कमरे के भीतर दाखिल हो गया है। 


"गणेश कथा" कविता में एक मार्मिक कहानी है, जिसमें दुखों का पहाड़ रचा गया है। कविता में भी एक बालकनी व्यू की बात आती है, हालाँकि ये प्रबंधन का शब्द है, पर एक कवि को भी पूरा दृश्य दिखना ज़रूरी है ताकि पूरी समझ के साथ कविता में उतरा जा सके। 'भारत एक आँसू' कविता में भी कुछ ऐसी ही बात दिखती है, जिसमें लिखा है -


आँख भर देखती हूँ अपना देश

और भारत एक आँसू में बदल जाता है

प्यास भर पानी के लिए हाथ बढ़ाती हूँ

समंदर ऊपर ही चढ़ा आता है। 


आगे अंतिम पंक्ति इस तरह मिलेगी कि -


सपने देखने के लिए लाइट ऑफ़ करती हूँ

और आख़िरी जुगनू भी उड़ जाता है। 


कविताओं में यथार्थ का चित्रण अनुभव की डोर से बंधा है, तभी मार्मिकता इतनी सहजता से प्रवेश लेती है संध्या की कविताओं में। एक और बात दिखती है यहाँ, जिसमें समस्या के मार्मिकता में लिपट कर आने के साथ-साथ, उसके सकारात्मक समाधान की बात भी रखी गई है।


'अब हम मौन रहेंगे' शीर्षक कविता में कुछ कर गुजरने का आह्वान है, जिसमें लिखा है -


पागलपन को देंगे थोड़ी-सी नींद

टूटी चीजों को एक पल नहीं रखेंगे पास

अब तय किया है

आग को पानी से बुझायेंगे। 


हम कभी जीने के अपने तरीक़े की बात नहीं करते, बात करते हैं तो जीवन में आयी पथरीली राह की। यहाँ कवि बात कर रही हैं, वसंत का जीवन में होने के माने की। वे लिख रही हैं - 


वसंत आदमी का अपने होने से प्यार है

वसंत हमारी अनकही अभिलाषा है

हर ग़म की लड़ाई का जवाब हो वसंत

मेरे-तुम्हारे मिलने का त्योहार हो वसंत। 


एक बार फिर सकारात्मक संदेश लिए, समाधान का संकेत ले रहे कर आयी हैं संध्या। कविताओं में यही सकारात्मकता जीवन राग के गीत की तरह मिलती हैं, जो इन कविताओं का प्राणबिंदु भी है। कविता संग्रह की आत्मा इसी में बसती है इन्हीं बिंदुओं के बूँदाबाँदी से हरित होती है। कवि की चिंताओं का बिंदु देखिए:


एक पेड़ कटता है 

सौ बरस का इतिहास कटता है 

पानी कटता है 

शर्म कटती है 

विवेक कटता है

प्यार कटता है 

और हम भस्मासुर पर हँसते हैं!


प्रकृति रक्षण के मद्देनज़र रचित यह कविता, पेड़ों के दर्द का दस्तावेज़ है। 'शर्म कटती' है पढ़ते हुए, आरी के चलने की आवाज़ भीतर चलती है। कुछ तो बदलेगा, वाली सोच रखने वाली संध्या सच को सच की तरह लिखती चली जाती हैं। 


मुँदी पलकों से बिना छुए ही गहन स्पर्श के माध्यम से जीवन नृत्य को निष्पक्षता से देखना और फिर सारा नेह समेट किसी नन्हे की हथेली पर एक चॉकलेट की तरह रख देना और फिर दुलारते हुए कहना कि थोड़ा पानी, थोड़ी हँसी और थोड़ी मुस्कान बचा के रखना हमेशा मेरे प्यारे। अधूरे सपनों को जीने की वजह बनाना, भरोसे की आवाज़ लिए किसी और के सपनों का पुल बनना। यह सब सकारात्मकता के पुल हैं जिनके नीचे भावनाओं की नदी को अनुभव के आवेग से बहती है उसे कितने सुंदर शब्दों के साथ रचा जा रहा है।


कविताएँ जीवन की सीख की तरह आती हैं, जैसे - अम्मा की लोरी और नानी की कहानियों में छिपे संदेश होते थे। विषम को सम कर देने वाला बल मिलता था। संध्या, कविताओं में वही लोरी, वही कहानी पान में नीम की पत्तियाँ छिपा के खिलाती हैं। 


खूबसूरत घरों के जिस्म पर इतनी खरोंचे हैं कि पैबंद से छिपाए न छिप रही हैं। कविता 'खूबसूरत घरों में' की यह पंक्ति काफ़ी है पूरा मज़मून समझने के लिए।


सब कुछ चमकता है 

खूबसूरत घरों में 

औरतों की आँख के अलाव से! 


अब इस पंक्ति के बाद क्या ही लिखा जा सकता है, इस कविता के बारे में! 


संध्या, 'चाँद' को प्रतीक बना कर कई अलग-अलग बिम्ब उकेरती हैं, जिससे हर बार आप चकित हो जाएँगे। 


चाँद उग आया है यहाँ

उल्टा हो कर, जब मैंने कहा


तुम मुझको चाँद ला के दो

और मेरे चाँद पर मालिकाना तुम्हारा हुआ। 


'एक दिन हमने खेल किया था' कविता एक सिग्नेचर कविता है संध्या की। इस कविता को पढ़ने के साथ ही लगेगा, यह संध्या ही लिख सकती हैं सच! संध्या ही लिख सकती हैं - 


मैं बस एकटक देख रही थी 

भरी आँख से

तुमने कैसा खेल किया था 

खेल का साथी बदल लिया था। 


संध्या की कविता की रानियाँ कौआ हँकनी नहीं बनतीं, कोपभवन में नहीं जातीं, तिरियाचरित्तर नहीं रचतीं। न्याय के लिए लड़ती हैं। स्त्री के जिस व्यक्तित्व की आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, उसकी वकालत संध्या अपनी कविता के ज़रिए बार-बार करती हैं। 


सन्ध्या नवोदिता


सुनो जोगी की शृंखला से गुजरते हुए मुझे नवल जी की “ओ प्रियंवदा!” श्रृंखला की याद आ गई, जिसे उन्होंने केदार नाथ अग्रवाल जी की कविताओं में आये इस शब्द भाव के प्रयोग से प्रेरित हो कर लिखना शुरू किया था। बहुत बाद तक नवल जी ने अपनी कविताओं में प्रयोग के तौर पर प्रेम और दर्शन के रूप में दोनों को साधते हुए लिखा। यह शृंखला इस किताब का सबसे प्रभावी अंश है। यहाँ भी कवि प्रेम और दर्शन दोनों को अपने तरीक़े से उद्धृत कर रहा है, कभी बैरागी तो कभी रागी बन कर। इन कविताओं में करुण छटपटाहट का स्वर है। भगजोगनी जीवन की फड़फड़ाती लौ की रोशनी सा एहसास है। सृष्टि के हरेपन को अपने घाव के हरेपन से जोड़ते हुए संध्या, सदा के हरेपन को आँखों के अबाध बहाव से जोड़ते हुए स्मृतियों की घेराबंदी को तोड़ने की बात करती हैं। ये घेराबंदी पीड़ादायक है और कवि निवारण के लिए व्याकुल हैं और व्याकुलता में तब मुलायम पत्थर पाने की कल्पना करता है।


'सुनो जोगी' ख़ुद से एकल संवाद की तरह भी है। एकांत के निर्वात में किया गया संवाद कई बार दर्शन बोध के साथ मानो परकाया प्रवेश संवाद कर रहा हो तो कभी आपबीती के बहाने जगबीती के राग अलाप रहा हो। इसी शृंखला में चंदन वृक्ष और नाग के प्रतीक के माध्यम से शिव और सर्प के आज की स्थिति को रचता है कवि और कहता है -


रूप और गुण दोनों छलते हैं 

फिर भी वे होते हैं देव

मैं अवगुणी अपने ही विष में बुझी जाती हूँ। 


अछोर विस्तार की जो बात कवि अपनी कविता में कर रहा है, वो दरअसल भावनाओं के वेग के भीतर उठते भँवर के इर्द-गिर्द उफनते विचार का विस्तार है, जो कण में परमाणु की शक्ति से इतर ईश्वर के प्राक्रम का परिचय देते हुए उसी पल सूखी धरती की बिवाइयों का दर्द बयाँ करता है। कविता का ऐसा विस्तार विरल और सराहनीय है।


अगली ही कविता में अकोमल अनंत से उबरने की उस नुकीली प्रतीक्षा में मन, पृथ्वी से पत्थर को गले में लपेटे प्रेम के अमृत बूँद को चखने की चाह कर रहा है, जिसका चाहना उसे मृत्यु की दिशा में चुंबक की तरह बूँद-बूँद खींच रहा है और कवि लिख रहा है -


हृदय के सर्वशक्तिमान देवता 

और प्रेमिल निवासी राख हुए जाते हैं

सब कुछ शून्य हो रहा है।


कवि उस दर्द को दर्ज कर रहा है जो मरणोपरांत किसी के दिल में दाखिल होने,जगह पाने और घर बनाने से उपजता है। उस प्रेम की व्याख्या कर रही हैं, जो इस रास्ते में आये इंद्रधनुष को निगल कर तपते सूरज को चूम लेता है। ऐसी अहर्निश यात्रा और ऐसा घर न ही मिले तो अच्छा! 


तुम्हारा घर मेरी निगाहों की जद में नहीं

पर मेरा हृदय वहीं छूट गया है

टीसती है पीर बेतरह

और रुका हुआ रक्त बह निकलता है

रात के अंतिम पहर भी कुछ पंछी

चहचहाते हैं

और 

चोंच भर शांति  की खोज में नींद गँवायें जाते हैं

मैं धरती की तरह घूम रही हूँ इतना तेज

कि चक्कर आ रहा है

मितली फँसी है हर वक़्त गले में 


अलग-अलग कविताओं से उठाई गईं ये पंक्तियाँ, कविताओं की तबियत, उनका स्वाद, उनकी तासीर बयाँ कर रही हैं। इन कविताओं का रेंज एक ओर समय से तो दूसरी ओर स्व से बातें कर रहा होता प्रतीत होता है। कभी ईश्वर, कभी जोगी, कभी प्रेमी एक संग कई किरदारों के मानिंद कवि दृश्य बदल-बदल कर अपनी बातें करता है और इन बातों को पाठक उस फ़िल्म की तरह देख रहा है, जो दर्शन भरे जीवन संदेश लेकर आयी है, जिसमें पीड़ा और प्रेम एक साथ नत्थी हैं, बिंधे हैं फिर भी जीने का आह्वान कर रहे हैं।


आगे लिखा है -


आँख बंद करना सुख है जोगी

आँख खोलना सब से बड़ा दुख

वीरता अब सुरक्षित बच के निकलने में है। 


आज की स्थिति को इससे सुंदर तरीक़े से क्या ही समझाया जा सकता है। प्रेम में ऐसी नदी का ज़िक्र है, जिसे समंदर से नहीं मिलना है। वो ज्योति के मध्य में उस जगह पदस्थापित है जहाँ अँधेरा अब भी पसरा है और उसी अंधेरे को मिटाने के लिए, जोगी गीत गाया जा रहा  है। 


सुनो जोगी और अन्य कविताएँ (कविता संग्रह), संध्या नवोदिता, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद  (उत्तर प्रदेश )




सम्पर्क 

यतीश कुमार 

मोबाइल : 8420637309

टिप्पणियाँ

  1. केदार नाथ अग्रवाल की 'ओ प्रियम्वदा ' शीर्षक कविताएं कहां , किस संग्रह में हैं ? कृपया बताएं🙏
    - सुधीर

    जवाब देंहटाएं
  2. यतीश कुमार जी ने काव्यपूर्ण लहजे में सुन्दर लिखा है. संध्या नवोदिता की कविताएं अपने समय की सशक्त कविताएं हैं. मैंने इनको लगातार पढ़ा है.

    - किरण सिंह

    जवाब देंहटाएं
  3. समीक्षा की संवेदना कविताओं की संवेदना को पूर्णतया प्रेषित कर रही है। बधाई सभी को।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं