रामजी तिवारी की किताब 'यह कठपुतली कौन नचावे' पर आशुतोष की समीक्षा
रामजी तिवारी
ने आस्कर अवार्ड्स की एक सख्त पड़ताल की है अपनी किताब 'यह कठपुतली कौन
नचावै' में. इस किताब की एक समीक्षा लिख भेजी है युवा आलोचक आशुतोष ने. तो
आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.
कठपुतली ज़माने के विरूद्ध
आशुतोष
सम्पर्क-
कठपुतली ज़माने के विरूद्ध
आशुतोष
‘आस्कर अवार्ड्स’ यह कठपुतली कौन नचावे रामजी तिवारी की
पुस्तक बीबीसी हिंदी द्वारा जारी 2013 की सम्पादकों की पसंद में शामिल है। रामजी तिवारी की
यह पुस्तक 20-21वीं सदी की साम्राज्यवादी नीतियों का खुलासा करती है।
शासक अपने हिसाब से अपनी जनता का चुनाव भी करता है, और जब
एक बार यह सम्पन्न हो जाता है, तब यही जनता उन शासकों के इशारे पर भी नाचने लगती
है। ब्रेख्त ने भी
अपनी एक कविता में ठीक यही बात कही है। चूँकि जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है इसलिए सरकार को
चाहिए वह अपनी जनता भी चुन ले।
क्या और नहीं होता आसान
सरकार भंग कर देती जनता को
और चुन लेती दूसरी
ब्रेख्त की कविता के लहजे में जो व्यंजकता है उससे साफ है
कि यदि सरकारों की विश्वनीयता खत्म हो जाती है तो उसे जनता के बहिष्कार का सामना
करना पड़ता है। तो क्या सरकारों
की तरह कला की भी कोई विश्वनीयता होती है, जिसके ख़त्म होते ही उसे भी जनता के
बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। वस्तुतः ब्रेख्त
अपनी प्रश्नावाचकता में इसी तरफ संकेत करते हैं। विल्हेम लीबनेख्त
ने लिखा है कि जो वास्तविक कला होती है वह जनता के हितों के लिए काम करती है, जबकि
मकड़े के प्रतीक के माध्यम से शासक वर्ग की चेतना को प्रस्तावित करने वाली कला
मनुष्यता विरोधी होती है। चूँकि अभी तक
इतिहास की वर्गीयता का अंत नहीं हुआ है इस लिए कला ये वर्गीय अंतरविरोध आज भी कायम
है और इस वर्ग-विभाजित समय में कला के एक प्रारूप तथाकथित मुख्यधारा के सिनेमा के
अंतर्विरोधों को चीन्हती हुई है- रामजी तिवारी की पुस्तक ‘आस्कर अवार्ड्स : यह
कठपुतली कौन नचावे में’।
यह पुस्तक आस्कर अवार्ड की सच्चाई को उजागर करती है,
जिस अनछूए पहलू को लेखक ने उठाया है वह इस
तरीके से पहली बार देखने को मिलता है। इस पुस्तक की
चर्चा अगर हम अनुक्रम के हिसाब से करते हैं तो पहला अनुक्रम 'लाईट कैमरा एक्शन' है। इस शीर्षक के
अंतर्गत लेखक ने फरवरी और मार्च के माह में आयोजित आस्कर पुरस्कारों की भौकाल की
आलोचना को भारतीय और विश्व के सन्दर्भ में
प्रस्तुत किया है। जहाँ भारतीय
सिनेमा के 100 साल पूरा होने पर
हमने जो ढपली उठा रखी है, उसका इस पुस्तक में उल्लिखित चीजें शायद राग हो सकती है। 1957से अब तक 46 फिल्मे आस्कर में
देश की प्रविष्टि के रूप में भेजी गयी हैं। इनमें से तीन
फिल्मे ‘मदर इंडिया’, ‘सलाम बाम्बे’ और ‘लगान’ ही ऐसी हैं, जिन्हें आस्कर में
नामांकन हासिल हो सका है। बाकी 43 फिल्मे पर्यटन
करके ही लौट आयीं। इससे कुछ बात
स्पष्ट हो जाती हैं। वो ये की ये 43 फ़िल्में सही में
इस पुरस्कार के लायक नहीं थीं या कोई अन्य कारण था। देखने लायक चीज
ये है, कि यह पुरस्कार चौबीस श्रेणियों में प्रदान किया जाता है। इन चौबीस
श्रेणियों के चौरासी वर्षों के इतिहास में दस ही ऐसी हैं जो हॉलीवुड के बाहर के
देशों के द्वारा वित्तपोषित हैं। ये एक तरह से
अमेरिका और यूरोप का साँझा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है।
रामजी तिवारी |
अपने दूसरे अनुक्रम में लेखक ने सिनेमा के प्रारम्भिक तीन
मॉडल की बात की है। प्रथम दो मॉडल तो
समाप्तप्राय हो चुका है, लेकिन तीसरा जो मॉडल है, उसकी चाँदी हमें देखने को मिल
रही है। जनता भी इसका
लुफ्त उठाती नजर आ रही है। जैसा कि लेखक ने
पहले ही कहा है – सत्ता अपने हिसाब से अपनी जनता का चुनाव करती है। लेकिन इसी तीसरे
मॉडल से निकला एक नया मॉडल प्रतिरोध का सिनेमा
है, जिसको सचमुच में अपने को सिनेमा होने पर गर्व करना चाहिए और आज जरूरत इसी
सिनेमा को जनता तक पहुचाने की है।
लेखक ने आगे अमेरीकी साम्राज्यवाद के फैलाव और उसकी पृष्ठभूमि
पर निर्मित फिल्मों की बात की है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमरीकी सैनिको की
मानसिक व सामाजिक संवेदनहीनता को दर्शाता
है। अमेरिका की शोषणकारी
नीति का अंदाजा हम इराक, अफगानिस्तान इत्यादि देशों पर प्रभुत्व स्थापित करने से
लगा सकते हैं। अमेरिका ने इराक
पर बेबुनियादी आरोप लगा कर जिस तरह से अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की उसमें
वो बहुत हद तक सफल भी रहा। जबकि पूरी कायनात
जानती है कि इराक के पास एक भी परमाणु बम होता तो ये अमेरिका क्या इसके जैसे दस
अमेरिका भी इराक पर हमला करने का दुरूसाहस नहीं करते। आये दिन अमेरिका
ऐसी कोशिशें ईरान के उपर भी करता रहा है। लेकिन उसको अभी तक सफलता नहीं मिली है। इस तरह की कोशिश
अमेरिका क्यों करता है? जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं तो इसके केंद्र में एकमात्र
कारण उभर कर सामने आता है – ‘उर्जा’। ये वही अमेरिका और यूरोप हैं जिसने 1960-70 के दशक में मध्य एशिया के देशों के साथ
तेल की राजनीति शूरू किया। इस अमेरीकी साम्राज्यवाद
का असर भारत पर भी देखा जा सकता है। लेकिन परिणाम आने बाकी हैं। तब भारत कहेगा – ‘मुझे
तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने।’
दुसरें विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के पनामा, होडुरास,
ग्वाटेमाला, मैक्सिकों, चिली, निकारगुआ, क्यूबा, बोलीविया, पेरू, लेबनान, ताइवान,
कोरिया, कम्बोडिया, वियतनाम, इराक, और अफगानिस्तान जैसे देशों के खिलाफ तथाकथित सैन्य-अभियानों
से अमेरीकी नीति का अंदाजा लगया जा सकता है। कवि रघुवीर सहाय लिखते
हैं -
फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की खबर आई
न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यदा
तब कैसे मरे आदमी?
इस पृठभूमि पर बनी फ़िल्मे अमेरीकी साम्राज्यवादी नीति का
खुलासा करने वाली फ़िल्में हैं जो अमेरिका को नागवार गुजरा जिनके परिणामस्वरूप इन
फिल्मों को हाशिये पर जाना पड़ा।
आगे देखने पर हमे अमेरिका का करनी का फल उसके ही उपर 9/11 जैसे घटनाओं से देखने को मिलता है। इसी को आधार बनाकर
अमेरिका अफगानिस्तान में अपना सैनिक अड्डा बनता है। लेकिन जड़ में तो
अफगानिस्तान का एशिया में भौगोलिक स्थिति है। क्योंकि अफगानिस्तान
की सीमाएँ जहाँ एक तरफ मध्य एशिया को छूती हैं तो दूसरी तरफ उसकी सीमा चीन की सीमा
से लगी है, तीसरी ओर उसका सामीप्य पाकिस्तान और भारत के साथ भी है। इस तरह के अमेरीकी
कूटनीतिक अभियानों पर न के बराबर बनी फिल्मों को इस पुस्तक में उल्लेख किया है। इसके अलावा
पुरस्कारों के एक श्रेणी ‘विदेशी भाषा’ की फिल्मों को दिए जाने जैसे भ्रामक चीज
उजागर होती है, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है कि इस पुरस्कार पर किसका अधिकार है?
इस पुस्तक में इन-सब अमरीकी साम्राज्यवादी और यूरोपीय
महादेशों के अलावा अन्य महादेशों में मौजूद विकल्पों और प्रतिभाओं की बात भी कही
गयी है।
सिनेमा के सितारे सिर्फ हालीवुड के आकाश में ही टिमटिमाते
हैं वरन वे उन खेतों, जंगलों, नदियों, और पहाड़ों, के ऊपर भी चमकते हैं जिन्हें आप
हाशिये के बाहर का मान कर छोड़ आये है। पुस्तक के अंत में दी गयी सूची महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है।
‘आस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे’ : रामजी तिवारी
प्रकाशक – ‘द ग्रुप’, जन संस्कृति मंच, वसुंधरा, गाज़ियाबाद 201012
;
प्रकाशन वर्ष - 2013, पृष्ठ संख्या - 64, मूल्य – रु 40/
सम्पर्क-
ई-मेल : ashutoshpandy010@gmail.com
मोबाईल- 09452806335
(आशुतोष इन दिनों हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय से एम फिल कर रहे हैं.)
(आशुतोष इन दिनों हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय से एम फिल कर रहे हैं.)
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