राकेशरेणु की कविताएँ


राकेशरेणु


कवि परिचय


सीतामढ़ी, बिहार में जन्मे राकेशरेणु की कविताएँ प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनकी कविता पुस्तकें हैं - 'रोजनामचा' और 'इसी से बचा जीवन'। 'समकालीन हिंदी कहानियाँ', 'समकालीन मैथिली साहित्य' और 'यादों के झरोखे' उनकी संपादित पुस्तकें हैं।

राकेशरेणु की कविताएँ 'कविता कोश', 'हमारा मोर्चा', 'हिंदवी', 'जानकीपुल' और 'हिंदी समय' पर भी पढ़ी जा सकती हैं। उनकी कुछ कविताओं के पाठ और वीडियो  'कविता कोश', 'लिखावट', लिटिल थेस्पियन ग्रुप तथा यूट्यूब के अन्य प्लेटफार्मों पर उपलब्ध हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कविताएँ ,वार्ताएँ और परिचर्चाएं प्रसारित। 

राकेशरेणु 'समकालीन परिभाषा', 'आजकल', 'योजना', 'कुरुक्षेत्र', 'रोज़गार समाचार', 'बाल भारती' आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन कर चुके हैं। 

संप्रति: भारतीय सूचना सेवा से संबद्ध।


प्रेम मात्र एक छोटा सा शब्द नहीं बल्कि पूरी एक आचरण शैली एवम सभ्यता का परिचायक है। यह अपने आप में कोमल, निर्मल और जीवनदायी होता है लेकिन साथ ही प्रतिरोध का प्रतीक भी होता है। दुनिया का शायद ही कोई कवि हो, जिसने प्रेम पर कविताएँ न लिखी हों। कबीर तो यहॉं तक कहते हैं : 'ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होय'। पण्डित मतलब ज्ञान से परिपूर्ण। जिसने इसे साध लिया, वही विद्वान है। जिसने अपने जीवन में प्रेम नहीं किया वह विद्वान होने का दावा भी नहीं कर सकता। राकेशरेणु प्रेम को इस अलग मायने में विश्लेषित करते हैं कि प्रेम भी विभिन्न रूप स्वरूप वाला होता है। किसी को हिंसा से भी प्रेम हो सकता है। किसी को नफरत और घृणा से भी प्रेम हो सकता है। लेकिन प्रेम तो वही है जो मानवता की भावना और उसके सरोकारों को आगे बढ़ाए। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि राकेशरेणु की कविताएँ।



राकेशरेणु की कविताएँ



उषा उत्थुप के लिए


जब सब बचा रहे थे बेशकीमती असबाब सैलाब से

उसने बचाई चिट्ठियाँ प्रेम भरी

उन्हीं चिट्ठियों की डोंगी में

वह उतरती रही पार बार-बार

झंझावातों से

प्रेम ने बनाया हर वजन बेवजन इतना

कि उन्हें तैरा कर पार की जा सके

उफनती बरसाती नदी

चिट्ठियों में समाया प्रेम

समाया था उसकी आवाज में

उसने जिसे प्यार किया, जब भी, बेहद किया।



वह पहली स्त्री थी माँ के बाद
जिसकी आवाज़ से प्रेम किया जातक ने
जाना औरत का होना उसकी आवाज़ से
वह साकार होती थी आवाज़ में
जिसे सुन कर जाना जा सकता था सहज ही
कि स्त्री ही रही होगी कोई
आवाज़ को जनने वाली
अपनी खूबसूरत कृति को आवाज़ दी जिसने
आवाज़ कह कर।         

आवाज़ में घुली थी काया

फुर्ती और गति उसकी

उसके सारे कटाव दिखते आवाज़ में

वह देह नहीं खालिश आवाज़ थी खुरदुरी

प्रेमिल और कमनीय खसखसाहट से भरी


 

केवल देह होती भी नहीं स्त्रियाँ
गति, लय, ऊर्जा, रचना-पुंज होती हैं
देह के आवरण में लिपटी हुईं
रचती हैं दुनिया जिससे
उतनी ही गतिमय, लयबद्ध
प्रेमिल ऊर्जा से दिप्-दिप्।


 

 

नाज़िया हसन के लिए



उसके आते ही खुला सदियों से बंद दरवाजा
विशाल जर्जर, बंदिशों और रवायतों का

जैसे खुलता है फिल्मों की भुतहा हवेली में

सुदीर्घ चर्रचर्रचर्रss की आवाज़ के साथ

अनुगूँजे सुनाई देती रहीं जिसकी

जीवन के इस छोड़ से उस छोड़ तक।


 

जैसे खुली और साफ हवा में

गहरी साँस भरती है स्त्री फेफड़ों में हाथ उठा

गोइठा पाथने/ माथे का बोझ पटकने के बाद

जैसे चिड़ियाँ फैलाती हैं डैने

नई उड़ान के लिए

जैसे भर जाता है ताज़ा और तेज़ हवा का झोंका

भुतहा हवेली में

भरते हुए सुर, संगीत, कर्णप्रिय कोलाहल

लगभग वैसे ही, वह आई
और बदल दिया भुतहा चर्रचर्रचर्र
ss की आवाज़ को

कर्णप्रिय संगीत में।

 


आते ही उसने आवाज़ दी

आहूत करती एक अदद उम्मीद

और दाखिल हो गई हजारहां धड़कनों में

किसी का इज़ारा नहीं उमंग - कहा उसने

उतना ही है औरतों और लड़कियों का

जितना कि मर्दों का।

उसने आवाज दी लरजती

सुर और संगीत भरी और फिर कहा

कुफ्र नहीं है संगीत, न उल्लास, न खुदमुख्तारी औरतों की

इस तरह उसने बंदिशों, रवायतों, हिचक और कोहरे का हटाया हिज़ाब

जैसे कोई सुर्ख, चमकदार भंवर

लगभग वैसे ही, वह आई!


 

जैसे भरभरा कर गिरा खंडहर ख्यालों का

मानो चर्रचर्रचर्रss की आवाज़ के साथ गिरा हो दरवाज़ा

जैसे दूर जा छिटकी बंदिशों, कायदों, परंपराओं की जंग खाई चूलें

उसकी एक जुंबिश से

वैसे ही वह लौट गई वापस आते-आते

छत्तीस बरस की भरी जवानी में
लेकिन गई कहाँ, ठहर गई 

महाद्वीप की लड़कियों की आँख में
फिर सबने कहा एक स्वर में

लो, वह आई, जीवन संगीत बन कर!






स्त्री

 

सूरज की तरह कौंधती

माथे पर बूँदें पसीने की

धौंकनी के साथ उठते-गिरते

हाथ और छाती एकसार

तपिश की मुस्कान चौड़ी होती जाती

चेहरे पर बढ़ती जाती कौंध।

वह चाँद की तरह चमक रही थी

माथे पर चाँद का गोदना गोदे

तन-मन लाल हो रहा उसका

सृजन का ताप भरे।


 

लाल लोहे मेंधौंकनी में 

आत्मा चमकती ललछौंही

आत्मबल दीखता सुर्ख लालतप्त

नया रूप धरने को तत्पर

जिसे ठोंक-पीट कर 

वह नये शक्ल देतीनये आकार

रचना में उसकी लोहा था खालिशआत्मा में मजबूत

जीवन के ताप से ढला हुआ।


 

धरती पर जो ठोस थाटिकाऊ और धारदार

जिसे लेकर दुर्दिन से लड़ा जा सकता था

आगे बढ़ा जा सकता था

नया गढ़ा जा सकता था

उसी ने रचा था।


 

 

प्रतिरोध

 


कठिन होता है पहचानना चेहरा

प्रेम में डूबे आदमी का 

उसका चेहराउसका नहीं रह जाता

आदतेंउसकी नहीं

सबसे बड़ी बातकि बदल जाती है सोच उसकी

वह आईना बन जाता है प्रियतम का

प्रेम सब कुछ बदल देता है।


 

सब-कुछ बदल देता है प्रेम -

बचपने की उम्र से निकल आए हो

तनिक सोचोकिससे लगन लगा रहे हो

केवल स्त्री-पुरुष का नहीं होता प्रेम

केवल दिल और देह का खेल नहीं यह

दिमाग में जा बैठता हैजेहन में 

आत्मा से एकात्म बैठाताबदलता है वजूद

इसलिए बचपना न करोसोचो।



गीदड़ से प्यार करोगेगीदड़ बन जाओगे

साँप से प्यार करोगेसाँप बन सकते हो

भेड़िये से प्रीत तुम्हें भेड़िये-सा खूंखार बना देगा

कायर का साथ कायर बना सकता है 

दिलेर का प्यारदिलेर

इसलिए प्रेम करो पर सावधानी से

देखो तुम किसे प्यार कर रहे हो



प्रेम में डूबा आदमी

आईना बन जाता है प्रियतम का।


 

हर हाल में मुक्त करता है प्रेम और निर्भीक 

इतना कि बंधन सब ढीले पर जाएँ

दीवारें अड़अड़ा कर ढह जाएँ

इतना हल्का बनाता कि उड़ सको मनचाही उड़ान

इतना तनु कि कुछ भी घुल सके तुममें;

तुम समा सको कहीं भी।


 

आजाद होना चाहते हो तो प्रेम करो

नफरतें मिटाने के लिए प्रेम करो

प्रेम करो बंधनों को तोड़ने के लिए

दीवारें ढहाने के लिए प्रेम करो

हर विभाजन के खिलाफ प्रेम करो

जुल्मतें मिटाने के लिए प्रेम करो

दुःशासन हटाने के लिए प्रेम करो।







 सभ्यता कथा



सभ्य कहे जाने के लिए

अगले दो अंगों को हमने हाथ बनाया 
पिछले दो को पैर
और धीरे-धीरे तन कर खड़े हो गए 
आसपास देखा थोड़े विस्मयथोड़ी हिकारत से 
शेष जीवों को जंगली और चौपाया कहा
खुद को सभ्य और श्रेष्ठ।



जैसे-जैसे सभ्य हुए हम
औरत को औरत और मर्द को मर्द पहचाना
हमने परिवार बनाएपरिजनों और अन्य जनों का भेद रचा
समाज बनाए और समाजों के भीतर समाज
हमने बोलियाँ और भाषाएँ बनाई
 

जातियाँ गढ़ी, कुनबे और कबीले
संप्रदाय और धर्म बनाए
 
अपने अपने नायक और नायिकाएँ गढ़े
फिर एक दूसरे को अलग करना
एक दूसरे से नफरत करना सीखा।


हमने घर बनाए और खेत
और गाँव और रियासतें और देश अनेकानेक 
सबकी चौहद्दियाँ खींची 


जैसे-जैसे सभ्य हुए 

हम खींचते गए विभाजक रेखाएँ, चौहद्दियाँ 

औरत-मर्दोंकुनबे-कबीले-संप्रदायोंगांव-रियासत-देशों की चौहद्दियाँ।


श्रेष्ठता के पैमाने तय किए हमने 
किसी की औरत हथिया ले
या खेत या खनिज
या गांव या रियासत
वह श्रेष्ठ
 
किसी के घर में घुस जाए
या गांव या देश में 
मार-काट करेलूटमार या बलात्कार 
वह श्रेष्ठ 
अपनी चौहद्दी का जितना विस्तार करे वह उतना ही श्रेष्ठ


 
हमने देवी-देवता रचे इस तरह
जिनने लड़ाइयाँ लड़ी बड़ी-बड़ी देवानुकूल 
विजेताओं को हमने सदा सदाचारी
और पराजितों को दुर्गुणों की खान माना 
कुछ बने प्रतापी और चक्रवर्ती सम्राट 
श्रेष्ठता के मानकों में प्रमुख रही कुटिलता
या बाहुबल या पौरुष
  
श्रेष्ठता के लिए हमने लड़ी लड़ाइयाँ -
- जातियों की श्रेष्ठता के लिए लड़ाइयाँ
- धर्मों
आराध्यों की श्रेष्ठता के लिए लड़ाइयाँ 
- भाषाओं और सीमाओं की श्रेष्ठता के लिए 
- हथियारों की श्रेष्ठता के लिए लड़ाइयाँ
- संपत्तियों और बाज़ारों के लिए लड़ाइयाँ।



इस तरह लड़ते-झगड़ते हम सभ्य हुए और श्रेष्ठ
अपने आदिम साथियों के बीच


हम भूल गए, मनुष्य होना था हमें

मनुष्यों के बीच बेहतर मनुष्य  
किंतु हम आदिम ही रहे
स्वार्थीबर्बर और धर्मांध।

 

अभियान गान


वो रोकेंगे जब राह तुम्हारा
तुम हाथ से हाथ लिए चलो
वो बाँटेंगे जब प्रेम तुम्हारा
तुम कदमताल कर बढ़े चलो।


यह देश हमारी थाती है
हम सब इसकी औलादें
फिर कौन कहाँ से आया है
यह बाँट-बखेरा ठुकरा दें।


यह प्रेम हमारी ताकत है
इसका बँटवारा स्वीकार नहीं
जाति-भाषा, धरम-इलाका
बिन बात बखेड़ा मंजूर नहीं।


हम नवोत्थान के अग्रदूत
हम लेकर जनगण साथ चले
हम परिवर्तन के हामी हैं
कल के सूरज के रथी हमीं।


हिंदू कौन तुम क्या जानो
शक्लों-कपड़ों से बाँटने वालों
यह लफ़्ज तुम्हें कहो कहाँ मिला
किस पुराण में है यह लिखा हुआ
?



यह बोली-बानी, कपड़ा-लत्ता
हम सबकी साझा थाती है
दाढ़ी नानक ने रक्खी थी,
दाढ़ी कबीर का बाना था
दाढ़ी तुमने भी रखी है,
दाढ़ी हमने भी रक्खी है



यह खानपान, यह पहनावा क्या
हँसना-रोना, सब एक-सा है
उस लहू का रंग क्या बाँटोगे
?
जिस जबान से पहचान मिली
उस जबान को कैसे बाँटोगे
?


वो रोकेंगे जब राह तुम्हारा
तुम हाथ में हाथ लिए चलो।
वो बांटेंगे जब प्रेम तुम्हारा
तुम कदमताल कर बढ़े चलो।


 

 स्वामीनाथन की पेंटिंग और चमकी बुखार


आसमान में एक दरार उभर आया

ओजोन परत फट गई हो मानो

एक चिड़िया उड़ी और गिरने लगी अचानक काँपते पत्ते सी

टिकोरों और पत्तों का गिरना एक-सा नहीं होता यह

मालूम नहीं था बच्चों को
वे गिरे बेआवाज काँपते पत्तों से

गोया कोई दूसरी मुफीद जगह नहीं गिरने की
बुद्ध, महावीर, जनकदुलारी के देस में
यों ही झरते हैं पत्ते हर साल
श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज के जनरल वार्ड में।

चिड़िया अचानक किरचों में बदल गई पेंटिंग में
बरसती रहीं माँओं की आँखों-चीत्कारों से
टेढ़ा-मेढ़ा त्रिकोण बनाती चेहरे पर
त्रिकोण के भीतर और त्रिकोण, लकीरें टेढ़ी-मेढ़ी
जैसे दुख के भीतर और दुख, अकथ-अथाह-अचिन्हीं।


बंद थीं खिड़कियाँ सदरे-रियासत के बंगले की
सूखे आषाढ़ की दोपहर
गरबा खेला जा रहा था गर्भगृह में
बाहर जल-टोटियाँ उड़ गई थीं चिड़िया बन कर
जलाने के लिए सब कुछ था वहाँ, बुझाने को बूँद भर पानी नहीं।


चिड़ियों ने साँपों का रूप धर लिया पेंटिंग में
और दौड़ पड़ीं एकबारगी
अलग-अलग दिशाओं में
मानो किसी मुहिम पर निकली हों
निष्पंद देह से
चौसर खेलने वालों की तलाश में।


हवा थम गई थी बहते-बहते
पृथ्वी बिलख रही थी की निस्पंद देह गोद में लिए
नदी काँप रही थी और बह रही थी
बगीचे सुनसान थे, पेड़ सब निस्तब्ध
माएँ बिलख रही थीं बच्चों से लिपटकर
या चुप हो चुकी थीं रोते-रोते
वह समय साँपों का था और सँपेरों का
वे दौर रहे थे गजब की चमक और फुर्ती के साथ
दौड़ रहे थे जमीन पर, हवा में, पानी पर
दौड़ रहे थे और डँस रहे थे
दसों दिशाओं में।




माँ की साड़ी


किन्हीं ईश्वर के नाम लहराती
रंग-बिरंगी ध्वजा थी वह
आँगन की अलगनी पर टँगी

मानो पूरे घर को असीस रही हो
अपनी फड़फड़ाहट से।



माँ की गोद के बाद
सबसे सुकूनदायी गोद थी उसकी
जिससे लिपट कर
लिपटे होने का सुख मिलता माँ से।



वह रुमाल थी, या फिर अँगोछा
उससे ज्यादा खुशबूदार और मुलायम
कुछ न मिला आजतक जातक को
हाथ सुखाने और मुँह पोंछने के लिए
कई बार जब नाराज होता माँ से
पोंछ आता नाक भी उसी साड़ी में।

पर माँ थी कि पूछती-
जुकाम तो नहीं हो गया तुम्हें
?
आ, तेल लगा दूँ सर में!




डर


जब कोई पहलवान ताल ठोंक
चुनौती दे रहा हो दुश्शासन-सा
हारे हुए लोगों की सभा में
ललकार रहा हो कि कौन है वह वीर
जो मल्ल करे उससे
और कोई हाथ न उठे
आवाज़ न आए कहीं से
जीत जाए पहलवान इस तरह
बगैर मल्ल किए

तो डर लगता है।


 

जब कोई बार-बार
बाहें फैला कर बातें करे
घेरते हुए चौरस, और चौरस जगह
मानो सबको अपने आगोश में समेट लेना चाहता हो
जबकि वास्तव में वह सब को धकेल कर किनारे
कुछ का आलिंगन करना चाहता है द्रोण की तरह
सौंपना चाहता है अनधिकार चौरस जगह उन्हें
स्वाभाविक है तब हमारा भयभीत होना।


डर लगता है यदि वो हँसे, न हंसे तो डर लगता है
सभा मंडप में उसकी उपस्थिति से डर लगता है
कुश्ती के मैदान में
न हँसे वो तो और भी हिंस्र
उसकी चुप्पी षड्यंत्रकारी
उसकी हँसी इतनी क्रूरता भरी।




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क

राकेश रेणु
B - 339, Kendriya Vihar, 
Sector - 51, NOIDA - 201303

मोबा-9868855425

टिप्पणियाँ

  1. बहुत शुक्रिया ! विजेंद्र जी के चित्रों में अद्भुत लय और गति है। इन पेंटिंग्स के साथ बहुत ही मनोयोग से आपने कविताएँ प्रकाशित की है। फिर से आभार!

    जवाब देंहटाएं
  2. अद्भुत, अप्रतिम, सारगर्भित कविताएं। संवेदनशीलता की नयी परिभाषा रचती ये कविताएं उद्वेलित करती हैं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'