देवेंद्र आर्य की गज़लें

 

देवेंद्र आर्य

 

जिंदगी और मौत एक सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन यह जिंदगी ही है जिससे यह दुनिया रोशन है। और यह जिंदगी कई रूपों में अपनी तरह से पनपती रहती है। आगे बढ़ती जाती है। कवि तो हमेशा जिंदगी के पक्ष में ही खड़े रहते हैं लेकिन मौत के साए को भी अपनी रचनाओं में उकेरते रहते हैं। देवेन्द्र आर्य उम्दा कवि और गजलकार हैं। पिछले साल वे अपने जीवन की बड़ी त्रासदी से गुजर चुके हैं। और इस त्रासदी का अंकन उनकी रचनाओं में स्पष्टतया देखा जा सकता है। इस क्रम में वे अपने पूर्वज कवियों कबीर और गालिब की तरफ मुखातिब होते हैं। हाल ही में देवेंद्र आर्य की गजलों का एक संग्रह 'मन कबीर' न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। आज पहली बार पर हम उनके ग़ज़ल संग्रह 'मन कबीर' से दस गजलें प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं देवेन्द्र आर्य की गजलें।




देवेंद्र आर्य की गज़लें





(1)


हम जाने कैसे ख़ुद के निशाने प आ गए

सर अपना लेके अपने ही शाने प आ गए


जब यह सुना कि आप यहां आने वाले हैं

कुछ लोग फ़क़त आपके आने प आ गए


फ़ुर्सत न थी कि सांसें भी ले पाते चैन से

फ़ुर्सत मिली तो बीती सुनाने प आ गए


पहरा ज़बान पर था लगा,  बेअसर हुआ

सब बेज़बान शोर मचाने प आ गए


जंगल नदी पहाड़ हवा धूप सब के सब

आपस की रंजिशें लिए थाने प आ गए


बंदूक़ों ने सलामी दी,  जेलों ने जय किया

जब लोग अपनी जान गंवाने प आ गए


थी भूख एक पेट मगर थे अलग अलग

खेतिहर बेचारे फ़स्ल छुपाने प आ गए


आंखों में भरने लग गयी सूरज की लालिमा

प्यासे थे ख़ून के जो,  मनाने प आ गए


इनको तुम्हारी आंखों में देखा था मैंने कल

ये डोरे कैसे धान के दाने प आ गए ?



(2)


ज़िन्दगी इंसान का घर है

मौत बेघर होने का डर है


खोजते फिरते हो शब्दों में

ब्रह्म तो शब्दों के बाहर है


फ़ैसला हो और हो तो क्या

यह तुम्हारे फ़ैसले पर है


अब बचा क्या है बचाने को

आपको किस बात का डर है


आंसुओं से भी नहीं पिघला

दिल है उसका या कि पत्थर है


जब कमीशन पर हो गोयाई

हम रहें ख़ामोश बेहतर है


हो गयी है शायरी आसान

आर्या भी एक शायर है

 


 


(3)


सोचते रह गये होगा क्या

जो हुआ वो तो सोचा न था


उम्र भर श्राप जिसको दिए

मर गया तो अमर हो गया


थे दुआ में उठे सबके हाथ

और होंठों प थी बद्दुआ


यूं लगा जैसे हम मर गये

मर के जीना अचानक हुआ


दफ़्न हो जाता है आदमी

दफ़्न होता नहीं फ़ासिला


सो गया मेरे सीने में वो

ओढ़ कर आंसुओं की रिदा


कौन सी बात लग गयी उसे

मैने तो कुछ कहा भी न था



(4)


अश्क सपनों के रू-बरू आये

जैसे आंखों में आबरू आये


सब्र में सुख है, चैन है, बरकत

आप भी कीजिए शुरू,  आये 


ख़ुद को जंगल में पाता हूं तन्हा

दिल में जब तेरी जुस्तजू आये


जब कभी मन किया है मिलने का

हम गए,  उसकी फोटो छू आये


जिस्म का पैरहन उतार दूं क्या?

बारहा दिखने में रफ़ू आये


मेरी कविताओं में कबीर अक्सर

और ग़ालिब कभू-कभू आये


पस्त हिम्मत उदास बैठा हूं

तुम जो मिल जाओ तो जुनू आये





(5)


फ़लक पर नृत्य करते हैं अंधेरे

ये कैसे चित्र किरनों ने उकेरे


कलेजा धक से हो आया है मेरा

ये किसका फोन है इतने सवेरे


सदाएं इस तरह आईं हैं मुझ तक

प्रवासी हो गये अल्फ़ाज़ मेरे


घरों में मछलियों की गंध थी बस

निकल गये भोर में सारे मछेरे


मैं जाऊं तो कहां किसकी शरण में

उजड़ गये हैं तेरी आंखों के डेरे



(6)


कान मौसम के खींचने वालो

कुछ न कर पाओ तो दुआ ही करो


सुब्ह गर सुब्ह सी नहीं है तो

फिर से सूरज के बारे में सोचो


कार्ड और पिन का ज़िम्मा उनका है

पासबुक तुम सम्हाल कर रक्खो


क़ब्जियानी है चांद की धरती

अबकी प्रतिमाएं भेजेगा इसरो


यूं भी पानी की है बहुत क़िल्लत

अश्क चुल्लू में लेके डूब मरो


पीठ पीछे का ध्यान रखिएगा

मुंह प तो सब कहेंगे ओ हो हो 


बेअसर मैं रहा ज़माने से

कितना है मेरा अस्र हमअस्रो  





(7)


मिट्टी से पूछे बरसात

क्या है हम दोनों की ज़ात


धरती की देखा-देखी

आसमान में तनी क़नात


ख़र्च हुए इंसानों की

तारों से कम नहीं बिसात


राणा तो अब रहे नहीं

लेकिन ज़िंदा है मेवात


कहने को मिलती है एक

हम जीते हैं कई हयात


ज़िना किया फिर किया निकाह

प्यार मिला भी तो ख़ैरात


जब गंगा जी तन्हा हों

सुनना बिस्मिल्लाह की बात


बाक़ी सब है गिना चुना

बस कविताएं हैं इफ़रात



(8)


यह जो हिम्मत है मुस्कुराने की

मुंह दिखाई है तेरे आने की


नींद में झपकी आंखों सा हूं मैं

तू है मस्ती शराबख़ाने की


याद आने की मैं सज़ा भुगतूं

और तू मुझको भूल जाने की


खो गया दोपहर सा धूप में वो!

यार हद होती है बहाने की


आप कितना भी ख़ुद को कर लो नया

याद जाती नहीं पुराने की


आपकी दूब,  उसके पत्थर पर!

अच्छी ख़्वाहिश है दिल लगाने की


क्या ज़रूरत थी आर्या तुमको

प्यार में हौसला दिखाने की





(9)


गंदला पानी कीचड़ काई फिसलन है

पांव जमा कर जाना भाई फिसलन है


सुन कबीर गर प्रेम लुगाई फिसलन है

फिर तो ढाई की हर पाई फिसलन है


बचना, बचके चलना नयी बहुरिया सा

अब तो रिश्तों में भी आई फिसलन है


राग विराग ऋणम् कृत्वा और घृतम् पिवेत

हमने तो तहज़ीब में पाई फिसलन है


पेड़ प एंटीना वाली थोड़ी है ये

बाबू जी यह वाई फाई फिसलन है


दो हज़ार इक्कीस में आ कर भेद खुला

गांधी वाली पीर पराई,  फिसलन है


एड़ी मांज के दूर नहीं कर पाओगे

घर गिरहस्थी जमी जमाई फिसलन है



(10)


बात की बात थी सो बात आई

ऐसी भी क्या हुई है रुसवाई


एक को तो ज़रूर आना था

तुम न आते तो आती तन्हाई


ए जी सुनिए की पीठिका थी वो

तुमने जब मुझको कहा था भाई


हुस्न की क्या मिसाल दूं मैं तेरे

जैसे  ख़ामोशियां हों गदराई


तेरी सिंदूरी मांग और बिंदी

सूट पर लाल रेशमी टाई


चांद है तो तुम्हारी बाहों में

क्यों भला चांदनी है मुरझाई


तुझमें दिखता है जल्वा बेगम का

प्यार करता हूं तुझको मंहगाई



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 09450634303

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