अरुणाकर पाण्डेय की कविताएँ




जन्म : तीन नवम्बर उन्नीस सौ उन्यासी, बनारस

शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से "हिन्दी की साप्ताहिक पत्रिकाओं में सांस्कृतिक-विमर्श (१९९० के बाद )" विषय पर पीएच.डी.
           तथा वहीँ से "हिन्दी की कार्टून पत्रकारिता के राजनीतिक-सामाजिक सरोकार" विषय पर एम्.फिल.

प्रकाशित रचनाएँ : 'वाक्','अनभै-साँचा','अपेक्षा','युद्धरत आम आदमी' तथा अन्य पत्रिकाओं में रचनाएँ-आलेख प्रकाशित
                          तथा अन्य पत्रिकाओं और पुस्तकों में भी प्रकाशानाधीन
                          प्रसाद साहित्य पर एक पुस्तक का सम्पादन शीघ्र प्रकाश्य
                          कई साहित्यिक-अकादमिक  आयोजनों, कविता पाठ,ब्लॉग तथा आकाशवाणी पर कविताओं की प्रस्तुति और भाषण
                          फेसबुक पर हिन्दी शिक्षा कर्म को लेकर सक्रीय

सम्प्रति :              मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय (प्रातः) में इन दिनों हिन्दी प्रवक्ता के रूप में कार्यरत



अरुणाकर पाण्डेय हिन्दी के उन युवा कवियों में से है जिन्हें कविता पर भरोसा है. लेकिन यह कविता इतनी आसान भी कहाँ. बकौल ग़ालिब इश्क है वो आतिश ग़ालिब जो लगाए न लगे बुझाये न बने. अरुणाकर भी इस मर्म को बखूबी जानते हैं. तभी तो वे लिखते हैं कि ‘बिलकुल ठीक कविता लिखना / भरसक बचने के बावजूद किसी मुहावरे में जीते जी मरना अनुभव करना ही होता है.’ लगातार गद्योन्मुख होती जा रही आज की कविता कवियों के लिए एक चुनौती है. मुक्ति के बावजूद लय और छंद को बचाना एक चुनौती है. कविता की गलियों से गुजरते हुए अरुणाकर को भी इन सवालों से जूझना होगा. बहरहाल प्रस्तुत है अरुणाकर की कुछ तरोताजा कविताएँ.     
   

अधूरा इतिहास

दो पुस्तकों के बीच
द्वन्द्वात्मक होता समय
बहता है कुछ इस तरह
कि साइबेरिया के पंछी
मौसम लौटने पर वापस न आयें
और हम  सोचते रहें उनके विस्थापन पर बार–बार !

हाथ में चाय का गिलास लिए
पूछते हैं पूर्वजों के संगी चाँद से
जो नहीं लगता बादशाह की अँगूठी का नगीना
याकि सुलगती बीड़ी के आखिरी काश सरीखा

किन्तु लौट जाता है वह भी
आज के दोस्त की तरह
अनुत्तरित
रोज़ सबेरे

  
कविता नहीं

उसे लिखने से बचना इस हद तक ज़रूरी लगता है कि जब भी वह काँपे
उसकी कलम से स्याही ना निकल पाए और यह मुमकिन हो कि आप
उसके अर्थ जान लें

वह नहीं लिखना चाहता है कोई कविता बस वह पूरी तरह अपने अकेलेपन में               
पिटते-छिनते एक अकथ को किसी भी जी हाँ किसी भी चीज़ से रख देना चाहता है

वह टूटन को एक लकीर भर देकर आपके भरोसे चला जाना चाहता है
क्योंकि वह जानता है कि कविता लिखना 
बिलकुल ठीक कविता लिखना 

भरसक बचने के बावजूद किसी मुहावरे में जीते जी मरना अनुभव करना ही होता है

वह जानता है कि दम घुटने और कागज़ की मौत मरने से पहले
उसे कई बार जीने की ओर ठेलता है एक आत्मीय और अमर भ्रम कि लिख ही लेगा
वह किसी ना किसी तरह एक बहुमूल्य अंकहीन कविता

क्षमा कर दो उसे
बहुत से पढ़े-सुने वाक्य घिसटते हैं उसके भीतर
टूटना ही संभव है
कविता नहीं


 काठ सरीखी उंगली
   
अब के सावन में एक भीगती हुई शाम
मुझे दिख गयी तुम्हारी काठ सरीखी उंगली
जब तुम हरियाली बचाए जाने के प्रयास में
इस शहर के चंद कदम तक बसाए जंगल से गुजरती हुयी सड़क पर
अपने रिक्शे के साथ सुस्ता रहे थे!

शहर का वह आरण्य पथ समर्पित हो रहा था केवल
चालीस लाख से ऊपर की गाड़ियों और एक सौ पचास की रफ़्तार को
और उसकी मंजिल या तो फॉर्म हाउस होती थी
या फिर उनके पार का देस
तो भी तुम इस पर सिर्फ उनके सोफे और डाइनिंग सेट पहुँचाने में थके हुए थे
और अकेले बीस की आस-पास की उम्र में
अपनी चोट खायी पिसी हुयी उंगली को
नज़रों से छिपा कर चूस रहे थे

ज़रा ठीक से देखो
आज भी तुम्हारी उंगली लेकर जा रहा है एक
अदृश्य अंगुलीमाल
और तुम्हारे शहर के ऐतिहासिक चप्पों के भी
झुके हुए सर निकल आये हैं
और इस शहर के लोगों को कभी याद ही नहीं रहता
कि वे एक नदी किनारे रहते हैं

ऐसे में यदि मैं चाहूँ कि तुम्हारी काठ सरीखी उंगली
बन जाए इस शहर की पहचान
तो यह निश्चित है कि यहाँ के लोगों की नजर में
मैं फिर एक जीता जागता मज़ाक बन जाउंगा

इसलिए मैं कहता हूँ कि
मुझे लिखने दो इस शहर की पहचान
बस इतना करो कि इस बार मैं कलम से नहीं
बल्कि तुम्हारी उसी उंगली से लिखूँ
जिसे मैं इस शहर की नींव मानता हूँ  


                   
 जलियाँवाला बाग की एक सैर


देश की अघिकतर जनता सँकरी गलियों से गुजरती है वे उन्हें उनके घरों तक ले जाती हैं लेकिन फिर भी वह उस गली से मिट रही है जो जलियाँवाला बाग तक जाती है और उन्हें यह आज भी बता सकती है कि गली-गली में काल बदल जाता है इतिहास परिवर्तित हो जाता है शासन चुक जाते हैं पीढ़ियाँ खत्म हो जाती हैं और यदि ध्यान से देखो वह गली वाला रास्ता जिससे जनरल डायर पहुँचा था भीड़ के ठीक सामने तो तुम्हे उसी से होते हुए पहुँचना है दशकों पीछे और देखना है उस संबंध को जो जनता और इतिहास के बीच बनता है अपने पूरे वर्तमान के साथ 

इस आगमन में हम सबसे पहले पहुँचते हैं उस प्रदर्शनी-कक्ष में जिसमें तस्वीरों से देश पानी पीते ठिठकता है और जानता है मदनलाल ढींगरा ऊधम सिंह इत्यादि को फिल्मों से इतर
देश ऊधम सिंह और अन्य तस्वीरों के साथ मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाता है और आगे बढ़ जाता है बिना यह जाने कि हाल बाज़ार के जिस चौक से दरबार साहिब होते हुए वह जलियाँवाला बाग पहुँचा है उस पर मूर्ति शहीद ऊधम सिंह की ही थी

देश अब उस कुँए पर पहुँच गया है जिसमें डायर की गोलियों से लड़ते हुए जनता कूदी थी वह उस कुँए की गहरायी अनुमानित करता है और उन लाशों को देखने की कोशिश करता है जो वहाँ नहीं हैं लेकिन वह फिर भी उन्हें देख ही लेता है जैसे क्राइम रिपोर्टिंग देख रहा हो और यह दिखने पर कि उसमें श्रद्धापूर्वक अनगिनत सिक्के फेके गए हैं वह लजाते हुए पुण्य-स्मरण करने लगता है और उसके हाथ उसकी जेब में पहुँच जाते हैं और चढ़ावे के बाद उसे समझ आता है कि इससे गहरे कुँए तो उसके गली मोहल्लों और गाँवो में होते हैं और देश फिर यहाँ पर जलियाँवाला बाग की गहरायी को भी पी जाता है

कुँए को पी जाने के बाद देश अब उस दीवार का सामना करता है जिस पर डायर की गोलियाँ जनता से चुककर धँस गयी थीं और अब वह उसके निशान और धँसान को अपने मन में छिपे हुए गड्ढों से चुका रहा है देश अपनी उंगली से उन गड्ढों को छू रहा है और उसके भीतर की खाली जगह को नाप रहा है उसे फिर नहीं समझ आ रहा है कि वह उनका क्या करे तो वह फिर से उनके साथ स्नैप में फँसता चला जा रहा है इसके बाद जब देश को दीवार के इर्द-गिर्द के घरों में सूखते कपड़े दिखायी देते हैं तो वह उसकी कीमत अपने इलाके के घरों से कमतर मानता हुआ उस रास्ते पर वापस लौट जाता है जो और कुछ नहीं बल्कि अन्य बागों की साफ़-सुथरी फोटोकॉपी मात्र है    


आप भी कभी जाइये जब जलियाँवाला बाग तो चैन से वहीँ बैठकर लबालब भरे पंजाबी लस्सी का गिलास लीजिए तब आपको भी वहाँ पहुँचने का यह अर्थ मिल सकता है
कि जलियाँवाला बाग पाकिस्तान नहीं बनने का पुराना चिह्न है
कि जलियाँवाला बाग हिन्दुस्तान नहीं बनने का पुराना चिह्न है
कि जलियाँवाला बाग नहीं बनने देगा खालिस्तान
वह उस दर्द की तरह है जो सबको सबसे बचा लेने का अर्थ व्यक्त करता है

आज जब मैं अपने शहर की गलियों पर ध्यान देता हूँ तो पता चलता है कि वे सब नदी पर समाप्त होती हैं वो नदी समाप्त हो रही है उस नदी को बचाने के प्रयास समाप्त हो रहे हैं बस उसके किनारे मजबूत होते चले जा रहे हैं और उसी से पूरी दुनिया में मेरे शहर की छवि बनती है और देश उससे वैसे ही मिलने आता है जैसे कि वह इस वक्त मौजूद होगा जलियाँवाला बाग में 
                                  

 नवांकुर

मैंने पढ़ा ही था कि
“मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीड़ा है”*
कि सहसा वे घुसे, पर्चे बाँटे और धड़धड़ाते हुए कह गए
कि हम हर करप्शन का हिसाब लेंगे
और हमें अपनी विजयी मुस्कान से पीट कर छोड़ गए

हम संभले और आगे बढ़े
और रमते हुए इस पंक्ति तक पहुँचे कि
“नव-नवीन रूप दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं”*
तभी वे भी घुसे और पूछा कि
क्या आपको मोहित चौहान के प्रोग्राम का पास मिला या नहीं
और उसे बाँटते हुए सी यू कहकर निकल गए

हम फिर नहीं संभल पाए
और अनकहे ही इंतज़ार करने लगे कि
शायद अब बचे हुए लोग आयेंगे

और इस तरह
लोकतंत्र का वह नवांकुर
आधुनिक भारत की एक साधारण सी कक्षा में
बीत गया !


*गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘मुझे कदम कदम पर’ की पंक्तियाँ
                                 

प्रति-ताल

अभी नहीं बज पा रहा ‘न’

साथ निभा देता है ‘गे’
इसलिए छूटे पसीने में भी संभव नहीं है ‘ध’ भी


अभी नहीं बज पा रहा ‘तिन’

वह हथेली को पूरा मौका देते हुए जब देता है
खुशी का भ्रम
तब पता चलता है कि कनिष्ठा के साथ देने के बावजूद
उसकी पड़ोसन अपने हठ में उठ गयी है किनारे से
ज़ाहिर है कि ‘तिन’ के अभाव में ‘गे’ नहीं दे पाता एक
आवश्यक सी थाप ‘धिन’
आप नहीं जानते कि अकेले में यह ‘धिन’
एक भरे पूरे आदमी को इतनी बार हरा देता है कि
‘कहरवा’ उसके लिए एक स्वप्न हो जाता है


‘धिन’ से हारा हुआ आदमी
अपने भीतर की ताल से परेशान है
वह उसे सुनते हुए भी जब व्यक्त नहीं कर पाता
तब वह कहीं भाग नहीं सकता
वह अपने भीतर मरता है
उसे अपना थापियाना बार बार कचोटता है


वह बाहर आता है तो
बस में ट्रेन में टी.वी. पर फिर मिलती है थापों की वही करारी सख्ती
जो उसे नहीं रहने देती है यात्री या दर्शक
वह एक चाय पीते हुए अपनी उँगलियों से बतियाना चाहता है
वह जम कर टूटना चाहता है
वह अपनी उँगलियों के सामने जब खुद पर करता है गहरे प्रहार
तो उसकी मार में भी उसे फिर ‘धिन’ का न सध पाना ही
ध्यान आता है


वह चाहता है कि या तो ताल का अंत हो जाए या फिर उसका लेकिन आज के हालात में दोनों ही संभव नहीं है क्योंकि सत्तात्मक होते हुए भी ‘धिन’ का हर समय बजना या न बजना एक रहस्य है और उसे भरोसा है कि ‘धिन’ की चाहत में उसका लगातार कटना मरना टूटना बहना ही मूल्यहीन सत्य है जिसका यथार्थ उसके लगातार पिट कर फिर बजाने और फिर हारने में है जो कि स्वयं एक प्रति-ताल है       
 
        

 लिखना सम्पूर्ण निराशा में


जिस कलम से मैं कुछ लिखना चाहता था वह कहीं गुम हो गयी है
उसे होना चाहिये था जिस किताब में वह उसमें नहीं रखी
उसे जिस टेबल पर होना चाहिये था वह वहाँ भी नहीं दिखती
और मेरे अचिह्नित दर्द को उभारती है
उसे सोफ़े की सीट के नीचे दबा मिलना चाहिये था लेकिन बार-बार पलटने के बाद भी
वह नदारद ही है
मैं डॉक्टर की फ़ाइल के भीतर उसे खोजता हूँ तो पता लगता है कि
मुझे स्ट्रेस नहीं लेना चाहिये मैं शांत होना चाहता हूँ
माँ-पिता सब परेशान मुझसे पूछते हैं कि क्या दिक्कत है तो भी
मैं अनसुना करके उन्ही जगहों पर उसे खोजने लगता हूँ

मैं एक गिलास पानी पीकर मर जाना चाहता हूँ लेकिन मेरी उंगलियाँ उसके दबाव और गति को महसूस कर रही हैं और मुझे लगता है कि मेरी मौत आने से पहले मेरी हत्या हो जायेगी

मुझे लगता है कि जो लोग आज नहीं बच पायेंगे
निश्चित ही उनकी भी वही कलम खो गयी होगी
जिससे वे कुछ लिखना चाह रहे होंगे
वे सम्पूर्ण निराशा में मेरी तरह बहुत छोटे से किसी छूटे हुए अंश को
अपनी खोयी हुयी कलम की मुकम्मिल पकड़ में
लिख कर
मारना चाह रहे होंगे 



 वाक्य – एक

एक भीड़ जैसे कि कुछ गिराती है उठाती है और गायब हो जाती है
नारे लगाती है
और खुद फिसलते हुए
एक वाक्य को जलील करते हुए जवाब देती है
जो यहाँ किसी भी चप्पे पर चस्पाँ होता है कि
“देखो गधा मूत रहा है”

इस भीड़ को सूदखोर के इशारों से ही नियंत्रित होना है
और इस पृथ्वी के सभी गधों को ही अंततः
अन्य साथियों के साथ खत्म होना है
जबकि कहानी में यह बार-बार आया था कि
वही मुल्ला नसरुद्दीन का असली साथी था  

वाक्य – दो

उन्हें अभी-अभी यह समझा कर भेजा गया है
कि मुद्रास्फिती के कुप्रभावों से बचने का एक तरीका यह भी
है कि हम डॉलर राष्ट्रवाद को
अपनाने का प्रयास करें
और डॉक् साब अगली कक्षा में
पूरी ताकत से निराला के रचित शक्ति की मौलिक कल्पना का                             
केन्द्रीय अर्थ संभाले
प्रतीक्षा में बैठे तैयार हैं

वहीँ हनी सिंह की ध्वनि
और कैटी पेरी की हँसी से बना एक वाक्य उभरता है कि
“यार ये हिन्दी वाला रियली सक्स”
इसके बाद उसी शक्ल का ‘फ़’ तुकांत वाला
एक और क्रूर वाक्य फ़्री गिफ्ट की तरह आता है
जिसे यहाँ लिखा या बताया नहीं जा सकता
क्योंकि वह अब तक उनकी स्लोगन टी पर भी नहीं
आया है
और यह भी कि उसका सामना करने में
पाठ्यक्रम की कोई भूमिका नहीं है    

 वाक्य - तीन

अमरकान्त और समरकान्त के चारित्रिक अंतर
को स्पष्ट करने के बीच
बही-खातों के सिद्धांत को प्रतिफलित करने वाला एक
हाथ उठता है और कहता है
“काश मैं लन्दन में पैदा हुआ होता”
तो मैं कहता हूँ यदि संख्याओं को संभालने वाले हाथों को
चीखें सुनायी दें तो हो सकता है
कि जो नम्बर एक व्यवस्था के संचय को सशक्त करने निकल रहा हो
अपनी सही जगह पहुँच जाए और
रगड़ खाते बचपनों को थोड़ा अधिक कलम कागज़ किताब दे जाए
तथा यात्रा के अंतिम पड़ाव पर ठिठके हुए लोगों को
स्थिर मुस्कान
और तुम्हें सही समय पर सीट के साथ कॉलेज पहुँचने के लिए
बस

इसलिए जानो कि वे दोनों
वेस्ट मिनिस्टर की ही देन थे
जैसे कि आज
हम और तुम   


सम्पर्क

मोबाईल -9910808735

ई-मेल : arunakarpandey@gmail.com

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