नीलाभ






नीलाभ का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुम्बई में हुआ. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए. पढाई के दौरान ही लेखन की शुरूआत. आजीविका के लिए आरंभ में प्रकाशन. फिर ४ वर्ष तक बी बी सी की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर. १९८४ में भारत वापसी के बाद लेखन पर निर्भर.
'संस्मरणारंभ', 'अपने आप से लम्बी बातचीत', 'जंगल खामोश हैं', 'उत्तराधिकार', 'चीजें उपस्थित हैं'. 'शब्दों से नाता अटूट हैं', 'शोक का सुख' , 'खतरा अगले मोड़ की उस तरफ हैं','ईश्वर को मोक्ष' नीलाभ  के अब तक प्रकाशित कविता संग्रह हैं.

शेक्सपियर, ब्रेख्त तथा लोर्का के नाटकों के रूपांतर - 'पगला राजा', 'हिम्मत माई', 'आतंक के साये', 'नियम का रंदा', 'अपवाद का फंदा', और 'यर्मा' बहुत बार मंच पर प्रस्तुत हुए हैं. इसके अलावा मृच्छकटिक का रूपांतर 'तख्ता पलट दो' के नाम से. रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फिल्म, ध्वनि प्रकाश कार्यक्रमों तथा नृत्य नाटिकाओं के लिए पटकथाएं तथा आलेख.

जीवनानन्द दास, सुकांत भट्टाचार्य, एजरा पाउंड,ब्रेख्त, ताद्युस रोदेविच, नाजिम हिकमत, अर्नेस्तो काडिनल, निकानोर पार्रा, और नेरुदा की कविताओं के अलावा अरुंधती राय के उपन्यास 'डी गाड ऑफ़ स्माल थिन्ग्स' का अनुवाद 'मामूली चीजों का देवता', नेरुदा की लम्बी कविता 'माच्चू पिच्चू के शिखर' का अनुवाद बहुचर्चित. मंटो की कहानियो के प्रतिनिधि चयन 'मंटो की ३० कहानियाँ' का संपादन, २ खंडो में गद्य 'प्रतिमानों की पुरोहिती' और 'पूरा घर है कविता', हिंदी के साहित्यिक विवादों, साहित्यिक केंद्रो, और मौखिक इतिहास पर शोधपरक परियोजना स्मृति संवाद (४ खण्डों में) फिल्म, चित्र कला, जैज, तथा भारतीय कला में ख़ास दिलचस्पी.

नीलाभ जी की कविताये आप 'पहली बार' पर नियमित अंतराल पर पढ़ते रहेंगे.

संपर्क - २१९/९, ब्लोक- ए २, भगत कालोनी,  वेस्ट संत नगर, बुराड़ी, दिल्ली, ११००८४.


मोबाइल- ०९९१०१७२९०३, फोन: आवास- ०११- २७६१७६२५,









गुज़ारिश



मैं अँधेरे का दस्तावेज़ हूँ
राख को चिडि़या में बदलने की तासीर हूँ
मीर हूँ अपने उजड़े हुए दयार का
परचम हूँ प्यार का



मैं आकाश के पंख हूँ
समन्दर में पलती हुई आग हूँ
राग हूँ जलते हुए देश का
धरती की कोख तक उतरी जड़ें हूँ
अन्तरतारकीय प्रकाश हूँ



मैं लड़ाई का अलम हूँ
सम हूँ मैं ज़ुल्म को रोकने वाला
हर लड़ने वाले का हमदम हूँ
बड़े-बड़ों से बहुत बड़ा
छोटे-से-छोटे से बहुत कम हूँ





हिजरत - 1



हिजरत में है सारी कायनात
एक मुसलसल प्रवास, एक अनवरत जलावतनी



पेड़ जगह बदल रहे हैं, हवाएँ अपनी दिशाएँ,
वर्षा ने रद्द कर दिया है आगमन और प्रस्थान का
टाइमटेबल, वनस्पतियों ने
चुका दिया है आख़िरी भाड़ा पर्वतों को
और बाँध लिये हैं होल्डॉल,
पर्वत भी अब गाहे-बगाहे अलसायी आँखें खोल
अन्दाज़ने लगे हैं समन्दर का फ़ासला
समन्दर सुनामी में बदल रहा है
बदल रहे हैं द्वीप अद्वीपों में



एक हरारत-ज़दा हरकत-ज़दा हैरत-ज़दा कायनात है यह



सबको मिल ही जायेंगे नये ठिकाने मनुष्यों की तरह
और अगर कुछ बीच राह सिधार भी गये तो भी
वे अनुसरण कर रहे होंगे मनुष्यों का ही
जिनके किये से वे हुए थे बेघर





हिजरत - 2



सब लौट कर जाने को तैयार बैठे हैं



पहाड़ से आये कवि, पूरब से आये पत्रकार,
बिहार से आये अध्यापक, केरल से आयी नर्सें,
तमिलनाडु के अफ़सर, तेलंगाना के बाबू,
कर्नाटक के संगीतकार, अवध के संगतकार
यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ से आयी रामकली भी
पिछले बीस बरस नेहरू प्लेस की झुग्गी में
गुज़ारने के बाद बिलासपुर जाने को तैयार है



बाबर को समरकन्द याद आता है,
महमूद को ग़ज़नी, अफ़नासी निकेतिन को ताशकन्द
हरेक को याद हैं अपनी जड़ें या जड़ों के रेशे
या रेशों की स्मृतियाँ या स्मृतियों का लोक
हरेक के दिल में है हिजरत का शोक
लेकिन मैं अब भी सफ़र में हूँ



बम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से लन्दन,
लन्दन से दिल्ली
शहरों के नाम कौंधते हैं रेलगाड़ी से देखे
स्टेशनों की तरह



बस दो नाम ग़ायब हैं इनमें
जहाँ मुझे होना था, जहाँ मैं हो सकता था



लाहौर जहाँ जली हुई शक्ल में
अब भी मौजूद है मेरा ननिहाल
और जालन्धर जहाँ पुरखों के घर में आ
बसे हैं ज़मीनों के सौदागर





सीकरी



हमेशा सुनाई देती थी
पैसे की आवाज़



बजता रहता था
लगातार
व्यवसाय का हॉर्न,
या बाज़ार का शोर,
या सिक्कों का संगीत



टूटती थी पनहिया
हमेशा
सीकरी आते-जाते
बिसर जाता था
नाम ही नहीं घर का पता भी



मोतियों से भरे मुँह लिये
लौटते थे कवि अपने देस
फिर गा नहीं पाते थे
अपने गान





सपनों के बारे में कुछ सूक्तियाँ



1.

कुछ सपने कभी पूरे नहीं होते
आते हैं वे हमारी नींद में
पूरे न होने की अपनी नियति से बँधे



इस सच्चाई को हम जीवन भर नहीं जान पाते
नहीं जान पाते अपनी असमर्थता,
अपनी विवशताएँ, अपना निष्फल दुस्साहस



सपने जानते हैं इसे
आते हैं इसीलिए वे
ठीक हमारे जग पड़ने से पहले



2.

कुछ सपने दूसरों के होते हैं
जिन्हें पूरा करने के फेर में
हम देख नहीं पाते अपने सपने



3.

सपने अक्सर जन्म देते हैं
दूसरे सपनों को
इसी तरह वे रखते हैं
अपनी गिरफ़्त में आदमी को



4.

कुछ सपने मालिक होते हैं
कुछ होते हैं, ग़ुलाम



एक सपना पूरा करता है
दूसरे सपने की ख़्वाहिशें
दूसरा सपना तीसरे की



इसी तरह क़ायम होता है
सपनों का साम्राज्य



5.

कुछ सपने पीछा करते हैं हमारा
शिकारियों की तरह
बना लेते हैं हमें पालतू
अगर पकड़ पाते हैं हमें



6.

कुछ सपने याद नहीं आते
देखे जाने के बाद
वही होते हैं सबसे ज़रूरी


7.

सपने बेहद अराजक और निरंकुश होते हैं
तरह-तरह के छुपे हुए दरवाज़ों, ढँके गलियारों,
गुप्त द्वारों, भेद-भरी गलियों, रहस्यमय खाइयों,
तिलिस्मी फन्दों, गोरखधन्धों और पेचीदा प्रकोष्ठों से भरे
वे नहीं पूरा करने देते आपको अपनी दबायी गयी इच्छाएँ
ला खड़े करते हैं अबूझ अवरोध,
बदल देते हैं पटकथा की दिशा
अधबीच पहुँच कर कई बार भरते हुए आकुलता प्राणों में
नींद की निरापदता में आतंक की सृष्टि करते हुए



8.

सपनों को समझने का दावा करने वाले
छले जाते हैं
सबसे पहले
सपनों से
कोशिश बेकार है सपनों से
भविष्य बाँचने की
इन्सान का नसीबा तय हो चुका है
सपनों से बाहर



9.

अचानक झटके से टूटती है नींद
जैसे टूटता है काँच का गिलास
फ़र्श पर गिर कर
उठ कर बैठते-बैठते भी
गूँज बाक़ी होती है चीख़ की कानों में



किस का चीत्कार है यह
किस आकुल अन्तर का, मारे जा रहे
निरपराध का, चला आया है जो
इस तरह स्वप्न के बाहर
एक और भी अजीबो-ग़रीब जगत में
जहाँ गूँजता है अहर्निश
उससे भी तीखा हाहाकार



फ़र्क करना मुश्किल है अब
स्वप्न और वास्तविकता में
काया और माया में
आलोक और अन्धकार में
हुलास और हुंकार में

टिप्पणियाँ

  1. प्रियवर,
    मैं सिर्फ़ नीलाभ के नाम से लिखता हूं. अश्क मेरे पिता का तख़ल्लुस है, उसे मैं सिर्फ़ सरकारी काम-काज में इस्तेमाल करता हूं. वल्दियत को नकारने और वल्दियत को स्वीकार करके अपना रास्ता अलग बनाने में फ़र्क़ है भाई. यों आपके ब्लोग पर अपनी कविताएं देख कर अच्छा लगा. निज कवित्त वाली मसल भी तो है न .....

    सप्रेम

    नीलाभ

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय नीलाभ जी की कविताएँ उनका गद्य सब कुछ अप्रतिम है |उनके रचना संसार से ब्लाग जगत को परिचित कराने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं

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