प्रोफेसर ओ. पी. जायसवाल का आलेख 'नालन्दा महाविहार के पतन और विध्वंस से जुड़े मिथकों का सच'।

 

प्रोफेसर ओ. पी. जायसवाल

नालन्दा प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। 

 

यह दुनिया का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। सातवीं शती में जब ह्वेनत्सांङ आया था उस समय दस हजार विद्यार्थी और 1510 आचार्य नालंदा विश्वविद्यालय में थे। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जा कर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को पांचवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी।

 

नालंदा में हजारों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें तीन लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक', 'रत्नोदधि' और 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहित थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।

 

यहां छात्रों के रहने के लिए 300 कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था। यहां छात्रों का अपना संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों जैसे छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था।

 

प्रतिष्ठित इतिहासकार प्रोफेसर ओ. पी. जायसवाल ने नालन्दा महाविहार पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है जिससे इसके पतन और विध्वंस से जुड़ी कई भ्रांतियों का निराकरण होता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रोफेसर ओ. पी. जायसवाल का आलेख 'नालन्दा महाविहार के पतन और विध्वंस से जुड़े मिथकों का सच'मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए इस आलेख का अनुवाद पत्रकार मनीष शांडिल्य ने किया है।  

 

यह आलेख पटना से प्रकाशित पत्रिका सबाल्टर्न के मई 2021 अंक में प्रकाशित है। इस आलेख को उपलब्ध कराने के लिए हम महेन्द्र सुमन और अरुण नारायण के आभारी हैं।

 

 

नालंदा महाविहार के पतन और विध्वंस से जुड़े मिथकों का सच

 

प्रोफेसर ओ. पी. जायसवाल

 

 

नालंदा का बहुत प्राचीन इतिहास है जिसकी जड़ें ईसा पूर्व छठी और पांचवीं सदी में महावीर और बुद्ध काल तक जाती हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार, यह एक उपनगर (बहेरिया) था, जो प्रसिद्ध शहर राजगृह के उत्तर-पश्चिम में स्थित था। वास्तव में, यह इतना महत्वपूर्ण स्थान था कि महावीर ने वहां पर बारिश की चौदह मौसमें बिताईं। पाली बौद्ध साहित्य में भी नालंदा के अनेक सन्दर्भों की चर्चा है। ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध ने अपने प्रवास के दौरान अक्सर इस स्थान का भ्रमण किया था, जिसका उल्लेख एक समृद्ध, हरे-भरे, घनी आबादी वाले और ‘पावारिका’ नामक आम के बगीचे वाले क्षेत्र के रूप में होता था। राजगृह और नालंदा के बीच की दूरी एक योजन (8 या 13 मील) बताई गई है। इस स्थान का उल्लेख महा-सुदेसना-जातक में, बुद्ध के एक प्रमुख शिष्य थेर सारिपुत्र के जन्म स्थान के रूप में किया गया है। अन्य ग्रंथों में, नलका या नलकाग्राम के नाम से यही जगह सारिपुत्र की गतिविधियों के केंद्र के रूप में वर्णित है। संस्कृत भाषा में उपलब्ध बौद्ध ग्रंथ महावस्तु में भी राजगृह से आधा योजन दूर नालंदा-ग्राम का जिक्र सारिपुत्र के जन्म स्थान के रूप में मिलता है और तारानाथ लिखित भारत में ‘बौद्ध धर्म का इतिहास’, सत्रहवीं सदी के एक तिब्बती ग्रंथ समेत कुछ तिब्बती ग्रंथों में इसके प्रमाण मिलते हैं। इसलिए यह मानना ज्यादा तर्कसंगत है कि नाला, नालाका, नालकाग्राम और नालंदा सभी एक ही स्थान के अलग-अलग नाम हैं।

 

 

सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनत्सां का कहना है कि लोकश्रुति के अनुसार इस स्थान का नाम एक नाग प्रहरी पर पड़ा है जो स्थानीय तालाब में रहता था। लेकिन उन्हें इसकी संभावना अधिक लगी कि बुद्ध ने अपने एक पूर्व जन्म बोधिसत्व के रूप में इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया, और दानशीलता ने उन्हें एवं उनकी राजधानी नालंदा या सतत धर्मदानके नाम को ख्यात किया। तारानाथ के अनुसार, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के महान मौर्य सम्राट अशोक ने सारिपुत्र के नालंदा में मौजूद चैत्य (समाधि) पर चढ़ावा अर्पित किया था और यहां एक मंदिर का निर्माण किया इसलिए अशोक को नालंदा-विहार का संस्थापक माना जाना चाहिए। इन्हीं प्रमाणों से यह भी पता चलता है कि दूसरी सदी के आस-पास के प्रसिद्ध महायान दार्शनिक और रसायनशास्त्री नागार्जुन ने नालंदा में अपना अध्ययन शुरू किया और बाद में यहां के मुख्य धर्माचार्य बने। यह भी माना जाता है कि नागार्जुन के एक समकालीन ब्राह्मण सुविष्णु ने बौद्ध धर्म की दोनों ही शाखाओं, हीनयान और महायान, का पतन रोकने के लिए नालंदा में एक सौ आठ मंदिरों का निर्माण कराया था। तारानाथ चौथी सदी के प्रारंभिक वर्षों में बौद्ध धर्म की मध्यामिका शाखा के दार्शनिक आर्यदेव का संबंध भी नालंदा से जोड़ते हैं। साथ ही, यह भी कहा जाता है कि पांचवीं शताब्दी के योगाचार्य शाखा के बौद्ध दार्शनिक असंग ने अपने जीवन के उत्तरार्ध के बारह साल यहां बिताए और उनके बाद उनके भाई वसुबंधु, जो कि उनसे भी ज्यादा प्रसिद्ध थे, नालंदा के मुख्य धर्माचार्य बने।

 


 

तारानाथ के इन ब्यौरों से यह यकीन से कहा जा सकता है कि नालंदा नागार्जुन के समय से ही बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केंद्र था और आगे की शताब्दियों में भी यह कायम रहा। लेकिन इस पर स्पष्ट रूप से जोर दिया जा सकता है कि खुदाई में ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है, जो यह बताए कि गुप्त वंश से पहले इस स्थान पर किसी दूसरे का अधिकार था। समुद्रगुप्त की तांबे की तश्तरी (ढाली हुई) और कुमारगुप्त का एक सिक्का ऐसी सबसे प्राचीन वस्तुएं हैं जो यहां खुदाई में मिली और जिनकी तिथि ज्ञात है। ह्वेनत्सां के ब्यौरे से इसकी पूरी तरह से पुष्टि होती है कि इस क्षेत्र के एक पूर्व राजा क्रादित्य ने यहां एक विहार का निर्माण कराया और उसके उत्तराधिकारियों बुद्धगुप्त, तथागतगुप्त, बालादित्य और वज्र ने भी आस-पास कुछ विहार बनाये। चूंकि इनमें कुछ नाम गुप्त वंश के सम्राटों द्वारा धारण किए गये, यह माना जाता है कि उनमें से सभी पांचवी और छठी शताब्दी के गुप्त साम्राज्य से संबंधित हैं। यह धारणा कि नालंदा के विहारों का निर्माण गुप्त सम्राटों, सबसे पहले कुमारगुप्त ने किया था, पांचवीं सदी के प्रारंभ में चीनी तीर्थयात्री फाहियान के विवरणों से इसकी पुष्टि होती है। फाहियान ने नालंदा के विहार संबंधी निर्माणों का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने सारिपुत्र के जन्म और मृत्यु का स्थान, नालां गांव और यहां मौजूद एक स्तूप का जिक्र किया। जैसा कि ऊपर बताया गया है, यह स्थान नालंदा के समान है, लेकिन फाहियान के भ्रमण काल में स्तूप को छोड़ कर किसी भी अन्य स्मारक की अनुपस्थिति महत्वपूर्ण है।

 

 

ह्वेनत्सां ने यहां छठी सदी के शुरू में पूर्णवर्मन द्वारा बनाई गई बुद्ध की 80 फीट ऊंची तांबे की प्रतिमा देखी थी। और निस्संदेह कन्नौज के प्रख्यात शासक हर्षवर्धन (606-647) ने अपनी दानशीलता से संस्था की बहुत मदद की। उन्होंने पीतल के एक विहार का निर्माण कराया, जो ह्वेनत्सां के भ्रमण के समय निर्माणाधीन था। ह्वेनत्सां के जीवनी लेखक का कहना है कि हर्ष ने विहार के लिए लगभग सौ गांव का राजस्व दान किया और इन गांवों के दो सौ घर चावल, मक्खन और दूध की आवश्यकताओं को पूरा करते थे। वह कहते हैं, यहां के छात्रों को इतनी प्रचुर मात्रा में आपूर्ति की जा रही है कि उन्हें जीवन की चार मूलभूत आवश्यकताओं के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह उनके अध्ययन की पूर्णता का आधार है जिसके लिए वे यहां आये हैं। इस ब्यौरे से यह स्पष्ट होता है कि छात्रों को अपने दैनिक भोजन के लिए भिक्षाटन नहीं करना पड़ता था।

 

 

हर्ष ने नालंदा के भिक्षुओं को बहुत सम्मान दिया और खुद को उनका सेवक कहा। कन्नौज की राजसी सभा में नालंदा के लगभग एक हजार भिक्षु उपस्थित थे। इसलिए राजसी संरक्षण नालंदा की समृद्धि और दक्षता का मुख्य आधार था। जैसा कि ह्वेनत्सां कहते हैं, ‘एक के बाद एक राजाओं ने मूर्तिकारों के सम्पूर्ण कौशल का उपयोग करते हुए इस अद्भुत नयनाभिराम विहार का निर्माण पूरा होने तक काम जारी रखा। ह्वेनत्सां ने यहां पर कुछ अन्य विहारों और मंदिरों का भी वर्णन किया है और ज्यादातर मामलों में उनकी दिशा भी बताई है। उनके अनुसार, बुद्धगुप्त द्वारा निर्मित विहार उनके पिता शक्रादित्य द्वारा निर्मित विहार के दक्षिण में था, बुद्धगुप्त के विहार के पूर्व में तथागत गुप्त का एक विहार था। बालादित्य द्वारा निर्मित विहार उत्तर-पूर्व में था, जबकि वज्र का विहार पश्चिम में था। कहा जाता है कि मध्य भारत के एक अनाम राजा ने उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करवाया और एक द्वार वाली इसकी चारदीवारी भी बनाई। ह्वेनत्सां ने ऐसे अन्य विहारों और स्तूपों की एक लंबी सूची भी तैयार की जिसे उन्होंने अपने भ्रमण के दौरान देखा था। मौजूदा खंडहरों के साथ इन्हें पहचानने के आधुनिक प्रयासों को छिटपुट सफलता मिली, क्योंकि ह्वेनत्सां के भ्रमण काल और इन स्थलों के परित्यक्त हो जाने की छह शताब्दियों के फासलों के बीच कई नई इमारतों का निर्माण हुआ और मौजूदा इमारतों में बदलाव किए गए।

 

 

ह्वेनत्सांङ का नालंदा में बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया गया और उन्होंने यहां लंबे समय तक प्रवास किया। अध्ययन के पाठ्यक्रम धर्मनिरपेक्ष आदर्शों पर आधारित थे, जिनमें महायान और हीनयान शाखा, हेतु-विद्या (तर्कशास्त्र), शब्द- विद्या (व्याकरण) और चिकित्सा-विद्या (चिकित्सा) से संबंधित शास्त्रों के साथ-साथ अथर्ववेद सहित वेदों जैसे विशुद्ध ब्राह्मण ग्रंथ शामिल थे। तीर्थ यात्रियों के विवरणों से यह स्पष्ट है कि नालंदा में कई तरह की साहित्यिक गतिविधियां होती थीं।ह्वेनत्सां को यहां भारतीय नाम मोक्षदेव मिला और नालंदा विहार में उनके साथ रहने वाले लोग उनकी वापसी के बाद भी उन्हें लंबे समय तक याद करते रहे। चीन लौटने के कई साल बाद, नालंदा के एक भिक्षु प्रज्ञदेव ने ह्वेनत्सां को इस सन्देश के साथ एक जोड़ी वस्त्र उपहार में भेजा कि हर दिन श्रद्धालु उनका नमन करते हैं।

 

 

तब नालंदा समूचे पूर्व में बौद्ध धर्मशास्त्र और धर्मनिरपेक्ष शैक्षिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में सुप्रसिद्ध हो चुका था। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि ह्वेनत्सां के वापस लौटने के तीस वर्षों की छोटी अवधि के दौरान, कम-से-कम ग्यारह चीनी और कोरियाई यात्री नालंदा पहुंचे।

 

 

ह्वेनत्सां के बाद भारत आने वाले दूसरे अहम यात्री इत्सिंग थे, जो 673 ईस्वी में भारत पहुंचे और नालंदा में काफी समय तक अध्ययन किया। उन्होंने नालंदा के भिक्षुओं के रोजमर्रा के जीवन के हर छोटे-बड़े विवरणों को दर्ज किया जिन्हें वे दुनिया भर के बौद्धों द्वारा पालन किए जाने वाले आदर्श मानते थे। उन्होंने बताया कि नालंदा विहार के भिक्षुओं की संख्या तीन हजार से अधिक थी, जिनकी जरूरतों की पूर्ति पूर्व के राजाओं द्वारा दान किए गए दो सौ से अधिक गांवों से होती थी। उन्होंने पाठ्यक्रम का विवरण भी दिया, जिनमें बौद्ध शास्त्रों के अलावा, तर्कशास्त्र, तत्वमीमांसा और संस्कृत व्याकरण का बहुत व्यापक अध्ययन शामिल था। साथ ही उन्होंने भिक्षुओं के कठोर जीवन अनुशासन का जिक्र किया, जिनका दैनिक जीवन एक जल-घड़ी के नियमानुसार चलता था।

 


 

पाल सम्राटों ने पूर्व भारत में आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच शासन किया और उन्हें बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संरक्षण के लिए जाना जाता था। साथ ही उन्होंने बिहार के विक्रमशिला और ओदंतपुरी में विहारों की स्थापना की। तारानाथ का भी यह कहना है कि विक्रमशिला विहार के प्रमुख का नालंदा पर नियंत्रण था। इसके पर्याप्त पुरालेख आधारित (एपिग्राफिक) और साहित्यिक सबूत हैं कि नालंदा के लिए पाल सम्राटों की उदारता बनी रही।

 

 

यहां कुछ ऐसे प्रसिद्ध विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है, जिन्होंने अपनी महती विद्वता और उत्कृष्ट व्यवहार से, नालंदा को उसकी गरिमा दिलाई और उसे बरकरार रखा। यह ऊपर पहले ही बताया जा चुका है कि तारानाथ के अनुसार महायान शाखा के प्रारंभिक दार्शनिक नागार्जुन, आर्यदेव, असंग और वसुबंधु नालंदा के मुख्य धर्माचार्य थे। कालक्रम के अगले दौर में एक महत्वपूर्ण धर्माचार्य दिङ्नाग सामने आये जो तर्कशास्त्र के मध्यकालीन मत के संस्थापक थे। वह दक्षिण से आते थे जिन्हें एक ब्राह्मणवादी विद्वान से तर्क-वितर्क में परास्त करने के लिए नालंदा आमंत्रित किया गया था। उन्होंने तर्क जीत कर तर्कपुन्गावा की उपाधि हासिल की। एक अन्य प्रसिद्ध पंडित धर्म पाल थे, जो ह्वेन-त्सांग के आने से ठीक पहले सेवानिवृत्त हुए। ह्वेनत्सां के भ्रमण के समय विहार के प्रमुख शीलभद्र थे, जिनसे ह्वेनत्सां ने शिक्षा प्राप्त की और जिनकी विद्वत्ता और व्यक्तिगत गुणों का उन्होंने भावपूर्ण वर्णन किया है। संभवतः धर्मकीर्ति शीलभद्र के उत्तराधिकारी बने, तारानाथ के मुताबिक उन्होंने ब्राह्मणवादी दार्शनिक कुमारिल को पराजित किया था।

 

 

अगली महत्वपूर्ण शख्सियत शांतरक्षित थे, जिन्हें राजा ख्री-सरोन-देउ-तानस ने तिब्बत आमंत्रित किया था, जहां वह सन 762 में अपनी मृत्युपर्यंत कई वर्षों तक रहे। लगभग उसी समय पद्मसंभव ने भी तिब्बत का भ्रमण किया, जिन्होंने तिब्बत में लामावाद संस्था के बतौर संस्थापक बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। नालंदा के लिए यह कोई मामूली सम्मान की बात नहीं थी कि उसके एक विद्वान ने तिब्बती धर्म को एक ऐसा स्वरूप दिया जो आज भी जारी है।

 

 

इस प्रकार, नालंदा उन सर्वश्रेष्ठ बौद्ध विद्वानों को आकर्षित करने में सफल रहा, जिनकी ख्याति दूर देशों तक फैली और युगों तक बनी रही। यह कहना बहुत सही है कि नालंदा का विस्तृत इतिहास बौद्ध धर्म की महायान शाखा का इतिहास होगा। ह्वेनत्सांङ के विवरण से यह स्पष्ट है कि उनकी भारत यात्रा के समय बौद्ध धर्म का प्रभाव धीरे-धीरे घट रहा था। प्रारंभिक बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केंद्र वीरान हो चुके थे,   हालांकि कुछ नये केंद्र, जैसे कि पूर्व में नालंदा, पश्चिम में वल्लभी और दक्षिण में कांची अस्तित्व में आ गए थे। कुछ समय बाद बौद्ध धर्म का असर अन्य प्रांतों में खत्म हो गया और केवल बिहार एवं बंगाल में ही यह फला-फूला, जहां इस प्रभावहीन होते धर्म-अभियान को जीवित रखने के लिए राजसी संरक्षण मिलना जारी रहा। लेकिन यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म अब लोकप्रिय नहीं था और कुछ विहारों तक केंद्रित था। इन स्थानों पर जो बौद्ध धर्म प्रचलित था, वह हीनयान का सरल स्वरूप नहीं था, और न ही यह पहले समय के महायान के समान था, बल्कि इस पर तांत्रिक विचारों का बहुत प्रभाव था, जो जादू-टोने में यकीन करता था और इसमें रहस्यपूर्ण प्रथाएं और अनुष्ठान शामिल थे।

 


आठवीं शताब्दी में कुमारिल और शंकराचार्य जैसे ब्राह्मणवादी दार्शनिकों और धर्मोपदेशकों का धर्मयुद्ध बौद्ध धर्म को अलोकप्रिय बनाने का एक और प्रबल कारक रहा होगा। विवरणों के मुताबिक पूरे भारत में यात्रा कर उन्होंने बौद्धों को तर्क-वितर्क में पराजित किया। दूसरी ओर यह प्रचारित किया गया है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भिक्षुओं को भगा दिया और विहारों को नुकसान पहुंचाया, लेकिन तथ्यों की जांच-पड़ताल में यह सही नहीं ठहरता है। मुस्लिम आक्रमण की पूरी कहानी मिन्हाज-उस-सिराज के तबकात-ए-नासिरी के आधार पर बुनी गई है, वह भी बिना इसे पूरी तरह पढ़े हुए। इस किताब में विवरण इस प्रकार है- बख्तियार खिलजी ने बिहार के किले से सुरक्षित एक शहर पर हमले की तैयारी की और वह रक्षा कवच पहने दो सौ घुड़सवारों के साथ किले के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ा और अचानक हमला कर दिया। बेखौफ मुहम्मद-ए-बख्तियार खिलजी खुद महल के पिछले द्वार तक पहुंच गया और उसने किले पर कब्जा कर लिया और बहुत सारा धन लूट लिया (तबकात-ए-नासिरी, टीआर, एच. जी. रवेर्टी, कलकत्ता, 1881, पृष्ठ 552) उस स्थान के निवासियों में अधिक संख्या में ब्राह्मण थे, और उन सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडे हुए थे। और उन सभी का कत्ल कर दिया गया। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं और जब उसे मुसलमानों ने देखा तो उन्होंने उन पुस्तकों के महत्व के बारे में जानकारी देने के लिए हिन्दुओं को बुलावाया, लेकिन सभी हिन्दू मार डाले गये थे। किताबों की सामग्री से परिचित होने पर, यह पाया गया कि वह पूरा किला और शहर एक विद्यापीठ था जिसे विहार कहा जाता था। उपरोक्त विवरण बताते हैं कि बख्तियार ने किले या विहार पर हमला किया। बख्तियार ने जिस किलेनुमा विहार पर कब्जा किया, उसे ओदंड विहार या ओदंडापुर-विहार’ (बिहारशरीफ स्थित ओदंतपुरी, सिर्फ विहार के नाम से ज्ञात) के नाम से जाना जाता था। वह बिहारशरीफ से नालंदा नहीं गया, बल्कि वह झारखंड की पहाड़ियों और जंगलों से हो कर बंगाल के नादिया चला गया, जिसका सत्यापन 1295 ईस्वी का एक शिलालेख करता है। तो, बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस और उसे जलाना मनगढ़ंत कहानी और कल्पना पर आधारित है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि बख्तियार खिलजी ने बिहार के कुछ हिस्सों पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की, और इस क्षेत्र में महाविहार को नष्ट कर दिया, लेकिन वह बिहारशरीफ से नालंदा की ओर नहीं बढ़ा इसलिए नालंदा महाविहार के विध्वंस और उसे जलाने का सवाल ही नहीं है। (विस्तार में ये तथ्य 9 जुलाई, 2014 को sacw.net पर प्रोफेसर डी. एन. झा के प्रकाशित लेख में उपलब्ध हैं।)

 

 

दो तिब्बती लोक कथाएं तीर्थिका की आग से नालंदा महाविहार के नष्ट होने की कहानी बताती हैं। 17वीं शताब्दी के लामा तारानाथ के भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास और सुम्पा खान (18वीं शताब्दी) के पाग-सैम-जोन-जैंग में भी इन लोक कथाओं की तरह ही महाविहार के नष्ट होने की घटना का विवरण है। दोनों आख्यान बताते हैं कि नालंदा में काकुट्त्सिद्ध द्वारा निर्मित मंदिर के अभिषेक के दौरान, युवा शरारती श्रमणों ने दो तीर्थिका भिखारियों पर जूठन फेंके और उन्हें बंद कर उन पर खूंखार कुत्ते छोड़ दिए। इससे क्रोधित हो कर, उनमें से एक अपनी आजीविका कमाने चला गया और दूसरा एक गहरे गड्ढे में बैठ कर सूर्यसाधना में लीन हो गया, पहले नौ साल और फिर तीन और वर्षों की साधना के बाद मन्त्रसिद्धि प्राप्त की’, इसके बाद उसने यज्ञ कर चारों तरफ मंत्रसिद्ध राख बिखेर दिया”, जिससे तुरंत आग लग गई। इस आग ने सभी चौरासी मंदिर और ग्रंथों को नष्ट कर दिया, हालांकि, नौ मंजिला रत्नोदधि मंदिर की ऊपरी मंजिल से पानी फेंक कर कुछ ग्रंथों को बचा लिया गया। (प्रोफेसर डी. एन. झा के विवरण से उद्धृत)। उपरोक्त तथ्यों से संकेत मिलता है कि ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच लंबे समय से दुश्मनी थी, जिसके परिणामस्वरूप नालंदा महाविहार आग लगा कर नष्ट कर दिया गया।

 

 

खुदाई से भी आग से विनाश की पुष्टि होती है। इन स्थलों की खुदाई करते समय उत्खननकर्ता अक्सर यह टिप्पणी करते देखे गए कि यह विशिष्ट महाविहार संभवतः आग से नष्ट हो गया था, लेकिन वे इस आग के संभावित कारणों का उल्लेख नहीं करते हैं। हमारे पास ऐसा कोई सबूत नहीं है जो यह स्थापित करे कि यह आग बाहरी लोगों द्वारा लगाई गई या यह किसी राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान लगी, सिवाय एक तिब्बती स्रोत के जिसमें यह आरोप लगाया गया है कि ब्राह्मणों ने जानबूझ कर प्रसिद्ध पुस्तकालय में आग लगा दी थी।

 

 

करीब 1003 ई. के आस-पास का एक शिलालेख, जो कि मंदिर स्थल संख्या 12 के पास मिला, वास्तव में यह बताता है कि यह विनाश आग के कारण हुआ और इस विनाश के दौरान कुछ चीजें बचा ली गईं एवं नालंदा के पास तेलहाड़ा के बालादित्य द्वारा अनुदान दिया गया। हालांकि, यह शिलालेख इस बारे में कोई जानकारी नहीं देता है कि आग कैसे लगी थी। दुर्भाग्य से, शिलालेख में इस बात का उल्लेख नहीं है कि वास्तव में क्या नष्ट हुआ था, क्या वह ध्वंसावशेष मंदिर का था या पास स्थित विहार का? यह विवरण दरवाजे के चौखट पर लगे पत्थर के टुकड़े पर दर्ज है। इसमें नालंदा का नाम नहीं है। यह माना जाता है कि यह मंदिर के जीर्णोद्धार को संदर्भित करता है। नालंदा से जुड़े शिलालेखों की सूची से यह भी समझा जा सकता है कि यह अब तक प्राप्त अंतिम शिलालेख है जो हमें ज्ञात है और नालंदा से प्राप्त हुआ है।

 

यह बताया गया है कि मंदिर स्पष्ट संकेत करता है कि बौद्ध धर्म के पतन के दिनों में इसका जीर्णोद्धार किया गया था जैसा कि इसके समतल बाहरी हिस्सेऔर इसके चारों ओर स्थित सुरक्षात्मक चारदीवारी के निशान से निष्कर्ष निकलता है। यदि बालादित्य ने वास्तव में इस मंदिर या इसके एक हिस्से का जीर्णोद्धार किया था, जिसकी पूरी संभावना है, तो यह तथ्य नालंदा के इतिहास के अंतिम छोर तक पहुंचने में बहुत महत्वपूर्ण साबित होगा। यह इस बात की पुष्टि कर सकता है कि 11वीं शताब्दी के पहले दशक में नालंदा तेजी से अपने पतन के करीब पहुंच रहा था। दुर्भाग्य से खुदाई से निकले पुरावशेषों और प्राप्त वस्तुओं का न तो बारीकी से अध्ययन किया गया और न ही उनका काल निर्धारित किया गया है। हालांकि हम कह सकते हैं कि ऊपर वर्णित शिलालेख अवशेषों से प्राप्त अब तक के ऐसे नवीनतम शिलालेख हैं जिनका काल-खंड हमें ज्ञात है। इसलिए, यह मानने का कारण है कि नालंदा महाविहार का विध्वंस 11वीं शताब्दी में कभी हुआ, अर्थात, बख्तियार खिलजी के 1197 ई. में बिहार पर आक्रमण करने से करीब सौ साल पहले ऐसा हुआ।


टिप्पणियाँ

  1. इस रिसर्च ने उस मन घरंत कहानी को ध्वस्त कर दिया है जिसमे यह बताया गया कि बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्विद्यालय को जलाया या तोड़ा था। असलियत यह है कि खिलजी के आक्रमण के सौ साल पहले ही नालंदा विश्वविद्यालय खंडहर बन चुका था, जिसे कुछ खास जाति के लोगों ने जलाया और बर्बाद किया था।
    डी एन पाटिल ने अपनी पुस्तक एक्वायरियन रिमेंस ऑफ़ बिहार में इस बात को बहुत ही विस्तार से लिखा है।
    लेख अच्छा लगा। Facts are sancrosanct।

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