चन्द्रकान्त देवताले से मनोज पाण्डेय की बातचीत
चन्द्रकान्त देवताले ऐसे कवि हैं जिनका व्यक्तित्व निर्विवाद है। वे ठेठ कवि ही हैं। खुद भी वे अपने को पूरावक्ती कवि मानते हैं। एक ऐसा कवि जो पूरी निर्भीकता से उनके साथ खड़ा है जिनके साथ कोई खड़ा नहीं। आज जब स्त्रियों के प्रति हमारा समाज असहिष्णु और हिंसक दिखाई पड़ रहा है वैसे में यह अनायास नहीं कि देवताले जी की कविताओं में स्त्रियाँ भरी पड़ी हैं। और भरा पड़ा है देवताले जी की कविताओं में स्त्रियों के प्रति अपार आदर, प्यार एवं स्नेह। ऐसे ही निर्भीक व्यक्तित्व कवि के साथ बात की है युवा कवि और आलोचक मनोज पाण्डेय ने। तो आईए पढ़ते हैं यह बातचीत।
मनोज पाण्डेय - एक कवि के रूप में कविता पर बात शुरू करने के लिए आप किन सन्दर्भों को जरूरी मानते हैं?
चंद्रकांत देवताले - मनुष्य, धरती, पर्यावरण और हमारा समय। जिसमे हम जीवित हैं, कैसे जीवित है, हमारे संकट, हमारा संघर्ष, और हमारे सपने। 'हमारे’ से यहाँ मेरा आशय साधारण, सामान्य आदमी से है। मेरे लिए यही जरूरी सन्दर्भ हैं।
मनोज पाण्डेय - 1973 में आपका पहला संग्रह आया और 2012 में नया संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’आया है। इस अनथक रचना यात्रा में आये विभिन्न पड़ावों की पहचान आपने कैसे किया है?
चंद्रकांत देवताले -
“एक गाँव ने मुझे जन्म दिया
एक धक्के ने ने शहर में फेंक दिया
शहर ने कविता में उछाल कर मुझे कहीं का नही रक्खा।”
मैं कोई खास नहीं हूँ। साधारण लोगों के बीच हूँ और साधारण लोगों जैसा ही हूँ।| मेरा गाँव सतपुड़ा के घने जंगल जो आदिवासी गोंडवाना के इलाके में है, वहाँ मेरा जन्म हुआ। मैं आज भी उन्हीं जड़ों के साथ हूँ। इस तरह से कहना-बताना शायद शोभा नही देता होगा किन्तु मैंने दूसरे विश्व युद्ध आर्थिक मंदी को बचपन में देखा-झेला है। माँ मुंह अँधेरे जगा देती थी और हमे गेंहू के लिए एक दूकान पर जाना पड़ता था। जहाँ हरेक व्यक्ति को थोडा-बहुत गेहूं मिलता था। फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन, सन बयालीस का आन्दोलन और उसकी गतिविधिया इंदौर में मौजूद थी। मेरे घर में मेरे बड़े भाई, जो बी. काम. के छात्र थे, के कुछ युवा दोस्त आते थे। आन्दोलन को ले कर इनके बीच जम कर बातचीत होती थी। ये कैसे संभव था कि मैं उससे अंजान रहता। मेरे दूसरे भाई साहित्य के विद्यार्थी थे और हमारे घर में कविता संग्रह थे। सियारामशरण गुप्त, नवीन जी और इंदौर के कुछ कतिपय स्थानीय कवियों की कविताएँ आज भी मेरे मन में गूंजती हैं। मेरे पिता कबीर के दोहे जब-तब हमारे ऊपर जड दिया करते थे,किसी भी प्रसंग में।
कबीर जैसे कवि की आवाज को हमने राख में तब्दील कर दिया है। ऐसे पच्चीसों नाम है; संत तुकाराम, नानक, चंडीदास; इन सब आवाजों के एक-एक हिस्से को अपने मन में समेटा होता तो हम दासता के शिकंजे में कभी नही फंसते। दासता से मेरा आशय उस दासता से है, जो आजादी प्राप्त हो जाने के बाद भी हमें जकड़े हुए है, भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कई ऐसी बातें कहीं थी जो आज हमारे वास्ते चुनौती है। भारत-दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, अंधेर-नगरी में उन्नीसवी सदी की चुनौतिया-संकट उपस्थित थे। उनसे जुड़े दिशा निर्देश थे। भारतेंदु ने कहा था कि अंग्रेजी राज सुख-साज व्यवस्था दे रही है, ये अच्छी है किन्तु ‘सब सम्पत्ति विदेश चलि जात’ ये सबसे बड़ा दुःख है। आज हमारे जनप्रतिनिधि हवाई जहाजों में कुनबे सहित विदेश जाते है और वहाँ के धन-कुबेरों को देश में आमंत्रित करते है कि हमारी जमीन,जंगल,पहाड़,नदियों सबको तहस-नहस करो। पूंजीनिवेश करो। वो पूंजीनिवेश करे तो मुनाफा कहाँ जायेगा। ये महावणिक, महाठग हैं, और हम मुग्ध भाव से देख रहे हैं। यह मेरी रचना-यात्रा के दो महत्त्वपूर्ण छोर है जिनके बीच तमाम पड़ाव आये जो मेरी कविताओं में उभरते हुए आसानी से देखा जा सकता है।
मनोज पाण्डेय- आप अपनी रचना यात्रा में देश-दुनिया, समाज, समय, दृष्टि, विचार आदि तमाम स्थितियों में होने वाले कौन-कौन से बदलावों के प्रति आपने आप को सचेत पाया है?
चंद्रकांत देवताले - पहले तो हमे ‘आधुनिकता’ने जकड़ा, उसके बाद गये बीस साल से ‘भूमण्डलीकरण’की चपेट में है। परिणामस्वरुप कार्पोरेट पूंजी ने हमको अपनी देशीयता से, जातीयता से, अस्मिता से और पहचान से वंचित कर दिया है। अभी हिंदी दिवस गया है; भारतेंदु ने कहा “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।“ ‘आज हम अंग्रेजी के दीवाने हो चुके हैं। गाँव में मिटटी-ईट-गोबर से लिपे-पुते-बने मकान के आगे लिखा होता है कि ‘यहाँ अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है’। कहने का आशय है कि आजादी के बाद से ही जिस स्वतन्त्रता, न्याय, समानता के वास्ते हमने संघर्ष किया था; उस पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सबसे बड़े आदमी और जमादार का बच्चा एक ही स्कूल में पढ़े। आज हमारी शिक्षा प्रणाली दोहरी नहीं कई स्तरों में बंट गयी है। आज भी टाट-पट्टी वाले स्कूल हैं तो अकल्पनीय सुख-सुविधा वाले स्कूल भी।
इन सबको केवल कवि की चिंता का प्रश्न नही होना चाहिए बल्कि सजग, सचेत मनुष्य की चिंता भी होनी चहिये कि वो इन चीजों पर प्रहार करें। मैं कवि और मनुष्य होने में फर्क नहीं करता। मनुष्य होना क्या हमारा पेशा है। जैसे मनुष्य होना पेशा नही है; वैसे कवि होना पेशा नही है। कवि तो हमेशा पक्ष लेता है। मेरे कवि कहते थे ‘पार्टनर,तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ आज हमे फर्क करने की तमीज होनी चाहिए। हम किसके साथ है, किस के साथ चल रहें हैं, किसके याथ उठ-बैठ रहे हैं, और जो नही करना, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मैंने कभी परिनिष्ठित शुद्ध भाषा की चिंता नही की। जो आवाज भीतर से आ कर कविता बन पायी है ; वो कितनी टिकाऊ होगी या नहीं होगी। इसकी मैंने कभी चिंता नही की।
मनोज पाण्डेय- आपकी एक कविता है ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’; इसी शब्दावली के साथ क्या आप मानते है कि ‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब कविताएँ’?
चंद्रकांत देवताले - ये कविता ‘‘करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें’ इंदौर के एक अख़बार के पाक्षिक स्तंभ में छपा था। यह एक टिप्पणी थी, इंदौर में लगे एक पुस्तक मेले के बारे में, उसी के संदर्भ में यह लिखा गया था। लोगों ने कहा कविता है और कविता बन गयी। किन्तु कविता बहुत असर कर सकती है। उसके लिए जो सामाजिक जागरूकता चाहिए वह दिन पर दिन कम होती जा रही है। सूचनाओं के प्रवाह में, अंधड़ में विचार गायब होते जा रहे हैं। बाजार की आवाजों को कान ध्यान से सुन रहे हैं। आँखे, आकर्षक वस्तुओं, विज्ञापनों की मुग्ध भाव से देखती है। किन्तु सार्थक शब्दों, आवाजों के संदर्भ में भयावह उदासीनता है। पचहत्तर प्रतिशत लोग तो शिक्षित नहीं है, जो किताब पढ़े या कविता की ओर ध्यान दें। दूसरी ओर उच्च मध्य वर्ग जो शिक्षित हैं, वह अंग्रेजी, विदेश, और धन बटोरने के मोह में फंसा हुआ है। हमारे देश में एक नही अनेक देश है; इन लोगों का देश तो उन किसानों का देश जो आत्महत्या कर चुके है करने वाले हैं। उन आदिवासियों का देश जो विस्थापित हो अपनी ही जगहों पर मर रहे हैं। होटलों में काम कर रहे बच्चे, स्त्रियों, वेश्यावृति, गुंडे, निरंतर बढ़ते अपराध जितने जख्म दे रहे है उनकी गिनती करना मुश्किल है। चपरासी से ले कर बड़े अधिकारी तक भ्रष्टाचार में निष्णात हो चुके हैं। जनता में फैले दिग्भ्रम के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। क्योकि गुमराह करने वाली ताकतें, गुमराह करने वाला मीडिया और गुमराह होने वाली भीड़ ;ऐसे में गुमराह करने वाला आशावाद भी किस काम का?
यह सब कहने की जरूरत नही है। सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है। सिर्फ एक दिन का अखबार उठाइए, उसमें गाँव में, कस्बे में, शहर में स्त्रियों के साथ हुए दुष्कर्म की घटनाएँ, शहरों में औरतों के साथ चेन-पर्स छीनने की घटनाएँ, चंदा न देने चंदा उगाहने आये असामाजिक समाज-सेवियों द्वारा की गयी गुंडागर्दी; फिर नेताओं की बड़ी-बड़ी घोषणायें और उसी के नीचे विपत्तियों और त्रासदी की घटनाएँ, हत्या, आत्महत्या। कस्बे में अपनी तीन बेटियों के साथ माँ ने आत्महत्या की, इस तरह की खबरें हर रोज केवल केवल अपनी होने की जगहें बदल रही हैं। ये हमारे समय को प्रतीकात्मक लक्षण के तौर पर सामने ला रही हैं। ऐसे में कोई भी अपनी आत्मशांति को भंग कर ही जिन्दा है। ये चिकने-चुपड़े, खाए-पिए-अघाए, मनमुदित, आत्ममुग्ध, चुटकी भर अमरता के वास्ते कविता सच्चे मनुष्य और कवि के लिए नामुमकिन ही नहीं पाप है। कविता करिश्मा कर सकती है, उसको सुना नहीं जा रहा है, उसको तवज्जो नहीं दी जा रही है। मैं तो समझता हूँ कि मेरे जीवन में यही अच्छा रहा कि “आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नही छोड़ा। मेरी यही कोशिश रही कि पत्थरों की तरह टकराएँ हवा में मेरे शब्द। और बीमार की डूबती नब्ज को जान ताजा पत्तियों की साँस बन जाए। ऐसे जिन्दा रहने से नफरत है मुझे; जिसमे हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे। मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूँ, मेरे दुश्मन न हो और उसे अपने हक़ में बड़ी बात मानू।”
मनोज पाण्डेय- आपको ‘अकविता’ का कवि कहा जाता है। इस मान्यता के बारे में आपका क्या मानना है?
चंद्रकांत देवताले - यह भ्रम सजग रूप से फैलाया है, कई साथियों ने। शायद वो भ्रमित रहे होंगे। मैं कहता हूँ कि 1952, 1954, 1957, 1958 से जिसकी कविताएँ धर्मयुग, ज्ञानोदय में छपने लगी हो, जो धरती की कोख से जाया हो, जिसकी जड़े आज भी आदिवासी सतपुड़ा के क्षेत्र में हो, वह अकविता से आया हुआ कैसे हो सकता है? किसी ‘अकविता’ पत्रिका में छपने से कोई अकवि नही हो जाता। अकवि हो कर भी जो अपने समय, अपने आस-पास का, अपने जीवन का कवि हो क्या उसे अछूत घोषित करेंगे?
मनोज पाण्डेय- ‘वैकल्पिक व्यवस्था को ले कर साफ़ दृष्टि का न होने’ की बात आपकी कविताओं के बारे में की जाती है। एक वामपंथी मनो-धरातल वाले कवि के रूप में अपनी कविता के लिए आप इसे विरोधाभास मानते है?
चंद्रकांत देवताले - मैं प्रतिबद्ध पक्षधरता का कवि हूँ। मेरी पक्षधरता के प्रमाण मेरी कविता में मिलेंगे। उन्हें अलग से कहना अनावश्यक है। ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ जिन लोगों के पास कविता दृष्टि में थी, उस का साकार रूप या मूर्त रूप कहाँ साकार हुआ है? वही बता सकते है। यथार्थ को अपने नजरिये से ढकना और उसमें उम्मीद की सुरंगें दिखाना कठिन काम नही है। कविता को मैं जादूगरी नही समझता और जितना मैं जानता हूँ, जितना समझता हूँ, उतना मैं कहता हूँ। मेरा कोई दावा नही है, कविता में मैं मुंगेरी लाल के सपने नही देखता।
मनोज पाण्डेय - लीलाधर मंडलोई कहते हैं कि कदाचित स्त्री और बच्चों की इतनी मार्मिक छवियां किसी के पास नही हैं। राजनीतिक कविताओं का धारदार सर्जक कवि इन मार्मिक छवियों को अपनी कविताओं ने रचने का स्रोत कहाँ पाता है? क्या इन कविताओं को सिरजते समय आपकी ‘राजनीतिक दृष्टि भी काम आती है?
चंद्रकांत देवताले - कविता विचार और दृष्टि भिन्न-भिन्न तत्वों का पाउडर नहीं है। दृष्टि अंश-अंश में नही होती है। धरती और जीवनानुभव से एक समग्र सोच प्राप्त होती है। एक प्रेम कविता में भी विचारधारा हो सकती है और राजनीतिक चेतना वाली कविता में प्रेम और सौन्दर्य हो सकता है। बच्चे और स्त्रियाँ हमारी धरती पर चलते, सोते, रहते कहाँ नहीं दीखते? उनका दुःख, स्वप्न, संघर्ष और इनकी विपन्नता देखने और आत्मसात करने के लिए किसी म्यूजियम में जाने की जरूरत नहीं पडती। मैं जितना अपने अध्यापकीय जीवन में तमाम जगहों पर घूमा, भटका; सब कुछ उन्हीं अनुभवों से प्राप्त है। उन्ही अनुभवों से मेरी जीवन दृष्टि बनती है और मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि बनती है। मेरी जीवन-दृष्टि और काव्यदृष्टि में फांक नही है। कोई माने या न माने ; मैं अपने आप को पूर्णकालिक कवि मानता हूँ। जब मैं पढाता था, तब भी कवि-अध्यापक होता था। घर में, अपने आस-पास, अपने दोस्तों में मैं कवि-पति, कवि-पिता, कवि-पड़ोसी, कवि-मित्र की ही तरह रहा। अपने सच को कहने से कभी सकुचाया नहीं। यही मेरी कविता का स्रोत है।
मनोज पाण्डेय- आप को ‘भाषा का जोखिम’ उठाने वाला कवि कहा-माना जाता है। वह कवि जो अपनी ही भाषा के ढांचे को तोड़ता है। आप अपनी कविताओं के सन्दर्भ में इस मान्यता को किस रूप में लेते हैं?
चंद्रकांत देवताले - सच बात तो यह है कि काव्यभाषा, शिल्प, तकनीक इन सबके प्रति मैं कभी सतर्क नही रहा। नाप-तौल कर कविताई मेरे स्वभाव में नहीं। सहज स्फूर्त जो उमड़ता है, वही मेरी कविता बनती है, वही मेरी आवाज बनती है। दर्जी की तरह नापजोख कर काव्य का डिजाइन करना कवि का आम नही है। जो ऐसा करते है उन्हें मैं चकित भाव से देख कर खुश होता हूँ। कितना हुनर है उनमे? उनके हुनर की दाद देता हूँ पर मुझे दाद नहीं चाहिए। दाद नाम से त्वचा की एक बीमारी भी होती है।
मनोज पाण्डेय- जिस रचना संसार में नागार्जुन, शमशेर, केदार नाथ, मुक्तिबोध, धूमिल और देवताले जैसे कवियों के होने बाद भी गाहे-बगाहे ‘कविता के संकट’ में होने की बात की जाती है। उस रचना संसार के इस ‘संकट’ के बारे में आपका क्या मानना है?
चंद्रकांत देवताले - जिन बड़े कवियों का जिक्र किया है। उनकी आवाज आज भी प्रेरणा देती रहती है। वे आज होते तो वे भी संकट के इस ताप को तीव्रता से महसूस करते। यह संकट कविता का या कविता के समक्ष नही है। संकट मनुष्यता, हमारी धरती, हमारे पर्यावरण, भाषा, पहचान के समक्ष है। भूमंडलीकरण की दानवी चपेट में हमारी जगह से हम विस्थापित हो रहे हैं। भीषण चुनौतियाँ है, कवि जन और कविता भी हतप्रभ है। फिर भी हांफते हुए विस्मृत नही होती मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ ‘कोशिश करो /कोशिश करो /जीने की /जमीन में गड़ कर भी। किसानों ने अपना कितना कुछ खो दिया है। कितने ही किसानों ने आत्महत्या कर ली है। इस समय में भी कवि धरती पर खड़ा है; यही एक उम्मीद है।
मनोज पाण्डेय- आज की कविता ख़ास कर युवा और नये कवियों की कविताओं को पढ़-सुन कर आप हिंदी कविता के प्रति आश्वस्त हो पाते है ?
चंद्रकांत देवताले -अर्थव्यवस्था और उससे उत्पन्न संकट के बीच अगर हम कविताओं की आवाज को सुन पाये तो वे आश्वस्त करेंगी ही। कविता शिकस्त नही जानती है। चाहे कवि अनुत्तीर्ण माना जाये। आज कवि होना एक नैतिक सजा है और इस सजा को काटने-भुगतने का बेहतर तरीका साहस के साथ अपनी बात कहते रहना है। युवा रचनाकारों में इसी बेचैनी के साथ सृजनशीलता बड़ी है। केंद्र के कवियों को तो हम जानते ही है किन्तु जनपदों, कस्बों, आदिवासी और अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में भी पक्षधर युवा कवि-कविता हो रही है। जिसकी आवाज हमे आश्वस्त करती है। मौजूदा वक्त के उत्पीडन, संघर्ष, भ्रष्टाचार, राजनैतिक दांवपेंच को वे प्रखरता से पहचान रहे हैं।
ऐसे कवियों की भी भरमार है जो तुरत-फुरत लिखना, छपना और पुरस्कृत होने को आतुर, बाजारवाद के प्रवाह में आत्ममुग्ध हैं। इनका कोई इलाज नहीं है। यह भी रफ्तार में मथाते हमारे समय की दुर्घटना है। इस प्रश्न से भी हम टकरा रहें जिसका जवाब देना आसान नहीं है। आने वाले समय से हमे निबटना ही होगा। “यह वक्त, वक्त नही मुकदमा है /या तो गवाही दे दो /या गूंगे हो जायो हमेशा के वास्ते”। अपनी बित्ता भर जगह को बचाते हमे यही कोशिश करते रहना है। यही बात आज की कविता के साथ भी मौजू है।
चंद्रकांत देवताले
जन्म : 7 नवंबर 1936, जौलखेड़ा, बैतूल (मध्य प्रदेश)
मुख्य कृतियाँ-
कविता संग्रह : हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उसके सपने, बदला बेहद महँगा सौदा, पत्थर फेंक रहा हूँ।
आलोचना : 'मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक'
संपादन : 'दूसरे-दूसरे आकाश,' 'डबरे पर सूरज का बिम्ब'
अनुवाद : 'पिसाटी का बुर्ज' (दिलीप चित्रे की कविताएँ, मराठी से अनुवाद)
सम्मान
मुक्तिबोध फेलोशिप, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय पुरस्कार,साहित्य अकादमी पुरस्कार
फोन-09826619360
मनोज पाण्डेय
जन्म 03/09/1976 (दस्तावेजी ) कुशीनगर, उ० प्र० के एक गाँव में
शिक्षा-दीक्षा- बस्ती-गोरखपुर में
'पहल' पत्रिका पर शोध-कार्य पूरा कर उपाधि की प्रतीक्षा।
'इतिहास-बोध', 'परिकथा', 'वर्तमान साहित्य', 'युवा-संवाद', 'सचेतक', 'चिंतन-दिशा', 'सृजन', 'शैक्षिक दखल' आदि पत्र-पत्रिकाओं सहित 'जनज्वार', 'सिताब दियारा' ,जनपक्ष', 'पहली बार' आदि ब्लॉगों में कविताएँ, समीक्षा, लेख प्रकाशित।
सम्प्रति- दिल्ली सरकार के अधीन एक विद्यालय में अध्यापन
ई-मेल mp0402@gmail.com
फोन- 09868000221
(यह पूरी बातचीत परिंदे के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित हुई है।)
एक बेहतरीन साक्षात्कार . मनोज पाण्डेय जी को बधाई एवं आभार . पहली बार पर इसे साझा करने लिए संतोष भैया का शुक्रिया .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद
Manoj ne man se poocha hai aur devtale ji ne apane rang me poori sambaddhata se uttat diye hain. Sa, bhal kar rakha jaana hoga ose.
जवाब देंहटाएंbahut achchha sakShatkar,,,
जवाब देंहटाएंअच्छा साक्षात्कार है मनोज भाई बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंBahut badhiya sakshaatkaar!! Dhanyavaad...
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