रेखा चमोली के काव्य संग्रह 'पेड़ बनी स्त्री' पर एस.पी. सेमवाल की समीक्षा




युवा कवियित्री रेखा चमोली का संग्रह 'पेड़ बनी स्त्री' काफी चर्चा में रहा है और इसी संग्रह पर उन्हें पिछले वर्ष सूत्र सम्मान प्रदान किया गया था। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है एस. पी. सेमवाल ने। तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा।      

एक उद्भावना, कविता संग्रह “पेड़ बनी स्त्री” के प्रति      
एस. पी. सेमवाल                                                           

पेड़  बनी स्त्री कविता संग्रह एक कैलाइडोस्कोप है, ठीक इस तरह कि उसमें रंगीन काँच के टुकड़ों को घुमाने पर जिस तरह असंख्य बिम्ब बनते हैं, उसी तरह पेड़ बनी स्त्री की कविताओं को हम अपनी सामाजिक संचेतना, सौन्दर्य बोध एवं मानवीय संवेगों के बरक्स देखते हैं, तो इनमे भी सौन्दर्य शास्त्र के अनगिनत बिम्ब दृष्टि से गुजरते हैं। एक समर्पित शिक्षिका के साथ-साथ अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रेखा चमोली ने एक विस्तृत कैनवस पर एक स्पेक्ट्रम रचा है। जिसमें विवग्योर ही  नही, इसके मेल से बनने वाले असंख्य रंगों की मध्यम, तीव्र, चटख और शोख छटा मौजूद हैं।

              ‘दुनिया भर की स्त्रियों,
               तुम जरूर करना प्रेम,
               पर ऐसा नहीं कि
               जिससे प्रेम करना उसी में
               ढँढूने लगना
          आकाश, मिट्टी, हवा, पानी, ताप


ज्याँ पॉल सार्त्र और सिमोन द बोउआ ने अस्तित्ववाद के इसी अभिलक्षणा में अपने साहित्य को रचा, और उसे जीवन में आत्मसात किया, कवयित्री रेखा ने सार्त्र और सिमोन को पढ़ा है या नही, मुझे नहीं मालूम, लेकिन अपनी इस कविता में शिद्दत से अभिव्यक्त किया है।

‘एक स्त्री जो उपजती है जातिविहीन
अपनी हथेली पर दहकता सूरज लिए
रोशनी से जगमगा  देती है कण-कण
जिसकी हर लड़ाई में
सबसे बड़ी दुश्मन बना दी जाती है
उसकी अपनी ही देह।’


दुनिया भर की स्त्रियों की लड़ाई में प्रतिशोध, उन्मुक्त अस्तित्व, समानता और एकांगी स्त्रीवादी दृष्टिकोण समय-समय पर इतिहास के मौजूदा दौर में सामने आये हैं। मगर उनकी लड़ाई की समूची प्रक्रिया में मौजूद अन्तर्विरोध के बीच यह एक साझा हकीकत है कि उनकी हर लड़ाई में उनकी देह को ही सबसे बड़ी दुश्मन बना दिया गया है। यही वह केन्द्र बिन्दु है जो इस कविता से निकल कर हमारी जिन्दगी में, हमारे समय में स्त्रियों की जद्दोजहद का आधार बनता है।

                ऐसे समय में जब सब कुछ
                मिल जाता है डिब्बा बन्द
                एक नदी का उदास होना
                बहुत बड़ी बात नहीं समझी जाती।


जब  संवेदनाएं उपभोग की प्रवृत्ति के ज्वार में अदृश्य होने लगती हैं तो ऐसे हालात सामने आते हैं कि हम अपने अस्तित्व के आधार, सौन्दर्य के अजस्र स्रोत, अपनी विरासत को अनदेखा करते हुए बस केवल पाने और संचय करने की अन्तहीन दौड़ में शामिल हो जाते है, यहाँ नदी का स्त्री के साथ साम्य करते हुए उसकी नैसर्गिक संवेदनाओं की उपेक्षा को इस तौर पर व्यक्त करना कवयित्री को सक्षम सौन्दर्य दृष्टि को एक नमूना भर है।
                   तो ये दुनिया
                   जो हमेशा से बंटी रही है दो भागों में
                   कमजोर और ताकतवर
                   स्त्री और पुरूष
                   गरीब और अमीर
                   बुरी और भली
                   दयालु और क्रूर
                   तुम्हें आजमाएगी, तुम उस समय भी
                   सबसे बुरे समय में भी
                   डरना मत, सच कहने से।


हम स्कूलों और शिक्षा के दफ्तरों में अक्सर अब्राहम लिंकन का अध्यापक के नाम पत्र देखते हैं, जो शिक्षक से अपेक्षा करता है कि वो उसके बच्चे को क्या सिखाए, कोई नहीं, पूछता कि लिंकन खुद अपने बच्चे को ये सब मूल्य क्यों नहीं अन्तरित कर सकते। 




                                                                                (चित्र : रेखा चमोली)

यहां ऊपर की चन्द  पंक्तियों ने एक मां और एक शिक्षक की सर्वोत्तम भूमिका को रेखांकित कर दिया है कि किस तरह सबसे बुरे समय में भी उसके बच्चे ने डरें सच कहने से, यही एक मूल्य है जिसकी बुनियाद पर न्याय, समता, विवेक और मानवीय गरिमा  की इमारत खड़ी होती है। यही कविताओं की ताकत है कि अपने तरल प्रवाह में अपनी शीतलता के स्पर्श के साथ-साथ जीवन की ऊष्मा को भी अपने में समाहित करता है।

गर्भ में ज्यों ही पनपता है
स्त्री शिशु
एक अदृश्य शिकायत पेटी भी
बंध जाती है उसके साथ
उसकी उम्र के साथ ही
बढ़ता जाता है जिसका आकार
और इसमें सिवाय उसके,
सारी दुनिया दर्ज करा सकती है।
अपनी शिकायतें


बेटियों के साथ जन्म से पहले और जन्म के बाद हमारे समाज में, हमारे इस कुसमय में जो कुछ हो रहा है, उस पर अनगिनत पंक्तियों कविता में, गद्य में लिखी गई हैं लेकिन इस तरह गहरी, तीव्र मारक और व्यंजना में शायद कम ही नजर आई हैं।

बस इस कविता का शीर्षक इसकी अन्तर्वस्तु से मेल नहीं खाता, लेकिन इसका असर कम नहीं होता।


ओ कवि, मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियां
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की
तरह धीमे-धीमे जलाती है।
हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओं मशालें, आओ हमारे साथ
हम बनेंगी क्रान्ति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो,


समग्र नारी आन्दोलन की समझ, का न्यूक्लियस बन जाती है ये पंक्तियां, सदियों से कथित प्रेम से छली गई, दैहिक सौन्दर्य की व्यंजना से मढ़ी कविताओं में व्यक्त रूपकों के जाल में उलझाई गई स्त्रियों के लिए एक नया सौन्दर्य शास्त्र गढ़ती है, और ऐलान करती है कि बस बहुत हो गया अब दया, करूणा और सहानुभूति नहीं बल्कि बराबरी और सम्मान से कम कोई बात मंजूर नहीं, क्योंकि सच है कि दया और करूणा चेतना हन्ता है, इससे उलट सीधा उत्पीड़न और दमन सीधे प्रतिरोध का जनक होता है।

एक मां के होते हुए कविता की आखिरी
चार पंक्तियां-
कुतिया उठकर चल दी
पीछे-पीछे पिल्ले भी चल दिए
उन्हें पता था एक मां के
होते , वो भूखे नहीं रह सकते।


संवेदना की इस ऊँचाई पर जब एक कुतिया भी कविता का विषय बन सकती है, इसी तरह याद आती है बाबा नागार्जुन की एक कविता, जिसमें धूप में लेटी अपने छौनों को दूध पिलाती एक मादा सुअर का अद्वितीय वर्णन करते हुए लिख दिया कि "आखिर वो भी तो मादरे हिन्द की बेटी है’’ इस सृष्टि के सुन्दरतम अस्तित्व में एक स्त्री जो अपनी सभी भूमिकाओं में उस खालीपन को निरन्तर, निर्बाध  भरती जाती है, जिसके बिना प्रकृति अपने समस्त अवयवों के साथ, जो उसके असीम सौन्दर्य के आधार हैं अधूरी लगती,तो रेखा ने यहाँ फिर साबित किया कि इस परिवेश में कोई भी चीज उसकी दृष्टि से बची नहीं है। 

क्योंकि मैं प्रेम करती हूँ तुमसे
इसलिए मैं प्रेम करती हूँ
महकते फूलों से, काँटों से
बहती नदी से, अविचल पर्वतों से

और बताना चाहती हूँ सबको
कि तुमसे प्रेम करना
बाकी दुनिया के साथ साजिश
करना नहीं है।


ऐसा अहसास तो अनगिनत लोगों को हुआ होगा मगर कलम के रास्ते से गुजरता हुआ ये एहसास कागज पर उतर आए, ये विरल बात है, लेकिन इस कविता का एक दूसरा बिम्ब भी है, मैं प्रेम करती हूँ फूलों से, काँटों से, तमाम कायनात से, इसलिए तुम्हें प्रेम करती हूँ तुमसे, इसलिए कहना चाहती हूँ कि समूची सृष्टि से, कायनात  से प्रेम करना तुम्हारे खिलाफ साजिश नहीं है, इसी संग्रह में प्रेम के उस आत्मिक सौन्दर्य और स्पर्श को विरल रूपक में व्यक्त करती कविताएं हैं, प्रेम में लड़की, ‘तुम मुझमें’ ‘पेड़ बनी स्त्री’ और अचानक...................................

ये प्यार-प्यार सब फुर्सत की
बाते हैं,
कभी फुर्सत मिली तो
जरूर सुनूंगी तुमसे
मेरे गाल पर तिल का क्या मतलब है।


क्या ये यूटर्न है, नही..... प्रेम के सबसे गहन रूपक को महसूस करती स्त्री श्रम और अस्तित्व की लड़ाई में अपने साथी का बढ़ा हुआ हाथ चाहती है जो उसके बोझ को, उसकी थकान को साझा करे, बजाय इसके कि झूठा प्यार जताए। यही वो शिखर है जहां साथ-साथ एक-दूसरे को संबल देते हुए जीवन की तमाम लड़ाइयां लड़ी और जीती जाती है। कि एक-दूसरे को देखने के बजाय दूर पहाड़ पर डूबते सूरज और उसकी लालिमा में सृजित सौन्दर्य को एक साथ देखना और एक ही तरह महसूस करना, यही जीवन का सर्वोच्च उत्साह है। यही प्रेम है, यही जीवन का सम्यक अर्थ है।

ऐसे में कविता तुम
मन के किसी कोने में
धीमे-धीमे सुलगती रहती हो,
बचाए रखती हो रिश्तों की गर्माहट
व मिठास
मुझे करती हो तैयार
उन का साथ देने को,
जो अपनी लड़ाई में
अलग-थलग खड़े है।


आखिर प्रेम और मानवीय संवेगों के साथ रेखा अपनी लड़ाई में अलग-थलग पड़े लोगों का साथ देने के लिए खुद को तैयार करती है, कविता के संबल के साथ। कविता के सामाजिक सन्दर्भ को अपने सहज बयान में व्यक्त करती हुई................

कविता अपने बचाव में हथियार
उठाने का विचार हैं
साहस की सीढ़ियां है
कविता उमंग है ,उल्लास है,
खुद में एक बच्चे को बचाए
रखने का प्रयास है।


यहां कविता अपने को सार्थक करने के लिए बीसियों आयामों में सामने आती है। वह विचार है, सीढ़ियां हैं। उल्लास है, और अपने भीतर एक बच्चे को बचाने का अर्थात, नैसर्गिकता, निश्छलता, मासूम भावनाओं को बचाने का एक प्रयास बन जाती है।

एक व्यस्त और अभावग्रस्त समय में, जहां संवेदना, धूप, हवा, नमी और हरियाली बचाने की जद्दोजहद इंसान और धरती को बचाने के जतन के साथ एकाकार हो जाती है, पेड़ बनी स्त्री की ऐसी कविताएं बेहद उम्मीद के साथ ऐसे कल का ऐलान करती हैं। जहां प्रेम अपने सर्वोत्कृष्ट रंग और खुशबू में प्रस्फुटित होता है, जहां जीवन ऐसी निश्छल कामनाओं के साथ अपने सरलतम रूप में, रंग में व्यक्त होता है। जहां छोटी-छोटी खुशियां कारूँ के खजाने को भी ठुकराने की ताकत देती हैं।


यह बसन्त अपनी खुशबू में
रंगों में और मादकता में
लहराएगा जीवन परचम,
इस वर्षा ऋतु में लहलहाएंगी
श्रम की फसलें, उम्मीद की
बालियों की शक्ल में,
इस शरद में भरेंगे खलिहान
आशाओं के और दीप लाखों
जगमगाऐंगे समता के,
अबके शिशिर में अलाव
के पास बैठ सुनेंगे अजब
किस्से नानी के, दादा के,
और आसमान में उठेगा धुंआ
हमारे विजयी ऐलान का।


ये मेरी ओर से पेड़ बनी स्त्री की सर्जक रेखा के लिए आदर के साथ और उस प्रेम के साथ, जो उसकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है, अपने हजार रंगों और रागो के साथ, इस उम्मीद के साथ कि उसकी कलम अविराम इसी तरह सरजेगी हजार कविताएं जो आसमान पर लिखी जाएंगी और सड़क चलते लोग सर उठा कर इन्हें पढ़ने के लिए पल भर को ठिठक जाएंगे।   

(यह समीक्षा हमें कवि मित्र महेश चन्द्र पुनेठा ने उपलब्ध कराई है।)                                                                                                    

टिप्पणियाँ

  1. जीवन सिंह

    सबसे पहले रेखा चमोली को उनके जन्म-दिन पर बधाई, मुबारकवाद । रेखा स्वयं में एक ऐसी संज्ञा है , जो पृथ्वी की विविधता में उसकी सीमाओं को दर्शाती हुई उसके ताने-बाने से बनी रिश्तों की गर्माहट से हमारा परिचय कराती है । कविता उनके यहाँ बनती नहीं , उपजती है जैसे बीज धरती से उपजता है । उपजने में कला का संयोजन नहीं करना पड़ता ,वह शब्द-व्यवहार के साथ ,-संग लगकर चली आती है । उसके पीछे रहते हैं कवयित्री के व्यक्ति-समाज से उसके टूटते-बनते रिश्ते नाते , उसका क्रोध, उसकी करुणा , उसकी आकांक्षाएं ,उसका इतिहास , उसका भूगोल-,प्रकृति , उसकी उंच-नीच और इन सभी के बीच से पैदा हुए वे सरोकार , जो आदमीयत के लिए हर काल, हर युग,हर समय और हर स्थिति में जरूरी होते हैं । उनके अभाव में रेखा जी का मन कभी क्षोभ तो कभी आक्रोश का इज़हार करने से नहीं चूकता । यहाँ एक ऐसी स्त्री का चेहरा है , जो मानवता को अपनी धुरी बनाता है और पितृ-सत्ता की प्रधानता के काले रंग में डूबे समाज की भीतरी करतूतों को उजागर करता है । उसे कहीं से आश्वस्ति मिलती है तो वह है प्रकृति की गोद ,जहां एक अनाम नदी बादलों के पास सागर का संदेसा पाकर दौड़ी चली जाती है । काश , ऐसे ही समाज के लोग भी किसी दुखी का संदेसा पाकर दौड़े चले जाते । यहाँ प्रकृति रूपकातिश्योक्ति की तरह आती है , जहां बादल ,नदी ,पर्वत , आकाश ,घाटियाँ और जंगल ही नहीं होते वरन इनके साथ बस्तियां भी होती हैं ।
    रेखा जी ने कविता को लगातार अपनी बातचीत की लय में साधा है । वे कविता नहीं , अपने पाठक से सीधे संवाद करती हैं जैसे स्कूल में अध्यापिका अपने विद्यार्थियों से करती है । इस बीच में जहां उनको अपनी सलाह देनी होती है , उसे बेझिझक देती हैं । एक बहुत खुली और उमंग भरी स्त्री से यहाँ हमारा परिचय होता है , जो सारी उपेक्षाओं के बावजूद अस्तित्त्ववादियों की तरह टूटी-बिखरी नहीं है । उन्हें विशवास है कि जब चीजें तहां तक आई हैं तो आगे भी जाएंगी । यह जीवन-यात्रा यहीं तक रुकने वाली नहीं है । क्योंकि उन्हें पता है -----कि प्रेम में /चट्टानों से भी घास उग आती है / और पेड़ की टहनी कलम के रूप में फिर से उग आती है । प्रेम ही उनका जीवनाधार है और यह इतना उदात्त है कि इससे सब कुछ बदला जा सकता है । हो बशर्ते प्रेम । जब हवा का बहना नहीं रोका जा सकता ,बीज का अंकुरित होना नहीं रोका जा सकता , फूलों का खिलना नहीं रोका जा सकता तो फिर ----
    कैसे रोक पायेगा /संसार की श्रेष्ठतम भावना /प्रेम का फलना - फूलना /

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  2. आदरणीय जीवन सिंह जी सादर प्रणाम ,आपकी टिप्पणी पढ़कर मै अविभूत हूँ जन्मदिन का इससे बेहतर तोहफा मुझे पहले कभी नही मिला ,
    सादर
    रेखा चमोली

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  3. yah sangrah maine padha hai ...achchii samiiksha kii hai semvaal jii ne ... rekhaa jii ko badhai

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  4. रेखाजी की कविताओं में एक अलग तरह की आग है

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  5. कवयि.ी और उनकी कविताओं पर क्या कहना? वे हैं... तो समीक्षा आई हैं। लेकिन जिस गहनता और सूक्ष्मता से कविताओं के भीतर जाकर सेमवाल जी ने कतिवओं में झांका हैं, उनकी पड़ताल की है, उन षब्दों और गहराईयों के बारे में शायद रेखा जी ने भी न सोचा है। एक गंभीर पाठक का ऐसा रसास्वादन ही साहित्य को एक आसमान देता है। सेमवाल जी विश्व के साहित्य से भी परिचित हैं और खुद भी एक जन सरोकार के कलमकार है। उन्हें बधाई देना मेरा फर्ज बनता है। कवयित्री को तो ही। पहली बार में बेहद गंभीर साहित्य का संकलन हो रहा है। आदरण्ीय विजंन्द्र जी तो उनके लिए 'बधाई' शब्द छोटा पड़ जाएग।

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  6. Saartak kavitai aur shaandaar sameeksha ke liye kaviyatri aur sameekshk ko badhai...Abhaar!

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