बलभद्र



लेवा



कवनो पूंजीपति घराना के उत्पाद ना ह कि एकरा खातिर कवनो सरकारी भा गैरसरकारी योजना भा अभियान चली. ई  गाँव  के गरीब मनई आ हदाहदी बिचिलिका लोग के चीज ह. एकदम आपन. अपना देहे-नेहे तैयार कइल. एकरा खातिर कवनो तरह के अरचार-परचार ना कब्बो भइल बा, ना होई कवनो टी वी भा अखबार में. ई गाँव के मेहरारुन के आपन कलाकारी के देन ह, गिहिथां के. फाटल पुरान लूगा आ धोती के तह दे के ,कटाव काटि के अइसन सी दिहली कि का कहे के. बिछाई भा ओढीं -घरे- दुवारे, खेते- खरीहाने - कवनो दिकदारी ना.

हमारा होश सम्हारे से पहिले से बा . ओकरो से पहिले से ई लेवा. तब से बा जब सुई डोरा ना रहत रहे घरे-घरे. आ लूगा-फाटा के रहत रहे टान. ई बा, तबे से बा, आ लोग-बाग ओढत बिछावत बा आज ले. बड़  बा तनी, चउकी भा खटिया भर के त लेवा, जनमतुआ के सुते लायक तनी छोट- चुनमुनिया- त लेवनी. कतो ई कटारी कहाला, कतो गेंदरा, त कतो लेढा. कायदा से जदी जो रंग विरंगा डोरा से, किनारी काट के कटावदार सियाला त सुजनी कहाला. तोसक तनी ऊँच चीज हवे, लेवा के हैसियत, बहुते उपयोगी भईला के बादो, तोसक से नीचे बा. तोसक के तार सीधा बाजार से जुड़ल बा आ लेवा के एकदम गाँव से.
जेकरा पाले पईसा आइल, जइसे-तइसे तोसकी आइल. बाकी तबो लेवा के जगह जहंवा रहे तहंवे बा. लेवा तोसक गद्दा भा ए तरह के और कुल्ही चीजन में आदमी के आर्थिक हैसियत लउक जाला.

बहुत बार त देखे में आवेला कि  तोसको ऊपर बाटे लेवा भा लेवनी. जनमतुआ कवनो सुतल बा, संभार के सुतावले बिया लेवनी. तोसक भा गद्दा आ एह लेवनी के नीचे बा पालीथीन के कवनो टुकड़ा, आ महतारी बाड़ी निश्चिंत. हगो भा मूतो. दादी सी देहले बाड़ी अनघा. एही बखत खातिर धइले बाड़ी सी-सा के. दादी के इ लेवनी परिवार के भविष्य के, मानव समाज के भविष्य के, ओकर किलकारी के दे रहल बा आकार-संभार. सुई आ धागा के एक -एक टोप समाज के, परिवार के भविष्य के प्रति  समर्पित. एक-एक टोप में सोहर के एक-एक कड़ी बा. धोती भा लूगा जवन परि गइल पुरान-धुरान, लेवा-लेवनी के रूप में ले लिहलस नया एगो रूप, धज एगो नया. अतीत होत सन्दर्भ के मिल गइल एगो सार्थक वर्तमान. आ ई वर्तमान बा संभारे में लागल मानव-समाज के निच्छल किलकारी, मनभावन क्रिया व्यापार. तीनो काल के एके जगे कइसे जोड़ जोरिया देल जाला - कइसे एक संगे ओढल-विछावल जाला - एकर अद्भुत उदहारण ह इ लेवा, ई लेवनी. दादी आ माई के तरफ से, मेहरारू समाज के तरफ से सहज एगो भेंट हवे लेवा. जतने फूहड़ ओतने सुन्दर. जतने रुखड़ ओतने चिक्कन. बाकिर सत प्रतिसत मयगर.

शेष अगले अंक में जारी...

कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखंड के गिरिडीह कॉलेज में हिंदी विभाग में अस्सिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.

टिप्पणियाँ

  1. Reading this beautiful piece 'LEWA' has rendered me almost 'word-less'.....because it is worded beautifully in my very own native tongue ...BHOJPURI...and in one's mother tongue there is no place for verbal oratory or eloquence...for whenever I try to gather a few words , they just got submerged in the surging tide of my emotions....tears fill my eyes ...getting nostalgic..leaving me not any position to comment on this my very own language piece...it is not merely a language for us ...it was the media through which we were communicated by our mothers just after our birth....thanks Santoshji...for giving me honor to write something about it...

    जवाब देंहटाएं
  2. Reading this beautiful piece 'LEWA' has rendered me almost 'word-less'.....because it is worded beautifully in my very own native tongue ...BHOJPURI...and in one's mother tongue there is no place for verbal oratory or eloquence...for whenever I try to gather a few words , they just got submerged in the surging tide of my emotions....tears fill my eyes ...getting nostalgic..leaving me not any position to comment on this my very own language piece...it is not merely a language for us ...it was the media through which we were communicated by our mothers just after our birth....thanks Santoshji...for giving me honor to write something about it...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'