मनोज कुमार पांडेय का आलेख ‘शहरी जीवन के त्रास की कहानियाँ’



रवींद्र कालिया


आज रवींद्र कालिया का जन्म दिन है। कालिया जी की ख्याति साठोत्तरी कथाकार के रुप में तो है ही एक सम्पादक के रुप में कालिया जी को यह श्रेय है कि उन्होने युवा लेखको की ऐसी पीढी तैयार की जिन्होने अपने लेखन से हिंदी साहित्य को काफी हद तक प्रभावित किया है। बहरहाल कालिया जी के कहानीकार रुप की एक विशद पडताल की है चर्चित युवा कथाकार मनोज कुमार पांडेय ने। कालिया जी को नमन करते हुये आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं मनोज कुमार पांडेय का आलेख शहरी जीवन के त्रास की कहानियाँ  



शहरी जीवन के त्रास की कहानियाँ




मनोज कुमार पांडेय





‘वास्तव में, सन साठ के बाद के कहानीकारों की पीढ़ी वह युवा पीढ़ी है, जिसने बहुत कम समय के लिए परतंत्र भारत को देखा, जिसका पालन-पोषण और विकास स्वतंत्र भारत में हुआ। इससे पूर्व कि यह पीढ़ी स्वतंत्रता के सही अर्थ या मूल्य को पहचान पाती, उसने अपने चारों ओर भ्रष्टाचार, जातिवाद, भाई-भतीजावाद, प्रांतीय संकीर्णताओं, गुटबंदी, बेरोजगारी, नौकरशाही के घृणित परिणाम ही देखे और अपने को बीस तरह के निषेधों से घिरा पाया। उसे यह सुनकर हैरानी हुई कि इससे पूर्व एक ‘पुनर्जागरण’ भी हो चुका है। उसने पाया कि विवेक और व्यवहार, कार्य और कारण, अपराध और सजा, शब्द और अर्थ का पारस्परिक संबंध निरंतर टूटता जा रहा है; जीवन प्राणशक्ति से हीन हो रहा है, यथार्थ अयथार्थ का भ्रम देने लगा है, शब्द केवल ध्वनि बन  कर रह गए हैं। नास्टेल्जिया, दुख-दर्द, गरीबी, भय, आशंका, घ्रृणा, बोरडम, दहशत, बेरोजगारी और अपमान के बीच उसका जन्म और विकास हुआ है। (रवींद्र कालिया : आरा कहानी गोष्ठी (25 सितंबर 1966) में पठित और ‘स्मृतियों की जन्मपत्री’ में संकलित)





1.

साठोत्तरी कहानी का प्रारंभ परिहास, व्यंग्य और तिक्तताबोध के साथ होता है। एक स्तर पर वह कटु है तो दूसरे स्तर पर खिलंदड़ी है, एक तीसरा स्तर भी है, जहाँ वह संवेदनाशून्य व सिनिकल है। वस्तुतः नई कहानी अपनी जिस पूर्ववर्ती कहानी से पृथक होने का दावा करते हुए भी पृथक नहीं हो सकी, साठोत्तरी कहानी उसकी दावेदार बन गई। (शताब्दी का अवसान और हिंदी कहानी : विजय  मोहन सिंह - हंस, जनवरी-2002)




बीती शताब्दी का छठा दशक साहित्य और राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण जगह रखता है। इस समय तक भारतीय जन-मानस आजादी के रोमान से मुक्त होकर उसका वास्तविक स्वरूप देख पाने की स्थिति में आ चुका था। खासतौर पर वह पीढ़ी जो सपने और यथार्थ के बीच की फाँक को देखते हुए युवा हो रही थी उसने अपने को तरह तरह से छला हुआ महसूस किया। नक्सलबाड़ी आंदोलन इसी छलावे की उपज था जिसकी तीखी अनुगूँज साहित्य में रची गई। यह प्रतिक्रिया सहज ही चिन्हित गई और इसे भारतीय समाज और साहित्य में क्रांतिकारी परिवर्तन की इच्छा की रचनात्मक अभिव्यक्ति से जोड़कर देखा गया। पर जल्दी ही बहुतेरे लेखकों के साहित्य में परिवर्तन की यह बयार एक रूढ़ फैशन में बदल गई। पर किसी भी स्थिति की प्रतिक्रिया हमेशा एक ही तरह से नहीं प्रकट होती, खासतौर पर साहित्य में तो यह संभव ही नहीं। अगर ऐसा हो तब तो साहित्य की जरूरत ही समाप्त हो जाय।





हिंदी कहानी में यह प्रतिक्रिया नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू होने के पहले ही दर्ज होनी शुरू हो गई थी। जिस पीढ़ी को साठोत्तरी के नाम से जाना जाता रहा है उसने तथा उसके अनेक समकालीनों ने उस छलावे को अलग अलग तरह से महसूस किया और रचा। हालाँकि साठोत्तरी कहते ही सबसे पहले ‘काशी के चार यार – ज्ञान  रंजन, रवींद्र कालिया, दूध  नाथ सिंह, विजय मोहन सिंह और खुद काशी  नाथ सिंह’ याद आते हैं पर और भी अनेक कथाकारों श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी, महेंद्र भल्ला, विनोद कुमार शुक्ल, ममता कालिया, सुरेंद्र वर्मा, प्रयाग शुक्ल, गंगा प्रसाद विमल और गिरिराज किशोर आदि की रचनात्मक सामर्थ्य को शामिल किए बिना इस दशक की कहानियों और उसकी प्रवृत्तियों पर कोई मुकम्मल बात नहीं हो सकती। रवींद्र कालिया इसी पीढ़ी के सबसे प्रतिभाशाली कथाकारों में से एक हैं बल्कि विजय  मोहन सिंह के शब्दों में वे इस पीढ़ी के प्रस्थान बिंदु हैं। वे हंस, जनवरी-2002 में प्रकाशित अपने आलेख ‘शताब्दी का अवसान और हिंदी कहानी’ में लिखते हैं कि ‘“नौ साल छोटी पत्नी’ नई कहानी से सन साठ के बाद की कहानी का पहला प्रस्थान बिंदु है।”   





रवींद्र कालिया ने ‘सिर्फ एक दिन’ से लेकर ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ तक कुल उनचास कहानियाँ लिखीं। इस दौरान उन्होंने कई शहर बदले। एक भरा-पूरा रचनात्मक जीवन जिया। जीवन भर वे अपने साथ, अपनी रचनात्मकता के साथ नए नए प्रयोग करते रहे। शायद यहीं से उनकी कहानियों में वह दुर्लभ विविधता प्रवेश करती है जो उनकी कहानियों को साठोत्तरी की बेहद समर्थ कथा-पीढ़ी में केंद्रीय जगह देती है। वे अपने समय के यथार्थ को खुली आँखों से देखने के आग्रही रहे। इसीलिए उनकी कहानियाँ विषयवस्तु और शिल्प के स्तर पर लगातार नई होती रहीं। कहानी को लेकर उनकी समझ दूसरों से कितनी अलग थी इसका दोबारा परिचय उन्होंने संपादक के रूप में दिया। जब उन्होंने नब्बे के बाद जवान हो रही नई पीढ़ी के मनोलोक को न सिर्फ पहचाना बल्कि उसकी रचनात्मक सक्रियता का जोरदार तरीके से स्वागत भी किया।





उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए सबसे पहले इस बात पर ध्यान जाता है कि तत्कालीन कहानी के व्याकरण नियमों को ध्वस्त करने के बावजूद उनकी कहानियाँ गजब की पठनीयता से भरी हुई हैं। इसके केंद्र में उनकी कहानियों का कथ्य तो है ही, वह भाषा भी है जो किसी भी स्थिति में पाठक को एक मुस्कान देती चलती है। जिस चीज को उनकी कथाभाषा के संदर्भ में जुमलेबाजी कहा गया वह उनकी कहानियों का ऐसा रचनात्मक पहलू है जो पाठकों की समझ में तो आता रहा पर आलोचना के स्तर पर उसे समझने की रचनात्मक कोशिशें कम ही हुईं। कम से कम विजय  मोहन सिंह जैसे आलोचकों तथा अश्क जैसे अग्रजों ने इसे उनकी कहानियों की कमजोरी ही माना।





जीवन हो या साहित्य, रवींद्र कालिया के कुछ प्रतिनिधि मूल्य रहे हैं। ये मूल्य उनकी कहानियों में बार बार प्रकट होते रहे हैं। वे संवेदना के चुपचाप काम करने के हामी रहे हैं। ऐसी कोई भी स्थिति जहाँ भावुकता या अश्रु-विगलित करुणा प्रकट होगी उनके मुख्य चरित्र या तो चुप लगा जाएँगे या फिर किसी चुस्त दुरुस्त वाक्य के साथ - जिसे रवींद्र कालिया के संदर्भ में जुमला कहा गया - उससे बाहर निकल आएँगे। इन वाक्यों में एक तीखा व्यंग्य भरा उपहास तैरता रहता है। ये वाक्य कहीं से भी थोपे हुए नहीं लगते बल्कि वे इतनी अनायास स्वाभाविकता के साथ प्रकट होते हैं कि कई बार तो वहीं से कहानी के नए नए अर्थ खुलने लगते हैं। उनके समूचे साहित्य में ये चीजें बार बार देखी जा सकती हैं।




वे अपनी कहानियों में कोई झूठा आशावाद नहीं देते बल्कि जीवन को उसकी गति के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। शुरुआती कहानियों में वे बस दिनचर्या से भी काम चला लेते थे। पर उनके कहन में वह कमाल है कि नीरस सी दिखाई देने वाली एक सामान्य सी दिनचर्या अपने समय पर एक जरूरी और मानीखेज बयान में बदल जाती है। वे निरर्थक दिखाई देनेवाली चीजों में भी अर्थ भर देते हैं। यह अर्थ कहीं बाहर से नहीं आता। वह तो उन्हीं निर्रथक दिखने वाली चीजों में ही था। कथाकार बस उसे दृश्य में ले आने का काम करता है कि उसमें लोग अपने आपको भी देख सकें। अपने समय की विसंगतियों के साथ। रवींद्र कालिया की शुरुआती कहानियाँ इसी विसंगति का मानीखेज बयान हैं जिन्हें अपने समय के राजनीतिक परिदृश्य के बीच की खाली जगह में रख  कर देखा जा सकता है।





2.

‘मेरा एक दूसरा मित्र ओवरसियर है और दास्ताएव्स्की का परम भक्त। वह कहा करता है कि दास्ताएव्स्की आत्महत्या की दिशा वाला लेखक नहीं है। उसकी मेरी मित्रता का रहस्य यही है कि उसके साथ बात करते हुए मुझे हमेशा लगता है कि इसके साथ रहने वाला व्यक्ति आत्महत्या नहीं कर सकता। मुझे ऐसे लोगों की हमेशा तलाश रहती है। इसी सिलसिले में मेरी एक बार एक हलवाई से मित्रता हो गई थी और मैंने पाया था कि बिना किसी दार्शनिक आधार और बौद्धिक अनिवार्यता के भी आत्महत्या को टाला जा सकता है।’ (विकथा)

रवींद्र कालिया की शुरुआती कहानियों में ‘मैं’ और ‘वह’ बार बार आते हैं। कौन हैं ये मैं और वह? इनकी विशेषताएँ क्या हैं? इनके संघर्ष क्या हैं? सवाल यह भी है कि रवींद्र कालिया बार बार इनकी कहानियाँ क्यों कहते हैं? इन कहानियों के मैं और वह युवा हैं। इनकी स्कूली या विश्वविद्यालयी पढ़ाई हो चुकी है और अब ये काम की तलाश में हैं। उनकी पहली ही कहानी ‘सिर्फ एक दिन’ का युवा अपने बारे में बताते हुए कहता है कि उसे “‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के वे वाक्य कि ‘हमें मेहनत करनी है, जुटकर काम करना है, जिससे हम अपने सपनों को साकार कर सकें’, याद करके पैरोडी करने में आनंद आता है : ‘हमें मेहनत करनी है, सिफारिश से काम लेना है, जिससे हम अपने सपनों को साकार कर सकें।”’ यही नहीं वह यह भी कहता है कि ‘‘मैंने अनुभव किया कि वह शायद बातचीत इसलिए जारी रख रही है कि मैं बोरडम से बचा रहूँ, परंतु उसे यह नहीं मालुम कि मेरी जैसी स्थिति में रहने वाले व्यक्ति के लिए बोरडम कोई समस्या नहीं रहती और दूसरे बोरडम चुप्पी का पर्याय नहीं है।”
     




हम फिर से उसी सवाल की तरफ लौटते हैं कि नेहरू युगीन सपनों की असफलता की देश के युवाओं पर क्या प्रतिक्रिया हुई? उन्होंने अपने भीतर के खालीपन को किस तरह से और किन चीजों से भरा? जवाब में पहले तो हम नक्सलबाड़ी आंदोलन और उसके व्यापक उभार की बात कर सकते हैं जिसने युवाओं की आँखों में नए सिरे से बदलाव का सपना भरा और उस सपने के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए लगभग बाध्य कर दिया। पर उन युवाओं का क्या हुआ जिनकी आँखों में ऐसा कोई सपना नहीं पनपा? जो दिखाए गए सपनों के छल के शिकार हुए या कि जो लगातार रोजी-रोटी के मुद्दे पर ही इधर से उधर भटकते रहे। इन युवाओं में से अधिकतर एक अराजक मनःस्थिति का शिकार हुए। यह स्थिति इस कदर रही कि रोजगार मिल जाने के बाद भी इनमें से ज्यादातर की समस्या समाप्त नहीं हुई। बल्कि अनेक नई पुरानी स्थितियों का शिकार होकर ये खुद ही समस्या में बदलने लगे। 
     




रवींद्र कालिया की शुरुआती कहानियाँ ऐसे ही चरित्रों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। जालंधर, दिल्ली और मुंबई में रहते हुए लिखी गईं ये कहानियाँ ऐसे युवा चरित्रों की कहानियाँ हैं जो उस समय के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं और एक खास तरह का निरुद्देश्य जैसा दिखने वाला जीवन बिता रहे हैं। इसके बावजूद इन चरित्रों के कुछ उसूल भी हैं। जैसे इन कहानियों का मैं अमूमन नहीं चाहता कि कोई भी उनके निजी जीवन में ताँक-झाँक करे या कि बेवजह का हस्तक्षेप करे। ये चरित्र बुरी से बुरी स्थिति में भी सहानुभूति नहीं चाहते। यह स्थिति उन्हें बर्दाश्त के बाहर लगती है। इसलिए भी कि इस तथाकथित सहानुभूति के पीछे की राजनीति और लिजलिजी भावुकता उन्हें बुरी से बुरी स्थिति में भी स्वीकार नहीं है। उनकी पहली ही कहानी ‘सिर्फ एक दिन’ के मैं को यह स्वीकार नहीं है कि उसकी बेरोजगारी पर उसकी भूतपूर्व मित्र सहानुभूति बरसाए या कि उसे दिलासा दे। यह स्थिति उसे असहज करती है और तब वह बातचीत को सिर्फ काफी तक सीमित रखना चाहता है।
     



पहली नजर में यह बेरोजगारी की कहानी है जिसमें एक बेरोजगार युवक अपना आत्म-सम्मान बनाए रखने कि जिद से जूझ रहा है पर यह कहानी उससे भी आगे बढ़कर व्यवस्था से पूरी तरह से नाउम्मीद हो जाने की कहानी है। उसकी माँ जब उसे नौकरी के लिए राजस्थान अर्जी भेजने के लिए कहती है तो वह कहता है कि ‘आप कहती हैं तो भिजवा दूँगा।’ मैंने अनमने भाव से कहा, ‘वैसे उम्मीद कोई नहीं।’ यह नाउम्मीदी इस कदर है कि ये चरित्र इसी नाउम्मीदी के बीच रह रहे हैं? हाल यह है कि जब माँ को यह बयान करते हुए रुलाई आ रही होती है कि पिता कह रहे थे कि बीजी (मैं) को उससे बात किए हुए महीनों हो जाते हैं तो उसी समय ‘मैं’ इस सबसे दूर चाय के साथ सिगरेट पीने के बारे में सोच रहा होता है। अपरिचय की यह सघन स्थिति और भी अनेक कहानियों में दिखाई पड़ती है। ‘त्रास’ में भी ‘माँ’ और ‘वह’ आपस में इसी अपरिचय के शिकार है और उन्हें जोड़ने वाला तंतु बीच से गायब हो चुका है।
     



उनकी एक अन्य चर्चित कहानी ‘बड़े शहर का आदमी’ का पी.के. आत्महत्या करना चाहता है। न सिर्फ करना चाहता है बल्कि वह कोशिश भी कर चुका है - ‘मैंने कर्जन रोड पर एक बस के नीचे आने की कोशिश की थी, लोगों ने मुझे पकड़ लिया और पीटा। खून से भरा रूमाल मेरी चारपाई के नीचे पड़ा है।’ यह पुलिस स्टेशन ले जाए जाने से इसलिए बच गया क्योंकि ‘ले जा रहे थे लेकिन लोग जल्दी में थे। पी.के. ने खुश होते हुए कहा, ‘कितनी अच्छी बात है, लोग जल्दी में रहते हैं।’ सवाल पूछा जा सकता है कि वे कौन लोग हैं जो जल्दी में रहते हैं इसके बावजूद उनके पास एक आत्महत्या करने जा रहे व्यक्ति को पीटने का भरपूर समय होता है? ये स्थितियाँ क्या आज की परिस्थितियों में और ज्यादा मानीखेज नहीं हो गई हैं? कहानी में ही लौटें तो आत्महत्या की उस कोशिश से असफल पी.के. अपनी जेब में सुसाइड नोट और स्लीपिंग पिल्स लेकर घूम रहा है।
     




इसके बावजूद जब कहानी का दूसरा चरित्र ‘वह’ पी.के. से उसके सुसाइड नोट के बारे में पूछता है तो पी.के. पहले तैश में आता है और बाद में रुआँसा हो जाता है। ऐसी स्थिति में भी अपनी निजता का हनन उसे बर्दाश्त नहीं है। पर ‘वह’ की मुश्किल यह है कि - ‘घर में जहर रखा हो तो मुझे बेचैनी होती है। और फिर क्या भरोसा...’। यानी वह भी पी.के. का ही दूसरा रूप है। ऐसे में वह बस इतना कह पाता है कि ‘देखो, अगर तुम्हें आत्महत्या करनी है तो मेरे कमरे में न करना। मुझे सुविधा रहेगी अगर तुम इस शहर में न करोगे और जेब में मेरा नाम पता भी न रखोगे।’ यह कहते हुए वह नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता है। जहाँ वह काँपते हुए फुसफुसाता है कि ‘पानी बहुत ठंडा है, लेकिन मुझे नहाना है, मैं नहाने के लिए मजबूर हूँ।’ सवाल यह है कि क्या वह खुद भी उसी पानी की तरह ठंडा नहीं हो गया है? उसका यह हाल कैसे हो गया है?
     



अपनी तमाम दिक्कतों के बावजूद ये युवक बाहर की दुनिया के साथ साथ अपने आप से भी लड़ रहे हैं। जैसे ‘गर्म हाथ’ के महेंद्र के हाथ इतने ठंडे रहते हैं कि उसके मित्र उससे हाथ भी नहीं मिलाना चाहते। महेंद्र के हाथ उसके झूठ बोलकर दोस्ती करने की स्थिति से ठंडे हुए हैं। जहाँ पर वह अपनी आर्थिक स्थिति या वर्गीय पहचान छुपाकर अपेक्षाकृत संपन्न हमउम्र लड़कों से दोस्ती करना चाहता है। इससे उसे कुछ दोस्त तो मिल जाते हैं पर अपनी पहचान छुपाकर की गई दोस्ती उसे बार बार झूठ बोलने या तमाम तरह के स्वाँग रचने की तरफ ले जाती है। कभी वह ग्रेफोलॉजी के आधार पर लोगों के स्वभाव और चरित्र के बारे में बताने की बात करता है तो कभी लड़कियों के चटपटे किस्से सुनाता है पर अंततः वह इस सब से मुक्ति पा लेता है और इसी के साथ उसके हाथ फिर से वह गर्मी पा लेते हैं जिनके लिए हाथों को जाना जाता है।
     




अपनी तमाम कमियों और दिक्कतों के बावजूद इन चरित्रों में सकारात्मकता बनी हुई है पर जल्दी ही समय इनके भीतर का रहा सहा सत्व भी सोख लेता है। ऐसी स्थिति में ये चरित्र एक अलग ही कोटि में पहुँच जाते हैं जहाँ उनके और समय के बीच की विसंगति का बोध और और तीखा होता जाता है। ये अनायास नहीं है कि ये चरित्र बार बार आत्महत्या की बात करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया को देखने के उनके तर्क बदल गए हैं। उनके समय ने उन्हें कफन के घीसू-माधव की अवस्था में पहुँचा दिया है। ‘मैं’ कहानी के मैं की यह आत्मस्वीकृति पढ़ें - ‘मेरे मित्र ने मुझे शांत बैठा देखकर कहा, वह बहुत खुश है कि मैं इस नगर में आ गया हूँ। मैं उसकी बात काटा नहीं करता, नहीं तो मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसे सच्ची बात बता दूँ कि मैं इस शहर में इसलिए आया था कि यहाँ कोकाकोला और बियर बहुत सस्ती है। यहाँ लोग गलियों में सोते हैं और गलियों में जगह जगह लैंपपोस्ट लगे हैं। यहाँ की बसों में बहुत भीड़ होती है।’
     



मतलब यह कि उसकी सोच से दुनिया को देखने का सही तर्क कब का गायब हो चुका है। इसलिए वह कभी किसी एक बात पर देर तक नहीं टिक पाता। और यह देख पाना तो उसके लिए संभव ही नहीं बचा है कि वह खुद भी वैसा ही बनता जा रहा है जैसे लोगों से कभी वह नफरत करता रहा है। ‘मैं’ का यह बयान देखें - ‘आपने मेरा चायवाला नहीं देखा। आप उसे देखेंगे तो तुरंत मुझसे प्रार्थना करेंगे कि मैं उस निहायत सीधे चायवाले का बिल तुरंत चुका दूँ, जो पिछले तीन बरसों से बकाया है। मैं उसका पैसा लौटा देता परंतु विश्वास कीजिए मेरी इच्छा नहीं होती। एक बार मैं तय करके निकला था कि आज उसे हर हालत में मनी ऑर्डर करवा दूँगा परंतु मैं पटरियों पर बिकने वाला विदेशी माल देखने लगा और मैंने प्रेमिका के लिए लिपिस्टिक खरीद ली।’
     



अब यह ‘मैं’ एक साथ घाघ और डरपोक हो रहा है। यानी यह उस पतित प्रक्रिया का हिस्सा बन रहा है जिसे एडजस्ट करना कहते हैं। ‘बड़े शहर का आदमी’ का पी.के. जिस भीड़ से पिटकर आया था अब वह उसी भीड़ का हिस्सा बन रहा है। आत्महत्या का ख्याल अब उसने छोड़ दिया है। पहले यह बुरी से बुरी स्थिति में भी अपनी निजता भंग होने पर परेशान हो उठता था पर अब इसकी परेशानी की वजहें बदल गई हैं। ‘परेशान यह छोटी छोटी बातों से भी हो जाता है। कई महीनों तक इसे ‘क्यू’ ने परेशान रखा, क्योंकि ‘क्यू’ भंग करना इसके स्वभाव में नहीं है।’ (सत्ताईस साल की उमर तक)। यह नागरिक बोध नहीं है जो उसे ऐसा करने से रोकता है बल्कि यह उसका कायर है, डर है जो उसे रोकता है।
     



कहानी ‘सड़क पर अँधेरा था’ की प्रेमिका को आज तक ‘विश्वास नहीं हुआ कि लड़का इतना कायर हो सकता है। और उसे कभी सूजाक हुआ था। ऐसा होता तो वह अब तक कैसे स्वस्थ रहती, उसका पति कैसे स्वस्थ रहता? यह राय तो उसके डाक्टर रिश्तेदार की भी थी। उसने इससे कई बार कहा था कि इसे सूजाक नहीं है और यह दिमागी तौर पर सूजाक का रोगी है।’ ये चरित्र प्रेम करते हैं। जिस्मानी रिश्तों में भी जाते हैं पर विवाह के नाम से ही इन्हें कँपकँपी होती है। सहज ही लगता है कि ये कोई जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। पर ये स्थिति का एक पहलू भर है। दूसरा पहलू यह है कि इन्हें समय ने किसी जिम्मेदारी के लायक छोड़ा ही नहीं है। इनके कोई सपने नहीं हैं इसलिए ये ज्यादा से ज्यादा सपनों की पैरोडी रच सकते हैं। सतही तौर पर इनकी समस्या बेरोजगारी लगती है पर बेरोजगारी इनकी समस्या नहीं है। इसका प्रमाण हमें तब मिलता है जब हम उन कहानियों की तरफ बढ़ते हैं जिनके चरित्रों के पास रोजगार की समस्या नहीं है। वे नौकरी में हैं। दफ्तर को केंद्र में रख कर इतनी बड़ी संख्या में कहानियाँ कम ही कथाकारों ने लिखी होंगी।






3.

‘अगर सस्पेंशन की कोई बात नहीं थी तो प्रिंसिपल ने मेरी तरफ घूर  कर क्यों देखा था? इसने कहा। दरअसल प्रिंसिपल इसकी तरफ देखकर जिस दिन मुस्कुराता नहीं, इसके लिए परेशानी खड़ी हो जाती है।’ (सड़क पर अँधेरा था)




नौकरी के बाद इनमें से ज्यादातर ‘मैं’ मध्यवर्गीय गति को प्राप्त हुए। इस मसले पर इनकी पढ़ाई-लिखाई या पुरानी अराजकता ने इनका जरा भी साथ नहीं दिया। यह अपने ही भीतर डूबता चला गया। अब यह किसी समस्या की बात सिर्फ तब कर सकता था जब वह उसे एकदम निजी स्तर पर परेशान कर रही हो। अब इसकी परेशानियाँ इसे अराजकता की तरफ नहीं ले जातीं। न ही अब ये अपनी भीतरी बेचैनी या खालीपन की वजह से आत्महत्या करने के बारे में ही सोचता है। जबकि पहले यह बार बार आत्महत्या की बात करता था या कि किसी तरह से आत्महत्या से बचे रहना चाहता था। आत्महत्या की बात कम से कम इतना तो बताती ही थी कि यह लड़ भले न पा रहा हो पर स्थितियाँ इसकी बर्दाश्त से बाहर होती जा रही हैं।
     



दफ्तर वाली इन कहानियों के ज्यादातर मैं स्थितियों को बर्दाश्त करना सीख रहे हैं बल्कि यह अपनी बनावट में इस कदर बदले जा रहे हैं कि उनके भीतर से स्थितियों की विसंगति का बोध ही समाप्त होता जा रहा है। इसकी शुरुआत ठीक उसी विसंगति बोध या अर्थहीनता की अनुभूति से होती है जिसका शिकार वह नौकरी से पहले की स्थिति में था। इससे लड़ने की कोशिश में कहीं वह झूठे किस्से गढ़ता है (एक प्रामाणिक झूठ) तो कहीं उसे ‘दफ्तर से स्टेशनरी चुराने की आदत’ पड़ जाती है (दफ्तर) जबकि उसके जीवन में उन चुराई गई चीजों की कोई उपयोगिता भी नहीं होती। इसी के अगले चरण में वह बिना जरूरत के भी चापलूसी करना सीखता है और इस तरह उसका व्यक्तित्वांतरण होता जाता है। और फिर स्थिति यह है कि ‘अपनी सीट पर उसने फाइलें-वाइलें फैला लीं। फाइलें पलटकर उसने अनुमान लगाया कि उसके पास लगभग बीस मिनट का काम है। पिछले तीन दिनों से यह काम उसके पास है।’ (दफ्तर)
     



ऐसी स्थिति में यह क्या करेगा? अब यह काम करने की बजाय काम करने का अभिनय शुरू करता है। झूठ बोलता है। निजी जीवन की चीजों से परेशान होता है और स्त्रियों को केंद्र में रखकर गॉसिप करता है (थके हुए) या कि उनका हिस्सा बनता है।  यह अनायास नहीं है कि इन कहानियों में परिवार नियोजन के संदर्भ बार बार प्रकट होते हैं और कहानियों का मैं छोटे बच्चों के प्रति वितृष्णा से भरा नजर आता है। सवाल यह है कि रवींद्र कालिया की इन कहानियों का ‘मैं’ बार बार परिवार नियोजन की बात क्यों करता है। ये कहानियाँ आपातकाल के उस दौर से पहले लिखी गई थीं जो जनमानस में सबसे ज्यादा नसबंदी की वजह से जाना गया। तो परिवार नियोजन की बात करना क्या उस ‘मैं’ के निजी व्यक्तित्व की बात है जो पारिवारिक जिम्मेवारियों से भागता रहता है या कि इसके कुछ दूसरे राजनीतिक निहितार्थ भी हैं? क्योंकि यह ‘मैं’ कई बार अपने समय की राजनीतिक पैरोडी करता दिखाई देता है। यह राजनीति में सक्रिय नहीं है पर राजनीति पर कमेंट करना उसे बहुत भला लगता है। कई बार तो ऐसा भी लगता है मानों यह करते हुए वह अपने भीतर का तनाव रिलीज कर रहा हो।
     


लेकिन रुकिए। उनकी कहानियाँ इससे अलग यथार्थ को भी खूबसूरती से बयान करती हैं। जैसे उनकी एक सुंदर कहानी ‘इतवार नहीं’ का रवि भी बदल रहा है पर इसका बदलाव एक बेहतर दिशा में है। दफ्तर का व्यस्त जीवन इसकी फिजू्ल की भावुकता से इसे दूर करते हुए ज्यादा समझदार बना रहा है। इस हद तक कि वह अपनी पुरानी बेवकूफियों पर भी किसी मित्र की उपस्थिति में ठहाके लगा सके। यही नहीं, जब रवि का बॉस कहता है कि ‘अच्छा भोजन आपको घर में ही मिल सकता है। उसने अपनी बात का निष्कर्ष निकालते हुए कहा, ‘अकेले आदमी के लिए तो एक ही हल है - शादी।’ तब रवि जवाब देता है, ‘मुझे खाने की विशेष दिक्कत नहीं है... और दूसरे मैं शादी भी अच्छे भोजन की वजह से नहीं करूँगा।’ ये जवाब इसलिए सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वह अपने बॉस से असहमति रख रहा है बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है वह स्त्रियों के बारे में बने हुए स्टीरियोटाइप को भी तोड़ रहा है।
           



इसी तरह उनकी एक और कहानी ‘हथकड़ी’ की बात करें तो इस ‘मैं’ के मध्यवर्गीय रूपांतरण को ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। हालाँकि यह दफ्तरी जीवन की कहानी नहीं है पर उसकी छाया कहानी में सब तरफ पसरी हुई दिखती है। कहानी का नैरेटर लखनऊ से इलाहाबाद के दौरे पर निकला हुआ है। उसके साथ में उसकी पत्नी की सहेली है जिसके साथ मैं एक तात्कालिक ऐंद्रिक संबध को भोग रहा है। वस्तुतः दोनों ही एक दूसरे को भोग रहे हैं। इस कहानी का मैं एक जमाने साहित्य और दर्शन में डूबा रहता था। यह अपने बारे में कोई सीधा संकेत नहीं देता पर इसके कई मित्र विसंगति-बोध के शिकार हो चुके थे। कोई आत्महत्या कर चुका था, कोई पागलखाने में था तो ‘नरेंद्र आज भी दस बारह गोलियाँ रोज निगलता था और जिंदा था। वह अपनी थरथराती जुबान में कभी कभी कुँवर नारायण की पंक्तियाँ दोहराया करता था। - क्या यही हूँ मैं ? / अँधेरे में किसी संकेत को पहचानता सा।’
     




कहानी का नैरेटर अपने वास्तविक स्वरूप का पहचान  कर आइ.ए.एस. हो जाता है और इसके बाद यह कि ‘इस बीच और भी कई परिवर्तन हुए। अब मैं तीन बरस के एक बच्चे का बाप था। रहने के लिए बड़ा बंगला था, नौकर चाकर थे। मैं एक संतुष्ट सूकर का जीवन व्यतीत कर रहा था।’ इसके बाद यही हो सकता है कि ‘राधा को अपने इतना निकट पाकर मैंने महसूस किया कि जीवन में इतनी महीन और मादक फुहार से, मौसम से, सुधा से, दोस्तों से मेरा केवल औपचारिक रिश्ता रह गया था। मुख्य सचिव की आवाज मुझे बेगम अख्तर की आवाज से अधिक प्रभावित करती थी, अधिक सुरीली लगती थी। सुधा के लिए मेरा पद और मेरे लिए सुधा का सौंदर्य ‘स्टेटस सिंबल’ बनकर रह गया था।’ ‘मैं’ का यह बयान यथार्थ है पर सवाल यह है कि एक ‘संतुष्ट सूकर’ अपनी पत्नी सुधा के लिए पूरे भरोसे से यह कैसे कह सकता है कि उसके लिए पति स्टेटस सिंबल भर रह गया है? जवाब यही हो सकता है कि एक संतुष्ट सूकर ही ऐसा कह सकता है।
     




फिर अगला सवाल यह है कि अगर वह पूरी तरह से संतुष्ट सूकर में बदल ही चुका है तो फिर ऐसे में वह घड़ी उसे हथकड़ी क्यों लग रही है जो पिछले आगमन पर ‘मैं’ की पत्नी सुधा ने ‘मैं’ के पुराने जमाने के दोस्त और शायर अदीब को दी थी और इस बार जब वह राधा के साथ आया है तो अदीब ने चुपके से उसकी जेब में डाल कर वापस कर दी है। इसका जवाब इसी में है कि थोड़ी देर के लिए पुरानी स्मृतियों ने उसे कमजोर कर दिया है। ‘मैं’ का यह द्वंद्व बताता है कि अभी उसके व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है पर वह बहुत तेजी से उसी तरफ बढ़ रहा है। इसीलिए अदीब के घड़ी वापस करने पर उसे अपने पतन पर पीड़ा नहीं हो रही है। देखें - ‘मन में आया कि घड़ी को खिड़की से बाहर फेंक दूँ, या गाड़ी के नीचे दाबकर चकनाचूर कर दूँ। मगर मैं घड़ी को बेबस-सा थामे रहा। गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार से मंजिलें तय करती रही। घड़ी हाथ में थामे मुझे लग रहा था कि यह घड़ी नहीं, हथकड़ी है।’ जाहिर है कि घटना की आकस्मिकता ने उसे पल भर के लिए भावुक और संशयग्रस्त जरूर बनाया है पर इस घड़ी को दिया गया उसका संबोधन ‘हथकड़ी’ ही बताता है कि वह इससे मुक्ति पा लेगा। और इसी के साथ उसके वर्गांतरण की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी।
     




उनकी कहानी ‘काला रजिस्टर’ एक पत्रिका के कार्यालय में किस तरह की स्थितियाँ हैं उनको लेकर लिखी गई है पर यह अनेक स्तरों पर अर्थ देने वाली कहानी है। यह दफ्तरों के दमघोंटू माहौल की कहानी तो है पर इससे ज्यादा इसे आपातकाल की आहट के बतौर भी पढ़ा जा सकता है। इस कहानी के सभी चरित्र अपना निजी व्यक्तित्व खोकर कुछ विशेषणों में बदल गए हैं। कहानी के शीर्ष पर एक केबिन है जिसका आतंक उसके हथियार काले रजिस्टर के माध्यम से प्रकट होता है। बात सीधी सी है कि अब तक यह स्थिति बन गई है है कि बॉस के केबिन में कोई भी बैठे इससे फर्क नहीं पड़ता। असली सत्ता केबिन की है। यही बात इस दफ्तर के सभी कर्मचारियों पर लागू होती है। पर इस ठहरे और सड़ते हुए पानी में हलचल तब मचती है जब ‘भैंगा’ नामक पात्र इस स्थिति से विद्रोह कर देता है। क्योंकि इसे लगता है कि ‘जो तुम्हारे साथ रोज होता है, वह मेरे साथ नहीं होगा।’ क्यों नहीं होगा आखिर? जबकि ‘इस इमारत में घुसते ही आत्मा मर जाती है और दफना दी जाती है।’
     



इस पूरी कहानी में एक ठंडा आतंक पसरा हुआ है और किसी न किए गए गुनाह के लिए भी तुरंत ही माफी माँगने का चलन है। आतंक के मारे लोग बीमार हो रहे हैं, उनका पारिवारिक जीवन प्रभावित हो रहा है। फिर भी भैंगे को लगता है कि वह दूसरों से अलग है और जो सबके साथ होता है वह इसके साथ नहीं होगा। जबकि कहानी दूसरे कई कर्मचारियों के कायांतरण (या कि वर्गांतरण) के बारे में भी बताती है जो पहले भैंगे की तरह ही बहादुरी वाली बातें किया करते थे। जाहिर है भैंगे को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि उसका वर्गांतरण अभी तक नहीं हुआ है। उसका लड़ाकूपन अभी तक बचा हुआ है। यह अलग बात है उसका विद्रोह बेहद निजी स्तर पर है इसके बावजूद इसकी गूँज आने वाले समयों में सुनी जाने वाली है।
     



लेकिन इस विद्रोह की एक मुश्किल भी है। यह विद्रोह अपने भीतर एक लंपट पितृसत्तात्मक चेहरा भी छुपाए हुए है। तभी वह काले रजिस्टर के लिए कहता है कि ‘इसे ड्राअर में बंद कर दो, इसे खिड़की से नीचे फेंक दो, इससे बलात्कार कर लो।’ यही नहीं जब ‘छाया जी’ उसे दिए गए महिला पृष्ठों का काम समझा रही होती है तब उसे काम की बजाय छाया जी के ‘ब्लाउज में से गोलाइयों के बीच की धुँधली खाइयाँ दूर तक नजर आ रही’ होती हैं। और ‘भैंगे को यह सोचकर खुशी हो रही थी कि वह भैंगा है और यह कभी न जान पाएगी कि वह किधर देख रहा है और कितनी अश्लील आँखों से देख रहा है।’ कहानी में थोड़ी देर पहले जिस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की बात पर वह केबिन का उपहास कर रहा होता है उसकी खुद उसमें कितनी कमी है यहाँ पर देखा जा सकता है। संभवतः कहानीकार उसे महिला पृष्ठ दिलवा ही इसलिए रहा है कि संभव हो तो वह अपना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य स्त्रियों के संदर्भ में भी दुरुस्त कर सके जिसके बिना कोई भी बड़ी लड़ाई मुमकिन नहीं।  






4.

तुम भी दूसरे गुणवंतराय हो। तुममें और पाल में कोई विशेष अंतर नहीं है। हमेशा स्त्री पर हावी रहना चाहते हो। तुम चाहते हो वह तुम्हारे सामने रोती रहे और तुम आँसू पोंछकर बड़प्पन दिखाते रहो। तुम अपने को मन में कितना भी उदार समझो, स्त्री के बारे में तुम्हारे विचार सदियों पुराने हैं। तुम चाहते हो, वह बिना किसी प्रतिरोध के तुम्हारे इस्तेमाल में आती रहे। यही समझते हो न? (चाल)




अपनी कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों को रवींद्र कालिया कई-कई कोणों से देखते और रचते हैं। एक तरफ जहाँ ‘नौ साल छोटी पत्नी’ और ‘डरी हुई औरत’ जैसी कहानियाँ हैं जहाँ वह नई कहानी के एक भावुक और पिछड़े भावबोध से टकराते हैं और स्त्री-पुरुष संबंधों को एक सहजता और बराबरी की जमीन पर देखना चाहते हैं। ये अलग बात है कि स्त्री और पुरुष के लिए ये सहजता की जमीन समान रूप से समतल नहीं है। दोनों के ऊपर एकदम अलग तरह के दबाव काम कर रहे हैं इसलिए ‘नौ साल छोटी पत्नी’ आखिर में रोती रह जाती है तो ‘डरी हुई औरत’ भी और ज्यादा डरते हुए उसी गति को प्राप्त होती है। इसी तरह ‘कोजी कॉर्नर’ एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो पीछे के ही वक्त में कहीं छूट गई है। ये कहानियाँ उनके लेखकीय जीवन की शुरुआती कहानियाँ हैं। बाद में वे भूमिकाओं की अदला-बदली करते हुए इस स्थिति को बार बार अपनी कहानियों में रचते हैं। इन दोनों ही कहानियों में स्त्रियाँ पुरुष चरित्रों की निगाह से संचालित हो रही हैं पर बाद की कई कहानियों में स्त्रियों ने यह बोझ उतार फेंका है। वे जैसी भी हैं पर वे ज्यादा वास्तविक हैं क्योंकि वह बाहर निकल चुकी हैं और घर और बाहर के दोहरे दबाव के बीच लगातार पक रही हैं।
     




रवींद्र कालिया की अनेक कहानियों में प्रेम करते हुए जोड़े हैं। वे प्रेम कर रहे हैं पर प्रेम करते हुए प्रेम को लेकर तमाम थोपे हुए मूल्यों से लड़ भी रहे हैं। क्योंकि ये मूल्य इतने हावी के उनके नीचे दबकर और कुछ भी बचे पर प्रेम नहीं बचता। प्रेम के बीच थोपी गई तमाम स्थितियाँ प्रेम को प्रेम नहीं रहने देती। ऐसे में कई बार युवा जोड़े अपनी स्वाभाविकता खोते हुए कुछ और होने का अभिनय करने लगते हैं। इस संदर्भ में रवींद्र कालिया की अनेक शुरुआती कहानियों को पढ़ा जा सकता है। उनकी कहानी ‘प्रेम’ - जो एक युवा प्रेमी जोड़े की संक्षिप्त मुलाकात और बातचीत की कहानी है, ‘सबसे छोटी तसवीर’ - जिसमें लड़के को लड़की की उँगलियाँ भिंडी तोरी की तरह लगती हैं और लड़की को लड़के का चेहरा आलू की तरह लगता है जिसे चश्मा पहना दिया गया हो - सहित और भी कई कहानियाँ पढ़ी जा सकती हैं। मुश्किल यह है कि बाहरी दबावों ने प्रेम को इस कदर बदल दिया कि वह एब्सर्ड जैसा कुछ हो गया है।





उनकी कहानियों में ‘नौ साल छोटी पत्नी’ और ‘डरी हुई औरत’ की खूब चर्चा होती है जो कि वाजिब ही है। इन कहानियों ने नई कहानी के स्त्री विमर्श को सिर के बल खड़ा कर दिया था। पहली कहानी में तृप्ता का शादी के पहले का एक प्रेम प्रसंग रहा होता है। यह बात उसके पति कुशल को भी पता चल जाती है कि वह अपने प्रेमी की चिट्ठियाँ छुपाए हुए है पर वह इस बात पर सहज बना रहता है। उसे पता है कि प्रेम करना एकदम सहज संभव बात है इसलिए वह किसी तरह के डाह में रहने की बजाय या पत्नी के चरित्र पर सवाल उठाने की बजाय बस कई बार चुहल करता है। यह अलग बात है कि उसकी चुहल पत्नी को डरा देती है। नोक-झोंक या चुहल वहाँ संभव हो सकती है जहाँ दोनों वयस्क हों और उनकी चेतना समान धरातल पर हो। तृप्ता नौ साल छोटी पत्नी है इसलिए यह संभव नहीं हो पाता। जाहिर है कि यहाँ नौ साल छोटी होना सिर्फ अभिधा में ही सत्य नहीं है बल्कि इसके और भी अर्थ हैं।
     




ये अर्थ ‘डरी हुई औरत’ में नए सिरे से खुलते हैं। जहाँ पति-पत्नी लगभग सम-वयस्क हैं और दोनों के बीच ज्यादा सहज संबंध दिखाई पड़ता है। पति-पत्नी दोनों को दोनों के एक साझा दोस्त के साथ बाहर जाना है। पति अकेले ही घर में रहते हुए अपनी छुट्टी का सुख उठाना चाहता है इसलिए वह अपनी पत्नी को अकेले ही भेज देता है। पत्नी एक तरफ इस स्थिति पर जहाँ खुश है और रोमांच का अनुभव कर रही है वहीं वह दूसरी तरफ पति के न चलने की शिकायत भी कर रही है। यह शिकायत जैसे एक नैतिक दायित्व है जिससे वह घिरी हुई है। जबरदस्ती ओढ़ी गई या कि उढ़ाई गई यह बात पत्नी तुलना के घर वापस लौटने तक एक अपराध-बोध में बदल जाती है पढ़ी-लिखी और वयस्क तुलना भी उसी गति को प्राप्त होती है जिस गति को पहली कहानी की नौ साल छोटी पत्नी तृप्ता प्राप्त हुई थी। अर्थात यह सिर्फ नौ साल छोटे होने का मामला नहीं है बल्कि स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच में दूसरे अनेक पेंच फँसे हुए हैं।         
     




अपनी कई कहानियों में वह इस पेंच को अलग अलग सिरे से सुलझाने या कि उसकी गिरहें खोलने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। ‘चाल’ से बात शुरू करें तो शायद अपनी बात कहने में आसानी हो। इसकी वजह यह भी है कि चाल में कई मजबूत स्त्री चरित्र हैं। ये नौ साल छोटी पत्नी या डरी हुई औरत की तृप्ता या तुलना से अलग हैं क्योंकि वे दोनों घरेलू स्त्रियाँ हैं जबकि चाल की स्त्रियाँ घर-बाहर हर मोर्चे पर संघर्ष कर रही हैं। इसीलिए वे अपनी बुनावट में ज्यादा बेबाक हैं। जैसे किरण एक कॉलेज में पढ़ाती है। किरण के साथ उसके कॉलेज का एक वरिष्ठ सहकर्मी गुणवंत राय अभ्रद हरकत करता है। यह बात जब वह अपने पति प्रकाश को बताती है तो उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह होती है कि ‘ऐसी नौकरी करने से कहीं अच्छा है, मेरी तरह घर पर ही सड़ती रहो।’ यह प्रतिक्रिया इसलिए भी आई है क्योंकि ‘प्रकाश को कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा था। वह भीतर ही भीतर इस परिणति की प्रतीक्षा ही कर रहा था। कोई भी पुरुष इतना मूर्ख नहीं होगा कि किसी युवती को अकारण ही इतनी सुविधाएँ देता रहे।’ कोई भी पुरुष यानी कि खुद प्रकाश भी उसी कोटि में आता है। उसे इस बात का क्रोध नहीं है कि उसकी पत्नी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई गई है बल्कि वह इसलिए क्रोधित है क्योंकि उसे शक है कि ‘उस हरामखोर ने जरूर चुंबन वगैरह ले लिया होगा, जो अब यह इतना परेशान हो रही है और बार-बार मुँह पर साबुन पोत रही है।’
     



वह सोचे बैठा था कि अब किरन कालेज नहीं जाएगी पर जब किरन कालेज जाने के लिए अगली सुबह तैयार होने लगती है तब वह सोचता है कि ‘अगर उसके लिए यह इतनी ही साधारण घटना थी, तो कल उसे इतने रोने धोने की क्या जरूरत थी? प्रकाश को देखते ही क्यों फूट पड़ी थी क्या वह उसके पुरुषत्व को चुनौती दे रही थी?’ प्रकाश की मुश्किल ही यह है कि किरन का अपमान उसे अपने पुरुषत्व पर चुनौती लगता है। इसीलिए उसकी प्रतिक्रिया भी इसी अंदाज में उसके भीतर प्रकट होती है। अगले पूरे दिन वह दिन भर घर में पड़ा रहता है और गुणवंत राय को अपमानित करने या उससे बदला लेने की मन ही मन योजनाएँ बनाता रहता है यहाँ तक कि वह उसकी बिटिया तक के अपहरण के बारे में सोच डालता है। उसे न्याय नहीं चाहिए, उसे बदला चाहिए वह भी किरन के अपमान का नहीं बल्कि अपने पुरुषत्व के अपमान का बदला। क्योंकि ‘कल शाम उसकी मौत हो गई थी और अब किरण के जाने के बाद ही उसका पुनर्जन्म होगा। रात भर उसका ठंडा खून खौलता रहा, जैसे खटिया के नीचे धूधू आग जल रही हो। पड़े पड़े ही वह कई बार गुणवंतराय की हत्या कर चुका था, मगर दूसरे ही क्षण वह गुणवंतराय को ठहाके लगाते हुए और स्वयं को अशक्त और असमर्थ पाता।’




      जबकि ‘किरन ने यह सब नहीं सोचा था। वह रोज की तरह उठी और सुबह का काम निपटाकर एक सौ तेरह नंबर बस की कतार में जुड़ गई।’ जाहिर है किरण खुद को और प्रकाश को बेहतर जानती है। कल वह उस घटना की अचानकता से भले कमजोर पड़ गई हो पर अगली बार वह बेहतर तैयारी के साथ होगी। जबकि प्रकाश इस बात की चिंता करता हुआ बिस्तर पर ही पड़ा रहेगा कि ‘इस देश का लगातार पतन हो रहा है। जिस देश में एक इंजीनियर इस तरह खटिया पर पड़ा पड़ा ही दिन बिता दे और नौकरी को तरसता रहे उस देश का क्या होगा?’ प्रकाश की व्यक्तित्वहीनता के संदर्भ में यह सही सवाल है पर एक दूसरा सवाल भी है कि क्या यह इंजीनियर नौकरी लग जाने के बाद एक बेहतर पुरुष या बेहतर साथी बन पाएगा? यहीं पर कहानी यह भी संकेत करती है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था कामकाजी जानकारी भले ही दे दे पर वह बेहतर मनुष्य भी बनाए यह जरूरी नहीं है।




      इस कहानी में और भी कई स्त्री चरित्र है जो घर और बाहर दोनों ही जगह जूझ रहे हैं पर उन पर बात करने के पहले इस कहानी के पुरुष चरित्रों की कुछ दूसरी कहानियों के पुरुष चरित्रों से तुलना रोचक होगी। ‘चाल’ के चरित्र पढ़े लिखे है जबकि दूसरी कहानियों ‘चकैया नीम’ या ‘टाट के किंवाड़ों वाले घर’ के चरित्र बहुत ही कम पढ़े लिखे हैं। इसके बावजूद इनके केंद्रीय पुरुष चरित्र लगभग एक ही तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। चकैया नीम की गुलाब देई जो गर्मी की वजह से अपनी कोठरी के बाहर सो रही है और बगल में उसका पति शिवलाल भी सो रहा है। रात में बगल से गुजर रहे कुछ लड़के सोती हुई गुलाबदेई से छेड़खानी करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। जवाब में उसका पति शिवलाल उन लड़कों का तो कुछ नहीं कर पाता पर ‘वही शिवलाल जो कुछ क्षण पूर्व अपने को ठगा, पिटा और लुटा महसूस कर रहा था, पत्नी को देखते ही शेर हो गया। उसने आव देखा न ताव पीछे मुड़कर बीवी के मुँह पर उल्टे हाथ से ही ऐसा जोरदार झापड़ रसीद किया कि वह गिरते गिरते बची।’ इसके बाद वह मारते हुए ही पूछता है कि ‘बोल! बोल हरामजादी! कौन था वह तेरा आशिक, जिससे मुँह काला करवा रही थी। बोल।’ इसके बाद वह पत्नी को घसीटकर कोठरी में कैद कर देता है और कहता है कि ‘अब तुम इसी कोठरी में कैद रहोगी। ज्यादा फूँ-फाँ की तो यहीं दफना दूँगा।’



      सवाल यह है कि क्या चाल के प्रकाश और चकैया नीम के शिवलाल में उनके पढ़े-लिखे या अनपढ़ होने की वजह से कोई अंतर आ गया है? क्या वे दोनों एक ही तरह से रिएक्ट नहीं कर रहे हैं? इसी क्रम में ‘टाट के किंवाड़ों वाले घर’ के शिवनारायण दुबे में यह पुरुष कुंठा और भी ज्यादा संश्लिष्ट तरीके से बयान हुई है। शिवनारायन चाहता है कि उसकी पत्नी लाला भेरूलाल के यहाँ बर्तन धोने और झाड़ू-पोंछे का काम कर ले तो कुछ अतिरिक्त कमाई हो जाय पर जब पत्नी तैयार हो जाती है तब उसका तेवर ही बदल जाता है। ‘पंडित ने भाँप लिया कि पंडिताइन को सुझाव पसंद आया है। पंडित को बहुत सदमा लगा। साली जेल से निकलना चाहती है। यकायक उसके बिचारों में क्रांति आ गई। सोचने लगा, औरत से काम करवाना मर्द के लिए डूब मरने की बात है।’ यही नहीं इसके बात उसे अपना ब्राह्मण होना भी फिर से याद आ जाता है। पर जब सेठ भेरूलाल को दूसरी कामवाली मिल जाती है तब भी ‘पंडित को लगा जैसे यकायक किसी ने उसके दिमाग का फव्वारा बंद कर दिया हो। उसे पंडिताइन पर क्रोध आने लगा, ‘सारी दुनिया में वही एक परी है! साली! हरामजादी! बना-बनाया काम बिगाड़ दिया।’




      जब वह घर लौट कर आता है तो उसे पंडिताइन कोठरी में नहाती हुई मिलती है। वह नहाते हुई पंडिताइन का शरीर देखता है और फिर से अगिया बैताल बन जाता है। क्यों? इसी तरह चकैया नीम में ‘प्रसव के बाद गुलाबदेई और निखर गई। ताजा नारियल की तरह। चेहरा आग की तरह दमकने लगा, गाल सुर्ख हो गए, सारा बदन गदरा गया। मगर शिवलाल को इस बीच जाने क्या हुआ कि वह गुलाबदेई के ठीक विपरीत मुर्झाता चला गया।’ क्यों? पत्नी के सुंदर शरीर को देखकर प्रकाश में कोई उत्तेजना नहीं होती और वह मुर्दों की तरह पड़ा रहता है, पंडित अगियाबैताल बन जाता है तो शिवलाल बूढ़ा होता चला जाता है? क्यों? तीनों के पीछे उनका आहत, अपमानित और दमित पुरुषत्व है। और यह भी याद रखने की बात है कि उनके पुरुषत्व को उनकी पत्नियों ने नहीं अपमानित किया है। उनके कुंठित पुरुषत्व ने ही उनके पुरुषत्व को अपमानित किया है। पत्नियाँ तो घर और बाहर की दुनिया में अपने अस्तित्व और आजादी के लिए जूझ रही हैं और मान सम्मान के लिए भी। यह अलग बात है कि उनका यह जूझना उनके पति-पुरुषों को रास नहीं आ रहा है।





5.

‘इस बीच देश ने तरक्की की। मगर इसे इस गली का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश में हो रहे परिवर्तनों का बहुत हल्का प्रभाव इस गली के वासियों पर पड़ रहा था। गली के औसत आदमी के घर में आज भी न पानी का नल था न बिजली का कनेक्शन। शाम होते ही घरों में जगह जगह जुगनुओं की तरह ढिबरियाँ टिमटिमाने लगतीं। अगर भूले-भटके गली में दो एक जगह सड़क के किनारे बल्ब लगा भी दिया जाता तो बच्चे लोग तब तक अपनी निशानेबाजी की आजमाईश किया करते, जब तक बल्ब फूट न जाता। दरअसल गली के लोग सदियों से अँधेरे में रह रहे थे और अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था। यही वजह थी कि अगर बच्चों से बल्ब फोड़ने में कोताही हो जाती तो वही आदमी चुपके से बल्ब फो़ड़ देता जिसके घर में रोशनी अनधिकार रूप से प्रवेश करती थी। वास्तव में, अँधेरे के पर्दे में रहना उन्हें अधिक सुविधाजनक लगता।’ - ‘चकैया नीम’





हालाँकि रवींद्र कालिया की इन कहानियों पर कम ध्यान गया है पर उनके पास शहरी गरीबी को केंद्र में रखकर लिखी गई कई बेहतरीन कहानियाँ हैं। उन्होंने स्लम जैसी स्थितियों में रह रहे लोगों के जीवन पर गरीबी हटाओ, सुंदरी, टाट के किवाड़ों वाले घर, चकैया नीम, नया कुरता, पनाह और बाँकेलाल जैसी अर्थपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं। यही नहीं उनकी अन्य कहानियों में भी गरीबी और अभाव के मार्मिक चित्र बार बार उपस्थित होते रहे हैं। ये चीजें उनकी एकदम शुरुआती कहानियों - सत्ताईस साल की उमर तक, अकहानी, प्रेम, सिर्फ एक दिन, क ख ग, रात के घेरे : नन्हें पाँव, खोटे सिक्के, गर्म हाथ, पत्नी और तफरीह - में भी देखी जा सकती हैं। वहीं चाल और बोगेनविलिया जैसी कहानियाँ एक मिली-जुली तसवीर पेश करती हैं।




      स्लम जैसी स्थितियों को लेकर लिखी गई अपनी ज्यादातर कहानियों में वे इसी अँधेरे के पर्दे में बार बार झाँकते हैं और वहाँ उन चरित्रों के सुख-दुख और उनके संघर्षों की बेमिसाल कहानियाँ लेकर आते हैं। ऊपर चकैया नीम से लिए गए उद्धरण का एक हिस्सा फिर से पढ़ें - ‘गली के लोग सदियों से अँधेरे में रह रहे थे और अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था।’ उजाला उनकी आँखों में गड़ता था - यह वाक्य कई दिशाओं में खुलता है। अगर हम यह मान लें कि जिन चरित्रों की कहानियाँ वह कह रहे हैं वे सब इसी ‘बंद’ गली के लोग हैं तो यह बंद गली का रूपक इन कहानियों के बारे में बहुत कुछ कहता है। पर ठहरिए यह गली पूरी तरह से बंद नहीं है और ऐसा इसलिए है क्योंकि शहर का काम इस गली के बिना भी नहीं चल सकता। यह अलग बात है कि शहर इस गली के लोगों से अपनी जरूरत से ज्यादा कोई भी रिश्ता नहीं रखना चाहता। किसी भी अन्य स्थिति में यह गली उसके लिए शर्म बन जाती है।





      ‘बाँकेलाल’ तो इस बात की प्रतिनिधि कहानी है कि मध्यवर्ग अपने से नीचे के लोगों के लिए किस कदर क्रूर और आत्मकेंद्रित है। मारक व्यंग्य की शैली में लिखी गई यह कहानी जिस अंत पर जाकर खड़ी होती वह स्तब्ध कर देने वाला है। पुन्नू बाबू के पास बाँकेलाल को एडवांस में देने के लिए पैसे नहीं हैं पर पुलिस को घूस देने के लिए या उसके स्वागत सत्कार के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है। इस कहानी का यथार्थ आज भी नहीं बदला बल्कि दिन पर दिन और और क्रूर होता गया है। मालों में शापिंग करने वाले और कारों से चलने वाले मध्यवर्ग को आज भी रिक्शेवाले, मजदूर, सब्जीवाले या चौकीदार चोर ही दिखाई देते हैं। और यह भी कि इनकी समस्याओं की तरफ से वह इस तरह से आँख मूँद कर बैठे हुए हैं जैसे कि ये किसी और ग्रह के वासी हों।




यहीं से उनकी कहानियों का एक सिरा प्रेमचंद की ‘कफन’ जैसी कहानी से जुड़ता है। जहाँ ये एहसास धीरे धीरे श्रम करने की नैतिक इच्छा को ही समाप्त कर देता है कि इस समाज में श्रम का कोई मूल्य ही नहीं बचा है। और दूसरे श्रम और संतुष्टि या श्रम और सुख के बीच की वह डोरी कुछ चरित्रों के जीवन से हमेशा के लिए गायब हो गई है जो दोनों को आपस में जोड़कर रखती थी। यहीं से अकहानी, बाँकेलाल या कि गरीबी हटाओ जैसी कहानियाँ जन्म लेती हैं। ये तीनों ही कहानियाँ इस बात को तीन अलग तरीके से बयान करती हैं। ये ऐसे चरित्रों की कहानियाँ हैं जो मामूली से मामूली चीजों के लिए भी तरसते रहते हैं। बल्कि वे ऐसी बहुतेरी वस्तुओं या स्वादों से परिचित ही नहीं है जिनके बिना बाकी दुनिया का काम एक दिन भी नहीं चलता। इनका अभाव इनकी अकर्मण्यता से नहीं पैदा हुआ है बल्कि ये जान-बूझ  कर भीषण अभाव के दलदल में ढकेल दिए गए हैं।





उनकी एक शुरुआती कहानी ‘अकहानी’ से बात शुरू करें तो ये दो ऐसे युवाओं की कहानी है जिनमें से एक ने असावधानी की वजह से एक महिला की बाँह पकड़ ली है और अब ‘वह दाँतों में जीभ दबाए कुबड़ा-सा होकर भीड़ में डरा सा’ खड़ा है और इस बात पर ‘उसकी गर्दन की नसें फड़क रही’ हैं। जब वह इस झटके से निकलता है तब वह ये बात अपने साथी युवक से बताता है तो उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि ‘महिला ने कुछ नहीं कहा।’ और जब पहला कहता है कि कुछ नहीं कहा तो दूसरे को भरोसा नहीं होता और वह दोबारा पूछता है कि ‘वाकई कुछ नहीं कहा?’ और इस सवाल के जवाब में पहला - जो कि अब तक उस झटके से निकल आया है - जवाब देता है कि ‘उसकी बाँह बड़ी मुलायम थी। मेरा दिन जोरों से धड़क रहा है’ और फिर थोड़ा रुककर फुसफुसाता है कि ‘औरतों की बाँह ठंडी होती है।’ और इसके बाद दोनों औरतों की बाँह पर बहस करने लगते हैं। दोनों युवा हैं इसके बावजूद स्त्री की छुवन तक से यह अपरिचय उस अभाव की कहानी कहता है जहाँ से तमाम तरह की कुंठाएँ जन्म लेती हैं।




पर रुकिए यह सिर्फ इसी अभाव की कहानी नहीं है। इन दोनों युवकों को कीमतें डराती हैं, इनके टखनों में दर्द रहता है, सेब खाने के लिए प्लानिंग करनी पड़ती है और इनके पास समय की कोई कमी नहीं है। ये हमेशा दूसरों के बारे में बात करते रहते हैं इसलिए इनके अपने जीवन में क्या कुछ चल रहा है यह समझने के लिए इनकी सारी बातों को उलट कर देखना होगा। इन दोनों अभावग्रस्त युवकों के पास इतना समय कहाँ से आया है वे इस तरह से बेसबब भटकें। उनकी बातचीत संकेत देती है कि उनके पास न के बराबर पैसे हैं। उनमें से एक बार बार अपनी जेब में हाथ डाल  कर रेजगारी गिना करता है। उन्हें छुवन के बारे में नहीं पता। उन्हें चीजों के स्वाद और रंग के बारे में नहीं पता। और कहानी के आखिर में वह भूखे पेट स्कूटर के दाम का अंदाजा लगा रहे होते हैं। ये दोनों चरित्र प्रेमचंद के घीसू और माधव बनने के क्रम में आगे बढ़ रहे हैं। वैसे कल को वे अमरकांत के ‘हत्यारे’ बन  कर प्रकट हों तो भी कोई अचरज नहीं होना चाहिए।
     


जैसे बहुत बाद में इनमें से ही एक ‘नया कुरता’ का साहिल बनकर प्रकट होता है। वह दिन भर ‘अकहानी’ के युवकों की तरह ही बेसबब भटकता रहता है, वैसे यह भटकना इतना बेसबब भी नहीं है कि इसे समझा न जा सके। वह बहुत अच्छा मर्सिया गाता है और एक दिन उसकी आवाज पर मोहित होकर एक कबाड़ी उसे एक जंग लगी इस्त्री देता है कि वह कुछ काम धंधा शुरू करे। जुगाड़ और उधार के बूते पर किसी तरह से उसका काम शुरू भी हो जाता है पर इसी बीच ईद के मौके पर कई सालों बाद सिलवाया हुआ उसका नया कुर्ता उसके मकान मालिक की आँख में चुभने लगता है और अंततः साहिल का यह धंधा ध्वस्त हो जाता है। ऐसे ही ‘सुंदरी’ कहानी की घोड़ी ‘सुंदरी’ और उसका मालिक ‘जहीर’ दोनों एक बारात में आतिशबाजी की चपेट में आकर अपनी एक-एक आँख खो चुके हैं। ऐसे में वे अशुभ मान लिए गए हैं और अब उनको किसी भी तरह का काम मिलना बंद हो चुका है। ये दोनों किस तरह से इस स्थिति से निकलते हैं यह कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है। इन बेहद मार्मिक कहानियों में अभावग्रस्त लोगों का जीवन, उनकी एका, उनकी छोटी छोटी मुश्किलें जिस मार्मिकता से प्रकट होती हैं उस मार्मिकता को इन कहानियों को पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है।
     




इसी क्रम में उनकी कहानी ‘गरीबी हटाओ’ एक ऐसे ठठेर की करुण गाथा है जिसका धंधा स्टील के आगमन ने तबाह कर दिया है। नहीं तो ‘एक जमाना था, पीतल इस बाजार का राजा था और मोहन ठठेर राजा का सबसे विश्वस्त कारीगर। आज दोनों की पूछ न थी।’ इस विश्वस्त कारीगर का हाल आज यह है कि ‘मोहन ठठेर की दाढ़ी बढ़ी हुई थी, बाल सूख कर लटों में बदल गए थे, हाथों और पैरों के नाखून बढ़ आए थे, आँखों में ऐसा वीरान दिव्य भाव था जो चित्रों में गुरु नानक और परदे पर दिलीप कुमार की आँखों में देखने को मिलता है। लगता है आँखें इस भाव की इतना अभ्यस्त हो चुकी हैं कि अब मेनका भी इन आँखों में कोई भाव नहीं जगा सकेगी। लोग कहते हैं, यह वही मोहन ठठेर है, जो एक बार एक औरत से इसी बाजार में जूतों से पिटा था। अब उसकी दिलचस्पी किसी चीज में न थी, पराई औरत तो दूर, अपनी औरत में भी नहीं। हफ्तों वह अपनी औरत से भी बात नहीं करता। वह भी नहीं करती।’
     


यही मोहन ठठेर जो अच्छी-बुरी तमाम मानवीय भावनाओं से भरा हुआ था आज बेकार होकर घिनौनी अमानवीय स्थिति को प्राप्त हो चुका है। कल का मेहनतकश आज पूरी तरह से परजीवी में बदल चुका है। अब कोई एक बंडल बीड़ी भी उसकी तरफ फेंक दे या कि गुड़ का एक टुकड़ा उसके हाथ में डाल दे तो अपने को परम भाग्यशाली मानता है। यहाँ तक कि उसका बेटा सामने आता है तो वह गुड़ को छिपा लेता है कि बेटा कहीं ये गुड़ माँग न ले। ये ऐसा चरित्र है जो पूरी तरह से घीसू-माधव की गति को प्राप्त कर चुका है पर सबकुछ के बावजूद घीसू और माधव दयनीय नहीं लगते जबकि मोहन ठठेर दयनीयता की उस स्थिति को प्राप्त कर चुका है कि उसे देख कर करुणा उपजने की जगह कोफ्त हो, गुस्सा आए। इसकी पत्नी सुबह से शाम तक घरों में बर्तन चौका करती है, छोटे-छोटे बच्चे आवारा घूमते रहते हैं और यह उन सब से निस्पृह अपने भीतर की दुनिया के गलीज में गुम। जाहिर है कि जब यह पीतल राजा का विश्वस्त कारीगर था तब भी था तो साधारण कारीगर ही। और जब बेकार, बीमार और लकवे का शिकार हुआ तो पत्नी ने शुरू में ‘पानी की तरह पैसा बहाया था’, पर अब उसके लिए यह संभव नहीं रहा है। अंततः वह उससे निरपेक्ष हो गई है।




      यह कहानी अभाव के मनोविज्ञान को, बाल मनोविज्ञान को इस तरह से साधती है कि यह कहानी पढ़ना कभी न भूलने वाला अनुभव बन जाता है। इसी मोहन ठठेर को एक बार कहीं पुराने बर्तनों की मरम्मत का काम मिलता है और बदले में मिले पाँच रुपयों से वह अपने बेटे को भेजकर जलेबी मँगवा लेता है। अब यहाँ पर वह बेटे से कहता है कि ‘पाँच रुपयों की जलेबियाँ कौन खरीदता है, आज के जमाने में! उसने जरूर पूछा ही होगा, कहाँ से आए हो?’ बेटे के यह बताने पर कि वहाँ तो लोग इससे भी ज्यादा कि खरीद रहे थे और हलवाई के पास यह सब पूछने की फुर्सत नहीं थी, मोहन ठठेर निराश हो जाता है और पाँच रुपये पाकर उसे जो गुदगुदी हुई थी व जाती रहती है। उसके इसी बेटे को उसकी माँ मूँगफली बेचने का धंधा कराती है पर थोड़ी बहुत मूँगफली बिकती है बाकी बच्चे चट कर जाते हैं। यानी सबकुछ पहले जैसा बल्कि पहले से भी बुरा हो जाता है।



      इसी तरह ‘टाट के किवाड़ों वाले घर’ भी असफल अभावग्रस्त पर अपनी बुनावट में बेहद जटिल पंडित शिवनारायण दुबे की कहानी है। वह बेहतर जीवन का सपना देखता रहता है पर उसका जीवन लगातार बदतर होता चला जाता है। वह इतनी बुरी स्थिति में है कि अपनी कोठरी में किंवाड़ लगवाने की स्थिति में भी नहीं है। इसी तरह उनकी चर्चित कहानी ‘चाल’ का भी जीवन है पर वहाँ चाल एक स्टेशन की तरह है जहाँ से एक रास्ता बेहतर जीवन की तरफ जाता है तो दूसरा रास्ता और ज्यादा गरीबी की ओर। चाल का जीवन उनकी एकदम शुरुआती कहानियों में भी बार बार आता रहा है। जैसे उनकी एक कहानी ‘तफरीह’ का नया शादीशुदा जोड़ा चाल में रह रहा है। जिसमें पत्नी की मुश्किल यह है कि ‘हम घर में अकेले नहीं रहा करेंगे। हमें डर लगता है।’ मद्दी की पत्नी ने कहा, ‘किसी दिन मेरे प्राण निकल जाएँगे। पुलिस वालों को अपना नाम लक्ष्मण बताओ, राशन वाले को नायडू, दूध के डिपो में कंधईलाल! बाबू को पता चले तो सोचें, लड़का जरूर नंबरी बदमाश होगा जो कई नाम से रहता है।’




      इतनी तिकड़म के बावजूद पति की स्थिति यह है कि ‘जब तक वह अपनी पतलून के ऊपर के दो बटन नहीं खोल लेता, उसे बैठने या चलने में असुविधा होती थी।’ पर वह दूसरी पतलून सिलवाने की स्थिति में नहीं है। यही नहीं जब गर्भवती पत्नी के लिए अचानक कमजोरी की स्थिति में वह मुसंबी का जूस ले आता है तो पत्नी की उस स्थिति में भी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि ‘माहिम में यही गिलास सवा रुपये में आ जाएगा।’ इस तरह के चित्र उनकी तमाम कहानियों में मिलते हैं। ये अलग बात है कि उनकी कहानियों के इस पहलू पर न के बराबर बातें की गईं और आलोचना की सामान्य शब्दावली में वे शहरी मध्यम वर्ग के कथाकार ही बने रहे।





      इसके बावजूद कि दारुण गरीबी से जूझ रहे असफल चरित्रों को उन्होंने जितनी तन्मयता से रचा है वह समूची हिंदी कहानी में दुर्लभ बात है। मोहन ठठेर, बाँकेलाल, शिवनरायन, साहिल या गुलाबदेई जैसे चरित्र कम से कम साठोत्तरी कहानी में तो ढूँढ़े नहीं मिलते। ये सभी बेहद संश्लिष्ट चरित्र हैं पर इनमें एक बात साझा है कि ये सभी श्रमजीवी हैं। इसके बावजूद इनका हाल नहीं बदलता तो आखिर इसकी जड़ें किस समय में तलाशी जानी चाहिए। मोहन ठठेर या बाँकेलाल जैसे मेहनतकश लोग जो अपने काम में बेहद कुशल हैं आखिर क्यों घीसू माधव की गति को प्राप्त हो रहे हैं? शहरी जीवन में पसर आई अमानवीय स्थितियों पर लिखी गई ये कहानियाँ सभी अर्थों में घनघोर राजनीतिक कहानियाँ हैं। ये अपने समय की राजनीति की, मजदूरों और मेहनतकशों को लेकर तत्कालीन सरकारी नीतियों की या फिर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के छलावे का तीखा आलोचनात्मक पाठ हैं।






6.

‘मैं कुछ भी नहीं तय कर पाता। अगर कुछ तय कर पाता तो कैफे में बैठा आदमी मुझे गिरेबान से पकड़ लेता और उसकी बीवी ओनियम उतप्पम खाना बंद कर देती और मेरा प्यारा ‘बोर’ दोस्त जो मुझसे मिलने आठ मील की दूरी से आया है, इतना सहम जाता कि फिर कभी मुझसे मिलने का नाम न लेता। यह उसके हित में ही था, वरना अब कौन जाने मेरी वजह से जिंदगी इसे कितना बड़ा सबक देगी।’ - विकथा





रवींद्र कालिया की कहानियों के संदर्भ में बार बार जिस जुमलेबाजी की बात की जाती रही है उसे पाठकों ने तो समझा पर ज्यादातर आलोचकों ने इस तथाकथित जुमलेबाजी से रचनात्मक स्तर पर मुठभेड़ की या कि उसे समझने की कोई कोशिश नहीं की। दरअसल हिंदी कथा आलोचना की बहुत सारी दिक्कतों में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि रचना के पास जाने के लिए जरूरी औजार अभी तक भी उसके पास नहीं हैं। ऐसे में वह निजी अभिरुचि और प्रगतिशीलता की एक मोटी (कई बार तो मोटी बुद्धि भी कहने का मन होता है) समझ से किसी रचना को पसंद करती है या खारिज करती है। निजी अभिरुचि भी कोई इतनी बुरी चीज नहीं है अगर वह विकसित होती रहे और उसमें नए कथ्य और नई अभिव्यक्तियों को समझने का या कम से कम उनके पास विनम्रतापूर्वक जाने का कौशल हो। इस कौशल के अभाव में वह दंभ जन्म लेता है जो हर उस चीज को खारिज करना शुरू कर देता है जो उसके समझ में नहीं आती। साठोत्तरी कहानी के प्रति आलोचकों में जो एक वैर भाव सा दिखाई देता रहा है उसके मूल में यह चीज भी शामिल रही है।




            मुश्किल यह भी है कि साहित्य में अभिधा का बोलबाला कुछ इस कदर बढ़ा कि बहुत सारे लोगों ने लक्षणा और व्यंजना को समझने की तमीज ही खो दी। रवींद्र कालिया के पूरे कथा साहित्य में व्यंग्य जिस तरह से व्याप्त है और जिस सहजता से व्याप्त है उसकी वजह से उनकी भाषा का मिजाज पूरी तरह से अलहदा बन जाता है। रवींद्र कालिया की कहानियों में ऐसे अनेक वाक्य या वाक्य समूह हैं जो कहानी का एक सघन हिस्सा होते हुए भी कहानी से अलग भी अपने समय और समाज पर बहुत जरूरी और तीखी प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं। ये अलग बात है कि यह प्रतिक्रियाएँ जब रवींद्र कालिया की व्यंग्य और विडंबना दोनों को एक साथ रचती हुई भाषा में प्रकट होती हैं तो पहली पाठकीय प्रतिक्रिया एक सहज हास्य होता है पर चेहरे पर हँसी के निशान अभी पूरी तरह से गायब भी नहीं हुए होते हैं कि उस भाषा की व्यंजना अपना काम करना शुरू कर देती है। और तब वही वाक्य जिसे पढ़ते हुए हँसी आई थी अपने समाज के बारे में एक जरूरी बयान में बदल जाता है।




      उनकी शुरुआती कहानियों में से एक ‘विकथा’ से एक अंश देखें - ‘मेरे सामने यह जो आदमी बैठा है और उसकी बीवी, जो ओनियम उतप्पम खा रही है, मैंने उसके पास से गुजरते हुए उसके झीने ब्लाउज की ओर देखते हुए सोचा, अगर मैं इसे छू दूँ तो यह क्या करेगी? इसका पति क्या करेगा? शायद यह ओनियम उतप्पम खाना बंद कर देगी और इसका पति मुझे गिरेबान से पकड़ लेगा, झापड़ भी लगा सकता है। मुझे अपने में यह बात बहुत फनी लगी कि बीवी तो खाना बंद कर देगी और पति मुझे गिरेबान से पकड़ लेगा, जबकि मैंने उससे कुछ नहीं कहा होगा।’ कहानी के ‘मैं’ का यह बयान भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों और उनके बीच स्त्रियों की स्थिति के बारे में बहुत कुछ बयान करता है। सवाल यह नहीं है कि उसका पति कहानी के मैं का गिरेबान सचमुच पकड़ता या नहीं (हालाँकि ज्यादा संभावना इसी बात की है कि वह ऐसा करता ही) सवाल उस सामान्य समझदारी का भी है जो ‘मैं’ के दिमाग में बसी हुई है। जो स्त्रियों को प्रतिक्रियाविहीन रूप में ही देखती आई है।   




विसंगति बोध उनकी कहानियों का अनिवार्य हिस्सा है। इसकी वजह से वह यथार्थ की उन दरारों को भी देख पाते हैं जो अन्यथा ओझल ही बनी रहतीं। इसकी वजह से ही उन्हें भावनाओं के करुण क्रंदन के नीचे छुपा हुआ स्वार्थ भी दिख जाता है। पर इसके पहले सवाल यह है कि यह एब्सर्डिटी उनकी कहानियों में कहाँ से आती है? वह स्थिति कैसे संभव हो पाती है कि शब्द और अर्थ के बीच का सीधा रिश्ता गायब हो जाता है और भाषा में एक नए तरह का तनाव जन्म लेता है। ऐसे में जो कुछ कहा जा रहा होता है उसकी अपेक्षा वह अधिक अर्थवान होता है जो उसमें से ध्वनित हो रहा होता है। रवींद्र कालिया की कई कहानियाँ जो पहली नजर में अर्थहीन दिखाई देती हैं पर जैसे ही पहली नजर का धुँधलका साफ होता है वे नए नए अर्थों से भर जाती हैं। तब वे उसी तरह से अपने समय के यथार्थ का बयान करने लगती हैं जैसे उनकी दूसरी अनेक कहानियाँ करती हैं।




रवींद्र कालिया के यहाँ कम से कम सात-आठ कहानियाँ ऐसी हैं जिन्हें पूरी तरह से एब्सर्ड कहानियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन कहानियों में विकथा, थके हुए, मौत, अकथा, मैं, धक्का और सत्ताईस साल की उमर तक कहानियों का नाम लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक कहानियों में एब्सर्डिटी के अनेक तत्व बखूबी देखे जा सकते हैं। ये तत्व उन्हीं स्थितियों के बीच से पैदा होते हैं जिनके संदर्भ में रवींद्र कालिया विवेक और व्यवहार तथा शब्द और अर्थ के बीच के पारस्परिक संबंध टूटने की बात करते हैं। यही समय था उनका जिसमें सिद्धांत के स्तर पर बहुत कुछ कहा जा रहा था, घटित हो रहा था पर व्यवहार के स्तर पर एक दूसरा ही यथार्थ सामने दिखाई पड़ता था। इस दरार को व्यवस्था एक लफ्फाजी से भरने की कोशिश कर रही थी।




रवींद्र कालिया इसी दरार को दृश्यमान बनाने के लिए एब्सर्डिटी का सहारा लेते हैं। यह पीड़ा का शिल्प है जिसे समझने की कोशिश कम की गई। इसी तरह से जिन वाक्यों को जुमलेबाजी का नाम दिया गया उनका जन्म भी अपने समय की तकलीफों को बयान करने के लिए हुआ था। वे गहरी उदासी और अपने समय की त्रासदी की सही पहचान से संभव हुए थे। अक्सर इसके पीछे से उनके चरित्रों की वह व्यक्तित्वहीनता झाँकती दिखाई देती है जो व्यवस्था के मारे हुए हैं। ‘अकहानी’ के चरित्रों की ऊल-जुलूल सी दिखनेवाली बातचीत के पीछे से उन चरित्रों का दैन्य सतत झाँकता रहता है। इसी तरह ‘सत्ताईस साल की उमर तक’ का ‘वह’ जब तमाम चीजों के बारे में एक अव्यवस्थित बयान कर रहा होता है तो उसके बयान की अव्यवस्था के पीछे से उसके जीवन और समय की तमाम अव्यवस्थाएँ झाँक रही होती हैं।




ऐसे में जब वे हँसते हैं तो पीछे की उदासी, जब वे कोई रोचक जुमला उछाल रहे होते हैं तो उनके भीतर का संत्रास या कई बार उन पर थोप दी गई निष्क्रियता इस सब के पीछे से झाँक रही होती है। जैसे उनकी ‘पचास सौ पचपन’ जैसी कहानी की बात करें जो पहली नजर में कुछ प्रतिभाशाली अराजक दोस्तों की कहानी नजर आती है जो जितने दोस्त हैं उतने ही एक दूसरे से बेपरवाह भी नजर आते हैं। इस कहानी का एक युवा ‘मोहन राकेश’ के कालजयी नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के संवाद की अक्सर पैरोडी करते हुए नजर आता है। कमाल यह है कि हर बार उसकी पैरोडी एक नया अर्थ देती है और ऐसा करते हुए वह उस नाटक की क्लैसिक जैसी लगने वाली भाषा संरचना को भी ध्वस्त कर देता है। वह क्या करे अगर उसके जीवन में किसी भी तरह के रोमानी भाव-बोध के लिए कोई जगह नहीं बची है तो? आखिर में जब उसका प्रोफेसर दोस्त कमरे को छोड़कर जाने के लिए अपना सामान पैक कर रख गया होता है तो उसे देखकर इसकी रीढ़ की हड्डियों में सिहरन क्यों होती है?





क्या यह सिर्फ एक दोस्त के अलग रहने का निर्णय लेने से उपजी सिहरन है? क्या इस सिहरन की वजह उसका संभावित रूप से अकेले रहना है? क्या इस सिहरन की यह है कि दोस्तों के बीच नोक झोंक में वह समय के साथ अपने तनाव को भूला रहता है? या फिर इस अलगाव में उसे न सिर्फ अपना भविष्य बल्कि अपने दोस्तों सहित अपने समय का भविष्य दिखाई दे रहा है इस बात से उपजी है सिहरन? ये दोस्त अपनी लाउड अराजकता के पीछे क्या कुछ छुपा लेना चाहते हैं आखिर? इसी तरह उनकी दूसरी कहानियों की एब्सर्डिटी भी डिकोड की जा सकती है। अपनी संरचना में खालिश एब्सर्ड ‘धक्का’ या ‘मौत’ जैसी कहानियों में भी वे अपने समय के यथार्थ को ही बयान कर रहे होते हैं। ‘धक्का’ अपनी जमीन से अलग किसी अन्य स्थिति में टँगे रहने की कहानी है। ऐसे स्थिति में किसी भी धक्के के लिए तैयार ही रहना चाहिए।




इस कहानी में पत्नी की नींद जैसे एक मासूम फंतासी की तरह है जो बहुत दिनों बाद उनकी आखिरी कहानी ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ में बच्चों की नींद बनकर प्रकट होती है। घर में चोरी हुई है, तमाम लोगों की आवाजाही हो रही है। जाँच है, जाँच का शोर है पर बच्चों की नींद नहीं टूटती। वे इस सब से बेखबर सोते ही रहते हैं। इसी तरह ‘मौत’ कहानी में वह स्त्री के उस डर से जूझते हैं जिसे पितृसत्ता ने उसके भीतर कुछ इस तरह से पाल-पोस दिया है जैसे की वह कोई आदिम डर हो। पति के मरने पर पत्नी का असुरक्षित महसूस करना कोई नई बात नहीं है पर उस असुरक्षा का ऐंद्रिक प्रकटीकरण इसे एक ऐसी कहानी में बदल देता है जिसमें वह अपनी असुरक्षा से जूझने की बिसात खुद ही तैयार करना शुरू कर देती है। उसके मरे हुए पति को या कि उसके पति के मित्र को जो भी लगे पर उसे ऐसी स्थिति में ले जाने वाले भी उनके ही जैसे लोग हैं। खासकर उसके पति को तो कुछ बोलने का हक ही नहीं है क्योंकि वह मर चुका है। यहाँ पति के मरने का मतलब सिर्फ पति का मरना ही नहीं है बल्कि इसमें पति नामक संस्था की मृत्यु के संकेत भी छुपे हुए हैं।




हम देख सकते हैं कि अपनी कहानियों में वे बार बार अपने समय की विसंगतियों से न सिर्फ टकराते रहते हैं बल्कि बहुत ही रचनात्मक भाषा में उस विद्रूप का प्रत्याख्यान भी रचते हैं। इसी रचनात्मक प्रक्रिया से उनकी भाषा में व्यंग्य की वह तीखी धार पैदा होती है जो उनकी कहानियों को एक तीखा पर सम्मोहक व्यक्तित्व देती है। इसी तरह एब्सर्डिटी के तत्व भी उनकी कहानियों में आखिर तक विद्यमान रहे। उनके ये रचनात्मक औजार कहीं बाहर से नहीं आए थे बल्कि वह उसी यथार्थ के भीतर से प्रकट हुए थे जिनका वह सामना कर रहे थे। ये दोनों चीजें मिलकर उनकी कहानियों को न सिर्फ उनकी पीढ़ी में केंद्रीय जगह देती हैं बल्कि बल्कि समूची हिंदी कहानी में एक विशिष्ट और ताकतवर स्वर के रूप में स्थापित करती हैं।   






7.
‘हम मुद्रक हैं, केवल मुद्रण में दिलचस्पी लेंगे।’ पुन्नू अपनी पत्नी को समझाता, ‘मुझे तो आज भी विश्वास नहीं होता कि सरकार वोटरों ने पलटी है।’ (बाँकेलाल)



सवाल यह है कि आज हम रवींद्र कालिया की कहानियाँ क्यों पढ़ें? क्या सिर्फ इसलिए कि हम आजाद भारत के छठे दशक का या कि उसके बाद के समय का एक जायजा ले सकें या कि इनका कोई समकालीन अर्थ भी बनता है? जाहिर सी बात है कि इस सवाल का जवाब काफी हद तक ऊपर दिया जा चुका है। इन कहानियों के लिखे जाने के बाद इतना वक्त बीत गया है पर इन कहानियों में नई स्थितियों को धारण करने और नया अर्थ देने की क्षमता में कोई कमी नहीं आई है। ये कहानियाँ कई बार आज की स्थितियों पर भी अचूक तरीके से खरी उतरती हैं। काला रजिस्टर, बाँकेलाल या गरीबी हटाओ जैसी कहानियों का यथार्थ दिन पर दिन और ज्यादा क्रूर और जटिल होता गया है बावजूद इसके ये कहानियाँ आज के यथार्थ पर भी खरी उतरने वाली कहानियाँ हैं।
     



ऐसा सिर्फ दो वजहों से होता है। पहली वजह यह कि लेखक की रचनात्मक सामर्थ्य सिर्फ वह ही नहीं देखती जो घट रहा होता है बल्कि वह सब कुछ भी देख लेती है जो निकट भविष्य में घटने वाला होता है। दूसरी वजह यह कि समाज अभी भी उसी स्थिति में फँसा हुआ है जिस स्थिति में उन रचनाओं के लिखे जाने के वक्त फँसा हुआ था। पहली स्थिति लेखक के बारे में एक सकारात्मक बयान है। हर बड़ा लेखक न सिर्फ अपने समय के बारे में लिखता है बल्कि आनेवाले कल को भी वह उसी समय लिखता चलता है। रवींद्र कालिया इस अर्थ में भी बड़े लेखक हैं कि उनके समूचे कथा-साहित्य में वर्तमान और भविष्य की अनेक अनुगूँजें सुनी और पढ़ी जा सकती हैं। पर दूसरी स्थिति भारतीय समाज के बारे में एक नकारात्मक स्थिति का बयान करती है। इन अर्थों में हम लगातार चाहते हैं कि हमारा बड़ा से बड़ा लेखक जल्दी से जल्दी अप्रासंगिक हो जाए। ऐसा होने से समाज ही नहीं मुक्त होता बल्कि लेखक भी मुक्त होता है क्योंकि तब बिना किसी समकालीन पाठ के दबाव के भी उसकी रचनाएँ पढ़ी जा सकती हैं। तब कई बार उन अर्थों का खुलना शुरू होता है जिनका खुलना पहले मुमकिन नहीं हुआ था।
     



फिलहाल अभी यह स्थिति नहीं आई है। इसलिए समकालीनता के दबाव से जूझते हुए भी उनकी अनेक कहानियाँ बार बार पढ़े जाने की माँग करती हैं। सांप्रदायिक तनाव के बीच बेघर होते हुए लोगों की जब भी बात होगी तब ‘पनाह’ का बूढ़ा मुसलमान आँखों में उतर आएगा। जब हम अपने इस समय से जूझेंगे जिसमें पेड़-पौधे, पशु-पक्षी या कि रंग भी हिंदू-मुसलमान में बाँटे जा रहे हैं तब तब हमें ‘गौरैया’ यह बताती हुई याद आएगी कि हुजूर ये सब आप इनसानों की मुश्किलें हैं, हमें इस सब में मत घसीटिए। हम राजनीति के पतन की बात करेंगे तो ‘दादा दुबे’ याद आएँगे, युवा पीढ़ी के बारे में जजमेंटल हो रहे होंगे तो ‘बुढ़वा मंगल’ की याद आएगी। बल्कि उनकी कई कहानियाँ, मसलन ‘अकहानी’, ‘तफरीह’, ‘हथकड़ी’, ‘काला रजिस्टर’, ‘धक्का’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ आदि तो इस समय में और भी मानीखेज होती गई हैं। पाठ के समय वर्तमान में उनके अर्थ जिस तरह से खुलते हैं वह पहले शायद ही संभव हुए हों। 
     



जैसे उनकी कहानी ‘बाँकेलाल’ आज के मध्यवर्ग की स्वार्थपरकता का जिस तरह से बयान करती है वह आज भी दुर्लभ है। बाँकेलाल अपने काम में बेहद कुशल है पर बातचीत उसकी कुशलता की बजाय उसके चोरी आदि दुर्गुणों पर होती है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो बाँकेलाल पर बात कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जो अपने कारखानों में ‘मिनिमम वेजेज एक्ट’ नहीं लागू कर रहे हैं। यानी कि वे मजदूरों की मेहनत का न्यूनतम पैसा भी उन्हें नहीं देना चाहते। चेकिंग इन्स्पेक्टर को घूस में कितनी रकम भी क्यों न दे दें। कहानी की ही गवाही लें तो ‘हमारे पुन्नू बाबू उन लोगों में हैं जो इन्स्पेक्टर को कितना भी पैसा दे देंगे, मगर बाँकेलाल को बीच में पैसा तभी मिल सकता है जब उसकी माँ की पाँचवीं बार मौत होगी।’ जाहिर है कि ऐसे में बाँकेलाल जैसे लोग क्या करेंगे? तब जीवित रहने के लिए झूठ या चोरी जैसी चीजें उनकी शरणगाह बनती भी हैं तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? यह वही मध्यवर्ग है जो अपने वेतन में तो हर साल बढ़ोत्तरी चाहता है पर किसी मजदूर के श्रम का उपयोग दस साल पुरानी मजदूरी पर ही करना चाहता है।


     
आखिर में यह कि रवींद्र कालिया सभी संभव अर्थों में शहरी जीवन के कथाकार हैं। शहरी जीवन का शायद ही ऐसा कोई दुख हो जिसे उनकी कहानियों में जगह न मिली हो। कहा जा सकता है कि वे शहरी जीवन के ‘त्रास’ के ऐसे प्रतिनिधि कथाकार हैं जो इस त्रास को बयान करते करते अपने आप को भी नहीं बख्शते। इसलिए शहरी मानस को समझने-बूझने के लिहाज से भी यह कहानियाँ बार बार पढ़ी जाने के योग्य हैं। अंत में यह भी कि उनके गद्य पर अलग से एक पूरा लेख लिखा जा सकता है। उनका गद्य जितना चुहल से भरा है उतना ही तीखा भी है। उनके गद्य का तीखापन एक साथ चेहरे पर मुस्कान भी ले आता है साथ में भीतर तक वेध भी जाता है। खड़ी हिंदी की जो व्यंजक शक्ति उनके गद्य में दिखलाई पड़ती है वह समूचे कथा साहित्य में अलग से पहचानी जा सकती है। इस गद्य की ताकत को महसूस कर सकने के लिए भी उनकी कहानियाँ पढ़ी जानी चाहिए।

(बनास जन के रवींद्र कालिया अंक से साभार)  
     






मनोज कुमार पांडेय
फोन : 08275409685, 08805405327  
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. मनोज तुम्हें बहुत बहुत बधाई, समग्र रूप से कालिया जी के लेखन पर जो पड़ताल की है अभी तक इतनी स्पष्ट सुविचारित तरीके से नहीं किया किसी ने। किया भी होगा तो मेरी नजर से नहीं गुजरा।
    11.11.2019 कालिया जी का जन्मदिन, अपने विट, ह्यूमर, प्रयोगशील ता, प्रगतिशीलता से हर दिन वोह हमारे साथ होते हैं अपनी बांटी हुयी नई सोच के साथ ।
    प्रणाम कालिया जी
    मेरी शुभकामनायें मनोज एक अच्छे काम के लिए

    जवाब देंहटाएं
  2. लक्ष्मेंद्र चोपडा9 जनवरी 2023 को 4:08 pm बजे

    मैं हमेशा से रवींद्र कालिया जी के लेखन का प्रशंसक रहा हूं , कथ्य व भाषाशिल्प सहित। बहुत महत्वपूर्ण आलेख है आपका । बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'