शिरोमणि महतो के कविता संग्रह 'भात का भूगोल' की समीक्षा:जेब अख्तर


युवा कवि शिरोमणि महतो का कविता संग्रह 'भात का भूगोल' अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है जेब अख्तर ने। लीजिए प्रस्तुत है यह समीक्षा।  
 

आम आदमी की भाषा में आम आदमी की कविताएं

जेब अख्तर

भात का भूगोल शिरोमणि महतो का तीसरा कविता संग्रह है। इसके पहले उनके दो कविता संग्रह- ‘पतझड़ का फूल’ और कभी अकेले नहीं आ चुके हैं। मुझ तक पहुंची,  दूसरे संग्रह की कोई कविता मुझे बहुत अच्छी तरह से याद नहीं है। लेकिन उसे पढ़ते हुए उन कविताओं के प्रभाव में आए बिना नहीं रह सका था। मैं अपनी ही बात कहूं तो ऐसा मेरे साथ बहुत कम होता है। एक तो कविताएं, दूसरे अखबारी नौकरी के दरम्यान पढ़ी जाने वाली अखबारी कविताएं, इन दोनों ने मिल कर कविता के प्रति मुझे बहुत नृशंस बना दिया है। यह सब यहां लिखना इसलिए जरूरी लग रहा है क्योंकि स्थितियों के अनुसार पाठ के अर्थ बदलते रहते हैं। खैर,  शिरोमणि की कविताओं का आग्रह मेरे मन में हमेशा रहा है। इसका कारण है इन कविताओं की सादगी। चाहे वो भाषा हो, शब्दों का चयन हो, या कविता लिखने के तरीके का। शिरोमणि बिना किसी आडंबर, शब्दों के मोहजाल में फंसे बिना अपनी बात कह जाते हैं। शायद यही साधारण होना उनकी कविताओं की शक्ति है। दूसरे शब्दों में कहें तो आम आदमी की भाषा में आम आदमी की कविता। यह आज के समय में दुर्लभ हो गया है।

बहरहाल शिरोमणि अपनी कविताओं में शब्दों से खेलते नहीं, उनके साथ यारी और गलबहिया करते चलते हैं। इसलिए नहीं लगता कि ये कविताएं शब्दों के जादुई चमत्कार को पेश करने के लिए लिखी गई हैं या इनके पीछे वैचारिकता को लादने की आकुलता है। और शायद ही इन कविताओं में महज संवेदना का वो आद्र रूप दिखाई पड़ता है जिसके लिए कविता आज से एक-दो दशक पूर्व तक जानी जाती थी। कुछ बानगी देखिए:

कविता - भावजें
भावजें बहुत शीलवती होती हैं
उनके व्यवहार से छलकती है शीतलता का प्रवाह
-------भावजों का सिर हमेशा झुका रहता
इनके ही सिर पर
टिका रहता है हमारे परिवार के अभिमान का आकाश



कविता - संकेत
बाढ़ आने से पहले
नदी का पानी शांत हो जाता है
और फेन बहने लगता है
तूफान आने से पहले चारों ओर खामोशी छा जाती है
और समुद्र अपने पेट में
खींचने लगता है जल


कविता - पेट भर भात
साठ साल की बुढिया
कमर से झुकी हुई
जिसका धड़ और पांव
बनाते एक समकोण
वह कमर में हाथ रखे
घर - घर घूमती है
जूठे बर्तन मांजती है
और मजूरी में लेती है
एक डूभे में
पेट भर भात
पेट भर भात
और भर पेट भात में बहुत अंतर होता है
जैसे गगरे में भरा पानी
और पानी में डूबा गागर।


ये कुछ गिनी चुनी कविताओं की पक्तियां हैं, जिनमें जीवन और आम आदमी अपनी सहजता के साथ मौजूद है। शिरोमणि की यही खासियत है। वे विषय और शब्दों को गली-कूचों से निकाल ले आते हैं, गांव के आंगन और रसोई से निकाल ले आते है। रिश्तों और परिवार के बीच से। बिना किसी अलंकरण और भूमिका के। आंचलिकता और मिट्टी की सोंधी खुशबू के साथ। ये कविताएं आपको छूना चाहती हैं।

ऐसा भी नहीं है कि इस संग्रह की कविताओं में वैचारिक आग्रह या जीवन के जटिल पहलुओं का अभाव है। मगर इन जटिलताओं और वैचारिक आग्रह की पथरीली जमीन पर भी शिरोमणि की सहजता बरकरार रहती है। चाहे नक्सलवाद हो या राजनीतिक गिरावट, गलोबाइजेशन की बात हो या पलायन का विद्रूप सत्य, बाजारवाद हो या साहित्य का ही अंदरूनी स्खलन। कवि की सावधान और  सचेत नजरें सभी जगह जाती हैं। और वहां से एक संदेश एक सुगमता खोज लाता है। यहां उदाहरण के लिए संग्रह की इन पक्तियों को रखा जा सकता है :

कविता - विधायक और सांड
विधायक हंकादाता है
सांड़ की तरह
सांड़ इलाके में घूमता है
विधायक की तरह
दोनों बन गए हैं एक दूसरे के पर्याय
सांड़ अपने शरीर के मद में चूर
और विधायक सत्ता के मद में चूर
एक विधायक के संग कई - कई सांड़


कविता  - नेटवर्किंग वाले स्मार्ट लडक़े
वे नेटवर्किंग वाले स्मार्ट लडक़े
भागे जा रहे रॉकेटों की गति से
उन्हें छूना है अपने जीवन में
सफलता का ऊंचा आकाश
नेट वर्किंग से कमाया जा सकता है
एक दिन में तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस रुपए और तैतीस पैसे
यानी एक महीने में दस लाख



कविता  - खानदानी लोग
सबसे ज्यादा इज्जतदार समझते हैं
अपने आप को खानदानी लोग
उनकी रगों में दौड़ता है उनके खानदान का खून
और तईस पूर्वजों के जीन
वे ऑनर कीलिंग से कभी नहीं हिचकते
अपनी बेटियों को बलि बेदियों पर चढ़ाने से
तनिक नहीं सिहरते


शिरोमणि की इन कविताओं में जो सबसे मुखर है वो है अभाव, त्रासदी और दुख के अनुभव, जिससे आज भी इस देश की ६० फीसदी आबादी किसी न किसी तरीके से जूझ रही है। दो समय का भोजन इनके लिए आज भी उपलब्धि है और शरीर पर नया वस्त्र इनके लिए सपना और उत्सव जैसा होता है। त्रासद यह है कि इस वंचित आबादी एक बड़ा हिस्सा अब सरकारी आंकड़ों से भी नदारद होता जा रहा है। तरक्की के तमाम आंकड़े, विकास की तमाम तस्वीरें, उद्योग, तकनालॉजी, वैभव- इन सबसे यह हिस्सा वंचित है। बल्कि कहीं-कहीं इन उपलब्धियों की कीमत इस वंचित समाज ने अपने घर-बार, खेत-खलिहान और भविष्य को गिरवी रख कर चुकाई है। इस सदी में शायद विकास से अधिक भ्रामक शब्द दूसरा नहीं है। इन अभागों की दुनिया में भात का भूगोल ही राष्ट्र है। भात ही इनका राष्ट्रीय गान है। यहां उदाहरण के लिए संग्रह की शीर्षक कविता भात का भूगोल को ही रखा जा सकता है –

लोहे को पिघलना पड़ता है
औजारों में ढलने के लिए
सोना को गलना पड़ता है
जेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानो, सृजन का प्रस्थान बिंदु होता है – दुख


 बहरहाल संग्रह में कुछ-एक कमजोर कविताएं भी हैं। मसलन ठोंगे में कविता, मीडिया की मजाल, भाग गई लडक़ी वगैरह। सपाट बयानी की ऐसी कविताओं की संख्या गिनी चुनी है। कवि ऐसी कविताओं से बचें तो बेहतर होगा।


समीक्ष्य कविता संग्रह - भात का भूगोल
कवि - शिरोमणि महतो
कश्यप पब्लिकेशन गाजियाबाद

संपर्क- 
जेब अख्तर 
मोबाईल- 09835755118

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं