नरेश कुमार ‘खजूरिया’ की कविताएं

नरेश कुमार ‘खजूरिया’

 

मनुष्य के विकास की आख़िरी निशानी के तौर पर गाँव आज भी हैं। अलग बात है कि गाँव सिमटते जा रहे हैं। शहरों और महानगरों के समीपस्थ गाँव कब उनके द्वारा हजम कर लिए जाते हैं, पता नहीं चलता। गाँवों से आधारभूत सुविधाएं आज भी नदारद है। इसने पलायन वृत्ति को बढ़ावा दिया है। दुःखद है कि आज गांवों में 15-16 साल से ले कर 55-60 साल की उम्र के लोग प्रायः नहीं मिलते। गाँवों में दिखते हैं तो बूढ़े, बच्चे या फिर महिलाएँ। गाँव के खेतों पर पूंजीपतियों की नज़र पड़ने लगी है और किसान की कथा व्यथा अपने चिर परिचित रूप में आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। गाँव की फिक्र भला अब किसे है। शुक्र है कि हिन्दी के अधिकांश कवि इन गाँवों से ही आए हैं। इसीलिए उनके यहा  जीवन का यथार्थ है। कवि नरेश कुमार खजूरिया अगर अपनी उम्र से बड़े दिखने के पीछे इस कारण को रेखांकित करते हैं कि 'बदहाली से लड़ता/ गिरता पड़ता/ बार बार अड़ता/ गाँव/ वक़्त से पहले बड़ा हो जाता।' तो यह अनायास नहीं है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है सघन संवेदना के कवि नरेश कुमार खजूरिया की  कविताएं।

 

 

नरेश कुमार खजूरिया की कविताएं

 

 

 

7889736743

 

 

1- तुम्हारे जन्मदिन पर

 

 

मैं

सोच रहा था

कब दूं

तुम्हें जन्मदिन की बधाई

क्या रात बारह बजे

ही मान लूं

दूसरा दिन

नहीं-नहीं

यह तो रात है

किस मुहं से कहूँगा

इस भरे अंधकार में

तुम्हे हैपी बर्थ डे...

और मैं

सूरज निकलने का इंतजार करने लगा

सोचा

कुछ रोशनी

कुछ संगीत

कुछ सुगंध

भरी चहचहाती सुबह

ले जाऊं

शब्दों में सहेज कर

तुम्हारे जन्मदिन पर

सुबह होते ही

मां जब चूल्हा सुलगाने लगी

उसे नहीं मिलीं

रात की सहेजी हुई चिंगारियां

मां को

मांग कर लानी पड़ीं

पास वाले

घर से

तब मेरा भी इरादा बदल गया

और ले आया हूं

चिंगारियां

शब्दों की पोटली में बांध कर

तुम्हारे जन्मदिन पर

मेरे महबूब!

दुनिया में जीना है तो

इश्क जरूरी है

आग जरूरी है।

 

 (2012)

 

 


 

 

2- पिता के खेत

 

पिता सुनाते हैं

खेत की कथा

कहते हैं

वहाँ बस

पत्थर कंकर

कंटीली झाड़ियाँ थीं

जहाँ आज

चमकती थाली से

लहलहाते खेत हैं।

पिता सुनाते हैं

दो बैलों काला-गोरा की कथा

और अपना मिट्टी से रिश्ता...

बताते हैं

तब ट्रैक्टर नहीं थे

मशीनें नहीं थीं

थे केवल दो हाथ

हाथों का रिश्ता था

बैल, मिट्टी और बीज से।

पिता सुनाते हैं अतीत

वर्तमान को बल मिलता है

मैं जोतता हूँ खेत

पढ़ता हूँ खेत

लिखता हूँ खेत

खेत से मेरे रिश्ते को देख

पिता को बल मिलता है

पिता इन दिनों

उदास हैं

कहते हैँ-

हाथ का खेत से

रिश्ता वही है

बीज, मिट्टी, बैल और सपने

वहीं हैं

पता नहीँ फिर क्यों बिक रहे हैं पिता के खेत!

 

(2010)

 

 

 

3. बड़ा

 

उसने कहा

तुम

अपनी उम्र से लगते हो

कहीं ज्यादा  उम्र के

मैंने कहा गाँव की

मिट्टी ने वक्त से पहले

कर दिया बड़ा

बदहाली से लड़ता

गिरता पड़ता

बार बार अड़ता

गाँव

वक्त से पहले बड़ा हो जाता!

 


 

 

4.  हथोड़ी से खेलता बच्चा

 

बच्चे तेरे लिए दुनिया में

कोई कलम नहीं बनी है

नहीं बना है ऐसा काग़ज़

जिस पर लिख सको तुम

आपना सुनहरा भविष्य

उच्च शिक्षा संस्थान

के भवन निर्माण में

दिहाड़ी लगाते हुए

एक हिन्दोस्तानी माँ के पास

मेरे देश का भविष्य

हथोड़ी से खेल रहा है

डाल रहा है

धरती की छाती पर कुछ लकीरें

लाल टोपी

में अधनंगा बच्चा हथोड़ी पर

हाथ साध रहा है!

 

(2017)

 

 

5.  कोपलें

 

कोपलें

निकलीं

नुकीलीं

हरी पीली

कुछ कसीं

कुछ ढीलीं

वह बढ़ीं

टहनी होते ही काट ली गईं

वह फिर फूटीं

उतनी ही नुकीलीं

हरी पीली

फिर बढ़ीं

चार दिन हवा से खेलीं

टहनी हुई कि काट ली गईं

कोपलें कटती रहेंगी

फिर भी निकलती रहेंगी

उतनी ही नुकीलीं

कसी ढीलीं कि

हरियाली मर नहीं सकती

कट जाने पर

और और फूटती हैं कोपलें.

 

(2017)

 

 

6. समय की तपिश

 

 

अब की बार तुम आओ तो

बरसाती नालों की तरह मत आना।

तुम आना दरिया-ए-चनाव की तरह सदाबहारी हो ठंडा जल भर कर

कि समय की तपिश अब

झेली नहीं जाती!

मेरे बारे में।

 

 

सम्पर्क

 

निवास का पता 

 

गाँव व डाक घर कटली

तहसील: - डींगा अम्ब

ज़िला- कठुआ, जम्मू व कश्मीर

पिन कोड- १८४१४४

 

मोबाईल नंबर:- 07889736743

 

ई-मेल:-khajurianaresh026@gmail.com

 

 

टिप्पणियाँ

  1. हार्दिक धन्यवाद🙏💕 संतोष भाई! पहलीबार का सहयोग हमेशा बना रहे।

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 12-04 -2021 ) को 'भरी महफ़िलों में भी तन्हाइयों का है साया' (चर्चा अंक 4034) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही शानदार कविताएं नरेश जी। हमेशा की तरह आपकी कविताएं अपने आप में संदर्भ प्रसंग को बुनती जाती है।
    बहुत बधाई व शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  4. कोई ताज़ा हवा चली है अभी ....
    चिनार और चेनाब के देश से ..
    स्वागत है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नूपुरं मेम हार्दिक आभार आपका स्नेह बनाये रखें। धन्यवाद🙏💕

      हटाएं
  5. उत्तर
    1. होसला बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार आपका अनुराधा जी।

      हटाएं
  6. बहुत सुंदर जमीन और यथार्थ से जुड़ी कविताएं।
    भाव सीधे प्रभावित करते से ।
    बधाई शानदार सृजन की।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मन की वीणा।
      होसला बढ़ाती टिप्पणी के हार्दिक आभार आपका🙏🙏🙏

      हटाएं
  7. सभी कविताएँ गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह..
    पड़ोस से चूल्हा जलाने के लिए आग माँग कर लाना, सांझी परम्परा की निशानी है.. खूब कविताई नरेश खजूरिया जी, बधाई...

    जवाब देंहटाएं

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