गौतम राजरिशी की कविताएँ

गौतम राजरिशी


किसी सैनिक का नाम सुनते ही हमारे मन में उसके लिए एक अलग तरह के मनोभाव उठने लगते हैं. देश के लिए मर-मिटने के लिए हर घडी तैयार रहने वाला वाला ऐसा शख्स जो हमेशा युद्ध की परिस्थितियों में रहता है. जो युद्ध के लिए नियुक्त ही किया जाता है और युद्ध को जीता और महसूस करता है.  लेकिन हम भूल जाते हैं कि तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी होता है जिसमें उस सैनिक के अन्दर एक सजग-संवेदनशील इंसान का जागरुक मन होता है. विपदाओं को करीब से देखने और भोगने की वजह से उसके अन्दर जो प्रेम जगता है वह औरों से अलग और सघन अनुभूति लिए होता है. गौतम राजरिशी की कविताएँ पढ़ते हुए प्रेम की इस सघन अनुभूति को सहज ही महसूस किया जा सकता है. अगर कवि की पंक्तियों का ही सहारा ले कर कहूं तो गौतम राईफल के कुंदे से परे उन पंक्तियों में बंट जाना चाहते हैं जो छन्द की बन्दिशों की भी परवाह नहीं करती. जहाँ होता है बस एक आजाद, उन्मुक्त और बदहवास अनुभूति. बिल्कुल एक सहज जीवन की ही तरह कुछ-कुछ बेतरतीब और किसी भी तरह के अनुशासन से मुक्त. जहाँ एक घर की यादें हमेशा उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं और जो प्रेम की उस गली में खोना चाहता है जिसके बिना सारे शब्दों के अर्थ और अभिप्राय भी बेमानी हो जाते हैं तभी तो गौतम लिख पाते हैं ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी/ और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी/ बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब. तो आइए आज पढ़ते हैं गौतम राजरिशी की कुछ नयी कविताएँ. 

गौतम राजरिशी की कविताएँ  

(अ)सैनिक व्यथा -1

सर्द बेजान
राइफल के इस कुंदे से परे
चाहता हूँ बँट जाना मैं भी
बेतरतीब
-सी कुछ पंक्तियों में
छोटे
-बड़े, ऊपर-नीचे
लिखे हुये चंद जुमलों में
छंद की बंदिशों से परे
आजाद, उन्मुक्त, बदहवाश

कि समेट सकूँ खुद में
पापा की व्याकुल भृकुटियाँ,
माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
बारुद की गंध,
रेत भरी बोरियों वाली
इस बंकर की ठिठुरन,
ऐश्वर्या की आँखें,
कुछ लड़कियों के भूले
-बिसरे नाम,
ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
और
एक भूले हुये प्रेम का
सम्पूर्ण विस्तार...
और बन जाऊँ एक अमर कविता
सृष्टि के अंत तक गुनगुनाई जाने वाली


()सैनिक व्यथा – 2
{कश्मीर से सशस्त्र सेना बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने की मुहिम पर एक अदने से सैनिक की प्रतिक्रिया}

सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दिये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये

अहा...! सच में?

छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना

कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब...
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?

लेकिन ये जो एक सवाल है
उठता है बार-बार और पूछता है
पूछता ही रहता है कि...
बाद में, बहुत बाद में
वापस तो नहीं बुला लोगे
जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...
जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...
जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही
और
तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष...

फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में?

तुम्हें नहीं मालूम
कि मुश्किलें कितनी होंगी तब
सबकुछ शुरू से शुरू करने में
फिर से...

(अ)सैनिक व्यथा -3

सुनो राजस्थान
जब भी मैंने चाहा तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ

तुम्हारे रेत के तपते टीलों पर पिघल कर
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुईं
मेरे नक़्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें

हरदम ही तो गुम हुआ है
मेरे कम्पास का उत्तर रुख

सुस्ताने को दिया नहीं कभी
तुम्हारे नागफ़नी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे

मेरे जूतों के तसमों को वैसे भी
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से

सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व

यक़ीन मानो, हारोगे!
रहने दो इस द्वंद्व के ऐलान को

मानता हूँ कि
बर्फ़ के वो बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुल-मिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी

सुनो! तुम तो मेरे ही हो
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
ली थी पहली अंगड़ाईयाँ
अपने शिनाख़्त की

बनाना है उसे भी अपना
तुम्हारी तरह ही

उसे गुमान है अपने हुस्न पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुबह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर
और है थोड़ा-सा खफ़ा भी
मुल्क की बेरुख़ी से

जीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम कि
ऊँट की भूख है ये इश्क़ मेरा
जीरा उसकी बर्फ़ीली ठंडक  

आऊँगा इक रोज़ वापस
ख़ुद को सौंपने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिए बस
तुम्हारा सकून भरा गर्म आगोश

लगाओगे न गले
आऊँगा जब भी वापस?

त्रासदी प्रेम की...कविता की

नहीं देखा है मैंने कभी
फूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये

गौर नहीं किया कभी सुबह-सुबह
शबनम की बूँदों पर
झूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे-
तुम्हें सुनाने के लिये

सच कहूं तो
ये चाँद भी
तुम्हारी याद नहीं दिलाता
फुरसत ही कहाँ जो देखूँ इसे,
सजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये

ये अमलतास के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम

प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...

नया-पुराना

बहुत भाता है पुराना
कब से जाने

तब से ही तो...

तीन, तीस या तीन सौ...?
लम्हे, दिन, महीने या साल ...??
कितनी पुरानी हो गई हो तुम...???
इतराती हो फिर भी 
है ना ?
कि रोज़ ही नयी-नयी सी लगती हो मुझे...


रफ़ी के उन सब गानों की तरह
सुनता हूँ जिन्हें हर सुबह
हर बार नए के जैसे


या वही वेनिला फ्लेवर वाली आइस-क्रीम का ऑर्डर हर बार
कि बटर-स्कॉच या स्ट्रबेरी को ट्राय कर
कोई रिस्क नहीं लेना...


लॉयेलिटी का भी कोई पैमाना होता है क्या?
तुम्ही कहो...


तुम भी तो लगाती हो वही काजल
रोज़-रोज़ अल-सुबह
उसी पुरानी डिब्बी से
तेरा वो देखना तो फिर भी
नया ही रहता है हरदम


 ...
और वो जो मरून टॉप है न तेरा
जिद चले जो मेरी तो रोज ही पहने तू वही
अभी चार साल ही तो हुए उसे खरीदे
अच्छी लगती हो उसमें अब भी
सच कहूँ, तो सबसे अच्छी


सुनो तो,
ग़ालिब के शेरों से नया कोई शेर कहेगा क्या
हर बार तो कमबख़्त नए मानी निकाल लाते हैं
जब भी कहो
जब भी पढ़ो


बहुत भाता है बेशक पुराना मुझको
अच्छा लगे है मगर
तेरा ये रोज़-रोज़ नया दिखना...

एक अक्षराशिक़ का विरहकाव्य 

खुलता है यादों का दरीचा
चाँदनी के द से अब भी
बचा हुआ है धूप के प में  प्रेम अभी भी थोड़ा सा
यादों में चुंबन के ब से होती है बारिश रिमझिम
और रगों में ख़ून उबलता तेरे ख़्वाबों के ख़ से

बाद तुम्हारे ओ जानाँ...
हाँ, बाद तुम्हारे भी जब तब

तेरी तस्वीरों के त से र तक एक तराना है
तनहाई का ताल नया है
विरह का राग पुराना है
एक पुरानी चिट्ठी का च बैठा है थामे चाहत
स्मृतियों की संदूकी में
तन्हा-तन्हा अरसे से
एक गीत के गुनगुन ग से हूक ज़रा जब उठती है
कहती है ओ जानाँ तेरा ज बड़ा ही जुल्मी है
एक कशिश के क से निकलती कैसी तो कैसी ये कसक
बुनती है फिर मेरी-तुम्हारी एक कहानी रातों को

बिना तुम्हारे भी जानाँ...
हाँ, बिना तुम्हारे भी अक्सर

यूँ तो मोबाइल का ल अब लिखता नहीं कोई संदेशा
उसके इ में है लेकिन इंतज़ार सा कोई हर पल
मौसम के म पर छाई है हल्की सी कुछ मायूसी
और हवा का ह भी हैरत से अब तकता है हमको

इतना भी मुश्किल नहीं है बिना तुम्हारे जीना यूँ
हाँ, जीने का न बैठ गया है चुपके से बेचैनी में
और धुएँ के बदले उठती सिसकी सिगरेट के स से

ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !


-        सम्पर्क- 

      स्थायी पता-         

द्वारा- डा० रामेश्वर झा, वी० आई० पी० रोड
 पूरब बाजार, सहरसा-  852201

 
मोबाइल – 09759479500
ई-मेल gautam_rajrishi@yahoo.co.in
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


टिप्पणियाँ

  1. नितांत मौलिक कविताएं हैं. बधाई कवि को. प्रस्तुति के लिए आभार.

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  2. सुन्दर कविताएँ हैं ।कविताओं में बाँकपन है ।संवेदना का लोकेल अलग है ।कवि को बधाई ।

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  3. गौतम जी हर दिल अज़ीज़ हैं ... ग़ज़ल और नज़्म की दुनिया का जाना माना नाम ....
    इंसानी संवेदनाओं से लबरेज़ नज्में सीधे दिल को छूती है ...

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  4. बहुत बहुत शुक्रिया संतोष जी, इन औसत-सी कविताओं पर इतना स्नेह उड़ेलने के लिए !

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  5. बेहद अच्छी कविताएं हैं ..बधाई आपको

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  6. "खुनस और रूहानी चित्रों का सजीव पार्थिव रूप है गौतम राजरिशी की प्रस्तुत कविताएँ जिनमें अंतर्तम को झिंझोड़ने की ताकत है और कवि का अप्रतिम हुनर का नज़ारा भी। बेबसी और करुणा के तनाव से रची गई ये कविताएँ, खासकर सैनिक व्यथा 1, 2, 3 बेहद मार्मिक हैं । अंतिम कविता जो प्रेम-प्रसूत विरह-काव्य है, अपने शिल्प की व्यवस्था में लाजवाब है। इतनी सुघड़ कविताओं को पढ़वाने के लिए मैं संतोष चतुर्वेदी जी का ख़ास तौर से आभारी हूँ ।"

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