यतीश कुमार की समीक्षा अस्वीकार से बनी काया

 

 


 

सवाल उठाना कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। हमारी आज जो यह दुनिया है, उसकी निर्मिति में इन सवालों की एक बड़ी भूमिका रही है। कभी कभी बचकाने लगने वाले सवालों ने वैज्ञानिकों को ऐसी खोज के लिए प्रेरित किया जिन्होंने हमारी दुनिया को बदल डाला। कविता में सवालों का उठना मनुष्य समाज के लिए एक आश्वस्ति की तरह है। राजेश कमल का हाल ही में एक नया कविता संग्रह ‘अस्वीकार से बनी काया’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा की है कवि यतीश कुमार ने। तो आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं राजेश कमल के कविता संग्रह ‘अस्वीकार से बनी काया’ पर यतीश कुमार की समीक्षा :अनगिनत प्रश्नों की दुशाला ओढ़े कविताएं।'

 



 अनगिनत प्रश्नों की दुशाला ओढ़े कविताएं

 

यतीश कुमार


ईश्वर और मनुष्य, धर्म और ज्ञान के बीच, मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा किस द्वारे घृणा ने जन्म लिया यह एक यक्ष प्रश्न है। संभव है विक्रमादित्य से इस प्रश्न का ज़िक्र बेताल ने भी किया होगा और विक्रमादित्य को विडंबना की स्थिति में ज़रूर डाला होगा। काव्य-संग्रह ‘अस्वीकार से बनी काया’ की पहली कविता से ही कवि पाठकों के सामने ऐसे सवाल रखते हैं कि असमंजस की स्थिति बनती है। यह काव्य संग्रह जरूरी प्रश्नों का सिलसिलेवार ज़ख़ीरा लिए है जहां तक पहुँचने के लिए काव्य-रस रूपी प्रवाह से गुजरना अनिवार्य है। 


युग पुरुष और नायकों का जातीय समीकरण ढूँढ़ते हुए, एक समृद्ध कटाक्ष की भाषा में दूसरा सीधा प्रश्न जाति से है। तीसरी कविता प्रश्न के साथ उत्तर छुपाये हुए है। यह कविता हत्या और वध का मिटता भेद बचाने की एक अपील की तरह है। अगली कविता की अपनी लय है और उस लय में एक उफान, जो पूछता है बिकती हुई दुनिया में उसे क्या मिलेगा जिसके पास दो जून की रोटी नहीं है। आशा की रौशनी क्या उसके मन को रौशन करने के लिए बची रहेगी या राजधानी की पार्टियों की पत्तियों से गले मिल कर बस झिलमिलाती रहेगी।

 

‘अस्वीकार’ कविता में हत्या और आत्महत्या में मिटती हुई दूरी है जिससे उभरते ज्वलंत सवालों का एक ही जवाब मिलेगा मुस्कुराहट। यह मुस्कुराहट जो हर लुटेरे को लहूलुहान करने का एक मात्र अस्त्र है। अगली कविता ‘उन्हें सब पता है’ में मेरी एक पसंदीदा कविता का अक्स दिखा। निज का कोना मिटना कितना भयावह है। आज जो घट रहा है उसे सोचने से पहले आपको पढ़ लिया जाता है और आप ख़ुद पर हँसने के काबिल भी नहीं रहते। कविता में इस पक्ष को बहुत ही बारीकी से टटोला गया है।

 

आम जन के सवाल जब कवि के हाथों हथियार की शक्ल लेता है तो वह बहुत घातक हो उठता है। शब्द इतने निर्भीक कि कि सीधे ईश्वर से प्रश्न करे कि ‘दुनिया तुम्हारी रचना है या तुम दुनिया की रचना हो’। कविताएँ इस संग्रह में अनगिनत प्रश्नों की दुशाला ओढ़े है। कवि एक उत्तीर्ण द्रष्टा है जिसकी नज़र मुखौटे लगाते इंसान से इतर आवाज़ बदलती पक्षियों पर भी पड़ी है और वह पूछता है- 


आजकल कबूतर नहीं दिखते 

और कौवे की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी क्यों हो गई है। 

बदलाव यहाँ तक कि 

कोयल भी काँव-काँव क्यों कर रहे हैं। 


कवि राजेश कमल अपने मंतव्य को स्पष्ट करने में कटाक्ष कला की अपनी महारत का खूब प्रयोग करते हैं। इस शैली में रूपक का चुनाव इस कवि को ख़ास बनाता है। उदाहरण के लिए देखें तो, ‘टमाटर’ कविता में एक साधारण वर्ग को टमाटर का रूपक देते हुए कहते हैं- इन्हें रसोई में रखिए तो बेहतर है। रसोई के बाहर यह हथियार में तब्दील हो जाते हैं जिसका ट्रिगर किसी और के पास है। इसके रंग को यथावत बचाना जरूरी है। ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ में रणेन्द्र गेरुआ पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं बाउल का रंग, गोरख का रंग या फिर संतों का रंग एक ही है। बस रंग के मायने हमारे मस्तिष्क में चिप लगा कर बदले जा रहे हैं।

 

 

राजेश कमल

 

 

आधुनिकता की अंधी दौड़ से परेशान कवि को आत्म-संवाद की आदत है। वह अपने बचपन में जाने के लिए छटपटा रहा है। ख़ुद से पूछ रहा है- वो सुबह कब आएगी! खुला आसमान उसे खींचता है और वह बार-बार खुले आसमान को देखता है। आसमान की आजादी उसे दीवारों से खामियों का अहसास कराती है। इसी केंद्र में बुनी एक कविता, अभिनेता जैकी श्रॉफ और पत्रकार इरफान के बीच की बातचीत की याद दिलाती है। बातचीत में बचपन के दिनों को याद करते हुए जैकी कहते हैं- ‘जब हमारा पूरा परिवार एक खोली में सोता था तो एक दूसरे की परेशानी ज्यादा महसूस कर पाते थे। मैं खाँसता था तो माँ तुरंत पानी पिलाती थी। पैसों ने बड़ा घर तो दिया साथ ही रिश्तों के बीच दीवारें भी बड़ी हो गईं। अब मेरे और मेरी माँ के बीच एयर कंडीशनर का बोझ उठाए दीवार थी। जिस रात उनका इंतकाल हुआ मैं उसकी आवाज़ तक नहीं सुन पाया।’


विज्ञान की कक्षा जारी है’ और अन्य कुछ कविताओं में दरअसल राजेश कमल भी जैकी की तरह ही बेचैन हैं और अपनी बात कविताओं को सुना रहे हैं। अच्छी बात यह है कि मुक्तक के भीतर छिपे छंद की जो बात कवि नरेश सक्सेना करते हैं वह यहाँ राजेश की कविताओं में रह-रह कर गुंजायमान है। मुझे भी वैसी कविताएँ ही भाती हैं जिसके नेपथ्य में ही सही पर गेयता बनी रहे।

 

कवि प्रश्नों की झड़ी लगाते हुए याद दिलाता है ‘अतिथि देवो भवः’ का असली अर्थ क्या है? कमल और कमाल से इतना लेना-देना क्यों है लोगों का? जातीयता बच्चों को चॉकलेट के साथ घोल कर पहुँचाई जा रही है। मासूम से सवाल कितने कड़वे हो सकते हैं। कवि सवालों के बीच ही ऐसा कुछ कह जाते हैं जिसे पढ़ते हुए नजर ठहर जाती है और मस्तिष्क जाम हो जाता है। ‘युद्ध में प्रेमिका की अपील’ कविता का यह अंश 

 

‘मुझे वहां ले चलो

जहाँ

चुम्बनों में 

बारूद की बू न आती हो'

 

या ‘डर’ कविता का यह हिस्सा- 

 

मैं 

तेरी यादों को

छीलता हूँ 

हर एक पल

डर है 

कि पुराने न पड़ जाएँ 

 

या ‘भ्रम’ कविता में- 

 

‘जिन्हें रीढ़ की हड्डी बताया गया था

गले की साबित हुई, 

 

जैसी कई पंक्तियां हैं जो पाठक और लेखक मन को झकझोरती है। ‘अच्छे लोग’ कविता में समाज पर धर्म के असर का कितना और किस तरह से है यह बखूबी उभरता है। कटाक्ष अगर सबसे आसान और साधारण शब्दों में गुथा हो तो माला बहुत प्रभावी बन जाता है। कटाक्ष करते-करते हंसते-हंसते वह भात को चावल और चावल को राइस में बदलते देखता है। 


डर को जीतने पर रोमांच को हारना होता है। यहाँ कवि इस रोमांच को बचाए रखने की वकालत करता है। कवि याद दिलाता है उन खोई हुई चीजों में से एक प्रेम-पत्रों का लिखा जाना। दोस्तों को कविता के भीतर ढूँढता है, बाहर तो वैसे भी नहीं मिलते! दोस्तों को याद करते-करते रचता है कविता ‘दिवंगत मित्र का मोबाइल नंबर’। हम सब ही इस दुख से गुजरे हुए लोग हैं और कविता पढ़ते हुए यह एक क्षण को भी नहीं लगता कि जगबीती नहीं है।

 

कवि कई विषयों को गुनते, रचते हुए ‘रोटी’ पर लौट आता है। कवि की कविताओं में रोटी, प्रेम करते  हुए, समय से बतियाते हुए भी लौटता है। दरअसल कवि की चेतना जमीन से जुड़ी है और जहाँ पानी मयस्सर नहीं वहाँ यह चिंता लाज़िमी है जिसे आप यूँ पढ़ सकते हैं कि- 

 

'कितने दिनों तक 

सिर्फ लोरियों का विकल्प

उंगलियों को चाटना होगा।’

 

दो कवि एक जैसी बातें करते हैं, शैली उन्हें भिन्न करती है। राजेश कमल की कविताएं पढ़ते हुए लगा कविताएं कितनी अपनी सी लगती हैं। हम कितने एक से हैं। गाँव के बारे में समान रूप से चिंतित, शहर के चौड़े रास्तों से परेशान, बचपन में लौटने को एक समान व्याकुल, इंटरनेट की दुनिया के चोंचले से ख़फ़ा और न जाने क्या-क्या। ‘अस्वीकार से बनी काया’ जैसे संग्रहों से गुजरते हुए यह भी महसूस होता है कि आज कविता सिर्फ विषयांतर की और अग्रसर नहीं है, समकालीन कवि वर्तमान को गढ़ रहे हैं बशर्ते आप सुनना चाहें!

 

प्रणय कृष्ण जी की सारगर्भित प्रस्तावना की पहली पंक्ति ही कृतित्व का संक्षिप्त सार है। प्रस्तावना में उन्होंने लगभग सारी कविताओं को छुआ है। इससे एक अच्छी रूपरेखा बनी है। पाठक किताब को गंभीरता से पढ़े यह प्रस्तावना की प्राप्ति है।

 

बतौर पाठक मैंने यह महसूस किया कि मुखर आक्रोश से गूंजती इस किताब की कविताओं को क्रांति की कविताओं तक भी अगर सीमित रखा जाता तो भी वह एक मुकम्मल संग्रह बन जाता। बाक़ी कविताएं जहां संवेदनाओं की दूसरी धार बही है, उसे खंड में कर देने से पाठकों को प्रवाह के संतुलन में सुविधा होती। कई कविताएं हैं जिन्हें पढ़ते हुए मन एक ट्रांस में रहता है और विद्रोही कविताओं के आग़ोश में प्रेम कविताएं पाठकीय मन को नई दिशा देती है। हालांकि, संग्रह की अधिकांश कविताओं को पढ़ते हुए नहीं लगता कि हम अकेले बैठे हुए हैं। हर छोटी से छोटी चीज खुद से बातें करते हुए दिखाई पड़ती हैं। इस पठनीय और पहले काव्य-संग्रह के लिए राजेश कमल को अनंत शुभकामनाएं।

 


किताब- अस्वीकार से बनी काया (काव्य-संग्रह)

कवि- राजेश कमल

प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन

96 उन्मुक्त आवाज़ें और माध्यम कविता!

 

 

 

यतीश कुमार

 

संपर्क


मोबाइल : 8420637209


टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. वाह्ह! शानदार समीक्षा लिखी है यतीश जी ने। समीक्षा में कविताओं के जिन-जिन अंशों को लिया गया है उन्हें पढ़कर काव्य संग्रह के प्रति जिज्ञासा जागृत होती है। शब्दों की धार से कटाक्ष करने वाले व पैने प्रश्न करने वाले कवि राजेश कमल जी को नव्य काव्य संग्रह की हार्दिक बधाई अनंत मंगलकामनाएं व यतीश कुमार को इतनी बेहतरीन समीक्षा लिखने हेतु साधुवाद।

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  2. बिल्कुल सटीक समीक्षा! कवि की रचना बड़ा बारीकी से अध्ययन करते हैं आप। आपकी इस सूक्ष्म द्रष्टा प्रतिभा को नमन! साधुवाद 🙏🌹 कवि को हार्दिक बधाई!🌹

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