स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण - 'एक सिनेमाबाज की कहानी-3'
स्वप्निल श्रीवास्तव |
कागज की खोज के बाद सिनेमा के आविष्कार ने दुनिया को सांस्कृतिक रूप से व्यापक पैमाने पर प्रभावित किया। यह प्रभाव जीवन के हरेक क्षेत्र में दिखायी पड़ता है। फिल्मों ने लोगों के रहन-सहन, सोच-विचार, बोली-बानी सबको एक नई दिशा प्रदान किया। आज दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में सिनेमा भी निर्विवाद रूप से शामिल है। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव को संयोगवश जो रोजगार मिला था वह सिनेमा से गहरे तौर पर अन्तरसम्बद्ध था। स्वप्निल जी की रुचि निम्नमध्यवर्गीय परिवार के एक बच्चे की तरह फिल्मों की तरफ पहले से ही थी। रोजगार ने उनकी रुचि को एक नया आयाम प्रदान किया। पहली बार पर हम स्वप्निल जी के फिल्मी संस्मरणों को 'एक सिनेमाबाज़ की कहानी' के रूप में सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। इस क्रम में सिनेमाबाज़ के संस्मरणों की दो कड़ियों को आप पहले ही पढ़ चुके हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है 'एक सिनेमाबाज की कहानी-3' की तीसरी कड़ी।
एक सिनेमाबाज की कहानी
स्वप्निल श्रीवास्तव
(आठ)
पिलखुआ गाजियाबाद का एक छोटा सा कस्बा था, वह गढ़ – दिल्ली रोड़ पर अवस्थित था। शहर में दो सिनेमाहाल थे जो शहर के दो छोरों पर बने हुए, पहला सिनेमाहाल ठीक सड़क पर था। उसके पास में बस स्टाप था, दूसरा बस स्टाप दूसरे छोर पर था। बिना टिकट कटाए लोग एक छोर तक जाते रहते थे, कंडक्टर भी ध्यान नहीं देते थे। कोई–कोई चवन्नी–अठन्नी थमा देते थे। मेरे लिए सहूलियत थी कि मैं एक सिनेमाहाल से दूसरे सिनेमाहाल का सफर मुफ्त कर लेता था। दूसरे सिनेमाहाल के पास रेलवे-स्टेशन था। वहां घूमना मुझे अच्छा लगता था। उसके पास ही एक पकौड़ी और चाय की दुकान थी, वहां खूब भींड़ लगी रहती थी। वह मिर्चे की बहुत स्वादिष्ट पकौड़ी बनाता था, लोग सू-सू करते हुए पकौड़ी खाते और चाय पी कर चले जाते थे। तल्ख चीजों के खाने का मजा अलग होता है, यह उस दुकान की भीड़ देख कर यह बात साबित होती थी। रेलवे स्टेशन ऐसी जगह थी, जहां घूमना अच्छा लगता था। रेलों का आना-जाना हमें दार्शनिक बना देता था। ऐसे में मुझे फिल्मी गीत का टुकड़ा याद आता था – जीवन का मतलब तो आना–जाना है। वे नितांत भावुकता के क्षण होते थे – जब एक साथ बहुत सी चींजें याद आती थी।
बस स्टेशन के पास चोपले पर एक होटल था जहां हम भोजन जीमते थे। मेरे अलावा उस कस्बे में कई छड़े थे जो कई दिशाओं से नौकरी करने आए थे, उनसे दोस्ती हो गयी थी – अधिकांश बैंक के मुलाजिम थे। पिलखुआ के हैंडलूम और छाप के कपड़े बहुत मशहूर थे, इसलिए लेन–देन के कारोबार बैंक के जरिए होते थे। हम लोग नौकरी में आ कर सभ्य नहीं हुए थे, हमारे भीतर लंठई बरकरार थी। अभी मेरा पुरबिया टोन बदला नहीं था, पंछाह की लठ्ठमार बोली मुझे बहुत दुखी करती थी। छोटा हो या बड़ा – सब आप की जगह तुम बोलते थे।
होटल के मालिक एक दार जी थे जो केश और दाढ़ी मुडा कर मोना बन गये थे, वे गला दबा कर बोलते थे। उनके बोलने का टोन पंजाबी था। वे हमें बड़े मनोयोग से भोजन कराते थे। उनकी रांधी हुई दाल और अंडे की भुर्जी का स्वाद इन पंक्तियों को लिखते हुए याद आती है। जैसे हम अपनी मित्र–मंडली के साथ पहुंचते थे, वे चहक उठते थे। हमारे लिए कुर्सी–मेज ठीक करने लगते थे, उनका प्रेम–भाव देखते बनता था।
मैंने सड़क के किनारे के सिनेमाहाल के पास कमरा ले रखा था। वह दूसरी मंजिल पर था। पहले दिन जब मैंने उस कमरे में प्रवेश किया तो लाइट जलाने के बाद कमरे में रोशनी का सैलाब आ गया, टयूब-लाइट की रोशनी में एक घोसला जगमगा उठा, अचानक दो परिंदे उड़ कर बाहर चले गये। वे मुझसे पहले इस कमरे में रहते थे। मैंने घोसले को ध्यान से देखा, उसमें दो सफेद अंडे चमक रहे थे। मकान–मालिक ने कहा कि बहुत दिनों से यह कमरा बंद था इसलिए गौरैयों ने यहां घोसला बना लिया होगा, इसे हटा देता हूं। मैंने उसे मना किया और कहा - आदमी हो या परिंदा, किसी का घर उजाड़ने से पाप लगता है। वह मेरी ओर चकित हो कर देखने लगा और अजीब सा मुंह बना लिया था।
बहरहाल मेरा पहला काम चिड़ियां और उसके घोसले को बचाना था। कमरे में सीलिंग फैन था जिसके चलने से चिड़िया के पंख कट सकते थे, मेरे डर से वे अपने घोसले छोड़ सकती थीं। मैंने दो काम किए पहला- मुझे कमरे में बहुत कम रहने की आदत बना ली ताकि उनकी आजादी भंग न हो, दूसरा गर्मी से बचने के लिए एक टेबुल फैन खरीद लिया था। मैं दिन भर बाहर रहता था और रात में बिना रोशनी जलाये आ जाता था, कमरे के एकदम किनारे सोता था। ताकि परिंदों को कोई तकलीफ न हो। जब तक चिड़िया के बच्चे बड़े हो कर उड़ने के काबिल नहीं हुए, मैं सावधानी बरतता रहा। उनके घोसले देख कर अपने बचपन के दिनों में चला जाता था। छात्र जीवन की वह लड़की याद आती रही जिसका नाम गौरैया था, वह भी मुझे छोड़ कर उड़ गयी थी। हम सब अपनी–अपनी उड़ान में हैं, किसी को आकाश मिल जाता है, कोई उड़ने की कोशिश में लगा रहता है।
धीरे-धीरे महकमें का काम सीखता रहा। छोटे शहरों में नयी फिल्में बहुत कम लगती थीं – जब बड़े शहरों के सिनेमाहालों के प्रिंट खाली हो जाते थे तो वे लौट कर इन सिनेमाहालों में लगते थे, अव्वल सिनेमाबाज लोग नयी फिल्में देखने के लिए गाज़ियाबाद जाते थे और फिल्म की कहानी शान से सुनाते थे – जैसे वे खुद फिल्म के हीरों हों। हीरोइन का नख-शिख वर्णन करने में उनकी प्रतिभा देखते ही बनती थी। ये नवेले और बिगडैल सिनेमाबाज थे, जो नये मुल्लों की तरह प्याज ज्यादा खाते थे। मैं उनके वृतांत को सुन कर मुस्कराता था – नानी के आगे ननिऔरे कै बखान। कभी मैं भी उन्ही की प्रजाति का था, नौकरी मिलने के बाद थोड़ा सुधर जरूर गया था। इस विभाग में रहने के कारण मेरे फिल्म देखने का नशा कम हो गया था। जब दफ्तर के काम से जनपद मुख्यालय जाना होता था तो फिल्म भी देख लेता था। मैं किसी भी सिनेमाहाल में फिल्म देख सकता था। उन्ही दिनों गाजियाबाद के एक हाल में अमिताभ बच्चन और रेखा की फिल्म – ‘आलाप’ लगी थी जो मुझे बेहद पसंद आयी। इस फिल्म में नायक एक शास्त्रीय-गायिका की लड़की से प्यार करता था, इस सम्बन्ध पर उसके पिता को घोर आपत्ति थी, उसने उसके सारे रास्ते बंद कर दिये थे तो नायक तांगा चला कर अपनी रोजी चलाता था, कुलीन परिवार के नागरिक होने के कारण, उसे काम में किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं थी। जब फिल्म का एक पात्र उससे पूछता है कि आखिर तुम्हें क्या मिला तो वह जबाब देता है कि यह उठा हुआ सर। खुद्दारी की अपनी ताकत होती है, यह बात अब भी याद है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन, रेखा और ओमप्रकाश का अभिनय अदभुत था।
यह फिल्म सिनेमाघर से दो तीन दिन में ही उतर गयी। सिनेमा के दर्शक बदल चुके थे और जीवन मूल्यों का अवमूल्यन होने लगा था, ये वे दर्शक नहीं थे जो विमल राय, शांताराम और गुरूदत्त की फिल्मों के दीवाने थे। उस दौर के सिनेमाकार फिल्मों को कला मानते थे, वे सामाजिक उद्देश्य के लिए फिल्में बनाते थे लेकिन अस्सी के दशक के आते-आते यह अवधारणा बदल चुकी थी। फिल्में शुद्ध व्यवसाय थी, उनका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं था। जो राजकपूर अपनी फिल्मों में समाजवाद का सपना दिखाते थे, आवारा, श्री420 या जागते रहो – जैसी फिल्में बना कर अपना नाम श्रेष्ठ निर्देशकों में दर्ज कराया था, उनका भी पतन होने लगा था। फिल्म ‘बाबी’ के बाद ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ फिल्म इसका प्रत्यक्ष उदाहरण थी। इस फिल्म में उन्होंने जीनत अमान को किस सीमा तक अनावृत किया है, इस हकीकत से हम सब वाकिफ थे।
जीनत अमान को देवानंद ने अपनी फिल्म – ‘हरे राम हरे कृष्ण’ में रोल दिया था। इस फिल्म में उसे खूब पसंद किया गया। इस फिल्म में उसने एक हिप्पी लड़की की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म का गीत – ‘दम मारो दम मिट जाये गम’, नई पीढी की कालर–ट्यून बन गयी थी। जीनत की शिक्षा और जीवन की दीक्षा विदेशों में हुई थी। उसकी जीवन शैली आधुनिक थी। माडलिंग की दुनियां से वह फिल्मों में आयी थी। राजकपूर ने उसे ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ फिल्म की भूमिका के लिए चुना था। उसके पास मोहक देहयष्टि और मादकता थी। देह दिखाने में किसी तरह का परहेज नहीं करती थी। राजकपूर ने इस उदारता का भरपूर उपयोग किया, उसके लिए कई स्नान–दृश्य निर्मित किये ताकि उसकी देह–धारियां साफ–साफ दिखाई दे। राज कपूर इस तरह के दृश्यों के फिल्मांकन में माहिर थे और नवीन प्रयोग करते थे। यह फिल्म खूब चली। जीनत देवानंद की खोज थी। बताया जाता है कि जीनत को ले कर देवानंद और राजकपूर के बीच बहुत अनबन हो गयी थी। यह एक तरह से एक अभिनेत्री पर आधिपत्य की लड़ाई थी। कुछ लोग तो अभिनेत्रियों को अपनी जागीर समझते थे। रामानंद सागर – कुमकुम , चेतन आनन्द- प्रिया राजवंश जैसे कई उदाहरण फिल्मी दुनिया में मिल जाएंगे।
Hare Rama Hare Krishna (1971 film)
फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ गाजियाबाद के जी.टी रोड के एक सिनेमाहाल में चल रही थी। टिकट की मारामारी थी लेकिन मैंनेजर की कृपा से एक टिकट का इंतजाम हो गया था। यह मेरे लिए गौरव का क्षण था, सिनेमा के जिस टिकट को पाने के लिए धक्के सहने पड़ते थे, वह मुझे सहज उपलब्ध हो गया था। फिल्म खत्म होने के बाद मैं मैंनेजर रूम में आ गया था, तभी गेटकीपर एक रोते हुए बच्चे के साथ नमूदार हुआ।
वह पापा-मम्मी कह कर चिल्ला रहा था, उसका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। पता चला कि बच्चे के मां-बाप किसी खाम-ख्याली में उसे हाल में ही भूल गये थे। लोग सिनेमाहाल में चावी, कलम, रूमाल भूल जाते थे लेकिन कोई अपना बच्चा भूल जाय, यह कल्पना मुझे बेहद डरावनी लगी। मेरे ख्याल से वे उस वर्ग के लोग रहे होगे जिन्हें बच्चे से ज्यादा अपनी मौज मस्ती से लगाव रहा होगा। ये आधुनिकता की नकल करने वाली पीढ़ी के प्रतिनिधि थे।
हम सब लोग बच्चे से पूछताछ कर रहे थे लेकिन बच्चा इतना छोटा था कि जबाब नहीं दे पा रहा था, उसकी हिचकियां तेज हो रही थीं। इस करूण दृश्य के बीच पति-पत्नी हड़बड़ाए हुए आए तो हम लोगों ने मिल कर उन्हें खूब जलील किया।
आठवें दशक से सामाजिक जीवन तेजी से बदल रहा था। होटल और रेस्टोरेंट तेजी से खुल रहे थे। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मध्य वर्ग पर पड रहा था, वह उच्च वर्ग की तरह आधुनिक हो रहा था। न फिल्मों में नैतिकता रह गयी थी न जीवन में। मुझे अपने कथाकार मित्र सोमेश्वर की कहानी – ‘चीजें तेजी से बदल रही हैं’ - की याद आ रही थी। इस प्रवृति को उसने अपनी कहानी में बखूबी दर्ज किया है। सोमेश्वर गाजियाबाद में रहते थे और दादरी के एक कालेज में पढ़ाते थे। उनके साथ उनके कालेज तक की गयी तांगे से की गयी यात्रा अब तक याद है। उन दिनों यात्रा के यही परम्परागत साधन थे। उन्होंने अपने समय में महत्वपूर्ण कहानियां लिखी थीं लेकिन बाद में लेखन से विरत हो गए। उनका कहना था कि अगर हम पहले से बेहतर कहानियां नहीं लिखते हैं तो लिखना स्थगित कर देना चाहिए।
॥नौ॥
अभी मैं राजकपूर की चर्चा कर रहा था, वे हिंदी–सिनेमा के ग्रेट शो मैन थे। वे भव्य फिल्में बनाते थे। अपनी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ बनाने में उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। यह उनकी महत्वाकांक्षी फिल्म थी, इस फिल्म को ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखा था। इस फिल्म में राजकपूर के जीवन के अनेक दृश्य थे, ‘जाने कहां गये वो दिन’ जैसा गीत था जिसे सुन कर मैं अतीत में पहुंच जाता था। इस फिल्म को जब भी देखता, मेरी आंखें भर आतीं। घटिया और खराब फिल्में देख कर दर्शको का सौंदर्य बोध बदल गया था। वे ऐसी फिल्म देखने के लिए वयस्क नहीं हो पाये थे, वे ऐसी फिल्म के दर्शन को समझने के काबिल नहीं थे। इस फिल्म के निर्माण में अपने सारे संसाधन लगा दिये थे, वे कंगाल से हो गये थे। इसकी क्षतिपूर्ति उन्होंने ‘बाबी’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’ जैसी फिल्में बना कर की थी। यह एक निर्देशक के पतनशीलता का दौर था, फिल्म ‘तीसरी कसम’ का हीरामन पूरी तरह बदल चुका था।
राज कपूर की फिल्म – ‘राम तेरी गंगा मैली’ अपने जमाने में बहुत मशहूर फिल्म थी। इस फिल्म की नायिका मंदाकिनी थी। वह मेरठ शहर की एंग्लो इन्डियन लड़की यास्मीन जोजेफ थी। जिसके पिता ब्रिटिश और मां मुस्लिम थी। यास्मीन नये फिल्मी नाम मंदाकिनी से जानी गयी। मंदाकिनी के पास अपार देह–वैभव था।
‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की अपार सफलता के बाद राज कपूर ने उसी तर्ज पर दूसरी फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी। इसे संस्कृति से जोड़ कर उन्होंने एक नया आसव तैयार किया था। एक फिल्म हिट हो जाने के बाद उसी फार्मूले पर दूसरी फिल्में बनती थीं लेकिन वह फ्लाप हो जाती थीं। विजय आनंद ने – ‘जानी मेरा नाम’ की सफलता के बाद ‘छुपा रूस्तम’ बनाई तो उसका भी हश्र यही हुआ। ‘संतोषी मां’ फिल्म मुश्किल से बनी थी, लेकिन उसने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिये थे। यह फिल्म गोरखपुर के सिनेमाहाल में लगी थी। दूर–दूर से दर्शक औरतें बैलगाड़ी और ट्रैक्टर से फिल्म देखने आती थी। सिनेमामालिक ने सिनेमाहाल के गेट के सामने संतोषी मां की एक मूर्ति लगा दी थी, उस पर रोज हजारों का चढ़ावा चढ़ता था। वह फिल्म इतनी चली कि एक अखबार को लिखना पड़ा कि इस फिल्म को कोई आंदोलन ही उखाड़ सकता है। यह भी याद किया जाना जरूरी है कि 1975 में ‘शोले’ भी प्रदर्शित हुई थी लेकिन फिल्म ‘संतोषी मां’ की कमाई पर कोई असर नहीं पड़ा। अंधविश्वास और भक्ति–भाव से भरी हुई फिल्में भी अपना इतिहास रचती हैं।
इसी तर्ज पर उससे भी भव्य फिल्में संतोषी मां को केंद्र में रख कर बनायी गयी थी लेकिन वे बुरी तरह फ्लाप हुईं। सर्पकथा पर बनी श्रीदेवी की फिल्म – ‘नगीना’ जिसे वितरकों ने लेने से इनकार कर दिया था लेकिन यह फिल्म सुपर- डुपर हिट हुई और सर्प कथाओं का दौर शुरू हो गया। सांपो की कथा पर निर्मित श्रीदेवी की एक अन्य फिल्म – ‘निगाहें’ डूब चुकी थी। फार्मूलेबाजी और नकल पर बनने वाली अधिकांश फिल्में असफल होती रही हैं।
मंदाकिनी जिस तेजी के साथ फिल्म के इतिहास में उदित हुई थी, उसी गति से वे विलुप्त होती गयी। बताया जाता है कि वह प्रसिद्ध डान दाउद इब्राहम के पनाहगाह में चली गयी, वहां उसका वही हश्र हुआ जो मह्त्वाकांक्षी अभिनेत्रियों का हुआ करता है। सन् 1990 में अध्यात्मिक गुरू डां कग्यूर टी रिनपोचे के साथ मंदाकिनी ने विवाह कर लिया था। वह तिब्बती योगा की शिक्षा भी देती है। वे दोनो दलाई लामा के अनुयायी हैं। फिल्मी दुनिया में ऐसी बहुत सी करूण कहानियां हैं। हमराज की नायिका विमी की कहानी तो लोग जानते ही होंगे, वे पति से विद्रोह करके फिल्म में आयी थी। एक दो फिल्मों के बाद उन्हें काम नहीं मिला। वे न घर की न हुई न घाट की। उनकी मृत्यु बेहद दारूण परिस्थितियों में हुई। इसी प्रकार एक अन्य अभिनेत्री मोनिका बेदी का सम्बन्ध अबू सलेम से हुआ। यह कहानी जगजाहिर है। अबू सलेम को कैसेट–किंग़ गुलशन कुमार की हत्या में दोषी पाया गया। गुलशन कुमार की हत्या मंदिर में हुई थी। वे धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे, जगह–जगह लंगर चलाते थे लेकिन ईश्वर और धर्म उन्हें बचा नहीं पाए।
हीरो-हीरोइन के जीवन की कहानियां किसी फिल्म से कम रोचक नहीं होती हैं। जब से माफिया-डान का पैसा फिल्मों में लगना शुरू हुआ है, फिल्मों की संरचना बदलने लगी थी। वे फिल्मों में अपनी ही संस्कृति को प्रमोट करते थे। हाजी मस्तान की कहानी तो सर्वविदित है, उसने सोना नाम की हीरोइन से बलात प्रेम किया था क्योंकि उसकी शक्ल मधुबाला से मिलती थी। वह रहस्यमय ढ़ंग से फिल्मी आकाश से गायब हो गयी थी। बाद के दिनों में हाजी मस्तान और दाउद के जीवन पर आधारित फिल्म ‘वंस अपान एक टाइम इन मुम्बई’ फिल्म प्रदर्शित हुई थी जिसमे अजय देवगन, इमरान हाशमी, कंगना रनावत ने भूमिका निभाई थी।
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हीरो-हीरोइन के रोमांस और उनके टूटते हुए दाम्पत्य सम्बंधों के दम पर बहुत सी फिल्मी पत्र–पत्रिकायें निकल रही थीं जिसमें फिल्म की अंग्रेजी पत्रिका ‘स्क्रीन’ प्रमुख थी। इस पत्रिका ने मेरे अंग्रेजी ज्ञान को खूब बढ़ाया था। स्टारडस्ट, माधुरी, फिल्मफेयर, सुषमा ऐसी ही मशहूर पत्रिकायें थीं, जो हाट-केक की तरह बिकती थी। सिनेमाबाज स्टारडस्ट की पत्रकार देवयानी के कालम ध्यान से पढ़ता था। देवयानी की भाषा बहुत ही अलंकारिक होती थी। उसने लिखा था कि मुश्किल से वह अपने विस्तर की चादर बदल पाती है लेकिन फिल्मी लोग आसानी से अपने जोड़े बदलते रहते थे, जिस स्त्री के साथ शादी किया, बच्चे पैदा किया और कई दशक बिताये, उसे डिच करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाते।
सन 1980 में दिलीप कुमार ने हैदराबाद की एक खातून आस्मा ने निकाह किया था जिस पर खूब हंगामा मचा था। सायराबानो के लिए यह खबर बेहद तकलीफदेह थी। बाद में मामला रफा–दफा हो गया लेकिन फिल्मी पत्रिकाओं के वारे–न्यारे हो गए। फिल्मी दुनिया में सच कम खूबसूरत झूठ ज्यादा बिकते हैं। ये कथायें फिल्मों की समांतर कथायें है। ‘विनोद मेहरा-रेखा’, ‘अमिताभ बच्चन–रेखा’, ‘संजय खान–जीनत अमान’, ‘सलमान खान–ऐश्वर्या राय’ जैसी प्रेम–कथायें किसी फिल्मी कहानी से कम रोचक नहीं हैं।
॥दस॥
नौकरी की गाड़ी धीरे–धीरे आगे बढ़ रही थी, मैं उसे घोड़े की तरह खीच रहा था। कभी–कभी घोड़े बिदक जाते थे। जिस रास्ते पर मैं चल रहा था, वह ऊबड़–खाबड़ था। कभी–कभी रथ उलट जाता था और कभी घोड़े दगा दे जाते थे। फिर उन्हें मैं एकजुट करके नांधता था। कहने को यह मनोरंजन का विभाग था लेकिन इसमें बला की मनोरंजन-विहीनता थी, विभाग के अधिकांश अफसर खूसट और सम्वेदनहीन थे। वे बेमतलब हमारे जैसे लोगों पर रोब गालिब करते थे। वे शार्टकट के रास्ते से धनपति होना चाहते थे और यह मेरा रास्ता नहीं था, मेरा रास्ता जिंदगी से हो कर गुजरता था। वे अचानक सिनेमाहालों पर छापा मारते थे और लोगों को फंसाने की कोशिश करते थे फिर उनका दोहन शुरू हो जाता था। इस मामले में लोग व्यक्तिगत रिश्तों को भी नजरंदाज कर जाते थे। इसे वे अपनी बहादुरी समझते थे और लोगों के सामने अपने किस्से को गाते रहते थे। जैसे वे किसी मुल्क को जीत कर आये हो। इस मामले में वे चंदबरदाई की संताने थीं। इन्ही विषम स्थितियों के बीच से मैं साहित्य और आवारगी के लिए समय निकालने का खतरा उठा रहा था।
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सिनेमाहाल के एक मैंनेजर के पास रेलवे का पास था जिससे वह दिल्ली से फिल्मों के प्रिंट लाता था। उन दिनों पास पर फोटो नहीं लगते थे, इसलिए मुझे दिल्ली जाने-आने की सुविधा मिल जाती थी। नौकरी की एकरसता और ऊब से बचने के लिए मैं दिल्ली चला जाता था। दिल्ली की सबसे मनपसंद जगह मोहनसिंह पैलेस का काफी-हाउस था - वहां शाम के समय दिल्ली के कवि–लेखक जुटते रहते। बाहर से आने वाले लेखको की घोषणा पहले ही हो जाती थी। सब अपने–अपने झुंड के साथ बैठे रहते और लंतरानियां झाड़ते थे। उसमें से अधिकांश योजनाजीवी होते थे। वे कहते कि वे अमुक किताब पर काम कर रहे हैं, अमुक पर फिल्म बन रही है। उनके पास बहुत से अमुक थे। मैं उल्लू की तरह उनकी बातें सुन रहा था। मेरे पास इतनी अक्ल तो थी ही कि मैं समझ संकू कि वे मुफ्त में रोब गालिब कर रहे है। मुझे एक कहावत याद आयी – थोथा चना बाजे घना।
काफी के प्याले सस्ते थे। काफी हाउस के बेयरों का ड्रेस महाराजाओं की तरह था, उसके सिर पर कंलगी लगी रहती थी, जब वे चलते थे वह हिलती रहती थी। साहित्य–विमर्श प्यालों के आसपास होते थे, बीच–बीच में ठहाके बजते रहते थे। ठहाकों से मेज और उस पर रखे प्याले हिलते रहते हैं। उन सबके बीच मैं अजनवी था, मुझ पर कोई क्यों ध्यान देता। अभी तो मेरे लिखने की शुरूआत हुई थी।
लेखको और कवियों की अंग–मुद्रायें मुझे विचित्र लगती थी। वे मंडी हाउस, श्रीराम सेंटर, त्रिवेणी और साहित्य अकादमी जैसी जगहों पर विचरण करते हुए मिल जाते थे। चेहरे पर बढ़ी हुई बेतरतीब दाढ़ी, जीन का पैंट और गले में झूलता हुआ झोला उनकी पहचान थी। एक तरह से यह वेष–भूषा ट्रेड–मार्क की तरह प्रचलित थी। मैं यह सब करने में अक्षम था, मैं अपने तरह रहता और सोचता था।
दिल्ली घूम कर और कुछ किताबें और पत्रिकायें खरीद कर जब मैं पिलखुये के अपने कमरे में लौटता था और उसी पुराने कोल्हू में नध जाता था। नींद मुश्किल से आती थी, इसलिए मुझसे सपने भी दूर रहते थे। मैं अभी तक नींद को साध नहीं सका, इसलिए व्याकुलता बनी रहती है।
Bahut hi sukhad annubhav hai.
जवाब देंहटाएंअभी तक तो आनन्द आ रहा है । पुस्तक के रूप में पढ़ने का अलग ही आनंद है, प्रतीक्षा में हूं ।
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