इन्दु श्रीवास्तव की गजलें
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| इन्दु श्रीवास्तव |
परिचय
इन्दु श्रीवास्तव
चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
1 आशियाने की बातें, 2008
2 उड़ना बेआवाज परिन्दें, 2012
3 बारिश में जल रहे हैं खेत, 2017
4 कंदील जलाओ कोई
गीत संग्रह-
1-भोर पनिहारन (अप्रकाशित)
दोहा संग्रह
1-तू ही मेरा जोगिया (अप्रकाशित)
आठ ग़ज़लों का एल्बम 'बादलों के रंग' रिलीज।
पहल, हंस, साक्षात्कार, बया, वीणा, वागर्थ आदि सभी शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
एक कहानी संग्रह अप्रकाशित।
साथ ही आलोचनाएँ, संस्मरण, स्मृति लेखों पर काम।
सम्मान- रज़ा सम्मान, स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान झारखण्ड, सुधेश सम्मान।
राष्टीय स्तर के मंचों,आकाशवाणी, दूरदर्शन में काव्य पाठ।
संप्रति-स्वतंत्र लेखन
किसान को आमतौर पर अन्नदाता कहा जाता है लेकिन उसी का शोषण सबसे ज्यादा होता है। वह प्रकृति से तो अपनी लड़ाई लड़ता ही है, साथ साथ उसे उन सूदखोरों से भी जूझना पड़ता है जो उनके रक्त की एक एक बूंद चूस लेने को उद्यत रहते हैं। सामान्य किसान के लिए खेती अब घाटे का सौदा है। लेकिन अपनी जमीन का मोह कुछ इस प्रकार का है कि घाटा भी उसकी राह रोक नहीं पाता। उसका मनोबल तोड़ नहीं पाता। ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द है जिसका अभिप्राय माशूका से बात करना होता है। लेकिन हिन्दी गज़ल ने आम जनता की समस्याओं और विडंबनाओं को उद्घाटित करने की जो राह पकड़ी उसे हम दुष्यन्त कुमार और अदम गोंडवी की गजलों में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। हिन्दी गजल में इस समय कई ऐसे गजलगो सक्रिय हैं जो इस परंपरा को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। इन्दु श्रीवास्तव का नाम उनमें से एक है। उनकी गजलों में समकालीन समय की आसानी से तस्दीक की जा सकती है। इन्दु जी लिखती हैं :
'किसानी के ही चलते मर मिटा आख़िर/ सिवा ईमान के क्या था बहोरी में
हमारा जिस्म ठाकुर की हवेली में / हमारा चैन बनिये की तिजोरी में
बने है काश इक कानून भी ऐसा/ कि जुर्माना लगे सपनो की चोरी में'
ये गज़लें हमें कवि केशव तिवारी के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं। हम उनके आभारी हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं इन्दु श्रीवास्तव की गजलें।
इन्दु श्रीवास्तव की गजलें
1
बड़े नादान हो, संजीदगी की बात करते हो
मेरी आंखों में रह कर, तश्नगी की बात करते हो
अगर मरना है तो, उस पर मरो जो तुमपे मरता है
जहां से रूठ कर क्यों, खुदकुशी की बात करते हो
हमारी याद सीने में, खुदा का नाम होंठों पर
किसी को दिल में रखते हो, किसी की बात करते हो
वफा, ईमां, शराफ़त, प्यार जाने चल बसे कब के
ये कैसे वक़्त में तुम किस सदी की बात करते हो
झुलसना पत्तियों सा और खुशबू सा बिखर जाना
गजब है, फूल जैसी जिंदगी की बात करते हो
फ़िजाएं गमज़दा हैं, और मंज़र खून में डूबे
कहर का दौर है तुम दिल्लगी की बात करते हो
2
बरसात में मिट्टी का मकां बोल रहा है
हर सांस में खतरे का गुमां' बोल रहा है
घायल कोई राही है, कि बेज़ार परिन्दा
ये कौन है जो मेरी जुबां बोल रहा है
हैवानियत के खौफ से खूंखार जानवर
इन्सान की आवाज़ में 'मां' बोल रहा है
गुज़रा है कोई हादसा इस गांव से हो कर
खामोश चिताओं से धुआं बोल रहा है
रौशन है खुदा बुत में, कि बच्चे की हंसी में
है कैद कहां और कहां बोल रहा है
पानी की एक बूंद सी है उसकी ज़िन्दगी
जो नींद के आलम में कुआं बोल रहा है
पिस कर नए वजूद में ढलता है आदमी
पत्ती में तेरा रंग निहां बोल रहा है
3
ये टोकरियों में भर कर बेच देता है दुकानों को
बगीचा, फल नहीं देता है अक्सर बागवानों को
लुटा देता है दिल की दौलतें बदकार गलियों में
तरसते देखता रहता है अपने कद्रदानों को
जो बच्चों की तरह से पालते सेते हैं फसलों को
तो क्या मिलता है आख़िर धूप में जलते किसानों को
नशे में फूंक देता है कोई सोने के महलों को
तो कोई पूजता रहता है मिट्टी के मकानों को
इधर दो गज जमीं के वास्ते भटका किये हैं हम
उधर सर पे उठाए है ज़माना आसमानों को
किसी मजबूर पर यूं जुल्म ढाते वक्त मत भूलो
बला की आह भी देता है मौला बेजुबानों को
किसी के पर कतरने से कहीं तारीख मिटती है
समन्दर दिल में रखता है परिन्दे की उड़ानों को
4
बादलों के रंग मौसम की अदा को देखना
ऐ अदीबों वक़्त की आब-ओ-हवा को देखना
बुतपरस्ती इक तरफ़ फ़िरकापरस्ती इक तरफ़
क्या खुदी को देखना अब क्या ख़ुदा को देखना
छिल गए झंडे जुलूसों से ही सड़कों के बदन
हादसों में पल रही घायल फ़िजा को देखना
सिर्फ जुमलों से ही जीतेंगे वो मजलूमों के दिल
मन लुभाती ताजदारों की कला को देखना
किसने फूकीं बस्तियां ये रह गए बच्चे यतीम
हो सके तो जुर्म की इस इन्तहा को देखना
दफ्तरों से छू हुई थी और संसद में बिकी
गो कहीं टकरा ही जाएगी हया को देखना
एक सूरत लाख जलवे फिर अदाएं बेशुमार
आप को देखा है तो अब किस बला को देखना।
5
उजालों से मेरी यूं तो बुराई भी नहीं है
अंधेरों से लडूं इतनी कमाई भी नहीं है
मेरी औक़ात जो भी है तुम्हारे सामने है
अगर जाहिर नहीं की तो छुपाई भी नहीं है
पतंगे मेरी इस बदइंतजामी से खफा है
दिया तो है जलाने को सलाई भी नहीं है
तुम्हारे झाड़फ़ानूसों से जलते हैं फ़रिश्ते
हमारी झोपड़ी में चारपाई भी नहीं है
हमारी दोस्ती है इक अधूरी सी कहानी
नहीं तोड़ी है हमने तो निभाई भी नहीं है
इबादत हो ख़ुदा की या मुहब्बत हो खुदी से
मेरी फितरत में ऐसी आशनाई भी नहीं है
6
शाम से छाया है तो, बरसेगा पानी देर तक
जैसे चलती है कोई लम्बी कहानी देर तक
वक़्त के चलते यहां पर, क्या कोई ठहरा कभी
मयक़दा या बुतक़दा, राजा कि रानी देर तक
इस जहां की सल्तनत का, वक़्त ही सरताज है
चल न पाएगी तुम्हारी, हुक्मरानी देर तक
तंग, निचली बस्तियों में, जलजला ठहरा,
मगर नींद में चलती रही यूं राजधानी देर तक
बज्म में चलते रहे शेर-ओ-सुख़न के साथ ही
मेरे आंसू और तेरी लन्तरानी देर तक
तंज, शिकवे, तल्खियां छोड़ो, कि अब जीने भी दो
सह न पाएंगे तुम्हारी, बदगुमानी देर तक
उसकी आहट थी कि, खुशबू से भरा कोई ख़याल
एक पल को रात महकी, रातरानी देर तक
दूर तक तारीकियां थीं, कुछ न हासिल हो सका
बेसबब तेरे शहर की, ख़ाक छानी देर तक
7
लगी है शर्त धनियां और होरी में
नफा खेती में है या सूदखोरी में
किसानी के ही चलते मर मिटा आख़िर
सिवा ईमान के क्या था बहोरी में
हमारा जिस्म ठाकुर की हवेली में
हमारा चैन बनिये की तिजोरी में
बने है काश इक कानून भी ऐसा
कि जुर्माना लगे सपनो की चोरी में
कहां अब मस्तियां सावन के झूलों में
कहां वो रंग अब फागुन की रोरी में
मिलेंगे हम किसानों की कथाओं में
गुल-ओ-गुलफाम न चंदा-चकोरी में
8
कभी बादे-सबा' बनके, कभी दौरे खिज़ां हो के
कई रंगों में है मेरा खुदा, मुझमें निहां हो के
वो मेरी बन्द पलकों में, दिए सा झिलमिलाता है
तेरी महफिल में बैठा है जो तस्वीरे-बुतां हो के
जला कर बस्तियां, अपने को यूं महफूज़ मत समझो
गरीबों की ये आहें हैं जो उठी हैं धुआं हो के
इसी उम्मीद में कन्दील बन कर जी रहे हैं हम
हमारी राह से गुज़रे वो शायद मेहरबां हो के
ज़रा सोचो, कि क्या वो काम कर पाएंगे सौ बन्दे
जो इक मजबूर औरत जात कर देती है मां हो के
नहा जाती हैं मां की आरजूएं, सात रंगों में
कि अपने बाप सा लगता है जब बेटा जवां हो के
9
कचेहरी में न बोलेगी वो कुछ अपनी सफाई पे
लगाए भी तो क्या इल्ज़ाम इस रिश्ते के भाई पे
लुटी है उसके हाथों ही, ये कहते जीभ जलती है
कभी बांधी थी राखी प्यार से जिसकी कलाई पे
हुनर वाले हो गर तो शेरवानी में ही मत उलझो
कभी पैबन्द भी टांको गरीबों की रजाई पे
जो मरना है किसी पे, मुल्क की सरहद पे मर जाओ
खुदाई भी फ़िदा हो जाएगी इस आशनाई पे
पसीने से जुटाई रोटियां इज़्ज़त के दो लम्हे
गजब का रश्क होता है हमें अपनी कमाई पे
छिपा कर रख दिया मैंने उसे महफूज़ कोने में
कभी मां तोड़ती थी फल्लियां जिस चारपाई पे
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



Bahut bahut sundar ❤️❤️❤️
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