प्रेमकुमार मणि की समीक्षा आज़ादी के इर्द-गिर्द : चर्चा एक किताब की 






आज़ादी के इर्द-गिर्द : चर्चा एक किताब की 


 प्रेम कुमार मणि


 

मैं आपको एक किताब के बारे में बताऊंगा, जिसे मेरी बेटी ने उपहारस्वरूप दी है। किताब का नाम है  - India Remembered. बेटी इतिहास पढ़ाती है और इतिहास के प्रति मेरे लगाव को शायद  समझती है;  इसीलिए उसने इस किताब को मेरे लिए चुना होगा। किताब पामेला मॉउन्टबेटन की लिखी है, जिसकी भूमिका उनकी बेटी इंडिया हिक्स ने लिखी है। किताब आज़ादी के इर्द -गिर्द की घटनाओं से आपको रू-ब-रू कराती है।

 


लेकिन सब कुछ जानने के लिए थोड़ी पृष्ठभूमि समझ लेना आवश्यक होगा। किताब की लेखिका पामेला, तत्कालीन गवर्नर जनरल लुइसअर्ल मॉउन्टबेटन और एडविना एश्ले की बेटी हैं। उनकी दो बेटियों में से एक, जो छोटी होने के कारण अपने माता-पिता के साथ तब दिल्ली में थीं। उनकी बड़ी बहन पैट्रिशिया विवाहित थीं। पामेला या पम्मी तब महज अठारह साल की थीं, लेकिन अपने पिता के कहे अनुसार लगभग नियमित डायरी लिखती थीं। एक चंचल-चित्त किशोरी दुनिया के इतने बड़े देश भारत के एक बड़े ऐतिहासिक मोड़ की चश्मदीद थी। वह अपने माता-पिता के साथ 22 मार्च 1947 को भारत पहुंची और 21 जून 1948 को उनके ही साथ लंदन के लिए विदा हो गयीं। इस बीच भारत विखंडित हो कर दो देश बना, औपनिवेशिक शासन से उसे मुक्ति मिली, देश ने भीषण दंगे-फसाद, खून-खराबे और लाखों लोगों-परिवारों को बिखरते-टूटते देखा और आखिर में उस आदमी की हत्या हो गयी, जो करोड़ों का नायक था। तब की दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती। पामेला ने इन सब को देखा और उसके किशोर मन में जो जैसा आया, अपने नोटबुक में दर्ज़ करती गयी.  बाद में इसी को आधार बना कर लिखा - India Remembered. शाही ब्रॉडलैंड्स आर्काइव्ज से कुछ दस्तावेजी पत्रों और खूब सारे चित्रों का इस्तेमाल इस किताब में हुआ है। लगभग आधी किताब चित्रों से भरी है।


  

1947 की पहली जनवरी को पामेला और उसका परिवार स्विट्ज़रलैंड में छुट्टियां मना रहा था कि उस के पिता लार्ड मॉउन्टबेटन को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली का बुलावा आता है। कुछ समय पहले ही 20 दिसम्बर 1946 का लिखा प्रधानमंत्री का पत्र उन्हें मिल चुका था। एटली भारत को जून महीने तक ही आज़ाद करना चाहते थे। तत्कालीन वायसराय वेवेल से वह निराश थे और कुछ सोच-समझ कर ही मॉउन्टबेटन को नया वायसराय चुना गया था। इसी जल्दबाज़ी में मॉउन्टबेटन भारत आये थे। उन्हें अपनी जिम्मेवारी का अहसास था और इस बात की फ़िक्र भी कि उन्हें अपने प्राइम मिनिस्टर की नज़रों में खरा उतरना है। 22 मार्च 1947 को वह भारत आते हैं और 24 मार्च को एक भव्य समारोह में अपने पद की शपथ लेते हैं। इसके साथ ही उनका काम शुरू हो जाता है। उनकी पत्नी एडविना भी इस पूरे काम में मॉउन्टबेटन का भरपूर सहयोग करती हैं।


 

एडविना को ले कर हमारे देश में जाने कितने किस्से हैं, जिसे ले कर एक खास तबियत के लोग चटर-फटर करते रहते हैं। नेहरू से उनके याराना-प्याराना रिश्ते थे। एडविना की बेटी ने उसे वैसे ही रखा है, जैसे वे रिश्ते थे। पम्मी को नेहरू अच्छे लगते थे और एक दफा मिस्टर नेहरू कहने के बाद वह उन्हें हिंदुस्तानी सम्बोधन मामू कहने लगी। अपने मामू और ममी के रिश्तों को पुस्तक के विस्तृत  इंट्रोडक्शन में ही एक उप शीर्षक 'A Special Relationship' के तहत लेखिका ने विवेचित किया है। नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात 1946 में मलाया में हुई थी, नेहरू वहां स्थित भारतीय लोगों की दशा देखने गए थे। मॉउन्टबेटन वहां ब्रिटिश फ़ौज के सुप्रीम कमांडर थे। सभास्थल तक जाने के लिए अंग्रेज लोग नेहरू को कोई गाडी मुहैया करने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन मॉउन्टबेटन ने तमाम औपचारिकताओं को तोड़ कर नेहरू को अपनी गाडी में साथ किया और गंतव्य तक पहुँचाया। सभा-स्थल पर भीड़ थी और उसमें  किसी ने धक्कम-धुक्की की;  नतीजतन एडविना नेहरू पर ही गिर पड़ीं। नेहरू ने उन्हें उठाया।  वह पहली मुलाकात एक प्यारी मुलाकात बन गयी। निश्चित ही पम्मी को यह घटना माँ ने ही सुनाई होगी। पृष्ठ 21 पर वह लिखती हैं - 'Towards the end of  the fifteen  month we spent in India the immediate attraction between my mother and Panditji blossomed  in to love.' 

 


 


बहुत बाद 1957 में मामू नेहरू द्वारा अपनी ममी एडविना को लिखे गए एक पत्र को भी उद्धृत किया है  -  "suddenly I realized (and perhaps you did also) that there was a deeper attachment between us, that some uncontrollable force, of  which I was dimly aware, drew us to one another, I was overwhelmed and at  the same time exhilarated by this new discovery. We talked more intimately as if some veil had been removed and We could look in to each other 's eyes without fear or embarrassment."  (पृष्ठ 22)

 

    

पंद्रह महीने का भारत प्रवास पम्मी के लिए इतना खास था कि बाद में भी वह बार-बार भारत आती रहीं। 1960 में उन्होंने  डेविड हिक्स से विवाह किया और तीन बेटियों की माँ बनीं। अपनी माँ और इंडिया से उनका लगाव उनकी बेटियों के नाम में परिलक्षित होता है। तीनों के नाम हैं - एडविना, एश्ले और इंडिया। इस किताब को लिखने के लिए सबसे अधिक उनकी बेटी इंडिया हिक्स ने उकसाया और प्रेरित किया है। इस किताब की भूमिका भी इंडिया ने लिखी है। यह है पम्मी का भारत-प्रेम।

 

इस किताब के मुताबिक पामेला की दुनिया दो भागों में बँटी थी। एक तो उसकी नितांत अपनी, जिसमें  लेडी इरविन कॉलेज में पढ़ने वाले उसके दोस्त-मित्र थे, उसका पालतू वह नेवला, जो अपनी माँ से अलग होने का संताप झेलता, आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रहा था,  लीला नन्द जो उसका बहुत ही आज्ञाकारी सेवक था,  और फिर एक खुली दुनिया थी, जिसमे फूल-पौधे, चाँद-सितारे थे। लेकिन जो दूसरी दुनिया थी, वह  सख्त और बहुत हद तक उसकी किशोर समझ से परे थी। हालाकि इसी में गांधी जी और मामू नेहरू भी थे, जो राजनीति से कभी-कभार अलग और इसलिए प्यारे-से प्रतीत होते थे। लेकिन जिन्ना और पटेल जैसी हस्तियां भी थीं,  जिन्हें उसे तो क्या, किसी के लिए भी समझना मुश्किल था। रोज ही आने वाले कोई-न-कोई राजे-महाराजे थे, जिनके पहनावे और तड़क-भड़क पम्मी का खासा मनोरंजन करते थे। इसमें पांच साल की उम्र में राजगद्दी पर बैठने वाले, तब 76 वर्षीय महाराजा कपूरथला और 6' 4" लम्बे महाराजा पटियाला किसी का भी ध्यान खींच सकते थे।


      

पामेला ने नेताओं पर छोटी, लेकिन बारीक़ टिप्पणियां की हैं। प्रतिनिधि भारतीय नेताओं को वह और उसके माता-पिता किस रूप में देखते थे,  इसका आभास इससे होता है। जैसे गांधी जी उसके अनुसार अजूबे  थे। वायसराय हाउस के कर्मचारी-चपरासी उन्हें भगवान मानते थे। नेहरू उसके लिए 'One of the wisest people I have ever met' थे, और पटेल यूनियन लीडर की धज वाले, 'pragmatic and tough' व्यक्तित्व। जिन्ना 'fastidious' अर्थात तुनकमिजाज और 'एक्स्ट्रीमली  सोफिस्टिकेटेड' ऐसे मुस्लिम नेता थे, जो अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी पहनावे के शौक़ीन थे।


   

जिन्ना उस दौर के ऐसे नेता थे, जिसने पाकिस्तान की मांग के कारण गाँधी, नेहरू, पटेल और पूरी कांग्रेस पार्टी की नींद खराब की हुई थी।  6 अप्रैल'47 को जिन्ना वायसराय हाउस आये। पम्मी ने लिखा क़ि जिन्ना और उनकी बहन के साथ डिनर लिया। उसकी माँ ने अपनी डायरी में दर्ज़ किया -'fascinating evening, two very clever and queer people,  I liked  them  but  found them  fanatical on their Pakistan and quite impractical.' (पृष्ठ 75 )


  

मॉउन्टबेटन के दिल्ली आने के पांच महीने के भीतर भारत का बंटवारा और आज़ादी सुनिश्चित कर दी गयी। जिन्ना अपनी जिद पर लगातार अड़े रहे और उन्होंने पाकिस्तान ले कर ही दम लिया।  उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में वह एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए, लेकिन भारत के सर्वश्रेष्ठ यानि सबसे उपजाऊ पंजाब, कारीगरी और सम्पन्नता के लिए प्रसिद्ध बंगाल और खूबसूरत कश्मीर के दावेदार बन गए। अंततः सबके ज्यादातर हिस्से ले भी लिए। देश का विभाजन दरअसल गिने-चुने लोगों के सनक का नतीजा था, जिससे सभी मज़हब के लोग परेशान हुए, लेकिन सबसे अधिक परेशान हुए वे, जो गरीब और मिहनतक़श तबके से थे। मॉउन्टबेटन के भारत पहुँचने के एक माह बाद ही उत्तर-पश्चिम सीमांत पर दंगे शुरू हो गए। 28 अप्रैल को पम्मी ने लिखा - 'We left  the York  and flew to पेशावर,  arriving at  government house just before lunch, Mummy and Daddy  went  immediately  on  arrival  to  see a  crowd...  who  had  assembled  from  all  over the  province  to  see  them  and  numbered  between  sixty  and a hundred  thousand. Today  Daddy  received  179  telegrams, 760 letters  and  2340  postcards.'  (p 82)


  

पम्मी लगभग रोज कुछ न कुछ लिखती थी। उन सब के ब्योरे इस किताब में हैं। इस तरह से इससे उस दौर के हलचल की जीवन्त जानकारी हमें मिलती है। 6 मई को वायसराय परिवार एक हप्ते के लिए शिमला जाता है, जहाँ मॉउन्टबेटन योजना पर नेताओं के साथ बात होनी है, खास कर नेहरू के साथ। नेहरू और दोनों मेनन (कृष्णा और पी. वी.) वहां बुलाये गए हैं। 8 मई को पम्मी लिखती है -'Pandit Nehru arrived to stay a few days. We had lunch in the garden alone  with Mr  Nehru. Evening  alone  with  Pandit Nehru.'

 

 

इंडिया हिक्स

 

पम्मी और कामों के साथ हिंदुस्तानी सीखने में भी व्यस्त थी। हालांकि उसी के मुताबिक इसकी कोई जरुरत उसे नहीं थी, क्योंकि वायसराय हाउस के सभी स्टाफ अच्छी तरह अंग्रेजी बोल-समझ लेते थे। यह सब करते आज़ादी का दिन नजदीक आता गया। इसी बीच 18 जुलाई को उसके माता-पिता के विवाह की पचीसवीं वर्षगांठ भी मनाई जाती है। एडविना की सक्रियता ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर तक पहुँच चुकी है। 17 जुलाई को मॉउन्टबेटन को लिखे एक पत्र में एडविना भी हैं -'I know too that it is well recognized that Edwina has played a great part in creating the new atmosphere .' (p 128)


   

आज़ादी और विभाजन लगभग आकार ले चुका है। उत्सव की तैयारियां दिल्ली और करांची में शुरू हो चुकी हैं। रोज-रोज नेताओं का मिलना हो रहा है। रह-रह कर फसाद की खबरें भी आती हैं। उसके पिता दंगा प्रभावित इलाकों को देखने जाते हैं। इन सब के बीच 14 अगस्त आ जाता है, जो पम्मी के अनुसार भारत की आज़ादी की असली तारीख है। गुरुवार का दिन। उसके माता-पिता पाकिस्तान के उत्सव में भाग लेने के लिए करांची जाते हैं और उसी रोज लौट आते हैं, क्योंकि नई दिल्ली के आधी रात में होने वाले जश्न में उन्हें भाग लेना है। आज़ाद भारत के वह प्रथम गवर्नर जनरल बनाये जाते हैं, जिससे वह अभिभूत-से हैं। हालांकि वायसराय के मुकाबले उनके पास अब नगण्य अधिकार हैं और अब उन्हें ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर एटली की जगह भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू के परामर्श से कुछ करना है। लेकिन आज़ाद मुल्क द्वारा दिया गया यह गौरव उनके सर आँखों पर है।

 


15 अगस्त 1947 का ब्यौरा पम्मी ने अपनी डायरी में विस्तार से दर्ज़ किया है। कोई चार पन्नों में। उसके मम्मी-डैडी के पहनावे से ले कर आम भारतियों का छलछलाता उत्साह इसमें अंकित है। भीड़ अपार थी। उत्साह से आप्लावित, लेकिन अनुशासित भी। मानो, भारतीयों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो चुका  था। नेहरू तो भीड़ से मानो खेल रहे थे। पामेला जब वहां पहुंची, तब उसे मंच तक जाना असंभव लगा। उसके मामू ने उसे देख लिया और भीड़ पर यानि लोगों के माथे पर पांव रखते हुए आगे बढे और हाथ पकड़ कर चले आने के लिए कहा। 'लेकिन कैसे चली आऊं, मैंने ऊँची एड़ी के जूते पहन रखे हैं' पम्मी ने कहा। आखिर में नेहरू ने कहा - Well, take  those shoes off, then no body will mind..'  और इस तरह भीड़ के ऊपर से बिछलती, लोगों के माथे पर पांव रखती, पम्मी मंच तक आई। भारत की जनता अंग्रेजी-शासन से नफरत करती थी, अंग्रेजों से नहीं।


    

आज़ादी के बाद भारत के लिए उत्सव मनाने का वक़्त नहीं था। उत्तर-पश्चिमी सीमांत अब पाकिस्तान  का हिस्सा हो गया था, लेकिन खून-खराबा रुक नहीं रहा था। साम्प्रदायिक वैमनस्य चरम पर था। पंजाब और बंगाल भारत के सर्वाधिक खुशहाल इलाके थे और दोनों जगह हिंसात्मक घटनाएं अपने चरम पर थीं। बंगाल और बिहार में इस हिंसा से गाँधी अकेले जूझ रहे थे, लेकिन पश्चिमी सीमांत पर पचपन हज़ार फ़ौज तैनात  थी। माउंटबैटेन के अनुसार गाँधी सफल थे और सशस्त्र फ़ौज फेल।


   

इतना ही नहीं था। शरणार्थियों की समस्या कई रूपों में थी। अनाज की पूरे देश में कमी हो गयी थी और भ्रष्ट जमाखोर कालबाज़ारिये इस नाज़ुक हालात से फायदा लेने की गंदी फ़िराक में जुटे थे। कुछ समय के लिए देशभक्ति के भाव कहीं गुम हो गए थे और लोगों के निहित स्वार्थ बलबला उठे थे। नेहरू को बहुत कुछ संभालना था। देश, दुनिया से ले कर अपने आप तक को। ऐसी घड़ी में एडविना की मनोरम-मैत्री ने निश्चय ही उन्हें सम्बल दिया होगा।


   

इस किताब में बहुत कुछ है, जिसे पढ़ कर जाना जा सकता है। किसी किताब पर लिखने का अर्थ है, उसके प्रति जिज्ञासा जगा देना। मुझे अनुभव हुआ है इस किताब से गुजरने के उपरांत मैं उस दौर को अधिक समझ सका हूँ। यह किताब इतिहास है या नहीं, मैं नहीं कह सकता। शायद नहीं है। क्योंकि इतिहास में जो विवरण होते हैं, वह सब इसमें नहीं है। लेकिन माउंटबैटेन परिवार और उसके मिजाज को जानना, खासकर एक अठारह साल की किशोरी की दृष्टि से उसे समझना, हमें उस दौर के मनोविज्ञान को समझने में सहायक होता है। और आज की दुनिया में इतिहास का आकलन केवल शुष्क विवरणों से नहीं हो सकता। डायरियां, चिट्ठियां, फ़ोन कॉल सब खंगालने होते हैं। आने वाले समय में जब हम आज का इतिहास खंगालेंगे, तब इंटरनेट से जुडी विधाएँ भी खंगालनी होंगी।

 

    

अपनी बात को गांधी जी की हत्या के दिन का विवरण बताये बिना मैं ख़त्म नहीं करना चाहूंगा। 30  जनवरी 1948  को दोपहर बाद पामेला का परिवार दक्षिण भारत की कई दिनों की यात्रा से दिल्ली लौटा था। मम्मी को छोड़ पूरा परिवार साथ था, डैडी, बहन पैट्रिसिया और बहनोई जॉन भी। जाहिर है यात्रा से थके होंगे सब के सब। शायद इसीलिए पम्मी ने पहले बस एक पंक्ति डायरी में दर्ज़ किया।

 

Friday, 30 January - We  arrived  back  in  Delhi.

 

लेकिन उसी रोज शाम के वक़्त गांधी जी की हत्या हो जाती है। गवर्नर जनरल और वह भी मॉउन्टबेटन जैसा संवेदनशील, के परिवार में क्या हुआ होगा, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। फिर से विस्तृत डायरी लिखी गयी है। शब्दशः जानने के लिए मैं बीच से हटना चाहूंगा -

 

- "Friday, 30 January

Daddy, Patricia, John and I arrived back in Delhi this afternoon from a visit to Madras, Mummy stayed on to complete her engagements. A couple of hours later I was standing in my bedroom with the radio turned on when suddenly there was an announcement : Gandhi ji had been assassinated. I couldn't believe it. I was dumbstruck, but the announcement continued. He had been shot while he was walking to his weekly prayer meeting. By now, tears were pouring down my face.

 

I had only met him a few times but I felt as though I had lost a member of my family... Bapu, the Father of the Nation, was dead. The whole of  India seemed to have come to a complete stand still with everyone engulfed by horror and grief. But my father dashed to Birla House. ...."


 

किताब की बात अब समाप्त करना चाहूंगा 240 पृष्ठों की डबल क्राउन साइज़ में आर्ट पेपर पर छपी हुई इस  किताब की कीमत एक कम, सात सौ रुपये है और इसे PAVILION  ने प्रकाशित किया है


प्रेमकुमार मणि


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