कवि हरीश चन्द्र पाण्डे का सुनीत मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार



कवि हरीश चन्द्र पाण्डे से बात करते हुए सुनीत मिश्र



युवा कवि और शोधार्थी सुनीत मिश्र ने अपने एम फिल कार्य के अंतर्गत कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय से एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार लगभग एक वर्ष पहले लिया था  अपने बारे में लगभग न बोलने वाले, मृदु-भाषी रचनाकार हरीश जी अपनी कविताओं में जिस तरह मुखर हो कर बोलते हैं उससे उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट हो जाती है।  इस साक्षात्कार के जरिए हम अपने प्रिय कवि के उस व्यक्तित्व और रचना-कर्म से रु-ब-रु हो सकेंगे, जिससे हम अभी तक लगभग अपरिचित रहे हैं।  तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कवि हरीश चन्द्र पाण्डे का सुनीत मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार।
         

कवि हरीश चन्द्र पाण्डे का सुनीत मिश्र द्वारा लिया गया साक्षात्कार
 
 1.   आपका पारिवारिक परिवेश कैसा था, आपका बचपन किस तरह बीता और प्रारंभिक शिक्षा कहाँ से और कैसे हुई ? 
मैं ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा हूँ। मेरी आठवीं तक की शिक्षा गाँव के पास ही महाकालेश्‍वर में हुई। हाईस्कूल घर से आठ-नौ किलोमीटर दूर द्वाराहाट कस्बे से, मिशन इण्टर कॉलेज से किया और इंटरमीडिएट राजकीय इण्टर कॉलेज पिथौरागढ़ से। आगे की शिक्षा डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर से। पिता वन विभाग में फॉरिस्ट थे। छत्तीस वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हो गया। तब मैं छः वर्ष का था। हम चार भाई-बहन हैं। बहन सबसे बड़ी जो उस वक्त बारह-तेरह वर्ष की रही होगी। पिता पढ़ने-लिखने में अभिरुचि रखते थे। उनकी कविता की एक डायरी थी जिसे मैं सहेज नहीं पाया, कुछ किताबें थीं उनमें अमरकोश व अयोध्या प्रसाद गोयलीय द्वारा संकलित शेर-ओ-शायरी संकलन मेरे पास बचे रह गए हैं। एक वेद था और शब्दकोश भी। माँ शहर पिथौरागढ़ से थी। वे मिडिल पास थीं। उन्हें गाने-बजाने का शौक था। उनकी आवाज काफी अच्छी थी। घर में हारमोनियम थी, जो पिता के न रहने के बाद बेच दी गयी। माँ सस्वर पूजा-पाठ करतीं थी। घर में महाभारत, रामचरितमानस व ब्रह्मानंद का गुटका आदि थे। मेरा गाँव एक स्वायत्त इकाई की तरह था, जिसमें लोहार, बढ़ई, तेली, दर्जी, के घर भी थे। गाँव में एक पनचक्की थी, नदी किनारे। गुल्ली डंडा, कबड्डी, बॉलीबाल खेल थे हमारे। छुट्टी के दिन गाय-बैलों के साथ जंगल भी जाना होता।

  2.       आप तो कामर्स के विद्यार्थी रहे, फिर कविता/साहित्य के प्रति रुझान कैसे हुआ और कविता लेखन की शुरुआत कब और कैसे हुई ?

साहित्य लेखन के लिए साहित्य के अनुशासन का विद्यार्थी होना जरूरी नहीं। जैसे केवल राजनीतिशास्त्र पढ़े लोग ही राजनेता नहीं होते। यह एक नैसर्गिक या मूल प्रवृत्ति है। कुछ लोग कला या संगीत की ओर प्रवृत्त होते हैं। बचपन से ही अच्छे चित्र बनाते या गायन करते हैं। रियाज और लगन उसे अभिवृद्ध करते हैं। लोक रचनाएँ भी किसी विधिवत स्कूल से निकले रचनाकार की रचनाएँ नहीं होतीं, वे जीवन की पाठशाला से निकलती हैं। अपने बारे में कह सकता हूँ मुझे साहित्य के प्रति लगाव पिता से ही मिला, जैसा पहले बता चुका हूँ। बचपन में प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी के पाठ्यक्रम पुस्तकों में बने स्केच चित्र दिव्यता का आभास देते। लगता सामान्य आदमियों से ये भिन्न हैं। धीरे-धीरे कुछ भीतर से आग्रह और कुछ बाहरी वातावरण ऐसा मिलता रहा कि इण्टर के बाद भाव फूट कर टुकड़ों में दर्ज होने लगे। कुछ अपनी समझ से तुक में कुछ छंदमुक्त, शुरू में यह ‘छेड़ वीणा की मधुर तान’ (बतर्ज ‘बना मधुर मेरा जीवन’) या ‘इंसा को नसीब नहीं रोटी, कुत्ते डबल उड़ाते हैं’ जैसे पदों से हुई। पहली कविता 1974 ई. में ‘कुछ कह नहीं सकता’ शीर्षक से ए.जी. आफिस की संगठन पत्रिका ‘ब्रदरहुड’ में छपी।

  3.  आपके व्यक्तित्व निर्माण में कौन सी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ या व्यक्ति सहायक रहे, जिससे आपके कवि व्यक्तित्व का निर्माण हुआ ?

कुछ स्थितियाँ तो ऊपर बता चुका हूँ। मैं समझता हूँ इंटरमीडिएट में पढ़ते हुए पिथौरागढ़ में बिताया समय मेरे व्यक्तित्व निर्माण का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। मैं जूनियर हाईस्कूल तक अच्छा विद्यार्थी था। हाईस्कूल के दौरान वहीं स्कूल के पास कस्बे में ही रहने लगा। कुछ ऐसा संग-साथ मिला कि पास होने के लाले पड़ गए। बीड़ी-सिगरेट-चरस सब चलने लगा। रात भर ताश खेले जाते। रामलीलाओं में अध्यापक की नाराजगी के बावजूद भी राम-लक्ष्मण का अभिनय दोनों साल किया। रिजल्ट आया तो फेल। बहरहाल आठ-दस दिन बाद क्रास-लिस्ट आई तो सेकिंड डिवीजन पास था। बिगड़ तो गया ही था सो माँ और बड़े भाई साहब ने ननिहाल नानी के पास पिथौरागढ़ आगे की पढ़ाई के लिए भेज दिया। यहाँ साइंस छोड़ कामर्स में प्रवेश लिया। वहाँ साथी पढ़ाकू थे और अध्यापक व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने वाले। सो पढ़ाई की गाड़ी पटरी पर लौट आई। यहीं हिन्दी के अध्यापक मिश्र जी (शायद आर. के. मिश्र) मिले जो इलाहाबाद विश्‍वविद्यालाय से निकले थे। अच्छा तो पढ़ाते ही थे, इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल की बार-बार चर्चा भी करते थे। साहित्य के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगी। जहाँ छुट्टियों में समय काटने से गुलशन नंदा, रानू या वेद प्रकाश काम्बोज के उपन्यास लाये जाते उसकी जगह टाउन एरिया पुस्तकालय से ‘गोदान’ और ‘टेढ़े मेढ़े रास्ते’ (भगवती चरण वर्मा) आ गए। धर्मयुग, हिन्दुस्तान व दिनमान अखबारों के साहित्यिक पृष्ठ देखे जाने लगे। आगे की पढ़ाई मैने कानपुर में बहन के पास रह कर की। जीजा जी भी साहित्य अनुरागी थे। वे अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी रहे थे। अच्छे शेर, अच्छे कथन या उद्धरण डायरी में नोट कर लेते। शेली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर ये सब नाम पहले-पहल उन्हीं से सुने। उन्हीं के सानिध्य में मेरी कविता लेखन की टूटी-फूटी शुरुआत हुई।

मेरी कविता की रसद सामग्री भी बहुत कुछ उन परिस्थितियों की दें है जो सुन्दर दिखते पहाड़ों के भीतर जीवन-यापन के दैनंदिन संघर्षों से संबंधित है। ये जगह छूट जाने पर भी अवचेतन में साथ चले आते हैं। बॉज, बुरूंश, देवदारों की आभा के बीच से गुजरते हुए लद्दू घोड़ों का, गले में घंटी की घन-घन लिये मीलों सामान ले जाना, दिन भर लीसा खोपते, चिरान करते, सड़क बनाते लोग फिर भी अधपेट रहते लोग। वे श्रमगीत गाते हुए खेतों में रोपाई के लिए झुकी औरतें, डाक के थैले लिये लटकाए हरकारों से समय का अंदाजा लगाती औरतें, यह सब देव और सौन्दर्य स्थली के भीतर की झाँकियाँ थीं जो अभिव्यक्ति के लिए अवचेतन से बाहर जाने का अवसर ढूंढ रही थीं। ये परिस्थितियाँ भी कवि व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं।

  4.  आपने अपने लखनऊ प्रवास के दौरान एक उपन्यास ‘उजड़ता सिंदूर’ लिखा था, उसे प्रकाशित क्यों नहीं कराया, क्या प्रकाशन की कोई योजना है ?

यह उपन्यास मैंने बी. काम. करने के बाद, बड़े भाई साहब के पास लखनऊ रहने के दौरान 1971 ई. में लिखा था। इसका शीर्षक ही बताता है कि यह एक भावुक उपन्यास या उपन्यासिका थी। आदर्श लिए हुए। इसका नायक भी इलाहाबाद में रहता है, जिसके मुहल्ले मैंने अपने मन से लिख दिए थे। भाई साहब ने उन मुहल्लों को कर्नलगंज, दारागंज, सिविल लाइन करते हुए ठीक किया। बाद में इलाहाबाद आने पर उसे मैंने अपने कमरे के साथी को पढ़ाया। उसने उसे ‘चूं चूं का मुरब्बा’ कह दिया। उसी के साथ उस पर आगे कुछ करने की गुंजाइश ख़तम हो गई। हाँ लिखने की प्रवृत्ति ख़तम नहीं हुई। आगे चल कर कविताएँ और कहानियाँ लिखी जो पत्र-पत्रिकाओं में छपी और कहानी संग्रह ‘दस चक्र राजा’ भी राजकमल से प्रकाशित हुआ।

  5.  आपके रचना कर्म को इलाहाबाद ने किस रूप में प्रभावित किया है ?

नवम्बर 1973 ई. में केंद्र सरकार के आडिट विभाग के इलाहाबाद स्थित ए. जी. कार्यालय में मेरी नियुक्ति हुई। यह कार्यालय, कार्यालयी संस्कृति की रूटीन मानसिकता से अलग था। यहाँ के मनोरंजन क्लब में एक बहुत अच्छी लाइब्रेरी थी। कार्यालय में साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एक परम्परा थी। कथाकार जितेन्द्र और कवि-कथाकार सर्वेश्‍वर दयाल सक्सेना कभी यहाँ काम कर चुके थे और उस समय ज्ञान प्रकाश, केशव प्रसाद मिश्र, उमा कांत मालवीय, शिवकुटी लाल वर्मा, जगदीश चन्द्र, जौहर बिजनौरी, फर्रूख़ जाफरी, एहतराम इस्लाम, आदि हिन्दी-उर्दू के लेखक, शांताराम विष्णु कशालकर, (संगीत) और सरनबली श्रीवास्तव (नाटक) कार्यरत थे। कार्यालय में विशेष अवसरों पर साहित्यकार बुलाए जाते, कवि सम्मलेन-मुशायरे होते। श्री नरेश मेहता को पहली बार यहीं देखा व शंभु नाथ सिंह का गीत ‘समय की शिला पर....’ पहली बार यहीं सुना। कार्यालय से दो पत्रिकाएँ ‘त्रिपथगा’ व ‘ब्रदरहुड’ निकलती थीं। ‘त्रिपथगा’ को कार्यालय प्रशासन प्रकाशित करता, ‘ब्रदरहुड’ यूनियन की पत्रिका थी। लेखक-कलाकारों की मण्डली में नाम जुड़ते गए- जगदीप वर्मा, सतीश चित्रवंशी, प्रवीण शेखर (नाटक) यश मालवीय, सुभाष चन्द्र गांगुली, भवेश चन्द्र जायसवाल, (कविता-कहानी) कृष्णेश्‍वर डींगर, तिलक राज गोस्वामी, कमलकृष्ण गोस्वामी, शिव मूर्ति सिंह आदि भी कुछ वरिष्ट नाम थे जिनके संग्रह प्रकाशित हो रहे थे। जैसा मैंने पहले कहा इसी आफिस की पत्रिका ‘ब्रदरहुड’ में 1974 ई. में मेरी पहली रचना प्रकाशित हुई। इस कार्यालय के वातावरण ने मेरी अभिरुचि को हवा दी। बाद के दिनों में शिवकुटी लाल वर्मा, एहतराम इस्लाम व यश मालवीय के साथ नियमित बैठकी होने लगी।

इलाहाबाद उन दिनों रचनाकारों, साहित्यिक संस्थाओं और प्रकाशन संस्थानों का गढ़ था। रचनाकारों की एक गैलेक्सी थी। सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, उपेन्द्र नाथ अश्क, राम कुमार वर्मा, इलाचन्द जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृतराय, विजय देव नारायण साही, जगदीश गुप्त, लक्ष्मी कांत वर्मा, अमरकांत, मार्कंडेय, केशव चन्द्र वर्मा, शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, ममता कालिया, सतीश जमाली, सत्य प्रकाश मिश्र, राजेन्द्र कुमार, अमर गोस्वामी, नीलाभ, विद्याधर शुक्ल, अजीत पुष्कल आदि। अस्सी के दशक के आरम्भ तक एक नई पीढ़ी सामने आ गयी थी। लघु-पत्रिकाओं का प्रकाशन जोर पकड़ गया था। कथा, पक्षधर, वर्तमान साहित्य, हिन्दुस्तानी, विकल्प, आभिप्राय और फिर समकालीन जनमत, कथ्य रूप, उन्नयन, लेखन, अतएव, माध्यम आदि पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं। ‘जनवादी लेखक संघ’ और ‘जन संस्कृति मंच’ अस्तित्व में आये।

अस्सी के प्रारंभिक वर्षों में मेरी रचनाएँ बाहर की पत्रिकाओं में अधिक आईं। इलाहाबाद में श्री प्रकाश मिश्र द्वारा संपादित पत्रिका ‘उन्नयन’ के इलाहाबाद अंक में कविताएँ छपीं। इलाहाबाद में उन दिनों ‘हिन्दी साहित्य सम्मलेन’ व ‘हिन्दुस्तानी अकादमी’ में बड़े कार्यक्रम होते रहते थे। हिन्दी साहित्य सम्मलेन के पचहत्तरवें स्थापना वर्ष पर कविता पर एक बड़ा कार्यक्रम हुआ था। इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में ही अज्ञेय व रघुवीर सहाय को सुनने का अवसर  मिला। जनवादी लेखक संघ की स्थानीय गोष्ठियाँ घरों में की जाती थीं।

मैं सोचता हूँ, इलाहाबाद के इस माहौल का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मेरे लेखन की प्रेरणा में बड़ा योगदान रहा।

  6.  आपका प्रिय कवि/लेखक कौन है, क्या उसका आपके विचार पक्ष या रचना कर्म पर कोई प्रभाव पड़ा है ?

निराला! निराला में दुर्धर्षता और करुणा का अद्भुत समवाय है। जीवन और लेखनी दोनों में। वे अपने आप में एक प्रयोगशाला हैं। ‘मनुष्यों की तरह कविता की भी मुक्ति होती है’ कहते हुए वे कविता में एक अभिनव प्रयोग की बात करते हैं। लघुता से जुड़ने का उनका अपना अंदाज है। एक कवि जब कहता है ‘मैंने मैं शैली अपनाई/देखा दुखी एक निज भाई’ तो यह दूसरे के दुःख को आत्मसात करने की काव्य-युक्ति ही नहीं, ऊँचे दर्जे की मनुष्यता भी है।

निराला के अभावों को आज के रचना कर्म पर सीधे-सीधे देख पाना संभव नहीं, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि आज की कविता निराला की जमीन का ही विकसित रूप है। समय के साथ कथ्य और रूप को बदलती हुई।

  7.  आपने रामलीला मण्डली में राम-लक्ष्मण की भूमिकाएँ की हैं, आपकी एक कविता भी है- ‘अयोध्या’ । लोक-मन में बसे राम के उस स्वरूप और आज के स्वरूप में आप कितना अंतर/बदलाव देखते हैं, अक्सर राम-राम और जय श्री राम के फर्क की बात की जाती है?

वे राम-लीलाएँ श्रमशील लोगों की सांस्कृतिक उत्सवधर्मी अभिव्यक्तियाँ थीं। वे कटाई-मड़ाई-बुआई की एक पारी के बाद, दूसरी पारी की तैयारी की पूर्व पीठिकाएं थीं। उसमें मंचित कथा में व्यक्तियों के रूप में प्रवृत्तियों का विरोध था। उनका राम जन-मन के दैनंदिन व्यवहार व कर्म का राम होता था- राम-राम बाबू साहब, बड़े राम-राम करके यह काम पूरा किया, रामा-रामा गजब हुई गवा रे, - यह राम कौन था। आज कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया गया है यह शब्द- ‘हे राम’ सांप्रदायिक सद्भाव के लिए उच्चारा गया नाम था। आज यह सांप्रदायिक सद्भाव के विपरीत आरोपों का वाहक हो गया है।

  8.  पहाड़ के रचनाकारों में लोक की व्याप्ति पर्याप्त दिखती है, आपकी कविताओं में भी लोक और संस्कृति के दृश्य खूब आये हैं, आप लोक को किस रूप में देखते हैं, क्या कविता के लिए अपने लोक में जाना आवश्यक हो जाता है, लोक से कविता के लिए तत्त्व ग्रहण कर के आज की वैश्विक समस्याओं को कितनी मजबूती से उठाया जा सकता है, क्या स्थानीय पीड़ा या आवाज वैश्विक पीड़ा या आवाज बन सकती है ?

लोक एक ऐसी सामाजिक संरचना का नाम है जो अपने अस्तित्व के लिए स्वावलंबन के तरीके अपने सीमित स्रोतों के बीच ढूंढता है। वह अपने पहाड़, पठार, रेगिस्तान, समुद्री तट, वनस्पतियाँ पशु-पक्षियों, सूने या हरे-भरेपन से अपने गीत-संगीत, खान-पान, बोली-बानी, व किस्से-कहानियों का एक संसार रचता है। जो जीवन को गति दे और जीवन झंझावातों से निपटे। जिस लोक में हमारी परवरिश होती है वह किसी न किसी रूप में हममें हमेशा विद्यमान रहता है, चाहे वहाँ रहें या न रहें। लेकिन जीवन जीने की बदली पद्धति ने आसानियों के साथ-साथ कुछ नई परिस्थितिजन्य समस्याएँ पैदा कर दी हैं जिनका समाहार नए परिवेशगत तरीकों से ही संभव हो पाता है। पर इस नई आपाधापी भरी जीवन पद्धति में भी कविताएँ अपने संवेदन-तंत्र को बचाए रखने के लिए लोक के पास बार-बार जाती हैं। यह भी सच है कि दुनिया छोटी होती जा रही है और लोक-स्वरूप भी बदल रहा है। अब बड़े घराने या वैश्विक घराने लोक के मौलिक और मानस जगत में अपनी पैठ बना रहे हैं। उनके मनोरंजन और खान-पान की आदतें बदल रही हैं। बोली-भाषा पर संकट गहरा रहा है। लोक को चटपटा व विकृत कर चैनलों में प्रसारित किया जा रहा है और लोक साहित्य तथा संस्कृति के नाम पर बने पीठ आरामगाह बन गए हैं। यह लोक का विद्रूपीकरण है। जहाँ तक लोक की स्थानीय पीड़ा के वैश्विक पहुँच की बात है, पीड़ा का अपना स्वरूप तो सार्वभौम ही होता है। गंभीरता से उठाई गई स्थानीयता भी वैश्विक ही  है।


  9.  इधर कविता की चुनौती और संकट को लेकर ‘कठिन समय’, ‘कविता की वापसी’, ‘कविता का अंत’ जैसे कई टर्म आये, आप आज की हिन्दी कविता के समक्ष किस तरह के संकट या चुनौतियों को देखते हैं ?

कविता के लिए कोई समय ‘सहज समय’ शायद ही कभी रहा हो। रघुवीर सहाय जब कह रहे थे- ‘हँसो हँसो, जल्दी हँसों’ तो वे एक ‘कठिन समय’ की ही उपज थी। उसी कठिन समय में भवानी प्रसाद मिश्र ‘त्रिकाल संध्या’ नाम से दिन में तीन बार कविताएँ लिख रहे थे। यह अभिव्यक्तियों पर सख्त पहरे लगाए आपातकाल का समय था। ‘कविता का अंत’ भी घोषित किया गया कि अब कविता के लिए कोई यूटोपिया नहीं रह गया है। दरअसल विमर्शों की अपनी आधुनिक-उत्तर आधुनिक, देशज-आयातित खेती बाड़ी है। ऐसे समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण लगता है- ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे, त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा।’ आज जिस सभ्यता को हम देख रहे हैं वह भौतिकता का लंबवत प्रसार है। जीवन में यांत्रिकता बढ़ी है और संवेदन के लिए जगह कम हुई है। इसी जटिल और यांत्रिक जीवन के एकालाप को तोड़ने के लिए कविता की आवश्यकता रहेगी। जहाँ तक हिन्दी कविता के समक्ष संकटों/चुनौतियों का प्रश्न है उनमें यह एक प्रमुख है कि आज पूरा साहित्य ही बाजार वृत्ति की चपेट में है, सो कविता भी। जिस कविता में बाजार-उत्पाद होने की अनुकूल क्षमता है उसके प्रकाशन को प्राथमिकता मिलेगी। कैश क्राँप की तरह। प्रकाशन निर्णय भी पाठकों की नहीं पुस्तकालयों की माँग के अनुसार होना है। कविता के कुछ अपने आंतरिक संकट भी हैं जिसे घटती पाठकीय अभिरुचि के आलोक में देखा जा सकता है। बौद्धिकता बनाम लोकप्रियता भी एक मुद्दा है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं- ‘हिन्दी कविता से लोकप्रियता के साथ-साथ सहजता, ऐन्द्रिकता और भावावेग की विदाई हो गयी है। इस प्रक्रिया में कविता से जीवंतता गायब हो गई है।’ वे लोकप्रियता का बहिष्कार नहीं परिस्कार करने की बात करते हैं। ये सब कविता के अपने संरचनात्मक मुद्दे हैं। बहरहाल कविता अपनी भूमिका बखूबी अदा करती रही है। उसमें भारतीय समाज में विगत समय में हुई घटनाओं के अक्स देखे जा सकते हैं।

10. कविता में ‘भाव पक्ष’, ‘विचार पक्ष’ और ‘कलापक्ष’ की क्या महत्ता है, ये कविता में किस रूप में आने चाहिए ?

कविता में इन सभी का अपना महत्त्व है। केवल पक्ष विशेष का आग्रह अतिवाद है। मुझे फ्रांसीसी कवि ‘रेने शार’ के इस कथन में एक संगति प्रतीत होती है कि ‘कविता एक आत्मनिष्ठ दबाव और वस्तुनिष्ठ चुनाव से जन्मती है।’ भाव-संवेदन की उद्गम भूमि आत्मनिष्ठता है, जबकि विचार-विवेक हेतु वस्तुनिष्ठता चाहिए। कविता में भाव-संवेदन और विचार का यही सम्यक निरूपण ज्ञानात्मक संवेदन से हो सकता है। मुझे निराला की ‘सरोज स्मृति’ ‘भाव’, ‘विचार’ और ‘कला’ की अन्यतम रचना लगती है। दुःख की निजता यहाँ एक वृहद वृत्त बनाती हुई उन सामाजिक, धार्मिक परम्पराओं, आडम्बरों, कृत्यों को उघाड़ती चलती है जो विधि-निषेधों की फेहरिस्त लिए सदियों से आदमी के जीवन को अवरुद्ध-अपमानित करती रही है।

कला कविता का अनुपेक्षणीय पक्ष है। हाँ, केवल कला रूपवाद है। लेकिन केवल विचार भी कविता नहीं। विचारों को कविता में अनुस्यूत हो कर आना चाहिए। शमशेर बहादुर सिंह जब कहते हैं-  ‘मैं विचार को जब कविता में लाने की कोशिश करता हूँ तो मेरी खास कोशिश यही रहती है की किसी भी कीमत पर काव्यात्मकता न खोने पाए।’ तो उनका यही आशय है।

11.  आप ‘जनवादी लेखक संघ’ से भी जुड़े हैं, ऐसे लेखक संगठनों की भूमिका रचनाकार को किस तरह प्रभावित करती है ? ये संगठन अक्सर पक्षधरता की बात करते हैं, आप इस पक्षधरता  को किस रूप में देखते हैं ?

लेखक संगठन लेखकों के हित के लिए होते हैं।वह लेखन के लिए बेहतर स्थितियाँ बना सकें, लेखकों को अभावों से सुरक्षा और अभयता दे सके, नए प्रतिभाओं की तलाश करें और उन्हें मंच प्रदान करे। पुस्तक प्रकाशन वितरण के स्तर पर उन्हें मदद दी जा सके। लेखन और अभिव्यक्ति से जुड़े प्रश्न या समस्याओं पर वहाँ विचार विमर्श हो। अगर लेखक संगठन किसी विचारधारा से जुड़े हैं, तो लेखकों की पक्षधरता उस विचारधारा के प्रति होगी ही होगी। लेकिन यह पक्षधरता लेखक की शर्तों पर होनी चाहिए, लेखक की कीमत पर नहीं।

12.  ‘समकालीन’ शब्द का प्रयोग प्रायः लोग अपनी सुविधानुसार कर लेते हैं, आपकी दृष्टि में ‘समकालीनता’ क्या है और समकालीन कविता की शुरुआत कब से मानी जानी चाहिए ?

 ‘समकालीन’ शब्द बड़ा लचीला है। यूँ किसी भी वर्तमान में लिखी जा रही कविता अपने समय की समकालीन कविता है। सो, आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, जिसमें सारे वय और पीढ़ी के कवि शामिल हैं, समकालीन कविता है। सवाल उठता है क्या इसमें हम किसी सामान्य काव्य-प्रवृत्ति को चिह्नित कर सकते हैं। फिर उस कालावधि का भी प्रश्न है जिसे समकालीन कहा जाए। मुझे लगता है विभिन्न काव्य प्रयोगों का दौर 1970 ई. तक आते-आते समाप्त हो जाता है। उसके बाद खासकर आपातकाल के बाद, एक नया दौर राजनीति व कामिक व्यंजनाओं की जगह सर्वेक्षण आधारित काव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ लेने लगती हैं। घर, परिवार, बच्चे, चिड़िया, पेड़, कविता में लौटते हैं, हालाँकि कुछ ज्यादा ही। अस्सी के दशक में भी लगभग यही काव्य स्थितियाँ रहती हैं। मैं नब्बे के दशक से प्रारम्भ समय को समकालीन कविता समय कहना चाहूँगा। क्योंकि भूमंडलीकरण, सोवियत संघ का विघटन और एक नए सांप्रदायिक उन्माद का दौर यहाँ से प्रारम्भ होता है और कविता में भी तदनुसार बदलाव आते हैं।

13.  भूमंडलीकरण का प्रभाव हिन्दी कविता पर किस रूप में देखते हैं, आपकी कविताओं में इसका असर किस तरह हुआ है, भूमंडलीकरण, बाजारवाद और पूँजीवाद के समक्ष लेखकीय प्रतिबद्धता को आप किस रूप में देखते हैं ?

बाजारवाद, भूमंडलीकरण के रथ का एक पहिया है, जिसका सारथी पूँजीवाद है। चूँकि भूमंडलीकरण सत्ता और शक्ति केन्द्रों से गुजरते हुए अपने प्रसरण में अंततः एक सामाजिक परिघटना है, अतः उससे कुछ भी अछूता नहीं। वह प्राकृतिक संपदाओं का अनियंत्रित-अमानवीय विदोहन करता है, विस्थापन करता है और संस्कृति का विद्रूपीकरण। वह बाजारों को अंधाधुंध सामानों से पाटता है। साहित्य, संगीत, कला को उत्पादों में बदलता है। बकौल मंगलेश डबराल ‘वह हमारे नये युग में शत्रु की भूमिका अभिनीत करता है। जीवन का कोई पक्ष उससे अछूता नहीं।’ विशुद्ध मनोरंजन करता खेल क्रिकेट आज एक बड़े उद्योग में बदल गया है। खेल भावना का पोषक एक दर्शन संवेदनहीन अनैतिक कौतुक में बदल दिया गया है। पूँजी और बाजारवाद के इस संवेदनहीन मुहिम को लेखकों द्वारा भी गंभीरता से लिया गया है। आदिवासियों के जल, जमीन व जंगल के विमर्श सिर उठा रहे हैं। पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ को लक्षित किया जा रहा है। यही लेखकीय प्रतिबद्धता भी है। ‘गुल्लक’, ‘किसान और आत्महत्या’, ‘एक सेकिण्ड सर’, ‘खुली चाय की दूकान पर’, ‘तिजारत’ आदि कविताओं द्वारा मैंने भी इस संकट को पहचानने की कोशिश की है।

14. आपने बच्चों पर कुछ कविताएँ लिखी हैं, आज बच्चों के लिए असुरक्षा, बाल मजदूरी, कुपोषण, मजबूरी में या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के लिए नौकरी-पेशे वाले माँ-बाप के घर से बाहर रहने से बच्चों के अकेलेपन जैसे खतरे बढ़ रहे हैं, साहित्य में इन पर ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ रचनाएँ सामने आयी हैं, क्या यह एक विमर्श के रूप में साहित्यिक चर्चा का विषय होना चाहिए ?

बच्चों के संसार को बचाए रखने की चिंता पहले भी साहित्य का एक सरोकार रही  है। गद्य में यह चिंता ज्यादा मुखर हुई है। अकेले प्रेमचंद के यहाँ आपको कई कहानियाँ मिलेंगी। कविता में भी बच्चों का यह संसार आज आधुनिक बोध और नई परिस्थितिजन्य विसंगतियों के साथ अभिव्यक्त हो रहा है। राजेश जोशी जब कहते हैं-  ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’, तो वह एक साधारण पंक्ति नहीं वरन समाज और तंत्र पर गंभीर टिप्पणी है। दरअसल बचपन बचाया जाना एक जरूरी कार्य-भार है। जिसमें श्रम के शोषण से बचाने के साथ-साथ उनकी शिक्षा और उचित पोषण व्यवस्था शामिल है। बच्चों का माँ-बाप के प्राकृतिक प्रेम से विरत होते जाना, यह एक नया सामाजिक परिदृश्य है। यह विकासशील समाज की संचरण स्थिति है। इससे शायद अभी बचा भी नहीं जा सकता। हाँ, इसके लिए नए रास्ते सोचने होंगे ताकि बच्चे स्नेह के नैसर्गिक रसायन से वंचित न रहें और उपेक्षित महसूस न करें, भविष्य के जिम्मेदार नागरिक बन सकें। दरअसल हमारी, जीवन को पूरा का पूरा वर्तमान में ही जी लेने की नई संस्कृति ने बच्चों के बारे में एक सुविधा-संबंध का शार्टकट ढूंढ लिया है जो पूरी तरह अर्थ पर आधारित है। चूँकि परिवार और परवरिश की संकल्पनाएँ बदल रही हैं इस अर्थ में आने वाले समय में, मुझे लगता है, बच्चे अवश्य साहित्य में विमर्श का विषय बनेंगे।

15. स्त्रियाँ आपकी कविताओं में कई रूपों में उपस्थित हैं, घर में गृहणी के रूप से लेकर ‘सोलह की उम्र’ की सन्यासिन एवं विधवा स्त्री के रूप में ‘महराजिन बुआ’ जैसे कई तरह चरित्र हैं, आपको इसमें स्त्री का कौन सा रूप सबसे अधिक उद्वेलित करता है ?

‘सोलह की उम्र’ तथा ‘महराजिन बुआ’ कविताएँ हमारे यहाँ स्त्री-संसार के दो रूप हैं। एक सन्यस्त और दूसरा वैधव्य। दोनों के प्रति हमारे धार्मिक व सामाजिक विधान अनुदार और सेंसरयुक्त हैं। ये दोनों जीवन सौन्दर्य के निषेधात्मक उदाहरण हैं। आज भी आपको समाज में सती प्रथा के समर्थक दिख जाएँगे, जैसा कि रूप कुंअर प्रकरण में देखा गया। वैधव्य एक अनाहूत दशा है, जिसमें स्त्री की विवशता है, लेकिन संन्यस्तता प्रकटतः विवशता नहीं, चयन है। यद्यपि इसके उलट भी काफी कुछ होता है, बाल संन्यासी/संन्यासिनों के प्रकरण में। ‘सोलह की उम्र में’ सन्यास का अर्थ है जीवन के प्रकृति प्रदत्त उपहारों का उपहास। जिसने अभी संसार समझना ही शुरू नहीं किया उससे कहा जाय संसार से विरक्त रहो। पहले जीवन व संसार को समझने तो दो। यह पलायन है, जीवन का अपमान है। क्या उसके बाह्य आचरणों की तरह उसके आंतरिक नैसर्गिक अनुशासनों-ऋतुचक्रों को रोका जा सकता है।

‘महराजिन बुआ’ समाज से कई स्तरों पर भिड़ती-टकराती विधवा स्त्री है। वह धर्म व्यवस्था से टकराती है और पुरुष व्यवस्था से भी। कविता में असूर्यंपश्या व मनु की प्रपौत्री के संबोधन इन्हीं व्यवस्थाओं से उसे जोड़ती है। जिसे देहरी के बाहर नहीं निकलना था वह श्मशान घाट संभाल रही है। कपाल क्रिया करा रही है। मर्दों के पेशे को उनके जबड़े से खींचती हुई वह औरत के लिए निर्धारित परंपरागत सांचे को तोड़ रही है। पहली कविता (सोलह की उम्र) में जीवन से पलायन से असहमति है। दूसरी (महराजिन बुआ) में जीवन के प्रतिरोधों का जयघोष सा है ‘महराजिन बुआ’ काव्य चरित्र सकर्मकता का उदाहरण है।

16. आपकी कविताओं में सौन्दर्यबोध का पैमाना बदला हुआ दिखाई देता है, ‘शहर के नाभि-केन्द्र तक’, ‘गुँथाई का राग’, ‘पहाड़ में औरत’ आदि कविताओं में श्रमरत जीवन का सौन्दर्य उपस्थित हुआ है, तो ‘कसाईबाड़े की ओर’ और ‘शेर बचाओ (अभियान)’ जैसी कविताएँ सौन्दर्यबोध के विवादी स्वर उभारती हैं । कविता के निर्माण में किसी कवि की सौन्दर्य दृष्टि और सौन्दर्य दृष्टि के निर्माण में उसके भाव और विचार की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?

सौन्दर्य-बोध के निरूपण में विचार और भाव की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक श्रमिक के शरीर से निकली पसीने की गंध खुशबू भी हो सकती है, बदबू भी। गुलाब के पौधों की जड़ों में खाद-पानी डालना भी एक सौन्दर्य है और खिले फूलों को करीने से तोड़ते आँचल में डालना भी। सौन्दर्य दृष्टि में यह अंतर विचार और भाव के कारण ही है। जहाँ तक ‘कसाईबाड़े की ओर’ और ‘शेर बचाओ (अभियान)’ कविताओं में सौन्दर्य-बोध का प्रश्न है यहाँ सुन्दरता का अर्थ विद्रूपता या क्रूरता में, व्यंग्य भंगिमा के साथ खुलता है। सुन्दर बकरी का छांटा जाना, उससे रिक्शे में स्नेह जताना, यह सुन्दरता नहीं बल्कि कसाई मानसिकता का वह विश्लेषण है जहाँ अभीष्ट (हत्या) को एक सौन्दर्याभास के पीछे छुपा लिया जाता है। यह हत्या का वह सलीका है जहाँ अन्त तक पता नहीं चलने दिया जाता कि हत्या होने जा रही है।
इसी तरह ‘शेर बचाओ’ एक प्रायोजित ‘अभियान’ है, उस बल को बचाने का जो भय दे, दहशत दे, आतंक दे। यहाँ भी सौन्दर्य व्यंग्य भंगिमा में है।


सम्पर्क -

           हरीश चन्द्र पाण्डे - 09455623176
सुनीत मिश्र - 07405020102

टिप्पणियाँ

  1. यह बहुत अच्छा साक्षात्कार है। बहुत कुछ जानने और समझने को मिला। सुनीत भाई आपको बहुत बधाई और धन्यवाद💐

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  2. Sunit sir bahut hi achchha interview lga aapke dwara hme bhi kavi harish chandr pandey ji ko r krib se janne ka avsar mila. Aapko badhayi evm dhanyvaad...

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  3. कामना करता हूँ कि आप सदैव इसी तरह प्रगति पथ के शिखर की ओर अग्रसर रहिए

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