लेखक की गरिमा और पुरस्कार की प्रतिष्ठा का प्रश्न
(संदर्भ: लमही सम्मान)
भालचन्द्र जोशी
अभी हाल ही में लमही सम्मान को ले कर साहित्य जगत में काफी बावेला खड़ा हुआ था। फेसबुक पर इसको ले कर तमाम बातें और बहसें हुईं। कुछ समय बाद यद्यपि यह बावेला ठंडा पड़ गया लेकिन इस मसले ने लेखकीय गरिमा जैसे महत्वपूर्ण सवाल को हमारे सामने उठा दिया। इस पूरे मसले पर कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने यह विचारपूर्ण और बहसतलब आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
पिछले कुछ समय से हिन्दी साहित्य का परिदृश्य इतना उग्र और आक्रामक हो गया है कि असहमति का अर्थ शत्रुता से आगे बढ़ गया है। इस हद तक कि असहमत को भावनात्मक स्तर पर रक्तरंजित और जख्मी देखने पर ही एक क्रूर तुष्टि मिलती है। साहित्य के लिए जरूरी समझी जाने वाली विनम्रता पर हाँका लगा हुआ है। असहमति के तर्क की जगह एक उग्र तेवर आकार ले रहा है। यह भी पूरे मन से प्रयास हो रहे हैं कि उग्रता को सच के तर्क के विकल्प में प्रतिष्ठित किया जाए।
हाल ही में लमही सम्मान मिलने की घोषणा और सम्मान प्रदान किए जाने के बाद तक एक घमासान-सा मच गया है। किसी भी सम्मान या पुरस्कार का किसी को भी मिलना या न मिलना अपने आप में एक बहस का विषय हो सकता है। जिसमें तार्किक आपत्ति शामिल की जा सकती है। लेकिन लमही सम्मान के बाद जिस तरह से सम्मानित लेखक को आसान टारगेट बना कर आक्रमण का दौर शुरू हुआ उसने लेखक के साथ सम्मान को भी अपमानित किया। खासकर जिस तरह फेसबुक पर यह दौर शुरू हुआ वह चकित करने के साथ बहुत दुःखद भी रहा। जिन आपत्तियों में शालीन तर्क और भद्र भाषा थी ऐसे अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो शेष तो कंठ शुष्क कर देने वाला दृश्य था।
एक समय था जब किसी पुरस्कार, घटना या लेखक की किसी हरकत आदि से साहित्य में असहमति बनती भी तो अपनी असहमति प्रकट करने के लिए ज्यादा मंच और पत्रिकाएँ नहीं थीं। सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान या एकाध और इस तरह से। लघु-पत्रिकाओं की आज जैसी बाढ़ नहीं थी जो साहित्य में जरूरी भद्र तटों को ध्वंस्त करने की उद्दाम इच्छा में बहुत वेगवती हो जाती हैं। उस समय एक दिक्कत भी थी कि साहित्य में मुख्य परिदृश्य पर स्थित पत्रिकाएँ यदि उन असहमति को स्थान नहीं देती थीं तो सारा घटनाक्रम अनदेखा रह जाता था। सम्पादक की अधिकार सीमा कई बार जरूरी असहमतियों को भी अप्रकट रहने देती थी और प्रायः लेखक इस मनमानी पर कुढ़ कर रह जाते थे। प्रायः ऐसा सम्पादक की मनमानी या जिद की अपेक्षा साहित्य में शिष्टता की स्थापित छवि की रक्षा के लिए किया जाता था। इसी की आड़ में अनेक लेखकों, सम्पादकों और साहित्यिक संस्थानों की उद्दण्डता और अराजकता छिपी रह जाती थी।
सूचना और संचार माध्यम से इस नवीन तकनालॉजी के युग में इंटरनेट और खासकर फेसबुक के माध्यम ने एक ओर जहाँ प्रत्येक लेखक और यहाँ तक कि पाठकों को भी किसी भी घटना या विचार को लेकर अपनी सहमति-असहमति में त्वरित प्रकट करने की स्वतन्त्रता और सुविधा उपलब्ध कराई वह भी बगैर किसी तरह के पराए सम्पादन की दखल के। यह अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि है। जाहिर है कि इससे साहित्य का लोकतंत्र विस्तारित भी हुआ और ज्यादा अधिकार सम्पन्न भी लेकिन इसी के साथ अराजक अभिव्यक्ति के खतरे भी बढ़े हैं। साहित्य की इस नवीन स्वायत्तता के लिए ‘आजादी की लड़ाई‘ की तरह कोई मूल्य नहीं चुकाया गया था। किसी लम्बी लड़ाई के दौरान सम्भावित उपलब्धता को लेकर एक लिखित-अलिखित लोकाचार बन जाता है। ऐसी कोई स्थिति इस नई स्वायत्तता में नहीं बन पाई इसलिए स्वतन्त्रता का गरिमा-उत्सव अनेक लोगों के लिए अराजकता की अभिव्यक्ति की उपलब्धता की भीषण प्रसन्नता में तब्दील हो गया। फेसबुक तो नई पीढ़ी के अनेक लेखकों-पाठकों के लिए असहमति से अधिक प्रतिशोध का मंच बन गया। व्यक्तिगत हताशा को एक सार्वजनिक कुंठा में प्रदर्शित करने का रंगीन पर्दा मिल गया। अब इस माध्यम में सामान्य और शिष्ट हास्य के स्थान पर अश्लील और अशिष्ट ईर्ष्या की तरंगें बहने लगी हैं। लोग अब मजाक नहीं करते, मजाक उड़ाने लगे हैं - अपमान की हद तक।
लमही पुरस्कार से सम्मानित लेखिका इसी का दारूण शिकार बनी हैं। लमही सम्मान के निर्णायकों में से एक सम्मानित निर्णायक का कथन है कि तय तो यह हुआ था कि वरिष्ठ लेखकों को प्रायः सम्मान मिलता रहता है लेकिन नई पीढ़ी के लेखकों के लिए भी ऐसी शुरूआत होनी चाहिए। इसीलिए लमही सम्मान शिवमूर्ति के बाद नई पीढ़ी के लेखक के लिए चयन किया जाना तय किया गया। इससे नई पीढ़ी के लेखक को साहित्यिक स्वीकार और सम्मान की एक परम्परा शुरू की जा सके।
इस कथन में कोई बुराई नहीं है। वरिष्ठ लेखकों के लिए अनेक अवसर सुलभ हैं ऐसे में नई पीढ़ी के साथ ऐसी शुरूआत भली लगती है। फिर यह तर्क कि वरिष्ठ पीढ़ी के लेखकों के बाद एकदम नई पीढ़ी की लेखक को यह सम्मान दिया जाना असहज लगता है, इस कथन को उक्त तर्क के साथ समाप्त मान लिया जाना चाहिए। नई पीढ़ी के लेखकों में सम्मानित लेखक के नाम का ही चयन क्यों किया गया है ? यह ऐसी बहस है जिसमें कोई सुचिंतित तर्क और विश्लेषण की अपेक्षा अपवाद छोड़ कर अनेक लेखकों का निजी क्रोध, इच्छाएँ, कुंठाएँ, विवादप्रियता और विनोदप्रियता ही सामने आई।
इस नाम के चयन में इतने बड़े विवाद में क्या यह कम अचरज की बात नहीं है? सम्मानित लेखिका कोई गुलशन नंदा के स्तर की लेखिका तो है नहीं। वह अपने लेखन में जैसा श्रम और संघर्ष कर रही है। क्या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों का श्रम और संघर्ष उससे पृथक है ? इसका आशय यह कदापि नहीं है कि मैं सम्मानित लेखक को लमही सम्मान दिये जाने के निर्णय को श्रेष्ठता का अंतिम निर्णय प्रमाणित करना चाहता हूँ। इस बारे में मेरा अपना कोई पक्ष या विपक्ष नहीं है। यह सम्मानित लेखिका को लेकर कोई निजी पक्षधरता या बचाव नहीं है। मैं तो एक-दो मामूली-सी औपाचारिक मुलाकातों को छोड़ दिया जाए तो उनसे मिला भी नहीं हूँ। दरअसल यह एक लेखक की गरिमा ओर सम्मान की रक्षा का प्रश्न है। यदि यह पुरस्कार या सम्मान नई पीढ़ी के किसी लेखक को दिया जाना था तो सम्मानित लेखक का नाम क्या उस पंक्ति में अंतिम स्थान पर है?
सबसे ज्यादा अचरज तो होता है विजय राय की उस आत्मग्लानि को जान कर जिसे वे आत्मज्ञान की तरह प्रस्तुत करके लमही सम्मान दिये जाने की अपनी भूल स्वीकार कर रहे हैं। साथ ही इस भूल में निर्णायकों के दबाव और अपनी विवशता का मासूम खेद भी प्रकट कर रहे हैं। अभी हिन्दी साहित्य में बंदूक की नोक पर पुरस्कार के निर्णय के लिए स्वीकृति हासिल करने का चलन पैदा नहीं हुआ है। इसलिए निर्णायकों के दबाव से पैदा हुई उनकी विवशता समझने में हर किसी को कठिनाई आ रही है। इस तरह विजय राय ने लेखक के साथ ही दिये जाने वाले सम्मान की प्रतिष्ठा को भी क्षति पहुँचाई है। कई महीनों तक वे निरन्तर इस तरह दबाव में रहे कि उन्हें अपनी विवशता बताने का अवसर ही नहीं मिला यह बात यदि सच है तो बहुत चिंतित करने वाली है।
यह जानने की उत्सुकता भी बनी हुई है कि "लमही सम्मान" के पीछे आखिर योजना क्या थी? किस विचार या उद्देश्य को लेकर यह सम्मान स्थापित किया गया? इसके पीछे क्या दृष्टि काम कर रही है? लमही सम्मान को लेकर यह बात भी आग्रह की भाँति सामने आई है कि यह प्रेमचन्द परम्परा का सम्मान है। इस सन्दर्भ में सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखने में कठिनाई आएगी। फिर यह भी अपने आप में थोड़ा कष्टप्रद विचार है कि सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखा जाए। यह एक नई रूढ़ि को स्थापित करने का आग्रह है। परम्परा के प्रति खासकर प्रेमचन्द की परम्परा के प्रति सम्मान निर्विवाद है और होना भी चाहिए लेकिन उससे पृथक, उसके समान्तर नवीन के अस्वीकार की जिद थोड़ी असहज लगती है। प्रेमचन्द की रचनाओं में बड़े राष्ट्रीय सन्दर्भ और गहरे सामाजिक सरोकार की एक ऐसी आत्मीय पहचान का भरोसा है जो आज भी अखण्डित है। ग्रामीण समाज की गहरी समझ और उसकी मार्मिक संवेदन अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में बहुत प्रामाणिक ढंग से उपस्थित है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यही सरोकार भिन्न सन्दर्भों में एक नवीन शिल्प और भाषा में प्रकट हो तो यह प्रेमचन्द परम्परा का अस्वीकार है। प्रेमचन्द परम्परा के प्रति सम्मान के साथ भी हम नवीन को स्वीकार करते हैं। तो यह वैचारिक उदारता अनेक सम्भावनाओं के दरवाजे खोलेगी।
दरअस्ल लमही सम्मान को ले कर खुद संयोजक की मनःस्थिति बहुत अस्थिर और दुविधा में प्रतीत होती है। तमाम स्थितियों के बीच एक वैचारिक हड़बड़ी, दृष्टि को लेकर भटकाव और निर्णयों को लेकर असमन्जस नजर आता है जो उनक प्रतिक्रियाओं में प्रकट भी हुआ है।
इस पूरे प्रकरण में, इस सम्मान की पूरी प्रक्रिया को लेकर अनेक आरोप और सन्देह सामने आए हैं। हालाँकि यह आरोप तो महत्वहीन है कि सम्मान में निर्णायकों में कोई कथाकार नहीं हैं। साहित्य में खासकर आभासी दुनिया में मौजूद अधिकांश लेखकों-पाठकों को इस मसले में सम्मानित पुस्तक के प्रकाशक की भूमिका प्रकाशकीय उत्साह नहीं बल्कि अकारण की अतिरेकपूर्ण व्यवसायिक महत्वाकांक्षाओं का हस्तक्षेप लगी और नागवार गुजरा, खासकर सम्मान समारोह के निमंत्रण पत्र को ले कर। हर किसी को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का स्वाभाविक अधिकार है लेकिन उसमें एक सामाजिक दायित्व बोध और लेखकों के सम्मान का रक्षा भाव शामिल होना चाहिए। यह मसला एक सुखद मोड़ पर एक कटु सबक के साथ खत्म हो जाए तो बेहतर है।
दरअस्ल इस बात की निरन्तर अनदेखी हुई है कि एक लेखक की गरिमा को आहत किया गया है। मैं यह बात सम्मानित लेखिका के सन्दर्भ में नहीं बल्कि ‘लेखक जाति‘ के सन्दर्भ में कह रहा हूँ।
लेखकों की दुनिया कोई बहुत बड़ी नहीं है। तमाम इच्छाओं, आकांक्षाओं, रोष और कुंठा के बावजूद अपने सुख-दुःख के साथ इसी दुनिया में रहना है। जिस दुनिया में हमें रहना है उसे अपनी लेखक-आबादी से तो घना किया जा सकता है लेकिन इस हद तक ईर्ष्या, द्वेष, पीड़ा और रोष के साथ जगह तंग कैसे की जा सकती है? हमारी अपनी दुनिया खुशहाल और खूबसूरत नहीं है तो शेष दुनिया की चिंता में अकारण दुबले हुए जा रहे हैं।
मेरी पीड़ा यह है कि लेखन की दुनिया में गुस्से को इतना आक्रामक और निजी पहले कभी नहीं देखा था। इंटरनेट या फेसबुक तो एक माध्यम की अपेक्षा एक वधस्थल में तब्दील हो गए हैं। जहाँ हर कोई हाथ में गंडासा लिए फुफकार रहा है। जहाँ साहित्यिक भूल या गलती के लिए चरित्र वध किए जा रहे हैं। लेखकीय गरिमा का हत्याभिलाषी ‘माउस‘ क्रोध में चीखता हुआ उँगलियों के स्पर्श से वध-इच्छा में पीछा कर रहा है। ऐसी हत्याओं को पसंद-नापसंद करने वालों की अंधी भीड़ बढ़ती जा रही है। बौद्धिक वर्ग के रूप में ख्यात समाज का संवेदनशील तबका लेखकीय गरिमा और सामान्य सहिष्णुता से परे जाकर इस वधस्थल पर हो रही हत्याओं के रक्तिम छीटों और आहत आर्तनाद से जिस तरह प्रसन्नता में चीत्कार कर रहा है वह चकित कर देने वाला है। गहरा दुःख देने वाला है। इस आभासी दुनिया में हम जाने-अनजाने एक ऐसी क्रूरता के सम्बंधी हो रहे हैं जहाँ प्रेम और मैत्री के लिए जगह तंग हो रही है। खासकर उनके लिए जो लेखक होने के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते हैं। ऐेस लोग जो साहित्य में प्रेम और मैत्री की मुनादी के साथ दाखिल हुए थे उन्हें इस भीड़ में शामिल देख कर स्वाभाविक दुःख है। हम लोग यदि लेखन की दुनिया में हैं तो चाहे-अनचाहे ही एक गहरी वैचारिक गरिमा के हामीदार भी हैं। हमारी नैतिक अन्तश्चेतना हमारे लेखक होने के साथ नालबद्ध है या होना है।
एक ऐसा घटाटोप तैयार हो गया है जिसमें लेखक होने की अंतिम सार्थकता पुरस्कार है। हमारी लेखकों की दुनिया को अकारण इतना घना और सँकरा किया जा रहा है कि किसी रास्ते निकलने पर एक दूसरे की व्यक्तित्व हत्या किए बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं रह गया है। क्या साहित्य की दुनिया भी राजनीति की भाँति गलीच होकर गाली में तब्दील हो जाना चाहिए? हमारे पास अभी राजनीति के प्रति अपनी हिकारत का नैतिक जवाब है। मैं चाहता हूँ इसे निर्वैकल्पिक और तर्कातीत बचा कर रखा जाए। मैं असहमति या रोष के विपक्ष में नहीं हूँ। लेकिन एक जरूरी भाषा संयम और सहिष्णुता के साथ विपक्ष तैयार हो। जो इस तरह षड़यंत्र से आहत होते हैं, उनकी चोखी पीड़ा और वैध रोष समय को भी प्रतिकार के लिए अवसर दे। एक सहिष्णु धैर्य भी प्रतिकार का हिस्सा होता है।
हमारी दुनिया में क्या ऐसा समय आ चुका है जब लेखकीय आस्था और मूल्य-बोध जैसे पद विदा करके अधिकांश लेखक प्रतिकार के एक हुल्लड़-उत्सव में शामिल हो गए हैं ? लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते हैं, हमारे पास शब्दों की दुनिया की एक लम्बी और बड़ी विरासत है उसे न नष्ट किया जा सकता है और न बेदखल। अंततः वह हम सबकी विरासत और जिम्मेदारी है।
सम्पर्क -
भालचन्द्र जोशी
13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,
जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाइल नम्बर - 08989432087
भालचन्द्र जोशी
अभी हाल ही में लमही सम्मान को ले कर साहित्य जगत में काफी बावेला खड़ा हुआ था। फेसबुक पर इसको ले कर तमाम बातें और बहसें हुईं। कुछ समय बाद यद्यपि यह बावेला ठंडा पड़ गया लेकिन इस मसले ने लेखकीय गरिमा जैसे महत्वपूर्ण सवाल को हमारे सामने उठा दिया। इस पूरे मसले पर कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने यह विचारपूर्ण और बहसतलब आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
पिछले कुछ समय से हिन्दी साहित्य का परिदृश्य इतना उग्र और आक्रामक हो गया है कि असहमति का अर्थ शत्रुता से आगे बढ़ गया है। इस हद तक कि असहमत को भावनात्मक स्तर पर रक्तरंजित और जख्मी देखने पर ही एक क्रूर तुष्टि मिलती है। साहित्य के लिए जरूरी समझी जाने वाली विनम्रता पर हाँका लगा हुआ है। असहमति के तर्क की जगह एक उग्र तेवर आकार ले रहा है। यह भी पूरे मन से प्रयास हो रहे हैं कि उग्रता को सच के तर्क के विकल्प में प्रतिष्ठित किया जाए।
हाल ही में लमही सम्मान मिलने की घोषणा और सम्मान प्रदान किए जाने के बाद तक एक घमासान-सा मच गया है। किसी भी सम्मान या पुरस्कार का किसी को भी मिलना या न मिलना अपने आप में एक बहस का विषय हो सकता है। जिसमें तार्किक आपत्ति शामिल की जा सकती है। लेकिन लमही सम्मान के बाद जिस तरह से सम्मानित लेखक को आसान टारगेट बना कर आक्रमण का दौर शुरू हुआ उसने लेखक के साथ सम्मान को भी अपमानित किया। खासकर जिस तरह फेसबुक पर यह दौर शुरू हुआ वह चकित करने के साथ बहुत दुःखद भी रहा। जिन आपत्तियों में शालीन तर्क और भद्र भाषा थी ऐसे अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो शेष तो कंठ शुष्क कर देने वाला दृश्य था।
एक समय था जब किसी पुरस्कार, घटना या लेखक की किसी हरकत आदि से साहित्य में असहमति बनती भी तो अपनी असहमति प्रकट करने के लिए ज्यादा मंच और पत्रिकाएँ नहीं थीं। सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान या एकाध और इस तरह से। लघु-पत्रिकाओं की आज जैसी बाढ़ नहीं थी जो साहित्य में जरूरी भद्र तटों को ध्वंस्त करने की उद्दाम इच्छा में बहुत वेगवती हो जाती हैं। उस समय एक दिक्कत भी थी कि साहित्य में मुख्य परिदृश्य पर स्थित पत्रिकाएँ यदि उन असहमति को स्थान नहीं देती थीं तो सारा घटनाक्रम अनदेखा रह जाता था। सम्पादक की अधिकार सीमा कई बार जरूरी असहमतियों को भी अप्रकट रहने देती थी और प्रायः लेखक इस मनमानी पर कुढ़ कर रह जाते थे। प्रायः ऐसा सम्पादक की मनमानी या जिद की अपेक्षा साहित्य में शिष्टता की स्थापित छवि की रक्षा के लिए किया जाता था। इसी की आड़ में अनेक लेखकों, सम्पादकों और साहित्यिक संस्थानों की उद्दण्डता और अराजकता छिपी रह जाती थी।
सूचना और संचार माध्यम से इस नवीन तकनालॉजी के युग में इंटरनेट और खासकर फेसबुक के माध्यम ने एक ओर जहाँ प्रत्येक लेखक और यहाँ तक कि पाठकों को भी किसी भी घटना या विचार को लेकर अपनी सहमति-असहमति में त्वरित प्रकट करने की स्वतन्त्रता और सुविधा उपलब्ध कराई वह भी बगैर किसी तरह के पराए सम्पादन की दखल के। यह अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि है। जाहिर है कि इससे साहित्य का लोकतंत्र विस्तारित भी हुआ और ज्यादा अधिकार सम्पन्न भी लेकिन इसी के साथ अराजक अभिव्यक्ति के खतरे भी बढ़े हैं। साहित्य की इस नवीन स्वायत्तता के लिए ‘आजादी की लड़ाई‘ की तरह कोई मूल्य नहीं चुकाया गया था। किसी लम्बी लड़ाई के दौरान सम्भावित उपलब्धता को लेकर एक लिखित-अलिखित लोकाचार बन जाता है। ऐसी कोई स्थिति इस नई स्वायत्तता में नहीं बन पाई इसलिए स्वतन्त्रता का गरिमा-उत्सव अनेक लोगों के लिए अराजकता की अभिव्यक्ति की उपलब्धता की भीषण प्रसन्नता में तब्दील हो गया। फेसबुक तो नई पीढ़ी के अनेक लेखकों-पाठकों के लिए असहमति से अधिक प्रतिशोध का मंच बन गया। व्यक्तिगत हताशा को एक सार्वजनिक कुंठा में प्रदर्शित करने का रंगीन पर्दा मिल गया। अब इस माध्यम में सामान्य और शिष्ट हास्य के स्थान पर अश्लील और अशिष्ट ईर्ष्या की तरंगें बहने लगी हैं। लोग अब मजाक नहीं करते, मजाक उड़ाने लगे हैं - अपमान की हद तक।
लमही पुरस्कार से सम्मानित लेखिका इसी का दारूण शिकार बनी हैं। लमही सम्मान के निर्णायकों में से एक सम्मानित निर्णायक का कथन है कि तय तो यह हुआ था कि वरिष्ठ लेखकों को प्रायः सम्मान मिलता रहता है लेकिन नई पीढ़ी के लेखकों के लिए भी ऐसी शुरूआत होनी चाहिए। इसीलिए लमही सम्मान शिवमूर्ति के बाद नई पीढ़ी के लेखक के लिए चयन किया जाना तय किया गया। इससे नई पीढ़ी के लेखक को साहित्यिक स्वीकार और सम्मान की एक परम्परा शुरू की जा सके।
इस कथन में कोई बुराई नहीं है। वरिष्ठ लेखकों के लिए अनेक अवसर सुलभ हैं ऐसे में नई पीढ़ी के साथ ऐसी शुरूआत भली लगती है। फिर यह तर्क कि वरिष्ठ पीढ़ी के लेखकों के बाद एकदम नई पीढ़ी की लेखक को यह सम्मान दिया जाना असहज लगता है, इस कथन को उक्त तर्क के साथ समाप्त मान लिया जाना चाहिए। नई पीढ़ी के लेखकों में सम्मानित लेखक के नाम का ही चयन क्यों किया गया है ? यह ऐसी बहस है जिसमें कोई सुचिंतित तर्क और विश्लेषण की अपेक्षा अपवाद छोड़ कर अनेक लेखकों का निजी क्रोध, इच्छाएँ, कुंठाएँ, विवादप्रियता और विनोदप्रियता ही सामने आई।
इस नाम के चयन में इतने बड़े विवाद में क्या यह कम अचरज की बात नहीं है? सम्मानित लेखिका कोई गुलशन नंदा के स्तर की लेखिका तो है नहीं। वह अपने लेखन में जैसा श्रम और संघर्ष कर रही है। क्या उनकी पीढ़ी के दूसरे लेखकों का श्रम और संघर्ष उससे पृथक है ? इसका आशय यह कदापि नहीं है कि मैं सम्मानित लेखक को लमही सम्मान दिये जाने के निर्णय को श्रेष्ठता का अंतिम निर्णय प्रमाणित करना चाहता हूँ। इस बारे में मेरा अपना कोई पक्ष या विपक्ष नहीं है। यह सम्मानित लेखिका को लेकर कोई निजी पक्षधरता या बचाव नहीं है। मैं तो एक-दो मामूली-सी औपाचारिक मुलाकातों को छोड़ दिया जाए तो उनसे मिला भी नहीं हूँ। दरअसल यह एक लेखक की गरिमा ओर सम्मान की रक्षा का प्रश्न है। यदि यह पुरस्कार या सम्मान नई पीढ़ी के किसी लेखक को दिया जाना था तो सम्मानित लेखक का नाम क्या उस पंक्ति में अंतिम स्थान पर है?
सबसे ज्यादा अचरज तो होता है विजय राय की उस आत्मग्लानि को जान कर जिसे वे आत्मज्ञान की तरह प्रस्तुत करके लमही सम्मान दिये जाने की अपनी भूल स्वीकार कर रहे हैं। साथ ही इस भूल में निर्णायकों के दबाव और अपनी विवशता का मासूम खेद भी प्रकट कर रहे हैं। अभी हिन्दी साहित्य में बंदूक की नोक पर पुरस्कार के निर्णय के लिए स्वीकृति हासिल करने का चलन पैदा नहीं हुआ है। इसलिए निर्णायकों के दबाव से पैदा हुई उनकी विवशता समझने में हर किसी को कठिनाई आ रही है। इस तरह विजय राय ने लेखक के साथ ही दिये जाने वाले सम्मान की प्रतिष्ठा को भी क्षति पहुँचाई है। कई महीनों तक वे निरन्तर इस तरह दबाव में रहे कि उन्हें अपनी विवशता बताने का अवसर ही नहीं मिला यह बात यदि सच है तो बहुत चिंतित करने वाली है।
यह जानने की उत्सुकता भी बनी हुई है कि "लमही सम्मान" के पीछे आखिर योजना क्या थी? किस विचार या उद्देश्य को लेकर यह सम्मान स्थापित किया गया? इसके पीछे क्या दृष्टि काम कर रही है? लमही सम्मान को लेकर यह बात भी आग्रह की भाँति सामने आई है कि यह प्रेमचन्द परम्परा का सम्मान है। इस सन्दर्भ में सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखने में कठिनाई आएगी। फिर यह भी अपने आप में थोड़ा कष्टप्रद विचार है कि सम्मानित लेखक को प्रेमचन्द परम्परा में देखा जाए। यह एक नई रूढ़ि को स्थापित करने का आग्रह है। परम्परा के प्रति खासकर प्रेमचन्द की परम्परा के प्रति सम्मान निर्विवाद है और होना भी चाहिए लेकिन उससे पृथक, उसके समान्तर नवीन के अस्वीकार की जिद थोड़ी असहज लगती है। प्रेमचन्द की रचनाओं में बड़े राष्ट्रीय सन्दर्भ और गहरे सामाजिक सरोकार की एक ऐसी आत्मीय पहचान का भरोसा है जो आज भी अखण्डित है। ग्रामीण समाज की गहरी समझ और उसकी मार्मिक संवेदन अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में बहुत प्रामाणिक ढंग से उपस्थित है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यही सरोकार भिन्न सन्दर्भों में एक नवीन शिल्प और भाषा में प्रकट हो तो यह प्रेमचन्द परम्परा का अस्वीकार है। प्रेमचन्द परम्परा के प्रति सम्मान के साथ भी हम नवीन को स्वीकार करते हैं। तो यह वैचारिक उदारता अनेक सम्भावनाओं के दरवाजे खोलेगी।
दरअस्ल लमही सम्मान को ले कर खुद संयोजक की मनःस्थिति बहुत अस्थिर और दुविधा में प्रतीत होती है। तमाम स्थितियों के बीच एक वैचारिक हड़बड़ी, दृष्टि को लेकर भटकाव और निर्णयों को लेकर असमन्जस नजर आता है जो उनक प्रतिक्रियाओं में प्रकट भी हुआ है।
इस पूरे प्रकरण में, इस सम्मान की पूरी प्रक्रिया को लेकर अनेक आरोप और सन्देह सामने आए हैं। हालाँकि यह आरोप तो महत्वहीन है कि सम्मान में निर्णायकों में कोई कथाकार नहीं हैं। साहित्य में खासकर आभासी दुनिया में मौजूद अधिकांश लेखकों-पाठकों को इस मसले में सम्मानित पुस्तक के प्रकाशक की भूमिका प्रकाशकीय उत्साह नहीं बल्कि अकारण की अतिरेकपूर्ण व्यवसायिक महत्वाकांक्षाओं का हस्तक्षेप लगी और नागवार गुजरा, खासकर सम्मान समारोह के निमंत्रण पत्र को ले कर। हर किसी को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का स्वाभाविक अधिकार है लेकिन उसमें एक सामाजिक दायित्व बोध और लेखकों के सम्मान का रक्षा भाव शामिल होना चाहिए। यह मसला एक सुखद मोड़ पर एक कटु सबक के साथ खत्म हो जाए तो बेहतर है।
दरअस्ल इस बात की निरन्तर अनदेखी हुई है कि एक लेखक की गरिमा को आहत किया गया है। मैं यह बात सम्मानित लेखिका के सन्दर्भ में नहीं बल्कि ‘लेखक जाति‘ के सन्दर्भ में कह रहा हूँ।
लेखकों की दुनिया कोई बहुत बड़ी नहीं है। तमाम इच्छाओं, आकांक्षाओं, रोष और कुंठा के बावजूद अपने सुख-दुःख के साथ इसी दुनिया में रहना है। जिस दुनिया में हमें रहना है उसे अपनी लेखक-आबादी से तो घना किया जा सकता है लेकिन इस हद तक ईर्ष्या, द्वेष, पीड़ा और रोष के साथ जगह तंग कैसे की जा सकती है? हमारी अपनी दुनिया खुशहाल और खूबसूरत नहीं है तो शेष दुनिया की चिंता में अकारण दुबले हुए जा रहे हैं।
मेरी पीड़ा यह है कि लेखन की दुनिया में गुस्से को इतना आक्रामक और निजी पहले कभी नहीं देखा था। इंटरनेट या फेसबुक तो एक माध्यम की अपेक्षा एक वधस्थल में तब्दील हो गए हैं। जहाँ हर कोई हाथ में गंडासा लिए फुफकार रहा है। जहाँ साहित्यिक भूल या गलती के लिए चरित्र वध किए जा रहे हैं। लेखकीय गरिमा का हत्याभिलाषी ‘माउस‘ क्रोध में चीखता हुआ उँगलियों के स्पर्श से वध-इच्छा में पीछा कर रहा है। ऐसी हत्याओं को पसंद-नापसंद करने वालों की अंधी भीड़ बढ़ती जा रही है। बौद्धिक वर्ग के रूप में ख्यात समाज का संवेदनशील तबका लेखकीय गरिमा और सामान्य सहिष्णुता से परे जाकर इस वधस्थल पर हो रही हत्याओं के रक्तिम छीटों और आहत आर्तनाद से जिस तरह प्रसन्नता में चीत्कार कर रहा है वह चकित कर देने वाला है। गहरा दुःख देने वाला है। इस आभासी दुनिया में हम जाने-अनजाने एक ऐसी क्रूरता के सम्बंधी हो रहे हैं जहाँ प्रेम और मैत्री के लिए जगह तंग हो रही है। खासकर उनके लिए जो लेखक होने के दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते हैं। ऐेस लोग जो साहित्य में प्रेम और मैत्री की मुनादी के साथ दाखिल हुए थे उन्हें इस भीड़ में शामिल देख कर स्वाभाविक दुःख है। हम लोग यदि लेखन की दुनिया में हैं तो चाहे-अनचाहे ही एक गहरी वैचारिक गरिमा के हामीदार भी हैं। हमारी नैतिक अन्तश्चेतना हमारे लेखक होने के साथ नालबद्ध है या होना है।
एक ऐसा घटाटोप तैयार हो गया है जिसमें लेखक होने की अंतिम सार्थकता पुरस्कार है। हमारी लेखकों की दुनिया को अकारण इतना घना और सँकरा किया जा रहा है कि किसी रास्ते निकलने पर एक दूसरे की व्यक्तित्व हत्या किए बिना आगे बढ़ना मुमकिन नहीं रह गया है। क्या साहित्य की दुनिया भी राजनीति की भाँति गलीच होकर गाली में तब्दील हो जाना चाहिए? हमारे पास अभी राजनीति के प्रति अपनी हिकारत का नैतिक जवाब है। मैं चाहता हूँ इसे निर्वैकल्पिक और तर्कातीत बचा कर रखा जाए। मैं असहमति या रोष के विपक्ष में नहीं हूँ। लेकिन एक जरूरी भाषा संयम और सहिष्णुता के साथ विपक्ष तैयार हो। जो इस तरह षड़यंत्र से आहत होते हैं, उनकी चोखी पीड़ा और वैध रोष समय को भी प्रतिकार के लिए अवसर दे। एक सहिष्णु धैर्य भी प्रतिकार का हिस्सा होता है।
हमारी दुनिया में क्या ऐसा समय आ चुका है जब लेखकीय आस्था और मूल्य-बोध जैसे पद विदा करके अधिकांश लेखक प्रतिकार के एक हुल्लड़-उत्सव में शामिल हो गए हैं ? लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते हैं, हमारे पास शब्दों की दुनिया की एक लम्बी और बड़ी विरासत है उसे न नष्ट किया जा सकता है और न बेदखल। अंततः वह हम सबकी विरासत और जिम्मेदारी है।
सम्पर्क -
भालचन्द्र जोशी
13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,
जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाइल नम्बर - 08989432087
Santan ko sikree so ka kaam ? .... Dhanyavaad...
जवाब देंहटाएं