मानवेन्द्र








पहली बार पर हमने उन नए कवियों की कविता प्रस्तुत करना शुरू किया था जिन्होंने लिखना शुरू किया है. या जिन्होंने लिखा तो है पर अब तक कहीं भी छपे नहीं. झुमरी तलैया के मानवेन्द्र की कविताओं पर हमारे मित्र बलभद्र की नजर गयी और उन्होंने अपनी एक टिप्पणी के साथ मानवेन्द्र की कविताएँ पहली बार को उपलब्ध करायीं. नवागत कवि मानवेन्द्र की कविताएँ आलोचक बलभद्र की एक टिप्पणी के साथ आप सबके लिए प्रस्तुत हैं.  .
   

मानवेन्द्र तैंतीस वर्ष के युवक हैं. जे० जे० कॉलेज, झुमरीतिलैया (झारखण्ड) में कार्यरत हैं. ये कविता लिखते हैं. इनके पास एक डायरी है जो कविताओं से भरी है.कुछ कविताएँ हैं जो पूरी हो गई हैं और कुछ अधूरी हैं. इनकी डायरी देख कर मैं हैरान हुआ, खासकर इस बात को लेकर कि आज के इस भागमभाग वाले दौर में भी एक युवक है जो कविताएँ अपनी डायरी में चुपचाप दर्ज कर रहा है. अपने आस-पास और देश-दुनिया की गतिविधियों को वह काफी संजीदगी के साथ न केवल देखता है बल्कि उसे अपनी कविता का विषय भी बनाता है. मानवेन्द्र से मिलना और उनकी डायरी से गुजरना एक उम्मीद से संवाद करने जैसा है. आशा और निराशा के द्वन्दव्  भी देखे जा सकतें हैं. कविताओं में सहज अनगढ़ता देखने को मिलती है. मानवेन्द्र की कवितायें, उम्मीद है कि आगे चलकर जरुर निखरेंगी. कविताएँ अविकल रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं.
.--- बलभद्र. 

१. विश्वास ना होता 
(इरोम शर्मिला के लिए)

विश्वास ना होता

सम्भव ना लगता

पर कैसे कर रही है

वो असम्भव को!

सांसे ठहर-सी जातीं

खून सिहर-सा जाता

कैसे अड़ी है वो

अकेले लड़ने को!

एक बात

एक लड़की

एक जिद

सब खिलाफ

पर वो अडिग  



कोने का राज्य

महत्व ना खास

किसको पड़ी है उसकी

उसका है राज्य

ख्याल है उसको

दृढ़-प्रतिज्ञ है

जो बरदाश्त नहीं, बदलने को.

किसको पड़ी है, ना पड़ी हो

उसके महत्व का है

किसी-को फर्क पड़े, ना पड़े

उसको तो पड़ा है

१२ साल से अनशन!

ना सोचा होगा उसने

कि होगा ऐसा अनशन!

पर देखिए जरा जज्बा

जो ठान लिया सो ठान लिया

जो कर दिया सो कर दिया

नहीं पता पिघला मन किसका

नहीं पता, क्या होगा अंजाम इसका

मैं तो समझा

लड़ना होगा हर को

फर्क पड़ता हो ना हर-को

अपनी बात अपने मुद्दे

अपना दर्द अपनी जज्बात

सुनाना होगा सबको...

२. शोर हो चुका!

सब कुछ आस-पास

नहीं कुछ मेरे पास

घिरा हूँ निराशाओं से

गिरा हूँ आशाओं से



गम में डूबा

हताशा से ऊबा

सोच रहा क्या किया

सोच रहा कैसे जिया

घोर अभाव से जूझ रहा

खुद को सम्भाले जल-बूझ रहा

सब कागजी ही साबित हुई

अब तक अपनी पीठ अपने ही थपथपाई

बोर हो चुका

अपनी दशा से

खुद के सन्नाटे से

अंदर ही अंदर शोर हो चुका...
  
सम्पर्क-

सहायक- लेखा विभाग, 
जे० जे० कॉलेज, झुमरीतिलैया, 
कोडरमा, झारखण्ड-825409.
मो०- 09934149300

 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार - 13/09/2013 को
    आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः17 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra





    जवाब देंहटाएं
  2. बेहद सुंदर ....लिखी गयी ...रचनाएँ

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'