ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएँ
|  | 
| ज्ञान प्रकाश चौबे | 
परिचय
जन्म -  18 जुलाई 1981, चेरूइयाँ, जिला-बलिया, (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड. (विशिष्ट
शिक्षा), पी-एच. डी.
(हिन्दी साहित्य)
प्रकाशन- ‘नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि’ (आलोचना)। 
संपादन- शोध पत्रिका ‘संभाष्य’ का चार वर्षों तक संपादन।
सम्मान- वागर्थ, कादम्बिनी, कल के लिए, प्रगतिशील आकल्प
आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित।
संप्रति स्वतंत्र
लेखन
प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में हम जाने-अनजाने सब कुछ खत्म करते जा रहे हैं. इस बात का ख्याल किये बिना कि क्या सब कुछ खत्म होने के बाद हम यानी मानव प्राजाति के लोग बचे-बने रहेंगे. इस सन्दर्भ में मुझे जर्मन पादरी हेनरी पाश्चर निमोलर कि वह मशहूर कविता याद आ रही है जिसमें न बोलने की परिणति अन्ततः यही होती है कि अंत में वे (यानी हत्यारे लोग) हमारे लिए आये और तब बोलने वाला कोई नहीं बचा था. युवा कवि ज्ञान प्रकाश चौबे उस अनुभूति को अपने इस समय में कविता में ढालते हुए कहते हैं 'खत्म हो रहा है/ बच्चों का फुदकना/ फूल खत्म हो रहे हैं/ खत्म हो रही है रंगों की भाषा/ नदी खत्म हो रही है/ खत्म हो रहा है धमनियों में लहू/ जंगल खत्म हो रहा है/ खत्म हो रही हैं सांसें/  इस तरह / हमारी नींद के अन्धेरे में/ खत्म हो रही है पृथ्वी' आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है गझिन अनुभूति और गहन संवेदना के कवि ज्ञान प्रकाश की  कविताएँ.  
ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएँ
ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएँ
जंगल कथा
सूरज लाल है 
लाल है हमारी आंखों में 
बंधे हुए बाजुओं की कीमत 
कि हमारी सांसे 
हमारे ही जंगल की 
ज़रखरीद गुलाम बन चुकी हैं  
हमारे पहाड़ हमारे नहीं रहे 
नहीं रही उनके चेहरे पर 
हमारे मांसल सीने की कसी हुई चमक
तेंदु के पत्तों से टपकता 
हमारी औरतों का खून
हमारे भालों बरछों लाठियों पर चमकता हुआ
लाल सलाम
हमारी भूख 
हमारी प्यास 
रात के जंगली अन्धेरे में 
बच्चों के गले से निकल कर
हमारी आत्मा की सन्तप्त गलियों में
आवारा बनी हुई
चीख रही है 
उलगुलान उलगुलान
हमारे बाहों की मछलियों के गलफड़ो में
चमकती हुई हमारी लाल होती आँखें 
महुए की तीखी गंध से सराबोर
उन्मत्त हवाओं की ताल पर
मादल की थिक-थिक-धा-धा......
धा-धा...धिक-धिक...धा के साथ
रेत बजरी के विशाल सीने पर
कोयले की कालिख में पुती 
चीखती हैं
आओ हमारे सीनो और बहन बेटियों को रौंदने वालों 
जंगल पहाड़ नदी के आँगन से 
हमारे छप्परों का निशान मिटाने वालों
तुम्हारे दैत्याकार बुल्डोजरों मशीनों की विशालता 
हमारे बच्चों की अन्तहीन चीखों से बड़ी नहीं
नहीं है तुम्हारे जेबों के कोटरों के बीच 
हमारे छोटे सपनों का भरपूर नीला आसमान
और ना ही तुम्हारी आँखों में अपनेपन का कोई अंखुआ
पूर्वजों के हथेलियों से गढे
हमारे तपे हुए सीने की कथा 
तुम्हारे विकास की गाथाओं से परे 
रची गयी है
धरती के धूसर और पथरीली ज़मीन पर
जंगलो के हरे केसरिया रंगों से 
जिनमें हमारे शरीर का नमक चमकता हुआ
तुम्हारे सूरज का मात देता है 
सुनो सुनो सुनो
जंगलवासियों सुनो
खत्म हो रहा है 
हमारे सोने का समय  
आ रही है पूरब से 
जंगल के जले हुए सीने की चीख
आ रही है चिडि़यों के जले हुए शरीर से
मानुख की गंध
हो रहा है खत्म  
मदमस्त करने वाली थापों पर नाचने का समय
आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से 
हमारे वक्त का अधूरा सूरज 
जिसकी अधूरी रोशनी में 
हमारा गुमेठा हुआ भविष्य 
हुंकारता है 
बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो 
और कहो कि समय का पहाड़
हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं 
ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद
वे और दिन थे
भरे और पके हुए 
चमकती हुई आँखों की 
रोशनी से दमकते हुए 
लहलहाते हुए 
तुम्हारी हँसी की फसलों से 
जिन्हें एकबारगी पार कर पाना
या कि काट लेना 
दूभर ही नहीं असम्भव था 
हँसने का ढोंग जरूरी न था 
ना ही जरूरत थी 
मिलने पर शिकवे शिकायत की 
सब कुछ साफ-साफ 
धुले हुए दिन 
धुली हुई रात 
यहाँ तक की सपने 
और इच्छाएं भी धूली हुई 
जुगूनुओं के दरवाजे 
भड़भड़ाते खटखटाते हुए 
रतजगे पर निकली हमारी नींद 
अपनों सपनों की तलाश में गुम 
हर सुबह मिलती 
तुम्हारे आँगन में अलसायी 
और बिताई गई दुपहरी की चोरी 
मटर के लाल नीले फूलों पर सवार 
अक्सर ही हँसी ठिठोली करते हुए 
गाँव की दहलीज तक चले आते 
बेफिक्री के पंखों पर सवार 
हमारे उम्र की चिडि़या 
नीले आसमान में तैरते हुए 
अचानक आ बैठती 
सिवान के आखिरी कोने में 
अधछायीं ओढे़ खड़ी बिलायती बबूल पर 
उसके सफेद सिन्दूरी जिलेबिया फलों को देख 
मैं कहता तुम्हारी बातें हैं लटकी 
और तुम उमेठ देती मेरे कान 
सचमुच वे और दिन थे 
ये और दिन है
नींद अन्धेरे में 
नींद होती सुबह में 
सुनता हूँ  
खिसकती हुई दुनिया की आहटें 
नींद के आँगन में 
झांक कर देखता हूँ  
पगुराते समय को 
नींद के सिवान में 
भटकाता हूँ  
रेहड़ से गुम हुई भेड़ों की तलाश में 
नींद की परछाईयों में
चटख रंग भरते हुए 
खींचता हूँ  
एक पूरे दिन का भरापूरा चेहरा 
और समय को 
बांधने की लापरवाह कोशिश करता हूँ 
नींद अंधेरे में 
लगाता हूँ  
जागते रहे की टेर
शर्मिंदा
शर्मिंदा है सूरज
कि उसका रंग लाल है 
शर्मिंदा है वनस्पतियां 
कि उनका रंग हरा है 
इस तरह 
शर्मिंदा हैं आकाश धरती 
और शर्मिंदा है 
रचनाकार 
खत्म हो रही है पृथ्वी
खत्म हो रहे हैं बाघ
साहस खत्म हो रहा है
गौरैया खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है 
बच्चों का फुदकना 
फूल खत्म हो रहे हैं
खत्म हो रही है रंगों की भाषा
नदी खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है धमनियों में लहू
जंगल खत्म हो रहा है
खत्म हो रही हैं सांसें
इस तरह 
हमारी नींद के अन्धेरे में 
खत्म हो रही है पृथ्वी
संपर्क-    
देवीपाटन, पोस्ट तुलसीपुर,
जिला- बलरामपुर (उ. प्र.)
देवीपाटन, पोस्ट तुलसीपुर,
जिला- बलरामपुर (उ. प्र.)
दूरभाषः 08303022033
ई-मेलः gyanprakashchaubey@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)


 
 
 
अच्छी कविताएं है । बधाई भाई ज्ञान प्रकाश ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संवेदनशील रचना।
जवाब देंहटाएंरचनात्मकता का इतना संवेदनात्मक साहस की कविता की पोर पोर इसकी गवाही देती है । हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि ज्ञानप्रकाश चौबे को बधाई !
जवाब देंहटाएंkhatm ho raha hai bachcho ka fudkana...
जवाब देंहटाएं