अमीर चन्द वैश्य



पहली बार पर वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य हर महीने एक कृति की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में इस बार प्रस्तुत है आलोचक भरत प्रसाद की आलोचना पुस्तक 'सृजन की इक्कीसवीं सदी।' 

वैश्वानरी चिन्तन एवं चिन्ताएँ

    मेरे सामने एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ‘सृजन की 21 वीं सदी’.  लेखक हैं उदीयमान कवि-कहानीकार और आलोचक भरत प्रसाद। समसामयिक विषयों पर विचारपूर्ण आलेख भी लिखते हैं अपने निरन्तर अध्ययन-अनुशीलन और लेखन से वह हिन्दी-संसार में अपनी अलग पहचान भी बना चुके हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके सर्वेक्षात्मक आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। उनके आलेख उनकी अध्ययनशीलता और आलोचनात्मक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत हैं।

    ‘सृजन की 21 वीं सदी’ में भरत प्रसाद के बीस आलेख संकलित हैं। वर्तमान सदी के प्रथम दशक में लिखित संकलित आलेख तीन भागों में विभक्त हैं। ‘साहित्य की परिधि’ भाग में ग्यारह आलेख संकलित हैं। ‘सृजन के अतिरिक्त’ भाग में साहित्येतर विषयों पर छः विचारपूर्ण आलेख। और ‘पूर्वोत्तर का भारत’ में तीन ज्ञानवर्धक आलेख।

    भरत प्रसाद के जागरूक साहित्यिक व्यक्तित्व की ‘मंगल कामना’ करते हुए प्रसिद्ध संस्मरण-लेखक कान्ति कुमार जैन ने ‘सारगर्भित भूमिका लिखी है। ‘तुषाग्नि की तरह सुलगते रहना’ शीर्षक के अन्तर्गत, जो भरत प्रसाद के लेखकीय व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य प्रस्तुत करती है। प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने अपने समय की अंधेरगर्दी से विक्षुब्ध होकर लिखा था -

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
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मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

    आजकल साहित्य संसार में दुष्यंत कुमार की अभिलाषा भरत प्रसाद पूरी कर रहे हैं। उनका लेखकीय व्यक्तित्व अपने नामराशि रामानुज सौम्य भरत के सदृश न हो कर सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के अमर्षपूर्ण उग्र स्वभाव से मिलता-जुलता है। इसीलिए अपनी भूमिका में जैन जी ने लिखा है - ‘‘इस पुस्तक के लेखक का नाम भरत प्रसाद नहीं, लक्ष्मण प्रसाद होना चाहिए।’ क्योंकि इस पुस्तक के आलेखों में वह लक्ष्मण के समान साहित्य, समाज, इतिहास, मूल्यचर्या जैसे नाना विषयों पर लावा उगल रहे हैं। क्षुब्ध, आन्दोलित, निर्भीक, परिवर्तनकामी, कहीं-कहीं उद्धत होने की सीमा तक।’’ (पृ. 7)

    पुस्तक में संकलित पढ़ कर उपरोक्त अभिमत ठीक मालूम होता हैं भरत प्रसाद उग्र स्वभाव वाले लक्ष्मण के समान अपने देशकाल की साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक विसंगतियों पर तीखी आलोचना करते हैं। साथ ही साथ पाठकों के सामने विकल्प भी प्रस्तुत हैं।

    आजकल हिन्दी का  साहित्यिक परिदृश्य  धनवाद और अवसरवाद से  आक्रान्त है।

उज्ज्वल भविष्य के अभिलाषी कवि-लेखक पद-पुरस्कार-प्रतिष्ठा की शीघ्र प्राप्ति के लिए अपनी रचनाशीलता को धारदार बनाने से संकोच करते हैं। लेकिन भरत प्रसाद इस साहित्य-धारा के विपरीत संतरण कर रहे हैं। अतएंव उनकी लेखनी साँच पर आँच नहीं आने देती है। वह स्वयं ‘तुषाग्नि में जलते रहने का संकल्प लिए हुए हैं। यही कारण है कि समीक्ष्य पुस्तक के सभी आलेखों में लेखक के आन्तरिक तेजस्वी स्वभाव और सटीक विश्लेषण की झलक झिलमिलाती है। वह गद्य को अभिनव और निजी भंगिमा भी प्रदान करती है।

    समीक्ष्य पुस्तक से पूर्व भरत प्रसाद की चार पुस्तकें (2004-2012 की अवधि में) प्रकाश में आई हैं। ‘और फिर एक दिन’ (कहानी संग्रह), देसी पहाड़ परदेसी लोग (लेख संग्रह) ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ (काव्य संग्रह), नई कलम: इतिहास रचने की चुनौती (आलोचना)। ये चारों संग्रह लेखक की सर्जनात्मकता की निरन्तरता का सबूत हैं और लेखकीय दायित्व का भी।

    ‘साहित्य की परिधि’ में सर्वाधिक ग्यारह आलेख संकलित हैं, जो लेखक की साहित्यिक चिन्ता और चिन्तन की ओर संकेत कर रहे हें समकालीन रचनाशीलता की खूबियों-खामियों का विश्लेषण अनिवार्य है। बेलाग एवं वस्तुनिष्ठ समीक्षाएँ साहित्य के स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। आवश्यकता यह भी है कि वर्तमान रचनाशीलता अपनी समृद्ध परम्परा से जुड़ कर आज के सामाजिक-वैश्विक ज्वलंत यथार्थ का निरूपण करके हिन्दी साहित्य का विकास कर रही है अथवा नहीं। जागरूक लेखक-कवि भरत प्रसाद ने संकलित आलेखों में इस सदी के पहले दशकम की सर्जना पर अपना अभिमत व्यक्त किया है।

    ‘सृजन की थर्ड डिग्री’ आलेख सर्वाधिक लम्बा है, जिसमें क्रान्तिकारी भावुकता, अव्यावहारिक होना ऊँचा मूल्य है, सृष्टि को सम्पूर्णता में आंकने का अगाध आत्मविश्वास, विस्फोटक दृष्टि की अवस्था, सृजन की थर्ड डिग्री और सृजन की 21 वीं सदी शीर्षकों के अंतर्गत आवेगपूर्ण भाषा-शैली में तर्क-पुष्ट विश्लेषण-विवेचन किया गया है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि लेखक की ये सर्जनात्मक मान्यताएँ हैं, जो उनकी सर्जना का मार्ग-दर्शन करती हैं।

    प्रत्येक ‘जेनुइन’ अर्थात् सच्चा-असली-निष्कपट लेखक-कवि अपनी साहित्यिक परम्परा के प्रगतिशील तत्व अपना कर अपने निजी सर्जना-पथ का निर्माण करता है। बनी-बनाई लीक पर चलना उसका स्वभाव नहीं होता है। भरत प्रसाद की मान्यता है कि ‘जेनुइन’ सर्जक का मन अराजक होता है। अपनी मान्यता का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि - ‘‘सृजन के कुरूक्षेत्र में अराजक चित्त का होना कोई नकारात्मक या विध्वंसात्मक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि वह दुनिया, समाज, संस्कृति और व्यक्ति के मौजूदा ढाँचे में काट-छाँट, बढ़ाव-घटाव पैदा कर उस में नया, सार्थक और क्रान्तिकारी विकास लाती है।’’ (पृ. 3)

    अराजक व्यक्ति व्यवस्था का विरोधी होता है। साहित्य सर्जना के संदर्भ में अराजक विशेषण पद का प्रयोग रूढि़ग्रस्त साहित्य के विरोध के लिए  किया गया है । महर्षि वाल्मीकि को इसलिए आदिकवि कहा जाता है कि उन्होंने वैदिक सूक्तों की  रचना न करके राम जैसे आदर्श मानव को ‘रामायण’ का नायक बनाया। महाकवि भवभूति ने ‘श्रृंगार रस ‘रसराज’ होता है’ जैसी प्रबल मान्यता का खण्डन करके ‘करूण रस’ को सर्वोपरि माना। हिन्दी काव्य-धारा को निरन्तर प्रवाहित करने के लिए जागरूक कवियों ने काव्य और समाज दोनों की रूढि़यों का विरोध किया। कबीर ने डंके की चोट पर आचरण को सर्वोपरि बताकर जाति व्यवस्था एवं हिन्दू-मुस्लिम-वैमनस्य का विरोध किया। सूर ने गोपियों के माध्यम से योग-मार्ग का खण्डन करके प्रेम को सर्वोच्च माना। तुलसी ने वाराणसी के तत्कालीन ब्राह्मण समाज के प्रबल विरोध झेल कर एवं लोक-भाषा अवधी में ‘मानस’ की सृष्टि करके अभिनव काव्य-मार्ग प्रशस्त किया। अपने आलोचकों को ‘काग’ कहकर अपने आत्मविश्वास का प्रमाण प्रस्तुत किया। ‘काक कहहिं कलकंठ कठोरा’। इसी प्रकार ‘मीरा ने सामन्ती समाज के बन्धन काटकर स्वतंत्र नारी के रूप में जीवन बिताया। प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध ने अपनी-अपनी क्रान्तिकारी सर्जना से साहित्य-समाज की रूढि़यों का खण्डन करके साहित्य को लोकोन्मुखी बनाया। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन भी इसी दिशा में सक्रिय रहे।

    ऐसे कवि-लेखकों ने लोभ-लालच एवं पद-पुरस्कार का मोह त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन सर्जना के लिए समर्पित कर दिया। ऐसे स्रष्टा अग्निधर्मा होते है, जो अपनी उद्दाम सर्जना के लिए स्वयं को संतप्त रखते हैं।

    भरत प्रसाद स्वयं कवि और कहानीकार हैं। अतएंव वह अपनी मान्यता की कसौटी पर स्वयं को एवं समकालीन रचनाशीलता को परखते रहते हें। निर्भीक भाव से जिनका यह कथन ठीक है - ‘‘अराजकता खुद कलाकार को पल-पल जलाती है। हाँ, यह जलन दुनिया और इंसानियत को कई सालों तक रोशनी देने के लिए है। सृजन की सिहरन से भरा हुआ ऐसा अराजक कलाकार इस जलन में जिस अलौकिक आनन्द का सुख लूटता है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। मानसिक शान्ति तो उसके लिए मौत है।’’ (पृ. 5)

    लेखक के इस कथन की सच्चाई उपर्युक्त कवियों-लेखकों का जीवन-चरित पढ़कर अनायास उजागर होती है।

    आलेख ‘सृजन की थर्ड डिग्री’ पढ़ते ही उदय प्रकाश की एक कहानी याद आने लगती है, जिसका शीर्षक यही है । ‘थर्ड डिग्री’ का सम्बन्ध पुलिस विभाग से है। घाघ अपराधी से अपराध स्वीकारने के लिए उसे कठोर दंण्ड दिया जाता है। असहनीय पीड़ा झेलता है अपराधी। सृजन के संदर्भ में इसका आशय है कि जागरूक सर्जक अपनी सर्जना की अवधि में अपना सुख-चैन त्यागकर निरन्तर बेचैनी का अनुभव करता है। लेखक ने अपनी मान्यता को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है - ‘‘यह सर्जक की प्राकृतिक, स्वतःस्फूर्त या स्वयंभू अन्तःशक्ति नहीं, बल्कि खुद को शिखर सर्जना के लिए तैयार करने का युद्धाभ्यास है। यह डिग्री अति दुष्कर प्रयास से ही संभव है। .......... सृजन की ‘थर्ड डिग्री’ वह दुर्लभ अवसर है, जो बड़े से बड़े कलाकार को भी बार-बार नहीं मिला करता।’’ (पृ. 22, 23)

    दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ‘थर्ड डिग्री’ सर्जक की वह मनोदशा है, जब वह प्रबल आत्म-संघर्ष करते हुए अपनी सर्जना को अपने देश-काल से सम्बद्ध करने का प्रयास करता है। उसमें उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व दूध में मिश्री के समान घुल जाता है।

    भरत प्रसाद ने अपने इस प्रदीर्घ आलेख में सर्जक की रचना-प्रक्रिया को नवीन शब्दों के माध्यम से आलोकित है। वस्तुतः महान सर्जक अपने देश-काल के जीवन और जगत के पर्यवेक्षण से अनुभवों को अनुभूतियों में बदल कर पहले मानसिक रचना करता है और फिर उसे भाषा अथवा रंगों के माध्यम से मूर्तिमान करता है ‘रचि महेस निज मानस राखा।’’ इसी कारण तुलसी के महाकाव्य का नाम ‘रामचरितमानस’ के रूप में विख्यात हुआ। यह आलेख पढ़ते समय मुझे मुक्तिबोध की डायरी का ‘तीसरा क्षण’ याद आता रहा। समीक्ष्य आलेख में मुक्तिबोध जैसी बेचैनी का झलक मिलती है। ऐसी बेचैनी भरत प्रसाद के सच्चे लेखकीय व्यक्तित्व का प्रमाण भी है।

    आलेख के अन्तिम अंश में लेखक ने गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हुए लिखा है कि मौजूदा शताब्दी सृजन विरोधी है। 20 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से आज तक दुनिया इतनी बदल गई है कि उदात्त जीवन-मूल्यों का क्षरण हो रहा है। उपभोक्तावाद और आर्थिक गुलामी का नया दौर प्रारम्भ हो गया है। महान कवियों-लेखकों ने अपने देश-काल की विषमता से ग्रस्त परिस्थितियों का सक्रिय प्रतिरोध करते हुए अपनी सर्जना के शिखर निर्मित किए हैं। वर्तमान सदी में भी प्रतिरोधी शक्तियों का ह्रास नहीं हुआ है। महान कृतिकार और उनकी कृतियाँ भी सामने आएंगी। यथास्थिति टूटी है और टूटती रहेगी। लेखक ने भी अन्तिम वाक्य में आशा की किरण भी दिखाई है - ‘‘शताब्दियों से चला आ रहा सृजन के कालजयी गौरव का इतिहास समय के भयावह दबावों से आमूल-चूल विद्रोह का इतिहास है।’’ (पृ. 25)


    अपने दूसरे आलेख ‘जैसे कि मुद्दों पर मुद्दे’ में भरत प्रसाद ने अनेक साहित्यिक मुद्दों - यथा: हंस के सम्पादकीयों, पद-पैसा-पुरस्कारों मंचीय कविता एवं गोष्ठी कविता, छद्म माक्र्सवादियों, समझौतावादियेां, वातानुकूलित सुविधाओं, वाचिक परम्परा के संवर्धक नामवर आलोचकों पर निर्भीक भाव से टिप्पणियाँ लिख कर अपनी तेजस्विता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। भरत प्रसाद को न तो शब्दबाजी पसंद है, न पुरस्कारबाजी और न कलाबाजी। उन्हें तो मुक्तिबोध की वैचारिक दाहकता पसंद है। यह उनकी निर्भीकता ही कही जाएगी कि उन्होंने अज्ञेय, नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव का नाम लेकर उनके साहित्यिक चातुर्य के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है।

    यदि अज्ञेय की तुलना में मुक्तिबोध महान कवि हैं, तो डॉ नामवर सिंह से बड़े आलोचक हैं डॉ रामविलास शर्मा, जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन आलोचना को समृद्ध करने में लगा दिया। आचार्य शुक्ल की विरासत उन्होंने ही आगे बढ़ाया। सम्मान तो स्वीकार किया, लेकिन धनराशि अस्वीकार कर दी । राजेन्द्र यादव  कथाकार प्रेमचन्द के सामने  बौने नजर आते  हैं
आधुनिक भारतीय साहित्यकारों में जितनी वैश्विक प्रसिद्धि कवीन्द्र रवीन्द्र और प्रेमचन्द को मिली है, उतनी अन्य किसी को नहीं। फिर भी इस सदी के प्रारम्भ से ही प्रेमचन्द पर आक्रमण हो रहे हैं। पहले भी हुए थे। डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी प्रखर आलोचना से प्रेमचन्द के कटु आलोचकों की बोलती बन्द कर दी। भरत प्रसाद ने ‘प्रेमचन्द के बाद प्रेमचन्द क्यों’ में यही मुद्दा उठाया है और प्रेमचन्द पर कीचड़ उछालनेवाले लेखकों की अच्छी खबर ली है। उनका अभिमत है - ‘‘निश्चित रूप से प्रेमचन्द एक श्रमिक की हैसियत से लिखते हुए विद्युति तीव्रता के साथ असाधारण से बहुत आगे की महत्ता हासिल कर चुके हैं।’’ (पृ. 35) और यह भी कहा है - ‘‘आज प्रेमचन्द की तरह दूसरे प्रेमचन्द की सख्त जरूरत है। लेकिन आज के समय में प्रेमचन्द बनना उनसे भी बड़ी जिम्मेदारी निभाना है, क्येांकि आज का समय और भी जटिल और भी कठिन है।’’ (पृ. 37) आजकल के बढ़ते हुए उपभोक्तावाद पर प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘ईदगाह’ प्रभावपूर्ण व्यंग्य है।

    ‘आलोचना का शून्यकाल’ में हिन्दी की समकालीन आलोचना के गिरे हुए स्तर पर चिन्ता व्यक्त की गई है। आजकल हिन्दी जगत में अनेक विधाओं की रचना और उनका प्रकाशन हो रहा है। सम्प्रति, ऐसे निष्पक्ष और न्यायाधीश आलोचक विरल हैं, जो प्रत्येक विधा की रचनाशीलता परख सकें। डॉ नामवर सिंह अधिकारी आलोचक माने जाते हैं। लेकिन उन्होंने मात्र वाणी से किसी भी रचना की प्रशंसा करना अब उचित समझ लिया है। जबकि लिखित आलोचना दायित्वपूर्ण मानी जाती है, वाचिक आलोचना दायित्वहीन। ऐसी आलोचना अब अज्ञेय की प्रशंसा करती है। अशोक वाजपेयी की भी। अतएंव वह विश्वसनीय नहीं मानी जाती है। आचार्य शुक्ल की आलोचना के समान। डॉ रामविलास की तार्किक समालोचना के समान। आजकल तो आलोचना प्रायोजित ढंग से लिखवाई जाती है। जुगाड़ का अनथक प्रयास किया जाता है। साहित्य के सामन्तों से सम्पर्क जोड़कर बड़े से बड़े पुरस्कार पाने वालों की पंक्ति में स्वयं को आगे खड़ा किया जाता है। तभी तो दूसरे ही काव्य-संकलन पर कवि को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्रदान किया जाता है। और वयोवृद्ध साधक साहित्यकार सन्न रह जाते हैं। भरत प्रसाद ने ऐसी ‘धांधली’ की ओर संकेत करते हुए ठीक लिखा है - ‘‘अन्य विधाएँ गुण में स्वादहीन होने के बावजूद किस तरह खैरात बाँटने  के अन्दाज में ‘महान’ घोषित हो रही हैं, इसके दृश्य चारों ओर साफ-साफ नजर आते हैं। जैसे बड़े शालीन और सुनियेाजित तरीके से बड़ा बनाने की धांधली मची हुई हो। पहले जो महान हो चुके हैं, वे लिखकर-तपकर महान बने। अब लिखने के बल पर बड़ा लेखक बनने के दिन लद गए। साहित्य में यह पद (बड़ा) सर्वत्र सुलभ है।’’ (पृ. 39) लेखक ने इस ज्वलंत मुद्दे पर सावधान होकर विचार किया है। प्रसंगवश, यहाँ उल्लेखनीय कि आचार्य शुक्ल और डॉ शर्मा की परम्परा के अनुयायी काव्यालोचक डॉ जीवन सिंह ने जब आधुनिकतावादी कवियों - रघुवीर सहाय, साही, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, श्रीकान्त वर्मा के काव्य की असलियत पुनः परीक्षण द्वारा उजागर की, तब दिल्ली दरबार कृतिओर के सम्पादक विजेन्द्र से रुष्ट हो गया। उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। हाँ, स्मृतिशेष डॉ शिवकुमार मिश्र और प्रो. चन्दबली सिंह ने विजेन्द्र के साहस की प्रशंसा की। बताएँ, किसी जाने-माने आलोचक ने विजेन्द्र के सम्पूर्ण काव्य का  मूल्यांकन किया  है ? जीवन सिंह, रेवती रमण  और  रमाकान्त शर्मा के अलावा । विजेन्द्र ने  निराला-केदारनाथ-अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध की परम्परा अपने ढंग से समृद्ध की है। और भारतीय काव्य परम्परा को भी आत्मसात किया है। ऐसे साहित्य-साधक की उपेक्षा आलोचना का शून्यकाल ही है।

    उपर्युक्त आलेख की चर्चा के बाद आलेख सं. 10 हिन्दी आलोचना के लिए शोक शब्द के औचित्य पर कुछ कहना ठीक मालूम होता है। भरत प्रसाद को इस बात पर खेद है कि आजकल कोई ऐसा बड़ा आलोचक नहीं है, जो हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं का मूल्यांकन कर सके। डॉ नामवर सिंह ऐसा कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने ‘‘25 वर्षों से कलम-कागज के साथ चिन्तन में डूबने की आदत से तौबा कर ली। वीर भारत तलवार अथवा वीरेन्द्र यादव विशेषज्ञ आलोचक हैं। ऐसे आलोचकों के अध्ययन का दायरा सीमित है। एक विशेषज्ञ आलोचक से यह आशा करना कि वह सर्वज्ञ हो, मात्र दुराशा है। आचार्य शुक्ल और डॉ रामविलास शर्मा के बाद ऐसे बहुज्ञ आलोचकों की संख्या विरल है, जो अपनी आलोचना में भारतीय एवं पाश्चात्य परम्पराओं का ‘संग्रह-त्याग’ विवेक से करते हैं। अन्धानुकरण नहीं करते हैं। फिर भी कुछ आलोचक ऐसे अवश्य हैं, जिन्होंने गद्य की लगभग सभी विधाओ पर अधिकारपूर्वक लिखा है। ऐसे आलोचकों में प्रो. मधुरेश का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने कथा-साहित्य के अलावा गद्य की अन्य विधाओं-संस्मरण, जीवन, डायरी, आत्मकथा आदि का सम्यक मूल्यांकन किया है। डॉ हरदयाल ने कविता एवं गद्य की अन्य विधाओं पर भी समीक्षाएँ लिखी हैं। आलोचना के संसार में वस्तुनिष्ठता कम गुटबंदी अधिक है। लाभ-लोभ के कारण प्रत्येक घटिया पुस्तक बढि़या बताई जाती है। फतवा दिया जाता है। धूमिल को निजी सम्बन्धेां के कारण बड़ा कवि घोषित किया गया। भरत प्रसाद का यह कथन भी ठीक है कि ‘‘हिन्दी आलोचना का बहुत पुराना एक असाध्य रोग है - उद्धरणबाजी।’’ विदेशी लेखकों के अधिक उद्धरणों से व्यावहारिक आलोचना अपठनीय हो जाती है। वस्तुतः यह हिन्दी आलोचक की ‘औपनवेशिक मानसिकता है। (पृ. 77) आलेख के अन्त में डॉ विजय बहादुर सिंह का अभिमत उद्धृत है, जिससे पूर्णतः सहमत होना असम्भव है। आचार्य शुक्ल और डॉ शर्मा का सम्पूर्ण कृतित्व पढ़ कर यह भ्रम दूर हो जाएगा कि हिन्दुस्तान अब पिछलगुआ देश माना जाता है। दोनों आलोचकों ने विदेशी जन-विरोधी ज्ञान का खंडन तर्कपूर्ण ढंग से किया है। पश्चिम का अन्धानुकरण कहीं नहीं किया है।

    युवा पीढ़ी के आलोचक अपनी परम्परा के आलोचकों से सीखे बिना आलोचना का विकास नहीं कर सकते हैं। हाँ, यदि ‘कविता के नए प्रतिमान’ को अपना आदर्श मानेंगे, तो पथ-भ्रष्ट होना अनिवार्य है। डॉ. जीवन सिंह ने अपनी काव्यालोचना में ‘कविता के नए प्रतिमान’ तर्कपूर्ण ढंग से अस्वीकार किए हैं।

    ‘प्रश्नों के चैराहे पर खड़ी कविता’ आलेख समकालीन युवा कविता पर केन्द्रित है। सर्वप्रथम कविता पर लगाए गए आरोपों का उल्लेख किया है। फिर उन आरोपों की परख की गई है। लेखक स्वयं कवि भी है । अतः वह युवा कविता के पक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए समकालीन कविता का वैशिष्ट्य समझाने का प्रयास करता है  - ‘‘समकालीन कविता को
देखने के लिए समकालीन आँखें चाहिए। शास्त्रीयता, सिद्धान्तवादिता, और पुरातन कला के तानाशाही आग्रह से पूर्णतः मुक्त आँखें। ............. आज के दौर में भी बेहतरीन कविताओं का सृजन उत्साहवर्धक मात्रा (संख्या) में हो रहा है, किन्तु चूँकि आम धारणा है कि समकालीन काव्य-सृजन का अधिकांश हिस्सा कूड़े के ढेर की ऊँचाई बढ़ाने के काबिल है, इसलिए इन कविताओं की भी कोई विशेष इज्जत नहीं है।’’ (पृ. 50)


    भरत प्रसाद का उपर्युक्त कथन सत्य के निकट है, किन्तु अंशतः। ‘समकालीन कविता’ में युवा कवियों के साथ-साथ विजेन्द्र, मलय, शम्भु बादल आदि भी काव्य-सर्जना में संलग्न हैं। इन कवियेां की उपेक्षा कहाँ तक न्यायसंगत है ? इनकी कविताएँ ‘कूड़े का ढेर’ हैं। जो आलोचक ऐसा मानते हैं, उनका काव्य-बोध अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। काव्य की सर्जन प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है। उस में समकालीन भाव-बोध, परम्परा के प्रगतिशील तत्व, इन्द्रिय-बोध, विचार-बोध, कल्पना के विविध रंग घुले-मिले रहते हैं। कथाकार संजीव के आरेाप ‘कविता याद क्यों नहीं रहती’। पर ‘कृति ओर’ में लम्बी बहस चली है। मेरा कहना यह है कि पाठक कविता-वाचन में आनन्द का अनुभव करता है तो उसे अपनी रूचि के अनुसार अनेक कविताएँ कंठस्थ हो जाती हैं। छन्दोबद्ध भी। मुक्त छन्द में रचित भी। त्रिलोचन ऐसे महान काव्य-प्रेमी थे, कि उन्हें असंख्य कविताएँ याद थीं। युवाओं से बातें करते समय वे तुलसी-निराला की अनेक कविताएँ उद्धृत करते थे। मैं पूछता हूँ कि कितने युवा कवि हैं, जिन्हें ‘रामचरित मानस’ के सभी काण्डों के नाम क्रम से याद हैं। अपनी बात के समर्थन में सुशान्त सुप्रिय का कवितांश उद्धृत करता हूँ। ‘‘गरीब दलित के रामचरितमानस में ये कांड नहीं होते - बाल कांड, सुन्दर कांड, अयोध्या कांड, किष्किंधा कांड, लंका कांड।’’ (शुक्रवार, साहित्य वार्षिकी, 2013 ; पृ. 180) कवि महोदय ने केवल पाँच कांडों के नाम लिखे हैं, जो क्रमशः नहीं हैं। इससे क्या सिद्ध होता है ? स्पष्ट है कि युवा कवि विदेशी काव्य तो चाव से पढ़ते हैं, लेकिन अपनी काव्य-परम्परा से प्रायः अनभिज्ञ रहते हैं। इसीलिए वे परम्परा-ज्ञान के अभाव में अपनी काव्य-सर्जना के लिए अच्छे ढंग सीख नहीं पाते हैं। निराला और त्रिलोचन ने किया। परम्परा से सीखा है। मुक्तिबोध ने भी। तुलसी के प्रिय छन्द हरिगीतिका का प्रयोग निराला ने पूर्ववत् किया है, लेकिन मुक्तिबोध ने मुक्त छन्द रूप में ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता रची है। ‘अंधेरे में’ आदि से अन्त तक कवित्त छंद की लय का निर्वाह किया गया है। कहीं-कहीं लय बदली भी है। ‘शिव ताण्डव स्तोत्र’ की लय का निर्वाह ‘मुझे पुकारती हुई पुकार/खो गई कहीं’ में है। केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ‘हवा हूँ हवा हूँ/ वसंती हवा हूँ। की लय का आधार मानस के उत्तरकांउ’ में आए शिव-स्तुति का छन्द है।

    तो, मेरा कहना यह है कि आज की कविता में लययुक्त काव्य रचना अनिवार्य है। यदि काव्य क्रियापद से शुरू किए जाएं, तो काव्य-विन्यास स्वतः प्रभावपूर्ण हो जाता है। निराला का एक वाक्य देखिए - ‘‘है अमानिशा ; उगलता गगन धन अन्धकार।’’ ‘उगलता’ क्रिया पद प्रारम्भ में है। वाक्य में भय का समावेश अनायास हो गया है। मुक्तिबोध के दो छोटे-छोटे वाक्य पढि़ए - ‘‘भागता मैं दम छोड़/ घूम गया कई मोड़।’’ दोनों वाक्येां में क्रिया पद शुरू में आए हैं, जो काव्य-वाचक के भय की अभिव्यक्ति कर रहे हैं।


    निस्संदेह अनेक युवा कवि ऐसे हैं, जो अपनी वाक्य-रचना लयात्मकता से अन्वित करते हैं। इन्द्रिय-बोध के आधार पर बिम्बों की सृष्टि करते हैं। जब बोलचाल की भाषा में अनपढ़ जन रूपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं, तब समर्थ कवि ऐसी भाषा की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? ‘हवा के घोड़े पर सवार होना’ मुहावरे में ऐसे रूपक का समावेश है, जो अत्यन्त तीव्र गति से दौड़ते हुए घोड़े का बिम्ब प्रत्यक्ष करता है।

    भरत प्रसाद का यह अभिमत ठीक है कि समकालीन कविता की निर्मम और वस्तुनिष्ठ आलोचना होनी चाहिए। वह आज के कवियों का उज्ज्वल भविष्य देखते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ वे आज की चर्चित कवयित्री निर्मला पुतुल को सावधान भी करते हैं - ‘‘इसके पहले कि निर्मला की शानदार ऊर्जा पर सन्देह की आँच आए, अपनी बोझिल लोकप्रियता की खुमारी (को) झाड़कर उठ जाना चाहिए।’’ (पृ. 55) ‘सन्देह की आँच’ पाठकों तक पहुँच रही है ऐसा कथन अशोक सिंह का है, जिन्होंने ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ संकलन का रूपान्तर किया है। उनका कथन कितना विश्वसनीय है, उसका पता लगाना अनिवार्य है।

    ‘युवा सृजन की फिलासफी’ में इस सदी के पहले दशक (सन् 2000-2010) को ‘युवा दशक’ कहा गया है। इस अवधि में पवनकरण, सुरेश सेन निशांत आदि युवा कवि, मनेाज कुमार पांडेय, चन्दन पाण्डेय, कुणाल सिंह आदि युवा कहानीकार और वीरेन्द्र यादव, कृष्ण मोहन, प्रियम अंकित आदि युवा आलोचक सक्रिय हैं। कविता और कहानी के संसार में युवा सर्जना की बाढ़ सी आ गई है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इस दशक के कम से कम बीस-बीस कवियों-कहानीकारेां की उत्कृष्ट रचनाएँ संकलित की जाएँ, जिससे युवा लेखन का महत्वपूर्ण येागदान सामने आ सके। यह कार्य भरत प्रसाद कर सकते हैं।

    भरत प्रसाद ने युवा आलोचकों की कमी की ओर संकेत भी किया है। उनके आलोचनात्मक लेखों में अँग्रेजी साहित्य के उद्धरणों की भरमार रहती है। ‘‘यहाँ युवा आलोचक की अपनी स्वयंभू, स्वाधीन, तेजस्वी चिन्तन-शक्ति गायब है।’’ (पृ. 47) बात ठीक हैं उद्धरणों की बहुलता से आलोचना गरिष्ठ हो जाती है। हाँ, अपने कथन के सत्यापन के लिए उद्धरण का उल्लेख जरूरी है। बेहतर आलोचना कृति-केन्द्रित होती है।

    ‘चैराहे की भाषा में बोलने का दुस्साहस’ आलेख में भरत प्रसाद ने मठाधीश कवियों-लेखकों-आलोचकों को उपलब्ध होने वाली सुख-सुविधाओं पर तीखा व्यंग्य प्रहार करते हुए इस यथार्थ पर चिन्ता व्यक्त की है कि आज ‘‘कबीर की तरह चैराहे पर खड़ा होकर बोलनेवाला काश कोई औघड़ कवि निकल’’ आता। उसकी आवाज दूर तक गूँजती। लोग उसे सुनने के लिए आतुर हो जाते। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो रहा है। क्यों? इसलिए कि ‘‘आज हमारे पास खुलेआम साहस का अकाल है, हम अपने शरीर से चिपके क्षुद्र स्वार्थों को झटककर फेंक नहीं पा रहे हैं। भय समाया हुआ है कि साफ-साफ बोल देने से न जाने कितने यार-दोस्त, लेखक तिनक जाएँगे।’’ (पृ. 59)


    ‘आत्म-मुग्धता की विराट क्षुद्रता’ में भरत प्रसाद ने हिन्दी-साहित्य-संसार में रचना-संलग्न महत्त्वाकांक्षी कवियों-लेखकों, ‘विराट क्षुद्रता’ वालों को व्यंग्यात्मक ढंग से उजागर किया है। उदीयमान कवि-लेखक गिनीचुनी कुछ रचनाओं के आधार पर इतने आत्म-मुग्ध हो जाते हैं कि तत्काल अपनी कीर्ति के झंडे गाड़ना चाहते हैं। ऐसे पल्लवग्राही साहित्य-स्रष्टाओं की रचनाओं में उथलापन होता है। भरत प्रसाद वास्तविकता उजागर करते हुए लिखते हैं कि फिल्म के ‘प्रमोशन’ के समान अब कविता-संकलन, कहानी-संग्रह अथवा उपन्यास आदि का भव्य ‘प्रमोशन’ होता है। ‘‘यह स्थिति अपनी पुस्तक के लोकार्पण और प्रायोजित समीक्षा से भी दस कदम आगे है।............. लेखन के इस दौर में अब सर्जक को विषय, घटना या चरित्र की विद्रूपताएँ (विरूपताएँ) या जटिलताएँ बेचैन नहीं करतीं ; ................ भावुक होना, न होना अब प्रयास-साध्य कर्म हैं, हृदय की सहज प्रकृति नहीं। इसीलिए आज कविता में नई से नई भाषा, शैली एवं संरचना की बाढ़ आई हुई है।’’ (पृ. 72)

    सारांश यह है कि आज का सर्जक अधिकतर आत्म-मुग्ध है। वह निराला और मुक्तिबोध के सर्जना के प्रति आपाद-मस्तक समर्पित नहीं हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी वरिष्ठ-कनिष्ठ सर्जक ऐसे नहीं हैं। कुछ सर्जक ऐसे भी हैं जो निराला को अपना आदर्श मानते हैं। विजेन्द्र और अष्टभुजा शुक्ल ऐसे ही कवि हंै। भरत जी ! समय का सूप ऐसे आत्म-मुग्ध सर्जकों को फटक कर कूड़ेदान में फेंक देगा। आचार्य शुक्ल और डॉ रामविलास शर्मा तथा उनके अनुयायी समालोचकों ने ऐसा ही किया है।

    इस आलेख में एक बात खटक रही है। वह यह है कि आत्म-मुग्ध सर्जकों के नामों का उललेख उनकी पुस्तकों सहित होना चाहिए था। इससे आलोचना और अधिक वस्तुनिष्ठ हो जाती।

    ‘नई सदी में कहानी का आहटें’ आलेख भरत प्रसाद के अध्ययन-चिन्तन और विश्लेषण का अच्छा प्रमाण है। उनकी मान्यता है कि इस सदी में ‘हिन्दी कहानी का यह विविध-विज्ञानी चरित्र सर्वाधिक उल्लेखनीय गुण बनकर उभरा है। ......... बेशक भाषागत विविधता और तथ्य के प्रकाशन की मौलिकता की दृष्टि से हिन्दी कहानी प्रेमचन्द, रेणु और कमलेश्वर से आगे बढ़ चुकी है।’’ (पृ. 61) अपनी स्थापना के समर्थन और उसकी व्याख्या के लिए चयनित कहानीकारेां - कमल, मेजर रतन जाँगिड़, रणीराम गढ़वाली, राकेश मिश्र, चन्दन पाण्डेय, टी. श्रीनिवास, सोमा बन्द्योपाध्याय की एक-एक कहानी की संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की गई है। तीन कसौटियों के साथ। और अन्त में अपना अभिमत इस प्रकार व्यक्त किया है - ‘‘समकालीन कहानीकार ने कहानी की (का) आकर्षक, स्वस्थ, टीप-टाप, रफ-टफ और भव्य शरीर तो खड़ी (खड़ा) कर दी (दिया) है, परन्तु वह प्राण-प्रतिष्ठा अभी शेष है, जिसके चलते शरीर शतायु बनता है।’’ (पृ. 70)

    हिन्दी कहानी  पर केन्द्रित  एक और  आलेख भी  संकलित  है । शीर्षक  है ‘कहानी प्राणधारा।’ लेखक ने सम्पूर्ण आलेख में ‘विषय की अभिनव साधना, व्यापक जीवन-संघर्ष की अर्थवान कल्पना, शब्द-दर-शब्द में दृष्टिमय संवेदना की कौंध, स्वाभाविक कथात्मकता में नाचती दार्शनिक चेतना, नए-नए प्रयोग के अर्थ और अनर्थ’ उपशीर्षकों कों के अन्तर्गत कहानी के रचनाविधान पर विचार किया है। लेखक स्वयं कहानीकार है। अतः उने रचना-विधान के लिए अनिवार्य निकष विवेचित किए हैं। उसके चिन्तन का सारांश यह है कि ‘‘संवेदना की अतिशयता कहानी की संजीवनी शक्ति है, जबकि शिल्प की अतिशयता कहानी के लिए जहर।’’ (पृ. 81) लेखक का निष्कर्ष समुचित है। आज भी प्रेमचन्द के समान बहिर्मुखी कहानियों की आवश्यकता है। निर्मल वर्मा की तरह अन्तर्मुखी कहानियों की नहीं। लम्बी कहानियाँ प्रायः उबाऊ होती हैं। श्रमशील लोक-जीवन से सम्बद्ध प्रभावपूर्ण कहानियाँ अनिवार्य हैं। व्यक्तिनिष्ठ कहानियाँ नहीं। भरत प्रसाद का उपर्युक्त निष्कर्ष ठीक है। प्रत्येक सर्जना पहले मानसिक होती है। वह अपना रचना विधान स्वयं निर्धारित करती है। इसका अच्छा उदाहरण प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ जिसका रचना-विधान उसकी अन्तर्वस्तु के अनुरूप है। उसका अन्य विकल्प असम्भव है। अतः जो युवा कहानीकार कहानी में भाषाई एवं शैल्पिक चमत्कार लाने का प्रयास करते हैं, उनकी कहानी फुलझड़ी के समान होती हैं ‘कहानी की प्राणधारा’ में लेखक ने श्रेष्ठ कहानी के लिए अनुकरणीय प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं।


    साहित्य-सर्जक को अपने देश-काल के साथ विभिन्न विषयों का सम्यक् ज्ञान भी होना चाहिए। वह अपनी सर्जन-प्रक्रिया में भूत, वर्तमान और भविष्य के काल-प्रवाह में संतरण करता रहता है। उसकी कृति वर्तमान के ज्वलंत यथार्थ का वर्णन-चित्रण करके सामाजिक बदलाव के लिए अग्रगामी सोच का विकल्प भी प्रस्तुत करती है। भरत प्रसाद ने ‘सृजन के अतिरिक्त’ में शामिल छः आलेखों में अपने समय और इतिहास की समीक्षा भी की है। सामाजिक चिन्ताओं का विश्लेषण करके विकल्प भी प्रस्तुत किए हैं। पहले आलेख ‘मृत्यु का दूसरा अर्थ’ में वह निर्भीक ढंग से अपना अभिमत व्यक्त करते हैं - ‘‘पराधीनता सुख को सीमित करती है, हक को सीमित करती है, मन को सीमित करती है और तन को भी सीमित कर देती है। वह अपने विषैले प्रभाव से गला-गलाकर मनुष्य को कंकाल रूप में चलाता-फिराता ढाँचा बना डालती है। इसीलिए अभय शब्दों में कहें तो पराधीनता जीते जी ‘मृत्यु का दूसरा अर्थ’ है।’’ (पृ. 95) ठीक बात है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’

    निजीकरण के वर्तमान क्रूर दौर में लोक-कल्याण राज्य की अवधारणा तिरोहित हो गई है। भारत जैसे विराट राष्ट्र में शिक्षा सभी वर्गों के लिए सुगमता सुव्यवस्था का अभाव है। भ्रष्टाचार ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी है। अब मध्यम वर्ग अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़वाने में उज्जवल भविष्य देखते हैं। अब उच्च शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि निम्न वर्ग के लिए तो वह मात्र स्वप्न है। कैरियर-केन्द्रित शिक्षा में मानव-मूल्यों की उपेक्षा की जा रही है। भरत प्रसाद ने ‘शिक्षा का व्यवसाय’ में यही चिन्ता व्यक्त की है। और शिक्षा को अनिवार्य मानव-मूल्यों से जोड़ने पर विशेष बल दिया है। उनका कथन ठीक है ‘‘मानव मूल्यों को युगानुकूल, व्यावहारिक, तार्किक एवं वैज्ञानिक ही होना चाहिए।’’ (पृ. 99)
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    स्कूली पाठ्य-क्रम में निर्धारित प्रत्येक विषय का सम्बन्ध उदात्त मानव-मूल्यों से होता है। विज्ञान के विषय जीवन-जगत् के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कर सकते हैं। लेकिन भारतीय समाज में ऐसी दृष्टि का प्रसार नहीं हो रहा हैं और शिक्षा का अँग्रेजी माध्यम वर्तमान पीढ़ी को अपनी भाषा और संस्कृति से दूर कर रहा है।

    उपर्युक्त आलेख के बाद ‘पृथ्वी का भारतवर्ष’ पढ़ना अनिवार्य है। लेखक ने यथार्थवादी एवं आलोचनात्मक दृष्टि से महान भारतवर्ष की वर्तमान क्षुद्रता का विश्लेषण निर्भीक भाषा में किया गया है। वर्तमान भारत की अनेक कमियों की ओर संकेत किया गया है। साम्प्रदायिक वैमनस्य से खिन्न होकर लेखक लिखा है कि ‘‘एक ही तरह से दिखने वाले दो शरीर कहते हैं- मैं हिन्दू हूँ तू मुसलमान। एक ही पृथ्वी के दो बाशिन्दे बोलते हैं कि हम दो प्रभुओं की सन्तानें हैं। वे पैदा होते हैं एक तरह से, पलते-बढ़ते हैं एक तरह से, हँसते और रोते भी एक तरह से, परन्तु कहते हैं एक नहीं हो सकते।’’ (पृ. 121)

    इसी प्रकार अन्य आलेखों - ‘जातिसूचक पहचान की राजनीति’, ‘दलित स्त्री के सच की खेाज’ और ‘भौतिक चेतना का अकाल’ में भरत प्रसाद ने सतर्क ढंग से सामाजिक जीवन की विसंगतियाँ उजागर की हैं। जातिसूचक पहचान के लिए शर्मा, वर्मा, सक्सेना आदि का प्रयोग ब्रिटिश शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए शुरू करवाया। क्या कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीराबाई, रसखान नामों से जाति का पता लगाया जा सकता है ? उत्तर प्रदेश की राजनीति में ’यादव’ का वर्चस्व है, जबकि यदुवंशी श्रीकृष्ण के नाम के साथ ‘यादव’ जुड़ा ही नहीं है। वर्तमान समय में जातिसूचक शब्द समाज की एकता खण्ड-खण्ड कर रहे हैं। पाखण्ड बढ़ा रहे हैं। अन्तरजातीय विवाह अभी मान्य नहीं हुए हैं। स्वयं को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील घोषित करने वाले भी अपनी ही बिरादरी के परिवार से सम्बन्ध जोड़ना श्रेयस्कर समझते हैं। लेखक ने यह भी संकेत किया है कि साहित्य-संसार में भी ‘सिंहों’, तिवारियों, ‘पांडेयों’ की भरमार है। संयोग से लेखक ने ‘आर्यों के आने’ (पृ. 103) की बात भी लिखी है। यह मुद्दा विवादास्पद है। डॉ. रामविलास शर्मा और भगवान सिंह इस मिथक का खण्डन कर चुके हैं। भारत में वर्ण व्यवस्था भी टूटी है। शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम्’ का नायक चारूदत्त ब्राह्मण है, लेकिन व्यापारी है। भौतिकवादी वैश्विक दृष्टि से जाति वयवस्था का विषैला प्रभाव शनैः-शनैः कम किया जा सकता है। मेरे प्रमाण पत्रों में ‘अमीर चन्द पुत्र श्री रामलाल’ लिखा है। मिश्र जी ने मेरे नाम के आगे ‘वैश्य’ चिपका दिया। उसे आज भी चिपकाए हुए हूँ। बेमन से। कान्ति कुमार जैन के समान। डॉ. रामशरण शर्मा की पुस्तक ‘शूद्रों का इतिहास’ पढ़कर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय समाज में शूद्रों का स्थान ऊँचा भी रहा है। डॉ. शर्मा के अनुसार ‘‘ऋग्वेद की घोषणा है: न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः - देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है। ऋग्वेद में शारीरिक और मानसिक श्रम में विभाजन नहीं हुआ, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है, जो संसार के किसी ग्रन्थ में नहीं है।’’ (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड - 1, भूमिका - पृ. 11, ले. डॉ. रामविलास शर्मा) हमारा वर्तमान और भविष्य भी ऐसा ही होना चाहिए। कलम और कुदाल का सम्मिलन। प्रत्येक बड़ा आदमी छोटे से छोटा काम स्वतः करे। तभी तो श्रम का सम्मान बढ़ेगा।

    देश-प्रेम का प्रारम्भ स्थानीयता के प्रति हार्दिक लगाव से होता है। भारतीय काव्य-परम्परा इसका प्रमाण है। अपनी जन्मभूमि और उसके आकर्षक प्राकृतिक परिवेश के प्रति कवि या लेखक का गहरा अनुराग होता।  ब्रजभूमि, ब्रजभाषा, ब्रजपति श्री कृष्ण के प्रति रसखान के गहरे अनुराग से सभी परिचित हैं। उत्तर प्रदेश के जनपद ‘सन्त कबीर नगर’ के अन्तर्गत हरपुर ग्राम में जन्में भरत प्रसाद सम्प्रति मेघालय राज्य के शिलांग में रहते हैं। अपनी जीविका के लिए। पूर्वोत्तर भारत को उन्होंने निकट से देखा-समझा है। इस पुस्तक के तीसरे भाग में ‘पूर्वोत्तर का भारत’ पर तीन आलेख संकलित हैं, जो लेखक के स्थानीय अनुराग की अभिव्यक्ति करते हैं। वहाँ के कठोर श्रमशील जन-जीवन की दिनचर्या का उनकी प्रतिकूलताओं का वहाँ के नारी प्रधान संस्कृति का, प्राकृतिक सौन्दर्य का, उच्च शिक्षा की व्यवस्था का, उग्रवाद और उसके कारणेां का यथातथ्य वर्णन किया है। एक वाक्य देखिए - ‘‘पूर्वोत्तर में मातृसत्ता का बोलबाला है, इसलिए पारिवारिक और सामाजिक रूप से युवाओं की अहमियत यहाँ दोयम दर्जे की बनकर रह गई है।’’ (पृ. 147)  यह संस्कृति उत्तर भारतीयों को चैंकाने वाली है। यहाँ तो पुत्र की कामना के लिए माननीय जन पत्नी की हत्या कर देते हैं। उसके पुत्रवती न होने के कारण। अथवा पुत्री को जन्मने ही नहीं देते । सारांश यह है कि भरत प्रसाद ने पूर्वोत्तर भारत की वस्तुनिष्ठ तस्वीर अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत की है।

    हम जानते हैं कि गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है। कविता-कहानी में बहुत कुछ व्यंग्यार्थ के द्वारा सम्प्र्रेषित होता है। गद्य में तार्किक ढंग से अपने गम्भीर विचारों के विवेचन की पूरी स्वतंत्रता होती है। गद्य कवियों की कसौटी भी है। कवि और कहानीकार भरत प्रसाद ने वैचारिक आवेग एवं तर्कपूर्ण ढंग से साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर पठनीय गद्य लिखा है। आवेग के कारण समीक्ष्य पुस्तक के पहले भाग के आलेखों का वाक्य-विन्यास प्रायः लम्बा हो गया है। वाक्यों में अमर्ष और वयंग्य का समावेश स्वतः हो गया है। दूसरे-तीसरे भागों के आलेखों की भाषा लेखक की प्रशान्त मनेादशा की प्रमाण है। वाक्य-रचना में लघुता है। सूक्तियाँ हैं। सार्थक उद्धरण हैं। व्यंग्य और वक्रोक्तियाँ हैं। सहज अलंकृति है। आकर्षक बिम्बों का समावेश है। कुछ उद्धरण बानगी के रूप में उल्लेखनीय हैं -
1.     ‘‘जेनुइन कलाकार का मन सर्वाधिक समझौता विरोधी होता है।’’ (पृ. 6)
2.    ‘‘एक दलित स्त्री वह बर्फीली लाश है, जो दिखने में सही-सलामत तो है, लेकिन उसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है।’’ (पृ. 112)
3.    ‘‘मिट्टी एक, मिट्टी का रूप, गुण और स्वभाव एक, परन्तु उसके काम अनेक हैं।’’
(पृ. 123)
4.    ‘‘कमियाँ जानकर भी किसी से प्रेम करना, प्रेम का बड़ा ऊँचा आदर्श होता है।’’
(पृ. 112)
    भरत प्रसाद का गद्य़ न तो उबाऊ है और न रिझाऊ। उसमें साँच की आँच है। वह हिन्दी के नामवर आलोचकों को झुलसा सकती है। अज्ञेय की हकीकत आलोकित कर सकती है। आज की युवा पीढ़ी का मार्ग-दर्शन कर सकती है।


    भरत प्रसाद ने वाक्य-रचना में प्रचलित तद्भव-तत्सम शब्दों के साथ उर्दू-अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग ठीक ढंग से किया है। भाषा-मर्मज्ञ तुलसी द्वारा प्रयुक्त ‘दर’ शब्द का प्रयोग, ‘अधिक’ के अर्थ के लिए, कई बार किया है। यथा - दर सत्य, दर यथार्थ, दर हकीकत, दर सच्चाई। लेकिन शब्द प्रयोग में कहीं-कहीं असावधानी भी दिखाई पड़ती है। ‘व्यर्थ’ शब्द से लगभग सभी हिन्दी भाषी परिचित हैं। इस शब्द के स्थान पर ‘बेअर्थ’ का प्रयोग खटकता है। (पृ. 5) ‘हालात’ और ‘बागान’ स्वयं बहुवचन हैं। अतः ‘हालातों’ (पृ. 125) और ‘बागानों’ (पृ. 141) का प्रयोग समुचित नहीं है। हिन्दी गद्य में ‘विद्रूप’ एवं ‘विद्रूपता’ के प्रचलन पर औचित्य की मोहर लग गई है। त्रिलोचन शास्त्री समझाते थे कि ‘विद्रूप’ शब्द में ‘विद्’ धातु है। अतः ‘विद्रूप’ का अर्थ है ‘रूप का ज्ञान’। लेकिन ‘विद्रूप’ का प्रयोग ‘विरूपण’ के लिए किया जाता है। भरत प्रसाद ने भी ‘विद्रूप’ (पृ. 25) और ‘विद्रूपता’ (पृ. 24) का प्रयोग ‘विरूपण’ और ‘विरूपता’ के अर्थ-द्योतन के लिए किया है। हाँ, ‘विरूपण’ के समानार्थी शब्द ‘बदरूप’ (पृ. 25) ठीक किया है। ‘भाषायी’ (पृ. 68) रूप सदोष है। शुद्ध रूप है ‘भाषाई’। यह अशुद्ध रूप दो बार प्रयुक्त किया गया है।

    इसी प्रकार एक-दो शब्दों के मानक रूप विचारणीय हंै। ‘पिया’ और ‘किया’ रूपों के स्त्रीलिंग रूप ‘पी’ और ‘की’ प्रचलित हैं। पुल्लिंग में ‘य’ व्यंजन ध्वनि इतनी कमजोर है कि स्त्रीलिंग रूप में उसका उच्चारण होता ही नहीं है। इसी प्रकार ‘दिखाया’, ‘पढ़ाया’, ‘गिनाया’ जैसे रूपों के स्त्रीलिंग रूप ‘दिखाई’, ‘पढ़ाई’ ‘गिनाई’ हैं। समीक्ष्य पुस्तक में ऐसे मानक रूप प्रयुक्त नहीं किए गए हैं। यथा - ‘दिखायी दे रही है।’ (पृ. 451) ‘गिनती गिनायी जाये’ (पृ. 104) ‘आयेगा-, जायेगी’ जैसे शब्दों के मानक रूप ‘आएगा’ ‘जाएगी’ हैं। ऐसे रूपों के उच्चारण में ‘य’ ध्वनित ही नहीं होता है। ‘तभी तो पायेगा’ (पृ. 71) में ‘पायेगा’ का मानक रूप ‘पाएगा’ है। यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ, तहाँ रूप मानक हैं। ऐसे शब्दों में ‘चन्द्रबिन्दु’ के स्थान पर केवल बिन्दु का प्रयोग ठीक नहीं है। यदि केवल बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, तो ‘हंसी’ और ‘हँसी’ में अथवा ‘घाटी’ और ‘घाँटी’ में अर्थ-भेद कैसे किया जाएगा ? ऐसे मानक रूपों का प्रयोग प्रत्येक पेज पर नहीं दिखाई देता है। पृ. सं. 11, 12, 15, 16, 19, 20, 21, 26, 27, 37, 39, 41, 45, 51, 58, 62, 63, 65, 72, 87, 88, 100, 131, पुनः ध्यानपूर्वक पढ़कर भूलें तलाशी जा सकती हैं।

    ‘इंटरनेशनल’ का हिन्दी पर्यायवाची ‘अन्तरराष्ट्रीय’ शब्द है। इसी प्रकार अन्य जातियों, प्रान्तों से सम्बन्धित रूप ‘अन्तरजातीय’, ‘अन्तरप्रान्तीय’ मानक हैं। पृ. सं 132 पर ‘अंतप्र्रांतीय’ रूप का प्रयोग किया गया है। पृ. सं. 13 पर ‘अन्तर्हृदय’ छपा है। यह शब्द ठीक नहीं है। ‘हृदय’ शरीर के अन्दर ही तो होता है। फिर ‘अन्तः’ का प्रयोग अनावश्यक है। बेफालतू’ में ‘बे’ ‘फालतू’ है। अतः ‘फालतू’ ही पर्याप्त है। पृ. सं. 75 पर ‘अधिकांश शीर्षस्थ विधाओं में’ ‘अधिकांश’ विशेषण पद के स्थान पर ‘अधिकतर’ अपेक्षित है। इसी प्रकार ‘अधिकांश युवा कहानीकारेां’ (पृ. 64) ‘अधिकतर’ विशेषण पद वांक्षनीय है।
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    एक वाक्य और विचारणीय है - ‘‘यह कहानी गाँव के उस दबंग और चालाक वर्गों का क्रूर चरित्र सामने लाती है, जिसकी सत्ता और ताकत की छाया में गाँव का आम आदमी तड़प रहा है।’’ (पृ. 64) इस वाक्य में एक वचन सर्वनाम ‘उस’ के बाद बहुवचन संज्ञा पद ‘वर्गों’ का प्रयोग सदोष है। अपेक्षित है ‘वर्ग’।

    प्रूफ रीडर ने कुछ और शब्दों की वर्तनी त्रुटिपूर्ण छोड़ी है। यथा - ‘रफ-टफ’ को ‘रफ-टप’ (पृ. 7) ‘वाङ्मय’ को ‘वाङ्गमय’ (पृ. 119), ‘प्रेमचन्द की नीयत’ को ‘प्रेमचन्द की नियत’ (पृ. 37) ‘स्रष्टा’ को ‘सृष्टा’ (पृ. 85) ठीक समझा है। यह उसकी नासमझी है। ‘फलों की कीमत को लेकर’ और ‘एक रुपये तक पर’ सार्थक मालूम होता है। ‘वेगवान सरिता’ (पृ. 43) की तुलना में ‘वेगवती सरिता’ उचित लगता है। ‘कोटा’ को ‘कोड’ (पृ. 47) छापना प्र्रूफ रीडर की भूल है।

    लेखक और प्रकाशक दोनेां का दायित्व है कि पुस्तक निर्दोष रूप में प्रकाशित की जाए। मानक वर्तनी की कमी से अच्छी पुस्तक भी पाठक को अरूचिकर लग सकती है। मानक रूप भाषा का गौरव बढ़ाते हैं।

    भरत प्रसाद तेजस्वी युवा लेखक और कवि हैं। उन्हें इस सदी के साहित्य-संसार में लम्बी पारी खेलनी है। उनसे आशा है कि वह निर्मम दृष्टि से इस सदी के पहले दशक के वरिष्ठ और युवा कवियों-लेखकों और आलोचकों की उत्कृष्ट रचनाओं का चयन करके उनका मूल्यांकन भी करेंगे।

    ‘सृजन की 21 वीं सदी’ में सभी आलेख पठनीय और विचारणीय हैं। विचारोत्तेजक भी। आलेखों में साहित्यिक चिन्तन और सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक चिन्ताएँ वैश्वानरी हैं। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि इस पुस्तक का स्वागत हिन्दी संसार अवश्य करेगा।

समीक्षित पुस्तक    -  सृजन की 21 वीं सदी
प्रकाशक        -   नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण    -   2013
मूल्य           -     300 रु.
पृष्ठ            -     155




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द्वारा - कम्प्यूटर क्लीनिक

चूना मंडी, बदायूं - 243601 (उत्तर प्रदेश)
मो. 8533968269


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. पद्मनाभ मिश्रा 'गौतम' सं

    तोष भाईजी , यह वाक्य ‘‘पूर्वोत्तर में मातृसत्ता का बोलबाला है, इसलिए पारिवारिक और सामाजिक रूप से युवाओं की अहमियत यहाँ दोयम दर्जे की बनकर रह गई है।’’ -यह केवल मेघालय के परिप्रेक्ष्य मे सत्य है ..मेघालय को सम्पूर्ण उत्तर-पूर्व का प्रतिनिधि मानकर कहना कि पूर्वोत्तर भारत मे मातृ सत्ता का बोलबाला है, अनुचित है। यद्यपि मैंने आलेख अभी ब्लॉग पर नहीं पढ़ा परंतु इस एक प्रतिनिधि वाक्य पर पाठक को पहले से सतर्क करना चाहूँगा कि अरुणाचल प्रदेश पूर्ण रूप से पित्र-सत्तात्मक है, जहां पर स्त्री का सामाजिक दर्जा एक 'कमोडिटी' से ऊपर उठना अभी बाकी है...यहाँ पत्नी का अर्थ है मिथुन इत्यादि दे कर उसके बदले खरीदी गई स्त्री जिसका काम पति के लिए खेती कमाना, यौन सुख देना, बच्चे पालना और मूक पशु बन कर रहना है....कुछ एक कबीलों मे जो पढ़-लिख कर आगे निकल रहे हैं, वहाँ स्थिति बदतर से कुछ ठीक है। यहाँ महिलाओं का जनसंख्या अनुपात मे आगे निकलने का कारण यह है कि उनके बदले मे यहाँ दहेज मिलता है, मुख्यभूमि की तरह देना नहीं पड़ता.........एक परिवार उसे दौलत के लिए बेचता है और दूसरा दासी के रूप मे खरीदता है.....चूंकि मै काफी समय से उत्तर-पूर्व मे रह रहा हूँ अतः मेरी बात पूर्णतया स्व-अनुभूत तथ्यों पर आधारित है..........शेष ब्लॉग मे पढ़ कर!

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  2. Bharat Prasad --

    पद्मनाभ जी, आपकी प्रतिक्रिया पढने के बाद कुछ कहने की इच्छा हुई। जब कोई विचार दिया जाता है तो उसके अपवाद हमेशा बने रहते हैं , पूर्वोत्तर में असाम भी है , मगर वहां मात्रि सत्ता नहीं है, इसी तरह अरुणाचल में भी, हमारे विभाग में अनेक विद्यार्थी अरुणाचल के हैं, जो की आदिवासी , या जनजाति समूह से आते हैं। उनके घर, परिवार, समाज में मात्रि सत्ता है, सैद्धांतिक रूप में ही सही, आप जिस समस्या को उठा रहे हैं वह आज की सामाजिक विकृति की उपज हैं , न की मूल सामाजिक संरचना। मेघालय , मिजोरम , मणिपुर , सिक्किम , त्रिपुरा जो की पूर्वोत्तर के २/३ भाग का प्रितिनिद्धित्व करते हैं , के आदिवासी समाज में निश्चय ही मात्रि सत्ता की प्रधानता है , स्त्री का शोषण न होना इस मानव धरती पर कल्पना की चीज बनकर रह गयी है, इस असह्य सच से कौन वाकिफ नहीं ?मगर पूर्वोत्तर स्त्रियों को संपत्ति और जायदाद में अधिकार देकर शेष भारत के पुरुष समाज को नया सन्देश देता है की नहीं ?

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  3. पद्मनाभ मिश्रा 'गौतम'

    आदरणीय भरत भाई,मै मूल सामाजिक संरचना के संदर्भ मे ही यह बात कर रहा था....इस वाक्य को समस्त पूर्वोत्तर के संदर्भ मे सत्य नही माना जा सकता है........ असम और अरुणाचल मिलकर उत्तर-पूर्व का एक बहुत बड़ा भू भाग बनाते हैं..। आसाम तो वैसे ही बंग संस्कृति से बहुत अधिक मेल खाता है और वहाँ की सामाजिक व्यवस्था बंगाल से अधिक भिन्न नहीं है। अरुणाचल मे परिवार का बड़ा पुत्र ही सारी जायदाद का अधिकारी होता है, यहाँ तक कि छोटे भाई भी नही.....स्त्री को जायदाद मे भाग मिलना तो बहुत दूर की बात है...यहाँ पारिवारिक संपत्ति का कोई रेकॉर्ड नहीं होता और 'केबा' नाम की पारंपरिक न्यायिक सभा मे संपत्ति के विवाद सुलझाए जाते हैं...मेगा पावर प्रोजेक्ट के लिए भू-अर्जन के काम मे रत रहने के कारण मुझे अरुणाचल की सामाजिक व्यवस्था को बहुत समीप से जानने का अवसर मिला है....मैं सुदूर चीन की सीमा के कई गावों मे घूमने के बाद मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ

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  4. पद्मनाभ मिश्रा 'गौतम'

    पर मै अपनी बात को समस्त पूर्वोत्तर के लिए लागू नही मानता...बस जितना मैंने करीब से देखा है उसके संदर्भ मे कह रहा था..

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  5. Bharat Prasad --

    पद्नाभ जी, मेरे वाक्य पर गौर कीजियेगा , मैंने पूर्वोत्तर में कहा है, जिसका अर्थ समस्त पूर्वोतर नहीं है. जब हमने सातों राज्यों भ्रमण किया ही नहीं तो समस्त पूर्वोत्तर में किसी सिद्धांत का दावा कैसे कर सकता हूँ ? असम जितना बंगाल से अभिन्न है , उतना ही बिहार और मेघालय से भी , वह मिस्सृत संस्कृति का उदाहरण बन गया है. पूर्वोत्तर की मूल अस्मिता यहाँ के आदिवासी लोंगों को लेकर है. जिनमें मात्रि सत्ता प्रतिष्ठित है. अकेले मेघालय में आधा दर्जन के लगभग जनजातियाँ हैं , जिनमें न जाने कब से मात्रि सत्ता प्रतिष्टित है। इनसब बातों के बावजूद आप वाक्य की ध्वनि समझने की कोशिश कीजिये। मैंने यहाँ मौजूद मात्रि सत्ता का उदाहरण सिर्फ इसलिए दिया की हिंदी प्रदेश के लोग जो जीवन के हर शेत्र में नंबर १ बने रहना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं , यहाँ की सामजिक संरचना से प्रेरणा लें, और अपनी पैत्रिक संपत्ति में बेटी और बहन को भी अधिकार दें। वैसे मुझे पता है, यहाँ का उदहारण देकर अपनी तरफ के लोगों के प्रति खयाली पुलाव पका रहा हूँ।

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  6. Agni Shekhar

    भरत प्रसाद ने पूर्वोत्तर भारत की वस्तुनिष्ठ तस्वीर अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत की है।

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  7. Tiwari Keshav

    kitab meri padhi hai.ameer ji se sahmti

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  8. Bahut bahut dhanyavaad Ameer Chand jee... Bhaarat Bhai aapko haardik badhai. Abhaar Santosh jee.

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  9. Bahut bahut dhanyavaad Ameer Chand jee... Bhaarat Bhai aapko haardik badhai. Abhaar Santosh jee.

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