देवेश पथ सारिया की पुस्तक 'छोटी आँखों की पुतलियों में' का एक अंश और पुस्तक की समीक्षा

 

देवेश पथ सारिया



कवि लेखक देवेश पथ सारिया ने ताईवान में रहते हुए अपने अनुभवों को शब्दबद्ध किया है। नई दिल्ली के सेतु प्रकाशन ने इस किताब को 'छोटी आँखों की पुतलियों में' नाम से प्रकाशित किया है। नाम से ही जाहिर है कि इस पुस्तक के लेखक का अंदाज़ शायराना है। युवा कवि देवेश ने कुछ बेहतर कविताएं लिखी हैं। साथ ही विश्व के उम्दा कवियों के कविताओं का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद भी किया है। देवेश की भाषा पर पकड़ बेजोड़ है। जब वे अपनी रौ में होते हैं भाषा के साथ खेलते हुए नजर आते हैं। भाषा के साथ खेलना आसान नहीं होता। महारत हासिल करने वाला ही ऐसा कर पाता है। 'छोटी आँखों की पुतलियों में' देवेश का लेखकीय खिलंदड़ापन स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इस किताब से देवेश ने अच्छे गद्यकार के रूप में एक उम्मीद दिखाई है।


देवेश के इस किताब की एक समीक्षा की है देवांशी गुप्ता ने। 


आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं देवेश पथसारिया की किताब 'छोटी आँखों की पुतलियों में' का एक अंश और देवांशी गुप्ता की समीक्षा ताईवान प्रवास की खट्टी मीठी यादों का रिपोर्ताज।



ताइवान डायरी 'छोटी आँखों की पुतलियों में' पुस्तक से एक अंश ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए

 

                                   

दो घड़ीसाज़


देवेश पथ सारिया

 

कभी-कभार ही ऐसा होता है कि मेरा मन किसी वस्तु पर आ जाए। यह ऐसी ही एक कभी कभार वाली विशुद्ध भौतिक इच्छा थी कि मैं कैल्विन क्लीन की घड़ी पहनूं। आमतौर पर जो लोग मुझे जन्मदिन पर कुछ देते हैं, उनकी संख्या इकाई के अंक में है। इकाई के अंक में भी अधिकतम सीमा (नौ) से शर्मनाक होने की हद तक कम। इन बहुत कम लोगों के सामने मैं नकटा हो सकता हूँ। जीवन में एक ऐसे माध्यम की गुंजाइश हमेशा बची रहनी चाहिए जहां इंसान बिना किसी पर्देदारी के सामने आ सके। इन लोगों को जन्मदिन के आसपास मैं खुद ही बता देता हूं कि मुझ पर पैसे खर्च ही करने हैं तो मुझसे ही पूछ लें कि मुझे क्या चाहिए। साल में एक यही दिन तो होता है जिस दिन मैं किसी से कुछ लेता हूं। कुछ लोगों को पैसा मिलाना पड़ा तब जा कर वह घड़ी ख़रीदी जा सकी। अब वही घड़ी खराब हो गई थी। मैंने वह भारत से खरीदी थी और अब मैं ताइवान आ गया था तो गारंटी-वारंटी वगैरह जैसा कुछ रास्ता नहीं निकल सकता था।

 

मैं घड़ी सही कराने ताइवान में अपनी यूनिवर्सिटी के पास वाले दुकान वाले के पास गया। मुझे वह दुकान वाला इसलिए पसंद था क्योंकि उसके पास एक बिल्ली थी, जिसे वह दुकान पर ही रखता था। घड़ी में सेल डलवाने के बहाने मैं उस बिल्ली की कुछ फोटो खींच लिया करता था। बिल्ली के साथ साथ दुकानदार को फ्रेम में लेना। फोटोजेनिक शक़्ल- दुकानदार और बिल्ली दोनों की।

 

बात सिर्फ सेल बदलने की होती तो राह आसान होती। पर गड़बड़ कुछ ऐसी थी कि दुकानदार उसे सही करने में असमर्थ था। उसके इशारों से जितना मुझे समझ आया, ख़राबी सही करने के लिए शीशे को तोड़ना पड़ता और सही करने के बाद नया शीशा लगाने की तरकीब नहीं मिल पा रही थी। शायद यही या इससे मिलती-जुलती कोई समस्या थी। अंत में दुकानदार ने किसी स्थानीय व्यक्ति के साथ आने को कहा ताकि वह उस दूसरी दुर्गम दुकान का पता बता सके, जहां घड़ी शायद सही हो सकती थी।

 

कुछ दिनों बाद मैं छुट्टी पर ताइवान से भारत चला आया और उसी घड़ी को अपने कस्बे के दुकान वाले के पास लेकर गया। उसने उसका फीता वैसे ही मरोड़ा जैसे वह अपनी दुकान पर आई हर घड़ी का मरोड़ता है, बिना इस बात की कद्र किए कि वह घड़ी कैल्विन क्लीन की है। उसकी इसी अदा ने मेरा दिल जीत लिया, जैसे किसी गडरिये के लिये सारी भेड़ें एक जैसी, वैसे घड़ीसाज़ के लिए सभी घड़ियाँ एक जैसी। अभी उसे मेरा दिल जीते हुए कुछ ही क्षण हुए थे कि इस कस्बे वाले दुकानदार ने घड़ी मेरे हाथ में पकड़ा दी और कहा- "सही हो गई, दस रुपए दे दीजिए।"

 

ताइवान का पता

 

देवेश पथ सारिया

पोस्ट डाक्टरल फेलो

रूम नं 522, जनरल बिल्डिंग-2

नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी

नं 101, सेक्शन 2, ग्वांग-फु रोड

शिन्चू, ताइवान, 30013

 





 समीक्षा

                 

ताइवान प्रवास की खट्टी-मीठी यादों का रिपोर्ताज

 

 देवांशी गुप्ता

 

मैंने हाल ही में हिन्दी कवि, लेखक देवेश पथ सारिया की पुस्तक 'छोटी आँखों की पुतलियों में' पढ़ी। यह पुस्तक दक्षिण-पूर्व एशिया के एक ख़ूबसूरत द्वीप ताइवान में रह रहे एक युवा लेखक के अनुभवों को समेटती, सहेजती है। मोटे तौर पर यह पुस्तक विभिन्न डायरी प्रविष्टियों का संकलन है। लेखक ताइवान के विभिन्न शहरों और क़स्बों के आसपास अपने रोज़मर्रा के जीवन का जीवन्त चित्रण करता है। लेकिन पुस्तक में परिवेश के तौर पर केन्द्र में रहता है शिन चू नाम का शहर, जहाँ लेखक खगोल विज्ञान में पोस्ट-डॉक शोधकर्ता के रूप में कार्यरत है। यह पुस्तक एक वैज्ञानिक, कवि और अनुवादक के रूप में लेखक के जीवन और करियर के बारे में एक अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है।

 


एक नए देश में जाने की सम्भावना पहली दृष्टि में रोमांचक लगती है। लेकिन यह सम्भावना अपनी कीमतों के साथ आती है; कई चुनौतियाँ साथ ले कर। मसलन, चाहते हुए भी लेखक का पिछले ढाई वर्ष से भारत न आ‌ सकना। यह पुस्तक ऐसी कई परिस्थितियों एवं संघर्षों का ब्यौरा प्रस्तुत करती है, जिनका सामना लेखक ने ताइवान की ज़मीन पर कदम रखने के साथ किया है। शुरुआत परदेस में नए वातावरण के अनुकूल ख़ुद को ढालने के कठिन प्रयासों से होती है। किराने के सामान की ख़रीददारी, खाना पकाना और नए लोगों से मिलना जैसी प्रथम दृष्टया सामान्य लगने वाली चीजें भी अपने आप में कठिन काम लगती हैं। लेकिन, पुस्तक के अन्त तक, लेखक चुनौतियों को सम्मानपूर्वक गले लगाता है एवं धीरे-धीरे ख़ुद को नई संस्कृति और रीति-रिवाजों के अनुरूप ढाल लेता है।

 


कभी-कभी, लम्बे समय तक घर से दूर रहना व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ सकता है। लेखक ने ख़ुद को ऐसी ही स्थिति में पाया। वह स्वयं को अपने परिवेश से अलग-थलग कर लेता है। फिर भी, जिस तरह उसने हिम्मत बटोर कर अकेलेपन और अवसाद से अपने छोटे-छोटे तरीकों से मुक़ाबला करने की कोशिश की, वह वाकई प्रशंसनीय है। देवेश ने लम्बी सैर की; प्राचीन स्मारकों, सकुरा के फूलों, रॉक आर्ट, ब्लूबेरी क्रम्बल, स्थानीय त्योहारों, मित्रता और, ज़ाहिर है, साहित्य में विश्राम पाया।

 


भावनात्मक मुद्दों के अलावा, पुस्तक बताती है कि कैसे लेखक ने उन कठिन क्षणों के दौरान धैर्य बनाये रखा जब उसे अपनी शारीरिक बीमारियों का पता चला था। पुस्तक में वह एण्डोस्कोपी और फ़िजियोथेरेपी उपचार के दौरान मिले लोगों के बारे में बात करता है। वह यह भी बताना नहीं भूलता कि कैसे मुश्किलों के दौरान मिले उन लोगों ने उस पर एक यादगार प्रभाव छोड़ा।

 


किताब हमें उस समय की ओर भी ले जाती है जब कोविड-19 ने दुनिया भर में कहर बरपाना शुरू कर दिया था। चीन से भौगोलिक निकटता के कारण ताइवान को चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक प्रभावित देश होने की उम्मीद जतायी जा रही थी। लेकिन ताइवान की सरकार संकट को पहचानने और प्रभावी उपाय करने के लिए अग्रिम रूप से कमर कसी हुई दिखाई थी। ताइवान की तत्परता महामारी को दूर रखने में बहुत मददगार रही।

 


'अनानास पर अनबन' अध्याय में लेखक ताइवान और चीन के रिश्तों के बारे में रोचकता से बात करता है। यह एक संकेतात्मक द्वन्द्व था जिसे इस वर्ष हमने और प्रबल होते हुए देखा।

 


लेखक पूरी किताब में अपने बचपन और भारत की अनेक यादों का भी उल्लेख करता है जो सिरे जोड़ने में पाठक की मदद करती हैं। इस जुगलबंदी से पाठक के मन में सुखद भावनाओं के साथ-साथ उदासीनता की भावनाएँ भी समय-समय पर जन्म लेती हैं। 

 

पुस्तक की भाषा सहज है। इसके साथ ही पुस्तक का रोमांचक प्रवाह इसे एक सामान्य पाठक हेतु भी पढ़े जाने योग्य बनाता है।


 

पुस्तक : छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)

लेखक : देवेश पथ सारिया

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन समूह

वर्ष : 2022



परिचय

देवांशी गुप्ता का जन्म और पालन-पोषण बाराबंकी में हुआ है। देवांशी ने हाल ही में मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है। साहित्य, संगीत, कैलीग्राफी एवं पेंटिंग इनकी अभिरुचि के विषय हैं।  



सम्पर्क

देवांशी गुप्ता

ई मेल : devanshigupta039@gmail.com

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