राहुल राजेश की कविताएं






राहुल राजेश



आजादी क्या है? इसे किस तरह परिभाषित किया जाना चाहिए इसे ले कर आज भी मतैक्य नहीं है कवियों ने भी इस आजादी पर विचार किया है। क्या देश से भी बडी है आजादी। क्या मानवता से बडी है आजादी? जब हम इस तथ्य पर विचार करते हैं तो सहज ही एक बात जेहन में आती है कि आखिर जो यह दुनिया भर के देश हैं वे कब बने? क्यों बने? क्या इनकी जरुरत थी? देश क्या महज सीमाओं, संविधान झंडे या मुद्रा से ही बन जाता है? नहीं, इसके लिए आदमी की जरुरत होती है। वह आदमी जिस पर शासन किया जा सके। जिसे उस नियम कानून के दायरे में बांधा जा सके जो शक्तिमान और सम्पन्न लोगों का तो कुछ नहीं बिगाड पाता लेकिन आम जनता पर अपनी हनक दिखाता है। कवि धूमिल ने अपनी एक कविता में लिखा है – ‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?’ मानचित्र बनते बिगडते रहते हैं। देशों की सीमाएं बदलती रहती हैं। शासक बदलते रहते हैं। लेकिन नहीं बदलता तो मनुष्यता का मतलब। मनुष्यता से बडा कुछ भी नहीं होता। महर्षि व्यास ने पुराणों का सार बताते हुए लिखा है – 'दूसरों का उपकार करने से पुण्य होता है और दूसरों को दुख पहुंचाना ही पाप होता है।' राहुल राजेश ने भी ‘आजादी’ शीर्षक से एक कविता लिखी है जिसमें उन्होंने इस पर अपना नज़रिया व्यक्त किया है। यह जरूरी नहीं कि हम उनके विचार से सहमत हों। लेकिन वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर तो कर ही सकते हैं। अपनी छोटी लेकिन चुटीली कविताओं के द्वारा उन्होंने आज के समय, समाज और कवियों पर जो व्यंग्य किए हैं वह कई संदर्भों में विचार करने योग्य है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है राहुल राजेश की कविताएं।

                    

राहुल राजेश की कविताएँ



नहीं चाहिए

 
सूचीकारों को
कवि नहीं, श्रद्धालु चाहिए

आलोचकों को
कवि नहीं, काडर चाहिए

संपादकों को
रचनाकार नहीं, चाटुकार चाहिए

कवियों को
पाठक नहीं, पुरस्कार चाहिए

कविता किसी को
नहीं चाहिए।



जरूरत

 
वे उतने ही विनम्र हैं, जितने की जरूरत है
वे उतने ही ईमानदार हैं, जितने की जरूरत है
वे उतने ही क्रांतिकारी हैं, जितने की जरूरत है

वे उतने ही उदास हैं, जितने की जरूरत है
वे उतने ही खिलाफ़ हैं, जितने की जरूरत है
वे उतने ही कवि हैं, जितने की जरूरत है

चर्चित होने और चर्चा में बने रहने के लिए
उन्हें बस इतने की ही जरूरत है !



कवि को


कवि को अपने उज्ज्वल भविष्य और सुयश का
समुचित प्रबंध अवश्य कर लेना चाहिए

कवि को अपना एक जीवनीकार रख लेना चाहिए
जो उसके जीवन के हरेक प्रसंग को नजदीक से नोट करे

कवि को एक इतिहासकार रख लेना चाहिए
जो उसकी हरेक गतिविधि को विधिवत दर्ज करे

कवि को एक छायाकार रख लेना चाहिए
जो उसकी हरेक मुद्रा को कैमरे में कैद करे 

कवि को एक विज्ञापनकार रख लेना चाहिए
जो उसका चहुंदिश विज्ञापन करे

कवि को एक रूपांतरकार रख लेना चाहिए
जो उसकी हर कविता को तमाम देशी-विदेशी भाषाओं में
अनूदित कर दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाए

कवि को एक टिप्पणीकार रख लेना चाहिए
जो उसकी हर कविता पर त्वरित टिप्पणी करे

कवि को आरंभ से ही
इन सबकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए

कवि को एकदम आरंभ में ही तय कर लेना चाहिए
कि केवल कविता लिखने से
वह कहीं नहीं पहुँच सकता

केवल कविता लिख कर
वह अपना उज्ज्वल भविष्य और सुयश
हरगिज सुनिश्चित नहीं कर सकता।



त्रिधारा

 
इस देश में
तीन तरह की विचारधाराएँ हैं

पहली, जो गोबर की गंध
बर्दाश्त तक नहीं कर पाती
पर गू बड़े चाव से खाती है
और आधुनिक कहलाती है

दूसरी, जो नख-शिख तक
गोबर लगाती है
और बकौल पहली
गोबर-गणेश कहलाती है

और तीसरी, जो
न गू खाती है, न गोबर
वह सिर्फ च्वयनप्राश खाती है
और दोनों को मुँह चिढ़ाती है !



कुटिल आदमी

कुटिल आदमी
बड़ा मीठा बोलता है
बड़ा आहिस्ता मुँह खोलता है

कुटिल आदमी
पल पल अपना ईमान मोलता है
अपने बच्चों में भी​ नफा-नुकसान तोलता है

कुटिल आदमी
अपनी पत्नी की जाँघ में भी तिल टटोलता है !



विमर्श

 
विमर्श खड़ा करना
मेरा पेशा नहीं

पेशे में पेशा ही हो पाता है
विमर्श नहीं !

कभी इस नाम से
कभी उस नाम से
विमर्श को टिकाऊ बनाए रखना

मंच दर मंच
अंक दर अंक
विमर्श को बिकाऊ बनाए रखना

और खुद भी
खरीदार दर खरीदार के हाथों
बिकते जाना

दरअसल विमर्श को
आजीवन विकलांग बनाना है !



समाज सुधारक

 
हमारी हँसी कितनी हिंदू है
उनकी मुस्कान कितनी मुसलमान

इसी को नापने में-

देश के सारे समाज सुधारक
हुए जा रहे हलकान!



आधुनिक

थोड़ा अटपटा पहनें, आधुनिक दिखेंगे
थोड़ा अलग बोलें, आधुनिक कहलाएँगे
हिंदी कम, अंग्रेजी अधिक बघारें
आधुनिकों की जमात में जल्दी जम जाएँगे 
स्वीकारें कम, नकारें अधिक,
आधुनिकों की अग्रिम पाँत में गिने जाएँगे

परंपराओं में क्या रखा है ?
वो आदमी ही क्या जिसने
रातों की रंगीन महफ़िलों में विदेशी
व्हिस्की का स्वाद नहीं चखा है !

कभी परंपरा पर प्यार आ गया
तो बहुत हुआ तो माथे पर भभूत या
गले में रूद्राक्ष की माला डाल लिया !
पर कवियन की वार्ता हो कि लिटफेस्ट-
देश को जी भर नहीं कोसा तो क्या किया ?

वो आजादी ही क्या जो अराजक न हो  
वो अभिव्यक्ति ही क्या जो निरंकुश न हो
जो आपके नहीं हैं, वे सब बिके हुए हैं !

वाकई क्या गज़ब की परिभाषाएँ गढ़ी हैं
मानो संविधान की आयतें सिर्फ आपने पढ़ी हैं !

बुरा मत मानिए जनाब !
बहुत उथली आपकी जड़ें हैं
आधुनिक होने के उपक्रम में 
आपने जो प्रतिमान गढ़े हैं,
वे बिल्कुल सड़े हैं !

माना, आपके मंसूबे बड़े हैं
पर सच तो यह है कि
आप किसी मुगालते में पड़े हैं !

इस देश में वे सब एक साथ खड़े हैं
जो इसी देश, इसी मिट्टी में पले-बढ़े हैं !!





आज़ादी

 
जिसके खिलाफ़ लिखी
उसी पूँजीपति की पत्रिका में
छपी कविता

जिसके खिलाफ़ बोला
उसी के हाथों
मिला पुरस्कार

जिसके खिलाफ़ किया
धरना-प्रदर्शन
उसी सरकार में
की नौकरी

जिसके खिलाफ़
खड़ा हुआ
उसी ने दी
बैठने की जगह

जिसके खिलाफ़
उगला जहर जी भर​
उसी ने बढ़ाया जल
करने को गला तर

जिसके खिलाफ़
हुआ लामबंद
उसी देश, उसी धर्म ने दी
यह सब करने की आज़ादी !





बाढ़

1.

बिहार
असम
यूपी
उड़ीसा
उत्तराखंड

और कहीं?

नहीं ।


2.

नहीं, नहीं
केरल की बाढ़ ने
सबको पीछे छोड़ दिया है

दक्षिण ने उत्तर का रिकॉर्ड तोड़ दिया है

इतना ही नहीं, इसने
बाढ़ में विचारधारा भी जोड़ दिया है

विचारधारा ने
फ्लड रिलीफ का ट्रेंड मोड़ दिया है !


3.

बिहार की बाढ़, सुनो
असम की बाढ़, तुम भी सुनो
यूपी, उड़ीसा, उत्तराखंड की बाढ़
तुम सब भी सुनो

अबकी आना
तो अपनी विचारधारा भी साथ लाना

वरना मत आना
मत आना ! मत आना !!



पहले

 
1992 से पहले सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1987 में
हाशिमपुरा नरसंहार हो चुका था

1987
से पहले भी सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1984 में
सिक्खों का कत्लेआम हो चुका था

1984
से पहले भी सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1975 में
लोकतंत्र का कत्ल हो चुका था

1975
से पहले भी सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1971 में
भारत-पाक का दूसरा युद्ध हो चुका था

1971
से पहले भी सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1965 में
भारत-पाक का पहला युद्ध हो चुका था

1965
से पहले भी सब कुछ ठीक था

जबकि उससे पहले 1947 में
भारत-पाक का बँटवारा हो चुका था !
  


खेल

मैं तो डॉक्टर का फ़र्ज़
निभा रहा था
किसने मेरी पहचान
मुसलमान बताई

मेरे लिए वह
बस एक मरीज था
किसने उसकी जात
हिंदू बताई

मैं तो भूखे मुसाफिरों को
खाना खिला रहा था
आदमी हो कर आदमी के
काम आ रहा था

मेरी तस्वीर खींच कर
किसने लिख दिया उस पर
मुसलमान पराये नहीं हैं
जबकि लिखना चाहिए था
इंसानियत मरी नहीं है...

वह आतंकी था
खूनी था, दरिंदा था
मुसलमान नहीं

वह आदमी
एक अपराधी था
किसने उसे हिंदू बना दिया

अरे, यह तो
कोई मौलवी है
फिर इस खबर के साथ
त्रिशूल वाला साधु
क्यों छपा है





मैं हिंदू हूँ


आपकी जानकारी के लिए बता दूँ
मैं कोई लाल झंडा नहीं,
देश का तिरंगा लहराता हूँ
रामनवमी में केसरिया ध्वजा फहराता हूँ

मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
इसलिए सिर्फ़ मंदिर में नहीं,
गिरजा, गुरूद्वारे, मस्जिद, दरगाह
सब जगह शीश नवाता हूँ

मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
इसलिए मंदिर में भी चुनरी बाँध आता हूँ
मजार पे भी रूमाल चढ़ाता हूँ

मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
इसलिए भजन भी गाता हूँ
सूफी भी सुनता-सुनाता हूँ

मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
इसलिए मीरा को भी गुनता हूँ
ग़ालिब को भी गुनगुनाता हूँ

मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
इसलिए पंडित को भी
मौलवी को भी घर बुलाता हूँ

हाँ, मैं हिंदू हूँ, हिंदुस्तानी हूँ
काशी का कबीर हूँ मैं -
झीनी झीनी चदरिया
प्रेम की बुनता जाता हूँ ।




हम

 
हम हगने के वक़्त खाने के बारे में सोचते हैं
नहाने के वक़्त सोने के बारे में सोचते हैं
संभोग करने के वक़्त रोग के बारे में सोचते हैं

ऐसा करने से हम ख़ुद को रोकते नहीं
जो कर रहे होते हैं, उस समय
सिर्फ़ उसी के बारे में सोचते नहीं

जीवन जटिल नहीं है
और सेहत के सूत्र भी बड़े सरल हैं

पर ऐसा होना हमें कहाँ भाता है ?

मजदूर मर रहे हैं सड़कों पर,
पर हमें सिर्फ़ सवाल करना आता है
और इन्हें फेसबुक पर
पोस्ट करने में क्या जाता है !

 

दोनों ही


आप जोड़ने के नाम पर बाँट रहे हैं
वे बाँटने के नाम पर जोड़ रहे हैं
दोनों ही देश को तोड़ रहे हैं

वे जिनको पकड़ रहे हैं
आप उनको छोड़ रहे हैं
दोनों ही सच को तोड़-मरोड़ रहे हैं

आप उनका
वे आपका भांडा फोड़ रहे हैं
दोनों ही देश की धारा मोड़ रहे हैं

आप उनके खिलाफ
वे आपके खिलाफ शोर मचा
मनचाहे फल तोड़ रहे हैं

वे अपने मतलब के लिए
आप अपने मतलब के लिए
कहीं का तार कहीं से जोड़ रहे हैं

वे पूरब से तो आप पश्चिम से
वे उत्तर से तो आप दक्खिन से
जहरीला पानी छोड़ रहे हैं !

  

कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ


मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ
विश्व साहित्य, विश्व कविता तो क्या
सूर, तुलसी, कबीर को भी अभी
ठीक से समझ नहीं पाया हूँ

विश्व सिनेमा, विश्व संगीत, विश्व कला
वगैरह वगैरह की तो मैं बात भी नहीं कर पाता

आसपास की दुनिया ही बहुत बड़ी है मेरी
इसी दुनिया में नाभिनाल गड़ी है मेरी
यह दुनिया जो सिखाती है, जो दिखाती है
कविता में बस उतने से ही काम चलाता हूँ

बहुत कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ
कविता में जीवन की वर्तनी
ठीक करने में ही हाँफ जाता हूँ ।




धिक्कार

 
उसने कहा-
तुमने सीएए, एनआरसीसी, एनपीआर के
विरोध में अब तक नहीं लिखी कोई कविता

तुमने शाहीन बाग के समर्थन में
अब तक नहीं लिखी कविता एक भी !

कितनी दरिद्र हैं तुम्हारी कविताएँ

कि उनमें हत्यारा, खूनी, क्रूर, आततायी,
नीच, पापी, ढोंगी, मौत का सौदागर,
फासिस्ट जैसे जरूरी शब्द ढूँढ़े नहीं मिलते !

धिक्कार है तुम पर !

तुम्हारा कवि होना ही नहीं,
मनुष्य होना भी संदिग्ध है !!



कला

दिखते हुए उधर का,
इधर का बने रहना
एक जहीन कला है

जिसे साधने में
थोड़ा वक्त लगता है !

आँखों में,
जीभ पर,
कागज की झक्क
सुफैद दीवार पर

लाल रंग कुछ इस तरह
लिसड़ना होता है

कि देखो तो
जिंदा गाढ़ा रक्त
लगता है!!





फिर भी

उन्हें अपनी जड़ों पर भरोसा है
और अपनी परवरिश पर भी

वे हमलों से विचलित नहीं होते
उनकी आस्था भी आहत नहीं होती

उनको बर्दाश्त करना आता है
नजरअंदाज करना भी आता है
वे नजरअंदाज होना भी जानते हैं

वे ये भी जानते हैं कि
जहाँ सेकुलरिज्म का मुलम्मा
औसत को भी लोकप्रिय बना देता है

वहाँ अपने बारे में जरा भी फिक्र
उन्हें बदनाम कर देगा

फिर भी वे खुद को हिंदू कहते हैं
तो किसी गुमान में नहीं

बल्कि बस इसी फिक्र में कि
वे जाएँ तो जाएँ कहाँ

इत्ती बड़ी दुनिया में उनके लिए
कोई और देश भी तो नहीं!


जबर

अगले को
तपाक से संघी कह दो

बेदाग निकल जाओगे!

कट्टर कहलाने से
बच जाओगे

और मियाँ,
जबर सेकुलर भी कहलाओगे !!



गिरफ्तारी

 
कवि को
झूठ के खिलाफ होना चाहिए

सत्य और तथ्य के
खिलाफ नहीं

और उसे कोई मुगालता तो
कतई नहीं पालना चाहिए

अब तक सिर्फ एक कवि
गिरफ्तार हुआ था गबन के आरोप में

दूसरा कवि गिरफ्तार हुआ था
षडयंत्र के आरोप में

तीसरा कवि याद नहीं आता
जिसे कानून ने नहीं, शासक ने
डर कर गिरफ्तार किया हो

सारे के सारे कवि
सत्ता के विरोध में ही
बेखौफ कविताएँ लिख रहे हैं

अब तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई
तो मतलब साफ समझना चाहिए

किसी कवि की गिरफ्तारी को
कविता की गिरफ्तारी बताने से
भरसक बचना चाहिए।



वह


बिल्कुल छोटी-सी दुकान थी

चूँकि वह
नंपुसकत्व दूर करने की
लाल विलायती बूटी बेचता था

उसका बड़ा नाम था

कविता के मर्द खुश थे
औरतें भी संतुष्ट थीं ।



शिनाख्त

 
यकीन मानो

धर्म के सारे धंधे
बंद हो जाएँगे
इधर भी और
उधर भी

जरा ईमानदारी से
गुनाहगारों की
शिनाख्त तो करो
कॉमरेड

इधर भी और
उधर भी!



जंगली

भोला दिखने के लिए
बहुत मक्कार बनना पड़ता है

इसलिए मैं आपकी तरह
भोला और मासूम नहीं बन पाऊँगा

आप चाहें तो
मुझे जंगली कह लें।



तरफदारी


चूँकि
आप उस तरफ हैं

इसलिए
मैं आपको

इस तरफ नज़र आता हूँ!




संपर्क




J-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,

गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063



मो. 9429608159



टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

    जवाब देंहटाएं
  2. यहाँ प्रस्तुत सभी कविताऍं बहुत ख़ास हैं !इनमें हमारे समय की परख की जा सकती है ! इन कविताओं से जुड़कर समृद्ध हुआ ! बहुत बधाई इन सार्थक और सन्देशपूर्ण कविताओं के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  3. अनूठी रचना ।सरोकार ही सरोकार से सम्बद्ध ।पड़ताल और बेबाकपन ।

    जवाब देंहटाएं
  4. अनूठी रचना ।सरोकार ही सरोकार से सम्बद्ध ।पड़ताल और बेबाकपन ।

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह। कविता में इतना सधा व्यंग्य कम ही देखने को मिलता है। मैं हिन्दू हूँ। आज़ादी। नही चाहिए। सब बड़ी बेजोड़ अभिव्यक्तियां हैं।
    कवि को शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'