प्रियम अंकित का आलेख ‘प्रतिबद्ध ‘स्थापन’ की कहानियाँ’।

 

शेखर जोशी

  

शेखर जोशी नई कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार हैं। युवा आलोचक प्रियम अंकित के अनुसार शेखर जोशी की कहानियां जनसंघर्ष की चेतना के कलात्मक वैभव को स्थापित करने वाली कहानियां हैं। इसी बिना पर उन्हें नई कहानी आंदोलन में अलग से भी पहचाना जा सकता है। 'अनहद' के चौथे अंक को हमने शेखर जोशी अंक के रुप में संयोजित करने का निर्णय लिया था। इस अंक को पाठकों का इतना प्यार मिला कि शीघ्र ही यह अंक अनुपलब्ध हो गया। आज भी इस अंक के संदर्भ में पाठकों के फोन अक्सर आते रहते हैं। यह एक कथाकार की उपलब्धि है कि उसे पाठक आज भी इतने आदर से याद करते हैं। प्रियम अंकित ने यह आलेख मूलतः 'अनहद 4' के लिए लिखा था। आज शेखर जोशी का जन्मदिन है। शेखर जी को जन्मदिन की बधाई देते हुए हम आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं प्रियम अंकित का आलेख प्रतिबद्ध स्थापन’ की कहानियाँ

      

 

प्रतिबद्ध स्थापन’ की कहानियाँ

                                     

 

प्रियम अंकित

 

     

 

आज़ादी के बाद की हिंदी कहानी महज़ शहरी या कस्बाई मध्य वर्ग का कुलीन आख्यान बनके ही रह गयी होती, अगर कुछ जनपक्षधर कहानीकारों ने इस कुलीन प्रवृत्ति के खिलाफ अपनी रचनात्मक ऊर्जा को अभिव्यक्त न किया होता। इन कहानीकारों में शेखर जोशी महत्वपूर्ण हैं। शेखर जोशी ‘स्थापित के विस्थापन’ के नहीं, बल्कि ‘विस्थापित के स्थापन’ के कहानीकार हैं। अपने दौर की कथा-प्रवृत्तियों में जड़ जमाये बैठे हिमालय के ‘औदात्य’ या पठार के ‘धीरज’ को वह विस्थापित नहीं करते, बल्कि इन प्रवृत्तियों में लगभग विस्थापित जनसंघर्ष की चेतना के कलात्मक वैभव को वह अपनी कहानियों में स्थापित करते हैं। दूसरे शब्दों में शेखर जोशी ने अपने कथा-समय में पहले से जमे-जमाये कुलीन सरोकारों को उखाड़ने में रूचि नहीं ली, इसके उलट उन्होंने अपनी कहानियों में कला से बहिष्कृत और उखड़े हुए जनधर्मी संस्कारों को जमाकर उस समानांतर कथा-प्रवृत्ति को मजबूत किया जिसके प्रतिनिधि अमरकांत, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह से लेकर संजीव और शिवमूर्ति जैसे कहानीकार हैं। इसीलिये शेखर जोशी की कहानियों में उखाड़ फेंकने के विध्वंस का गर्जन नहीं मिलता, बल्कि रचनात्मक रूप से ऊर्जावान खामोशी मिलती है।

     

 

शेखर जोशी की कहानी-कला में अगर ‘कला’ को समझना हो, तो उनकी कहानी ‘सिनारियो’ हमारी कुछ मदद कर सकती है। यह कहानी स्पष्ट करती है कि शेखर जोशी के लिये कलात्मक सौंदर्य और समाजिक प्रतिबद्धता के संदर्भ अलग-अलग नहीं हैं। सौंदर्य और प्रतिबद्धता का द्वंद्वात्मक रिश्ता जितनी बारीकी से उनकी कहानियों में सधता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। सिनॉरियो में रवि कलात्मक सौंदर्य के रूमानी संदर्भों द्वारा आसानी से प्रभावित होने वाला कलाकार है। हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी रचना में जीवंत करने के उद्देश्य से वह एक पहाड़ी गाँव में आता है। यहाँ जिस घर में उसे शरण मिलती है, उसमे घोर गरीबी में जीवन बसर करने वाली बूढ़ी आमां और उसकी पोती रहती हैं। माचिस रखना उनको महंगा पड़ता है, अत: उन्हें आग सहेजनी पड़ती है। हिमालय खूबसूरत है, साथ ही ठण्डा भी। यह महान हिमालय अपनी खूबसूरती और भव्यता के बावजूद मजबूर है – वह अपने सान्निध्य मे रहने वाली गरीब जनता को आग मुहैया नहीं करा सकता । बूढ़ी आमां और उसकी पोती की गरीबी के प्रति खूबसूरत हिमालय उदासीन है। शेक्सपीयर का कथन है – ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ, तुम्हारी खामियों के साथ।’ पहाड़ की जनता हिमालय से प्रेम करती है, उसकी ख़ामियों और मजबूरियों के साथ सिनॉरियो में हिमालय के सौंदर्य का तिरस्कार नहीं है, क्योंकि यह पहाड़ की संवेदना में रचे-पगे लेखक की कहानी है। यहाँ विश्व के दो महान कवियों टेनिसन (ब्रेक, ब्रेक, ब्रेक)  और ऑडेन (येट्स की स्मृति में लिखा गया शोकगीत) की कविता याद आती है जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य को खारिज किये बिना मानव जीवन की विडंबनाओं के प्रति प्रकृति की उदासीनता का चित्रण किया गया है। कहानी प्रकृति की उदासीनता के बरक्स मानव जीवन की विडंबनाओं और संघर्षों का मार्मिक चित्रण करती है। आग को कलछुल में सहेज कर लाती सरूली का संतुलन बिगड़ने पर तुषार से भीगी धरती पर गिर पड़े अंगारों को जल्दी जल्दी उठा कर कलछुल में रखना इस संघर्ष का दुर्लभ अंकन है। रवि दूर से बालिका के इस संघर्ष को देखता है और मदद दे पाने में अपने को असमर्थ पाने पाने पर ग्लानि से भर उठता है। जब सरूलि अंगारों को कलछुल में बटोरकर लाती है तो वह और आमां अंगारों की बुझती हुई आँच को फूँक-फूँक कर जीवित करने की कोशिश करते है। सूखी फूस और लकड़ियों के बीच कलछुल को रखकर आमां ज़ोर से फूँकती है। लकड़ियाँ भभककर जल उठती हैं। कहानीकार के शब्द हैं – पूरा गोठ एकबारगी आलोकित हो उठा।  यहाँ केवल गोठ ही एकबारगी आलोकित नहीं होता, पूरी कहानी में एकबारगी आलोकित होती है कहानीकार की प्रतिबद्धता भी –  चूल्हे के पास बैठी आमां के चेहरे की झुर्रियाँ जैसे उस सुनहरे आलोक में खिल उठीं। सामाजिक संदर्भों में पगे कलात्मक सौंदर्य की दुर्लभ मिसाल है यह वाक्य! कहानी का अंतिम वाक्य रवि के भीतर एक अलग कलाकार, जिससे वह अब तक अपरिचित था, की आहट को महसूस करा जाता है – रवि को सहसा आभास हुआ कि काश ! इस रंगत को वह अपने कैमरे से पकड़ पाता।

     

 

सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भों से यह गहरा लगाव ही शेखर जोशी की कहानियों को विशिष्ट पहचान देता है। पहाड़ी इलाकों की गरीब जनता की कठिन जीवन-स्थितियाँ, उनका संघर्ष, उत्पीड़न और यातना के बीच साधारण जनता का प्रतिरोधी तेवर, निम्न मध्यम वर्ग का आर्थिक और सामाजिक यथार्थ, जो कुलीनता के रूमानी दायरों को अपने पास फटकने नहीं देता, इन कहानियों को आज़ादी के बाद भारतीय जनता के साधारण जीवन के विश्वसनीय चित्र के रूप में स्थापित करता है। वैचारिकी के कृत्रिम आरोपण के बजाये घटनाओं और ब्योरों को अपने कहन का हिस्सा बनाती यह कहानियाँ प्रतिबद्ध वैचिरिकी की पुष्टि करती हैं। भावुकता और वैचारिकता के अतिरेकों से मुक्त यह कहानियाँ विसंगतियों और विडंबनाओं के बीच साँस लेते जीवन के संघर्षों का दस्तावेज बनती हैं।

 


 

शेखर जोशी की कहानियाँ स्वभावतया स्फीति की विरोधी हैं। सारांश और संक्षेपण उनकी खासियत है। मितभाषी होने के चलते लंबी कहानियों का अभाव और कहानियों की सीमित सँख्या स्पष्ट है। लेकिन इस संक्षिप्तता में मानव जीवन की विराट विसंगतियों, विडंबनाओं और संभावनाओं को पिरो पाना एक दुर्लभ गुण है। दाज्यू, कोसी का घटवार, बदबू, मेंटल, नौरंगी बीमार है जैसी अधिकांश कहानियाँ संक्षिप्तता के इस औदात्य से हमारा परिचय कराती हैं। ये सभी कहानियाँ घटनाओं और ब्योरों पर केंद्रित हैं। घटनायें और ब्योरे हर कहानीकार को शब्दों और वाक्यों में विस्तार का प्रलोभन देते हैं। शेखर जोशी ऐसे प्रलोभनों से काफी सचेत हैं। एक कहानीकार के रूप में शेखर जोशी घटनाओं के भीतर पूरी शिद्दत से प्रवेश करते हैं, मगर वह उनके अलग-अलग और बारीक ब्योरों को विस्तार से दर्ज़ नहीं करते। इसके उलट वह अतिरिक्त और फालतू ब्योरों को बड़ी सूक्ष्मता से छाँटते हैं। इसका परिणाम है शिल्प और कथ्य के बीच बारीक संतुलन में सधी कहानियाँ। ऐसी कहानियाँ जो अपने पाठक के विवेक पर पूरा भरोसा करती हैं। विश्व के साहित्यिक परिदृश्य में एक समय यह बात लगभग स्थापित हो चली थी कि सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध लेखक के लिये विस्तार और स्फीति आवश्यक हैं एवं संक्षेपण और सारांश तो अस्तित्ववादियों और कलावादियों का गुण है। लेकिन शेखर जोशी की कहानियों में संक्षिप्तता भी है और प्रतिबद्धता भी। इसलिये केवल सतही प्रेक्षणों से अपनी आलोचना-दृष्टि का निर्माण करने वाले आलोचकों को अगर शेखर जोशी की कहनियों मे रचनात्मकता का अभाव दिखे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये। उन्हें यह बात समझ में आ ही नहीं सकती कि शेखर जोशी ने साहित्य की ऐसी सतही समझ को चुनौती देने वाले विश्व के उन थोड़े से कहानीकारों के बीच अपनी जगह बनाई है, जिन्होंने संक्षिप्तता और प्रतिबद्धता के बीच की दूरी को कम करके अपने समय की रचना-दृष्टि को एक नयी दिशा दी है।

   

 

शेखर जोशी साधारण जनता के साधारण प्रसंगों में कहानी की खोज करनेवाले कहानीकार हैं। ऐसी कहानियों से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है, जो यह दावा करते नहीं थकती कि जो कुछ भी उनमे है, उसे काफी अनुसंधान और खोजबीन के उपरांत जीवन में ढूंढ़ा जा सकता है। शेखर जोशी की कहानियों में जो जीवन धड़कता है, वह हमारे आस-पास का जीवन है – स्पष्ट, सहज और सुलभ। सहज और सुलभ जीवन की स्पष्ट विडंबनाओं को विषय बना कर, बिना किसी चमत्कार का सहारा लिये, कहानी को संभव बनाना कठिन साधना है। सहजता और संवेदनशीलता में जो सघन रिश्ता होता है, उसे दाज्यू और कोसी का घटवार जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये दाज्यू कहानी का यह अंश –

   

 

मनुष्य की भावनायें बड़ी विचित्र होती हैं। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है इस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है, परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूने पन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता। इस एकाकीपन की अनुभूति, इस अलगाव की जड़ें होती हैं – विछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।

 

   


  

कितना सहज, मगर संवेदना की दृष्टि से कितना मानीखेज! वर्ड्सवर्थ नें भी कहा था – आई वंडर्ड लोनली अमंग द क्राऊड। सहजता में रूमान होता है। लेकिन यह रूमान जब सामाजिक संदर्भों से जुड़ता है, तो यथार्थ का विरोध नहीं करता, बल्कि उस यथार्थ को पुष्ट करता है, जिसका वह हिस्सा है। शेखर जोशी की कहानियों मे जहाँ-जहाँ रूमान है, उसकी प्रकृति यही है। यानि वह यथार्थ से उपज कर उसी यथार्थ में घुल कर सामाजिक प्रसंगों में बसने वाला रूमान है जो तमाम हताशाओं और निराशाओं के बीच मनुष्य के सपनों को ज़िंदा रखता है। बकौल पाश- सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना। आज जिस कठिन दौर में हम जी रहे हैं, वहाँ यह रूमान सूख रहा है, सपने मर रहे हैं। शेखर जोशी की कहानियाँ इस रूमान को शिद्दत से सहेजती हैं। ऐसी ही कहानी है – कोसी का घटवारकोसी का घटवार जीवन की विसंगतियों, उसके कठिन संघर्षों के बीच पनपते, घुटते और, इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि, परिपक्वता के उदात्त शिखरों को छूते प्रेम की कहानी है। असफल प्रेमी के जीवन में स्मृतियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती हैं। इस कहानी में भी गुसाईं के विगत प्रेम की स्मृतियाँ हैं, लेकिन स्मृतियों का कुलीनतावादी बहाव या उच्छ्वास नहीं है। कहानी अपने स्वभाव से ही कुलीनता विरोधी है। कहानी पूरी शिद्दत से इस बात को दर्ज़ करती है कि प्रेम केवल विशिष्ट जनों की ही उपलब्धि नहीं है और केवल विशिष्ट जन ही प्रेम में असफल नहीं होते। प्रेम अतिविशिष्ट परिस्थितियों में ही नहीं उपजता। प्रेम साधारण स्त्री-पुरूष के बीच, साधारण परिस्थितियों में भी असाधारण आवेग में पनपता है और जीवन की साधारण विडंबनायें और विसंगतियाँ भी प्रेम को असफल बनाने के लिये पर्याप्त है। गुसाईं भूतपूर्व फौजी है, जो अब कोसी नदी के किनारे अनाज पीसने की चक्की लगा चुका है। यह प्रेम में असफल अत्यंत साधारण पुरूष है जिसके लिये विगत प्रेम की स्मृतियाँ उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी कुलीन पुरूष के लिये होती हैं। उसकी पुरानी फौजी पैंट ने स्मृतियों को सहेज कर रखा है – ... गुसाईं सोचने लगा, इसी पेंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है.... नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी, बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवलदार साहब के पेंट की बात उसे नहीं भूलती।

  

 

ऐसी ही फौजी पेंट पहन कर हवलदार धरमसिंह आया था, लॉंड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पेंट ! वैसी ही पेंट पहनने की महत्वाकाँक्षा लेकर गुसांई फौज में गया था। वहाँ से लौटा, तो पेंट के साथ-साथ ज़िंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।

  

पेंट के साथ और भी कितनी स्मृतियाँ संबद्ध हैं। 

  

लेकिन जहाँ तक इस पैंट का सवाल है, वह कतई सहेज कर नहीं रखी गयी है – छ्प्प... छप्प....छप्प... पुरानी फौजी पेंट को घुटनों तक मोड़कर गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा । कहीं कोई सुराख-निकास हो, तो बंद कर दे।  

   

 

घुटनों तक मुड़ी पैंट से जुड़ी असफल प्रेम की स्मृतियाँ किसी मेहनतकश की ही हो सकती हैं!

  


 

साधारण समाज के साधारण जीवन की विसंगतियों के चलते ही गुसांई और लछमा का विवाह नहीं हो पाता। लछमा के बाप ने कहा था – ... परदेश में बंदूक की नोंक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें? मगर विडंबना यह है कि जिस रामसिंह से लछमा का विवाह हुआ, वह भी फौजी ही है। विडंबना यह भी है कि गंगानाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी! आँखों में आँसू भरकर गुसांई से ऐसा कहने वाली लछमा अपनी कसम निभा नहीं पाती। वर्षों गुसांई यह सोचता रह जाता है कि कभी लछमा से भेंट होगी तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगानाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित ज़रूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज़ करने से क्या लाभ?

      

 

प्रेम की ऐसी आकाँक्षायें कुलीन और साधारण के फर्क को नहीं मानतीं। हाँ, दोनो के संदर्भ में उनके कलेवर ज़रूर अलग-अलग होते हैं। शेखर जोशी की इस कहानी में में प्रेम के साथ-साथ संदर्भ भी महत्वपूर्ण है।

       

 

पंद्रह वर्ष के बाद लछमा से गुसांई की दोबारा मुलाकात होती है। इन पंद्रह बर्षों में दोनो का जीवन पतझड़ बन चुका होता है। दोबारा मिलने पर कुछ समय के लिये इस पतझड़ मे हरियाली संवेदना छा जाती है – आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेजी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चाँदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन-खन का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकराने वाली काठ की चिड़ियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है यह गुसांई ने आज पहली बार अनुभव किया

       

 

हरी घास पर क्षण भर मिलने वाले उन भूतपूर्व प्रेमियों के बिल्कुल विपरीत जो स्वयं अपने चुनाव द्वारा जीवन की आपाधापी से दूर विगत प्रेम की स्मृतियाँ जगाने के लिये कुछ देर को इकट्ठा हुए हैं। कोसी का घटवार में वह जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें ही हैं जो भूतपूर्व प्रेमियों को मिलने पर विवश करती हैं। लछमा आटा पिसवाने के लिये कोसी के किनारे आती है और घटवार के रूप में उसे गुसांई मिलता है। आटे से रोटी बनती है, और रोटी से भूख शांत होती है। गरीबी का कठिन जीने वालों को यह आटा कठिन संघर्ष से प्राप्त होता है। जीवन की विडंबनाओं नें ही उन्हें अलग किया था और यह विडंबनायें ही उन्हें पंद्रह बरस बाद कुछ देर के लिये मिलाती हैं। लछमा और गुसांई अपने अलग राहों पर चल देते हैं। मगर गुसांई के प्रेम की राह नहीं बदलती –

     

 

उसने जल्दी-जल्दी अपने निजी आटे के टीन से दो ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक साँस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बाँध की ओर देखने लगा।

    

 

दो-ढाई सेर आटा भी प्रेम की सौगात बन सकता है, प्रेम को अभिव्यक्त कर सकता है – कोसी के घटवार से बेहतर इसे कौन जानेगा। 

 

 

 

प्रियम अंकित

 

 

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मोबाईल – 9359976161  

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