समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ



समीर कुमार पाण्डेय

यह जीवन भी अपने आप में अनूठा है. कह लें तो एक साथ कई द्वन्द भरे हुए होते हैं इस जीवन में. इस रूप में द्वन्द का दूसरा नाम ही जीवन लगता है. व्यक्ति जीने के लिए आजीवन इधर-उधर भागता फिरता है. और भागने-फिरने के बीच ही अपने लिए स्थायित्व की कामना करता है. लेकिन लगातार निर्वासित होता रहता है अपने समय-देश-काल ही नहीं खुद अपने-आप से भी.  युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय इन अहसासों को शिद्दत से महसूस करते हैं और लिखते हैं- ‘शहर में हो कर भी/ शहर का नहीं हूँ/ घर में हो कर भी बेघर हूँ / जैसे कि / देश में रह कर भी/ निर्वासित हूँ अपने समय से...।’ किसान मन की अनुभूति लिए इन कविताओं में एक सहज सी ताजगी है. तो आइए पढ़ते हैं युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ.        

समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ

कटु सत्य

'धर्मं शरणम् गच्छामि'
जब-जब लिखा
वे कन्नी काट गए
ईश्वर को हाथ जोड़ा
उनका विश्वास दृढ़ हुआ
जब किसानों की बात की
तो मेरी पॉलिटिक्स पूछी गई
संस्कृति में आस्था जतायी
तो बुराई करने लगे
जैसे ही देशभक्ति का नाम लिया
'भक्त' मान लिया गया मुझे......

जब भी बात की मैंने
शोषित-पीड़ित की
उन्हें शक हुआ
वंचित लिखने पर
बेमन से दुःख जताया
राजा के गलतियों को लिखा
उनकी भृकुटि टेढ़ी हुई
तगड़ा प्रतिरोध सामने आया
पर जब मैंने
धर्म के अंदर अधर्म की बात की
तो वे एकदम बौखला गए
फिर 'नास्तिक' मान लिया गया मुझे....

और इस तरह सरेआम
हत्या कर दी गई मेरी..........

 
सपने का मरना

सपने का मरना
ऐसा लाइलाज़ ज़ख्म है
जो आँखों से जीभ तक
जीभ से पेट तक
और पेट से सीधे मस्तिष्क तक जाता है...
समय की भाषा में समय को
और ज़ख्म की भाषा में ज़ख्म को
गाँव की कराह में समझना कठिन है
इससे निजात पाना बहुत मुश्किल
पर शिवा शांत है जैसे जलती मोमबत्ती
जैसे दर्द पीता कोई दूसरा शिव हो.....

          (2)
शिवा ने हँसुआ हाथ में लिया
लोग आदतन मुस्कराये
गले में रस्सी लपेटी
लोगों की आँखें चौड़ी हो गयी
बच्चे के सर पर गमछा रखा
फिर उनको चूमा
चूमते ही अंदर तक गीला हो गया....
रुकी हुई रुलाई जैसी चेहरे वाली
घर वाली की आँखों में विश्वास भर
निकल गया चुपचाप ओसारे से
लोग फुसफुसाने लगे थे
क्योंकि खेत उल्टी दिशा में थे…...


किसान

चइत बइशाख में
हवाओं के पोर-पोर से
टपकता है रस
जो युवाओं में जोश के साथ
बुढ़ापे में भी जान फूँक कर
हुलास भर देता है समाज में
पर आज गाँव ठंढा पड़ा है
उसका रस सूखा तो नहीं
पर बदरंग सा हो गया है
कटिया का समय है यह
जवार सोया है आराम से
जल्दी नहीं किसी को
औंधे मुँह पड़े है खेत
खलिहान के मुँह पर छाई है मुर्दानी
रो नहीं रहा कोई
जैसे मरन पड़ी हो
जहरीली गंध हवाओं में फ़ैल चुकी है
भैंस लेवाड़ लगाये बैठी है
झबरा पसरा है कउड़ की राख पर
भोला दांत कढ़वाये हँसुआ हाथों में लिए
खाट पर बच्चों के साथ चुपचाप बैठा
खाली आँखों से आसमान निहार रहा है
जैसे तलाश रहा हो जिंदगी
रेडियो पर प्रादेशिक समाचार आने वाला है..

बेबसी
मन के पाँव से मापता हूँ
शहर से गांव तक
शहर में हो कर भी
शहर का नहीं हूँ
घर में हो कर भी बेघर हूँ
जैसे कि
देश में रह कर भी
निर्वासित हूँ अपने समय से...

जब भी समय को चीरता हूँ
तो खून की जगह
शिराओं में पानी पाता हूँ
सड़ा हुआ दुर्गन्धयुक्त
डरी सहमी जमात
ईमानदारी का कचरा लिए
हतप्रभ है...
समय के भीतर मरा-मरा सा
समय के बाहर जीता हूँ
शापित सा निष्कासित जीवन...

सन्नाटे का शोर
और शोर का सन्नाटा
बहता है लहू सामान नसों में
अन्जान... मौन... अथाह
मैं अशक्त अधीर
केवल उस मुस्कराहट के लिए
समय को पटरी पर लाने की उम्मीद में
बार-बार मर कर भी
जीता हूँ एक बेबस जिन्दगी...

वह रोज मरता है
दिन में कई-कई बार
प्रत्येक क्षण
कोई अगली मौत
तिल-तिल मरते हुए
जीने की आदत सी हो गयी है उसे
कभी कर्ज मारता है
तो कभी साहूकार
कभी सरकार मारती है
तो कभी बाजार
पर प्रकृति की मार से
पस्त जवार उठ नही पाता...

 
जब भी लिखता हूँ
  
'' से लिखता हूँ 'वंचित'
उसी क्षण
मेरा द्विज
त्योरियाँ दिखाता है मुझे
मेरी जाति
साजिश करती है मेरे खिलाफ
अभिन्न मित्र
भागते हैं मेरी छाया से
छूत लग जाती है मुझे
मेरे शब्दों को छांट दिया जाता है कुजात... 

'' से लिखता हूँ 'शोषित'
एकदम
मेरे खिलाफ
खड़े हो जाते हैं अनेक सर
सुलग उठती हैं सारी वर्जनायें
फूल जाती हैं माथे की नसें
उनकी आँखें बन जाती हैं लपट
और चेहरे बन जाते हैं पत्थर ....

'' से जब भी लिखता हूँ 'किसान'
तो इसके वंचित-शोषित
होने के बावजूद
उनके चेहरे हो जाते हैं आर्द्र
और दिल काले
जो जमीन से नही जुड़े होते
बल्कि बैठे होते हैं महलों में
वे शब्दों में देते है गौरव सम्मान
उनमें किसानबोध कहीं नही होता
इस साजिश को लिखते समय
मेरे शब्दों में होती है पसीने की गंध
और भाषा में आदिम सोंधी महक....

आया वसन्त!
जमे हो तुम
पत्थरों पर
जड़ों के भरोसे
वृन्त पर जैसे खिला फूल
पंखुरिया खोले
जी भर गंध बिखेरे
तने हो सूरज से नजर मिलाये
अपने प्रतिरोध भर
जब कि
हवा है प्रतिकूल
और समय
संवेदनहीन...
कुछ
गंध से अमुग्ध
महसूस रहे
सौन्दर्य का फीकापन
बढ़े हैं
कई-कई हाथ
तोड़ने को..मरोड़ने को
जी लो मनभर
वैसे तो
चुका है वसन्त भी...

झुकना
एक सलीका है जीने का
जैसे उपर उठने की आहट
या गन्तव्य की अकुलाहट
हमें खूब मालूम है
झुकने का हुनर
ऐसे नहीं देखना है हमें
कब्र में झाँक कर
कि हृदय से गिर जाए
मनुष्यता ही फिसल कर.......
झुकते तो पहाड़ भी हैं
नदियों के संगीत से
पेड़ झुकते हैं
फलों के गुरूत्व से
मोटिहा भी झुका रहता है
खाली अंतड़ी के बल पर
पीठ पर बोरी रखे
कुछ खाली आँखों में सपने भरने के लिए....
पर ये जब खड़े होते हैं तन कर
उस वक्त इनकी हड्डियों की चटचटाहट से
आपकी हरकतें  
भाषा और व्याकरण भी
खरगोस बन जाते हैं
और वही पालतू कुत्ते
भौकते हैं आपके शब्दकोष पर....
देखिए
बादशाही ऐसे नही चलती
आप चाहें कितने भी बड़े हो जायें
पर अनर्थ पर
उँगलियाँ तो उठेंगी ही.....

कवि की दृष्टि
आँख एक सड़क है
और सड़क एक चौराहा
कवि खड़े हैं चौराहों पर अपने धर्म से बंधे
एक-एक गंध और एक-एक स्पर्श को महसूसने के लिए
गूँज और अनुगूँज के बीच
बढ़ गयी है उनकी धड़कने
आकृति, आवाज और पुकार भी...
एक लिखता है चंपा-फूल सुवास
पेड़-पौधे, पवन, आकाश...
दूसरा, समय की चट्टान पर
बिना निशान छोड़े गुजर जाता है...
जबकि तीसरा खामोश है उस बच्चे जैसा
जो रोज सो जाता है एक उजली सुबह के लिए
पर मौत खड़ी मिलती है सिरहाने उसके....


यह देश
यह देश
फूल-पत्तियों और चाँद-तारे से नहीं
वाराणसी, हैदराबाद और अजमेर से नहीं
उनकी साज-सज्जा और तड़क-भड़क से नहीं
रौनक वाली दिल्ली से तो कतई नहीं.....
यह देश
धर्म, भाषा और उनके व्याकरण  से नहीं
इन तथाकथित बुद्धिजीवियों से नहीं
उनके आपसी घिनौने विचारों और चिन्ताओं से नहीं
बुखारी और शंकराचर्यों से तो कतई नहीं...
यह देश
आजादी के बाद से
केवल एक बूँद के लिए
चोंच खोले हुए अतृप्त गाँवों से है
किसानों और मजदूरों के पसीने से उपजे अनाज 
और अंगूठे के निशान और हस्ताक्षर से है
गाँव के बेटों का सीमा पर कदमों के निशान
और उनके संगीनो की धार से है
जबकि उन्हीं कंधों पर लात रख कर
काबिज हुए सिंहासन पर बैठे लोग
नीचे देखने में भी शर्मशार हो रहे है.....

लकीरें
     
 (1)

पिता की दूध सी दाढ़ी बनाते वक्त
मैं देख रहा था उनके झुर्रियों में
बीते समय की आड़ी-तिरछी लकीरें
फूलों के खिलने और फिर उसे बचाने की जद्दोजहद की लकीरें
ताकी बची रहें हमारे चेहरे पर दूध की बूँदें
हमारे बचपन के उल्लास और खिलखिलाती भावनाओं की लकीरें ....
छत से चूती हुई बूंदों और उन दरकती दिवारों की लकीरें
खेतों की दरारों जैसी फटी एड़ियों की लकीरें
जीवन के रंगों को खींच पाने के अवसाद की लकीरें
पर उनमें सबसे गाढ़ी और गहरी थीं
भय चिन्ता की लकीरें
और बहनों के लिए की गयी कोशिशों की लकीरें...
 
         (2)

लकीरों को मिटा पाना
सम्भव नही होता आदमी के लिए
लकीरें सनद होती हैं उम्र-भर वक्त से हुए टकराव की
उस अपराध की
जिसे करने के लिए हर बार बाध्य होना पड़ता है
कुछ तो खींची जाती हैं सप्रयास
आंगन, सरहदों और नक्शों पर नापाक लकीरें
और कुछ खींच जाती है समय के चेहरे पर हमारी नादानियों से
इन लकीरों में छिपी होती हैं इतिहास की दास्तान
जो बयां करती हैं संक्रमण काल का महत्वपूर्ण दस्तावेज
लकीरें कभी अपना स्वभाव नहीं बदलती
वह हमें बांट कर छोड़ जाती हैं निशान
चेहरे पर, आत्मा पर और हमारे अस्तित्व पर.......

गाँव और किसान
       (1)

गाँव की सीमा पर खड़ा
बूढ़ा बरगद साक्षी है
कि कैसे किसान पेट काट कर
करता था धरती का श्रृंगार
वह रोपता था अपने खेतों में
बीज के साथ-साथ आंसू भी
अपनी भूख-प्यास को गिरवी रख
प्यास बुझाता था खेतों का
जैसे कि एक दुधगर गाय
फसलें दोनों लहलहाती थीं
धूर में खेलते बच्चे जैसी
एक चरी जाती थी बकरियों सांड़ द्वारा
जबकि दूसरी को सूंघता तक नही
शोक में पियराया किसान
पीता था तैयार फसल को
बरिश के अन्त तक बच्चों के साथ
उसके गोदों को खा-खा कर.......

        (2)

समय के साथ-साथ
जैसे बरगद की डालियाँ 
जड़ों में तब्दील होती रही फैल कर
वैसे ही फैलता रहा किसान का कुनबा
कस्बों, शहर और महानगर में...
बहुत कुछ बदल गया गाँव
वह कउड़ा और लोक-गीत से किनारा कर
अखबार, टी.वी. और मोबाइल के साथ
खेतों, स्कूलों और कस्बों में पहुँचा
गाँव जो अवसादों के बीच भी ख़ुश था
अब सुलगने लगा है और शांति गायब है
वह आन्दोलित हो रहा अधिकारों के लिए
उतार फेकें है उसने सदियों पुराने लबादे
गाँव के आगे बढ़ने से खुश है शहर भी
वहीं पर इस प्रगतिशीलता के इतर
कभी-कभी स्नेह, भाईचारा, रीति और गीत
ढ़ोलक और झाल के साथ बरगद की छाँव में
गाते हैं विरह के गीत बरगद के कंठ से
तब से रो रहा है सीमा पर बूढ़ा बरगद......

पिता
उनके लिए
बीती जिन्दगी के
वे तमाम क्षण
छोटे पड़ चुके हैं बहुत छोटे
जिसे जी लेते हैं
जब चाहें अतीत में जा कर....
वे तमाम दूरियाँ
जो तय की गयीं थी
उनके द्वारा अभी तक
जीवन यात्रा में
मापी जा रहीं हैं आजकल
उखड़ती साँसों और
लड़खड़ाते कुछ विचारों से ही...
वे तमाम दायरे
जिसे बनाया गया था कभी
उनके या उनके पुरखों द्वारा
सिकुड़ते जा रहे झुर्रियों की तरह
उनके द्वारा अर्जित शब्दकोश
रीतते जा रहे हैं
जबकि भावनाएं उफान पर हैं.....
और एक चिन्ता मिश्रित डर है कि
मेरे बाद कौन करेगा चौकीदारी
उनके तथाकथित साम्राज्य की
वे बहुत डरे तब दिखते हैं
जब मैं कहता हूँ कि सब ठीक है
क्योंकि
उनके लिए अधिकतर
मैं खुद
भाई, काका और पड़ोसी होता हूँ
जबकि बेटा कभी-कभी ही..............


सम्पर्क-
जनता इण्टर कॉलेज
बेहट, सहारनपुर
 
मोबाईल - 9451509252
ई-मेल – samirkr.pandey@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. Yah desh, Lakeeren aur Sapne bahut pasnd aayin..
    Sameer ji ko bahut km pdh paya. Aaj unki samvensheelta aur pratibha ka parichay in kavitaon mein paa gya...Unhe meri haardik badhai va Shubhkaamnaye!! Aabhaar Pahleebar!!
    - Kamal Jeet Choudhary

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