अनिल कुमार राय का आलेख ‘आलोचक की प्रतिज्ञाएं।

  
राजेंद्र कुमार

  
प्रयाग पथ पत्रिका का हाल ही में नया अंक आया है यह अंक हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक एवम रचनाकार प्रोफेसर राजेंद्र कुमार के रचनात्मक अवदान पर केंद्रित है। किसी भी पत्रिका द्वारा किया गया यह पहला प्रयास है। प्रोफेसर राजेंद्र कुमार के आलोचना कर्म को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर अनिल कुमार राय ने एक आलेख लिखा है जो इस अंक में शामिल है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अनिल कुमार राय का आलेख आलोचक की प्रतिज्ञाएं




  
आलोचक की प्रतिज्ञाएं
                  


अनिल कुमार राय

    

राजेंद्र कुमार साहित्य और समाज के प्रश्नों, समस्याओं तथा चिंताओं के जिन विश्लेषणों और निष्कर्षों से हो  कर गुज़रते हैं, उनसे बनने वाला आलोचना का मानचित्र बड़ा भी है और विविधताओं से भरा हुआ भी संस्कृति, अर्थ, राजनीति, इतिहास, परम्परा, आधुनिकता, नवजागरण, प्रगतिशीलता, वर्ग-चेतना, विश्व-दृष्टि, औपनिवेशिक-उत्तरऔपनिवेशिक विमर्श, पूंजीवादी-साम्राज्यवादी प्रपंच आदि के बारे    में विचार करते हुए ये अपनी आलोचना का एक जरूरी और सार्थक परिप्रेक्ष्य निर्मित करते हैं।


    
राजेंद्र कुमार की आलोचना में प्रश्नों की एक पूरी श्रृंखला मौजूद होती है। यहाँ प्रश्न परस्पर सम्बद्ध ही नहीं होते, प्रायः एक-दूसरे के भीतर से निकलते और विकसित होते हुए भी दिखते हैं। राजेंद्र जी पूरी ज़िम्मेदारी और मुस्तैदी से प्रश्नों और समस्याओं की इस विराट रणभूमि में प्रवेश करते हैं तथा तर्कपूर्ण संवादों के रास्ते सुचिंतित निष्कर्षों की ओर बढ़ते हैं। इस प्रक्रिया में आलोचना की अनेक पूर्वस्थापित निर्मितियों के साथ उनके विचार सहमति-असहमति के नये और  मौलिक सम्बन्ध बनाते हैं। इन सबके बीच वे आलोचना के अनेक महत्वपूर्ण मान-मूल्यों की शिनाख्त तो करते ही हैं, खुद आलोचक को भी उसकी कुछ बेहद ज़रूरी प्रतिज्ञाओं की गंभीरता का ध्यान दिलाते हैं।


          
राजेन्द्र कुमार ध्यान दिलाते हैं कि आलोचक की प्रथम प्रतिज्ञा अपनी विश्वसनीयता की रक्षा की होनी चाहिए। विश्वसनीयता के आधारों की चिंता’ करते हुए वे कहते हैं – जिसे हम आधुनिक समाज कहते हैं, उसका पूरा का पूरा अस्तित्व अपनी पूरी सचेतनता में कहीं ज्यादा गहरे और जटिल संघर्षों का सीधा भोक्ता है - बल्कि वह इस अस्तित्वव्यापी संघर्षों से गुज़रने की प्रक्रिया में ही आधुनिकता की संज्ञा प्राप्त कर सका है। इसकी चेतना द्वंद्वात्मकता से विरहित रह ही नहीं सकती। इसीलिए न केवल इस इस चेतना की रचनात्मक अभिव्यक्ति के स्वरुप में बदलाव आता है बल्कि उसके सरोकारों के बुनियादी मूल्य-बिंदु भी तेजी से इधर-उधर होते रहते हैं। ऐसे में उसके मूल्यांकन के आधारों की विश्वसनीयता भी सर्वत्र और सर्वदा एक-सी कायम नहीं रह पाती। वह विखंडित और वियोजित भी होती रहती है तथा फिर अपेक्षानुरूप समंजित और संयोजित होने के उपक्रम में नई तरह से अर्जित या अन्वेषित की जाती है। यह प्रक्रिया केवल वर्गानुसारी ही नहीं होती, बल्कि इतनी बहुस्तरीय भी होती है कि इसे किसी एक प्रवृत्ति या प्रेरणा में सरलीकृत करके नहीं देखा जा सकता। इसीलिए इसके मूल्यांकन की बहुविध विश्वसनीयता के, अपेक्षाकृत अधिक परिशुद्धतर और वस्तुपरक आधारों की चिंता किए बिना समीक्षक का दायित्व पूरा नहीं हो सकता। यह चिंता आधुनिक आलोचना के इतिहास का प्रस्थान-बिंदु है। इसलिए हर आधुनिक आलोचक की प्रथम प्रतिश्रुति भी यहाँ यह लम्बी टिप्पणी उध्दृत करने का आशय यह है कि आलोचक की विश्वसनीयता के बारे में राजेन्द्र जी की चिंता को ही नहीं, बल्कि उसके कारणों को भी ठीक परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश की जा सके। हम अनुभव कर सकते हैं कि राजेन्द्र जी के लिए यह विश्वसनीयता अपने समय-सन्दर्भों से निरपेक्ष कोई भावगत मूल्य नहीं है। आधुनिक सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया की द्वंद्वात्मकता में आलोचक की चेतना की परिवर्तनशीलता का विज्ञान यहाँ उनकी दृष्टि में है। यह समाज के संघर्षों और सरोकारों के निरंतर बदलाव और दबाव में साहित्य और आलोचक की भूमिका के स्थिर बने रह जाने की किसी-भी धारणा का स्पष्ट अस्वीकार है। यहाँ बहुत साफ तौर पर समाज-सापेक्ष रचना और समाज-सापेक्ष आलोचना के वस्तुगत अन्तःसम्बन्धों को महत्वपूर्ण बताते हुए आलोचकों, विशेषकर प्रगतिशील आलोचकों के वर्गीय विचारधारात्मक मानदंडों की अपर्याप्तता की ओर ध्यान खींचा गया है और आलोचना की एकरैखिकता के खतरों से बचते हुए उसके आधारों की बहुस्तरीयता की ज़रूरत पर बल दिया गया है। स्पष्ट है कि राजेंद्र कुमार के अनुसार इन सन्दर्भों में कुछ ज़रूरी प्रतिज्ञाओं के बिना आलोचक की विश्वसनीयता की रक्षा सम्भव नहीं है। उनकी नजर में आज के आलोचकों की यह एक गंभीर समस्या है। इसीलिए वे इसे कई दूसरे प्रश्नों से भी जोड़ कर देखने और समझने का प्रयास करते हैं। राजेन्द्र जी विश्वसनीयता के मुद्दे को आलोचक-लेखक सम्बन्ध के सन्दर्भ में भी देखने की जरूरत अनुभव करते हैं। अपने एक लेख ‘आतंक की आलोचना : आलोचना का आतंक’ में वे आलोचकों की इस विडंबना को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं - आलोचक या तो अपने को छिपा कर समकालीन लेखकों में से किसी को चर्चा के लिए चुन लेता है अथवा फिर, चुने गये लेखकों की वास्तविक औकात को सिद्ध करने में मशगूल हो जाता है। इसीलिए वे एक सच्चे और सृजनशील आलोचक के लिए यह ज़रूरी मानते हैं कि उसे रचना और आलोचना, दोनों के वास्तविक अभिप्रायों को उद्घाटित करना होता है और इसके लिए उसे अपने कई तरह के आडम्बरपूर्ण आग्रहों से बाहर निकलना होता है। राजेन्द्र जी के मन में इस बात को लेकर जरा भी संशय नहीं है कि आलोचक किसी कृति के सर्जनात्मक मूल्यों की जगह यदि कृतिकार के साथ बनने वाले अपनी पसंद-नापसंद के व्यक्तिगत रिश्तों को मूल्यांकन का आधार बनाने लगेगा, तो कृति और कृतिकार, दोनों के साथ तो अन्याय करेगा ही, खुद आलोचक के नैतिक स्वधर्म को भी संदिग्ध बना डालेगा। यही कारण है कि वे आलोचकों को बार-बार यह याद दिलाते रहते हैं कि आलोचना के केंद्र में रचना ही होनी चाहिए, व्यक्तिगत आग्रह नहीं, भले ही वे विचारधारात्मक ही क्यों न हों! वे अपने एक अन्य निबंध ‘आलोचना और आत्मालोचना’ में भी यह चिंता कुछ इस तरह व्यक्त करते हुए मिलते हैं----किसी रचना या रचनाकार के बारे में अपने निर्णयों को लेकर आलोचक का आत्म-विश्वासी होना बेशक एक गुण हो सकता है। लेकिन जिस दिन हमारे आलोचक-प्रवर इतने आत्म-विश्वासी हो उठेंगे कि किसी भी रचनाकार को प्रतिष्ठित करने या खारिज कराने को ही अपना मौलिक अधिकार मान बैठें, वह दिन आलोचना के लिए सबसे बड़ा दुर्दिन साबित होगा। इसी निबंध में उनकी यह आशंका सच में बदलती हुई दिख जाती है - धीरे-धीरे यह भी हुआ कि कुछ आलोचक लेखकों को अपनी ओर अभिमुख करके तुरंत एक प्रलोभनकारी सम्मोहन की मुद्रा में आने की स्पृहा करने लग गये। लेखकों के बीच अपनी उपस्थिति का उन्होंने प्रभामंडल बनाया और यह आभास कराया कि श्रेष्ठता की सूची कोई भी तैयार करे, नाम तो उसमें वही-वही शामिल किए जाएंगे जिन्हें आलोचक चुनेगा। राजेंद्र जी प्रश्न उठाते हैं - समाजोन्मुख होने को प्राथमिकता न देकर एकाग्रतया आलोचकोन्मुख होने लगना प्रत्यक्ष अनुभव के स्तर पर लेखक की ग्रहणशीलता को कुंद करता है। आलोचक पर लेखक की ऐसी आत्म-हन्ता आस्था भला किस काम की? यहाँ आलोचक-लेखक सम्बन्ध की यह शिनाख्त एक भिन्न जमीन पर खड़ी है। राजेन्द्र जी इसकी चर्चा करके आलोचना की अपसंस्कृति की इस प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष चलाने की आलोचकीय प्रतिज्ञा की याद दिलाते हैं। वे आलोचकों के लिए इस विचार-क्रम में जिन ज़रूरी प्रतिज्ञाओं की चर्चा करते हैं, उनका दायरा काफी बड़ा है और वे आलोचक और लेखक के बीच के ही नहीं, आलोचक और पाठक के सम्बन्धों पर भी प्रकाश डालती हैं।

  
               
राजेंद्र कुमार की दृष्टि में  आलोचक के लिए सबसे पहले एक संवेदनशील पाठक होना जरूरी है। उनका मानना है कि आलोचक यदि संवेदनशील होगा, तो निश्चय ही वह पूर्वाग्रहों से मुक्त एक विनम्र पाठक ही होगा ज़रूरी है यह कि हर आलोचक सबसे पहले पाठक के रूप में ही रचना से मुखातिब हो। अपने सारे आलोचकीय पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त हो कर। राजेन्द्र जी के उस कथन पर भी  गौर किया जाना चाहिए, जिसमें वे खुद अपने लिए भी यह शर्त आवश्यक समझते हुए स्पष्ट करते हैं कि कहीं भी आलोचक का दम भरना उनका उद्देश्य नहीं रहा है। वे कहते हैं कि उनका यदि कोई उद्देश्य रहा है तो सिर्फ इतना कि एक धैर्यवान और संवेदनशील पाठक के रूप में उन्हें जो  अनुभूति होती रही, उसमें अन्य पाठक मित्रों को सहभागी बनाया जा सके। राजेन्द्र कुमार की नजर में आलोचक के लिए अन्य कई विशेषताओं के साथ यह ज्यादा ज़रूरी है कि वह अपनी वस्तुपरकता के लिए बाधा बनने वाले अपने अनेक तरह के आग्रहों से बाहर निकले और उसके भीतर दूसरों को भी अपनी विचार-संवेदन प्रक्रिया में शामिल करने और सहभागी बनाने की उदार जगह हो। देखा जाय तो अपने आस-पास के आलोचना–वातावरण में इसके ठीक उलट प्रवृत्तियों की मौजूदगी के बारे में यह एक गम्भीर टिप्पणी है। आग्रहों से भरी हुईं और पाठकों की परवाह न करने वालीं ये प्रवृत्तियां हिंदी में ही हों, ऐसा नहीं है। दुनिया-भर की आलोचना में इसके विरुद्ध समय-समय पर वैचारिक संघर्ष चलाए जाने के साक्ष्य और सन्दर्भ मौजूद देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में टी. एस. इलिएट की वह टिप्पणी याद की जा सकती है, जिसमें उन्होंने भी ठीक इसी तरह आलोचकों के लिए यह ज़रूरी बताया है कि उन्हें निजी धारणाओं, अहंकार और सनक से बाहर निकल कर साहित्यिकों के साथ संवाद बनाते हुए साझे निष्कर्षों तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। यही विचार ‘वाद-विवाद संवाद’ के एक निबंध में नामवर सिंह का भी है कि एक आलोचक द्वारा अपने आप से असहमति का जोखिम उठा कर भी दूसरों के साथ संभाव्य सहमति की तलाश की जानी चाहिए। राजेन्द्र जी भी ‘आलोचना और आत्मालोचना’ में यही बात कहते हुए नजर आते हैं - आलोचना की प्राथमिकताओं पर सार्थक बहस चलाते हुए, व्यक्तिगत असहमति की स्वतंत्रता के निजी अधिकार को ही नहीं, बल्कि व्यापक सहमति की वस्तुपरक संभावनाएं तलाशने की ज़रूरत को भी हमें अपनी चिंताओं के केंद्र में रखना होगा। कहना न होगा कि  असहमति के साथ ही दूसरों से सहमति की संभावनाओं के ये सन्दर्भ उस आलोचकीय प्रतिज्ञा से सम्बद्ध हैं, जिसे राजेंद्र कुमार पूर्वाग्रहों से मुक्ति और पाठकों को सहभागी बनाने की संवेदनशीलता के रूप में आलोचकों के लिए ज़रूरी बताते हैं।


      
रचना के साथ एक आलोचक का बर्ताव कैसा होना चाहिए, इस प्रश्न पर अनेक तरह से विचार किया जाता रहा है। इस प्रसंग में राजेंद्र जी कहते हैं कि आलोचक का काम रचना के शब्द-विधान या भाषा-तन्त्र को खोल कर उसका अर्थ करना नहीं, उसके अर्थ-मर्म को समझना होता है। अनुभव किया जा सकता है कि यहाँ उनकी दृष्टि अर्थ करने और अर्थ समझने के फर्क पर टिकी हुई है। यहाँ रचना में शब्दार्थ-ग्रहण से अलग अर्थ-बोध पर उनका जोर है। स्पष्ट है कि वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के अनुभव और ज्ञान इस बोध के स्रोत हैं। इस अनुभव और ज्ञान की प्रकृति अन्तःअनुशासनिक है और वह जीवन के व्यापक प्रश्नों तथा समस्याओं से जुडी हुई है। इसलिए आलोचक को इसके विस्तार और गहराई के ध्रुवान्तों के बीच संचरण करने का उद्यम करते रहना होता है। राम विलास शर्मा के आलोचना-विवेक और सौन्दर्य-दृष्टि पर विचार करते हुए  राजेन्द्र जी अपने इस वक्तव्य में यही कहना चाहते हैं - रचना को समझने में ज्यादा बड़ी बाधा यह होती है कि उसके अनुभव का जो सन्दर्भ मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन से जुड़ा होता है, उसकी सही समझदारी हमें नहीं होती। इस समझदारी के विकास के लिए इतिहास, दर्शन, भाषाशास्त्र, राजनीति और समाजशास्त्र आदि से आलोचना-दृष्टि को जोड़कर चलना अनिवार्य होता है। यही है आलोचना की मनुष्य के जीवन और परिवेश से गहन और अन्तरंग सम्पृक्ति। इसके बिना न रचना सम्भव है और न ही आलोचना। किन्तु राजेंद्र जी चिंतित हैं कि आज की आलोचना और आलोचक के सामने इस अखंडित जीवन-दृष्टि को उपलब्ध करने के रास्ते में बड़ी बाधाएं हैं। उनका मानना है कि जीवन की संज्ञान-प्रक्रिया को अनेक खंडों–उपखंडों में विभाजित कर देखने एवं ज्ञान की एकांगी विशेषज्ञता को महत्वपूर्ण बताने वाली पूंजीवादी व्यवस्था की ज्ञान-मीमांसा के विरुद्ध खड़े होने की प्रतिज्ञा के साथ ही आज का आलोचक अपना दायित्व पूरा करने की कोशिश कर सकता है। स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि में आलोचक का दायित्व इकहरा नहीं है तथा वह अपने समय की पूरी सामाजिक प्रणाली और साहित्य की संरचना के संश्लिष्ट सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है और आलोचक को इसके भीतर से गुज़र कर ही अपने प्रतिमानों की खोज सम्भव करनी होती है।



            
आलोचकों की ज़िम्मेदारी के बारे में विचार करते हुए राजेन्द्र कुमार में दुविधा और संशय के क्षण शायद ही कहीं दिखें। एक निर्भ्रांत स्पष्टता उनकी विचार-यात्रा का सहज वैशिष्ट्य है। वे साफतौर पर आलोचकों से कहते हैं कि सिर्फ रचना और रचनाकार ही नहीं, पाठक भी उनके विचार और मूल्यांकन के विषय हैं। बल्कि सतत साहित्यिक प्रशिक्षण के  भी विषय हैं। पाठक के सन्दर्भ में भी आलोचक ज़िम्मेदार है, साहित्य-क्षेत्र की ऐसी किसी आचार-संहिता की बात पर विश्वास करना सहसा कठिन लगता है। इस तरह के विचार अपने प्रति संशय पैदा करते हैं। पर राजेन्द्र जी दृढ़मत हैं और स्पष्ट कहते हैं कि आलोचक अपनी मूल्यांकनपरक निष्पत्तियों के कारण केवल लेखक के प्रति ही जवाबदेह नहीं है, बल्कि पाठक के आस्वाद, अभिरुचि, सौन्दर्यबोध या उसके समग्र साहित्य-मानस के संस्कार और निर्माण की भी ज़िम्मेदारी उसकी है। इस प्रश्न पर राजेन्द्र जी की जो चिंताएं हैं, उनका आशय समझ में आने वाला है। अपने साहित्य-वातावरण में यह अनुभव करना हमारे लिए कठिन नहीं रह गया है कि रचना और पाठक या लेखक और पाठक के बीच के रिश्ते में एक अंतराल पैदा हुआ है। लेखक और पाठक के बीच संवाद और सम्प्रेषण का जो स्वाभाविक सम्बन्ध होना चाहिए, वह बन नहीं पा रहा है। रचना अपने पाठ या अर्थ-ग्रहण की प्रतीक्षा में पड़ी है और पाठक की कोशिशों के बाद भी वह उसके लिए अरुचिकर, निष्प्रभावी या दुर्बोध बनी रह जा रही है। इन स्थितियों की व्याख्या की जानी चाहिए और संकटों के निराकरण के प्रयत्न होने चाहिए। निश्चय ही इस दायित्व के निर्वाह में आलोचक की भूमिका का कोई विकल्प नहीं है। इस भूमिका के सन्दर्भ में आलोचकों के लिए जिन प्रतिज्ञाओं का उल्लेख राजेन्द्र जी अपने निबन्ध ‘आलोचना और आत्मालोचना’ में करते हैं, उनमें से कुछेक को यहाँ थोड़ा याद कर लेना गैरज़रूरी  नहीं होगा - समकालीन हिंदी आलोचना में लेखक और पाठक के बीच संवाद की नई-नई स्थितियों को पहचानने का उत्साह विरल होता जा रहा है, इसलिए आलोचना अपने समय की गत्यात्मक प्रक्रिया में होने का प्रमाण तभी दे सकती है, जब वह रचना और पाठक के बीच बार-बार नया संवाद कायम करने की शक्ति अर्जित करती चले, और यह भी कि अच्छी आलोचना का धर्म है कि वह रूचि का परिष्कार करे। लेखक की रूचि का भी, पाठक की रूचि का भी। रूचि को परिष्कृत करने का अर्थ रूचि को मुक्त करना भी होता है। राजेन्द्र जी अपने अन्य निबन्धों में भी बार-बार यह चिंता व्यक्त करते दिखते हैं कि कविता अपनी भाषा की सादगी के बावजूद साहित्यिकों के संवेदनशील समाज से रिश्ता नहीं बना पा रही है। ‘समकालीन हिंदी कविता में रीतिवाद’ पर विचार के क्रम में भी उनकी यह चिंता प्रश्न बनकर प्रकट होती है -कविता और पाठक के बीच की दूरी आज एक तथ्य है। इस तथ्य को वस्तुगत तथ्य के रूप में लिया जाना चाहिए और कवि और पाठक के बीच परस्पर उन्मुखता की बेचैनी चाहिए। यह बेचैनी पैदा करना क्या आलोचकों की भी ज़िम्मेदारी नहीं है?


          
आलोचकों की ओर से उनकी यह आत्म-आलोचना प्रस्तुत करते हुए राजेंद्र कुमार जी उन जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों पर यहाँ नजर नहीं डाल पाए हैं, जिनके भोक्ता के रूप में एक लेखक और पाठक की तरह आलोचक भी जड़ीभूत अभिरुचियों और मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के अनुकूलन में फंस जाता है। आलोचकों को बेशक उनकी भूमिकाओं की याद दिलाई जानी चाहिए, पर खुद आलोचक किन दुश्चक्रों का शिकार है और वह अपने दायित्वों का निर्वाह क्यों नहीं कर पा रहा है, इन प्रश्नों को भी विश्लेषण का विषय बनाया गया होता, तो निश्चय ही इसके कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आते। एक-आध जगह राजेन्द्र जी इस दिशा में कुछ संकेत करते नजर आते हैं, पर व्याख्या में प्रवेश नहीं करते - रचनानुभव के साथ आलोचक जब अपने सलूक की रूढ़ियाँ ही न तोड़ पा रहा है, तो भला पाठक के सलूक की रूढ़ियाँ वह क्या तोड़ेगा? आज के आलोचक पर यह एक गम्भीर टिप्पणी है। आलोचक की यह विडम्बना अपनी व्याख्या की मांग करती है। सलूक की रूढ़ियाँ तोड़ पाने या न तोड़ पाने का प्रश्न आलोचक की व्यक्तिगत क्षमता-अक्षमता से सम्बद्ध है, या इस समस्या की जड़ें एक ख़ास सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ी हुई हैं, नये भौतिक-आर्थिक समय-सन्दर्भों में पाठक के बदलते हुए भाव-जगत के साथ भी इस समस्या का कोई सम्बन्ध है या नहीं, - ऐसे अनेक प्रश्न यहाँ उठ सकते थे और उनके उत्तर अर्थपूर्ण प्रमाणित हो सकते थे। फिर भी, राजेन्द्र जी के सन्दर्भ में यह अनुभव हमें एक गहरे संतोष से भर देता है कि खुद एक आलोचक अपनी दुर्लभ आत्म-निस्संगता के साथ इस समस्या के प्रसंग में आलोचकों की भूमिका को प्रश्नांकित करता हुआ सार्थक विमर्श के जरिये उनके दायित्व की एक ज़रूरी प्रतिज्ञा की ओर ध्यान आकृष्ट कर रहा है।


         
हिंदी आलोचना में अनेक प्रश्नों को बार-बार जांचने-समझने की परम्परा रही है। राजेन्द्र कुमार भी अनेक आलोचकों की तरह पूरी गंभीरता से यह ज़िम्मेदारी सम्भालते दिखते हैं। वे प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखकों के विचारों के प्रति भी किसी छूट या शिथिलता के पक्ष में नहीं हैं। यही कारण है कि अपने वैचारिक सहयात्रियों के साथ भी उनकी टकराहटों की गूँज सुनाई पड़ती रहती है। इनके विचारों में यह अलक्ष्य नहीं है कि वे हर हाल में साहित्य और आलोचना को अपने समय के कई तरह के जोखिमों से बचा ले जाना चाहते हैं और उसे एक ज़रूरी सामाजिक कर्म की जिम्मेदारियों से जोड़ देना चाहते हैं। राजेंद्र कुमार द्वारा प्रस्तावित आलोचकों की इन ज़रूरी प्रतिज्ञाओं को याद करने का अर्थ उन मूल्यों और दायित्वों को याद करना है, जिनके योगदान के बिना एक सुंदर समाज की रचना सम्भव नहीं है। वे आलोचना की परिधि के बाहर खड़े हो कर आलोचना की भूमिका और उसके स्वरुप के बारे में फतवे देने वाले आलोचक नहीं हैं। उनकी आलोचना की खूबी यह है कि वह बहस के लिए आमंत्रित करती है और साहित्य तथा आलोचना की समस्याओं से अन्तरंग मुलाक़ात के ज़रिये किसी साझे निष्कर्ष की तलाश के लिए हमें अपने साथ ले कर चलती है।
      

राजेंद्र कुमार के विचारों में आलोचना के मूल्यों, प्रतिमानों, प्रयोजनों, भूमिकाओं और दायित्वों से जुड़े हुए अनेक अर्थवान सन्दर्भ मौजूद हैं। इन सबसे जुड़ी हुईं इन ज़रूरी प्रतिज्ञाओं के साथ ही आज के आलोचक और उसकी आलोचना का कोई सार्थक व्यक्तित्व निर्मित हो सकता है। 



अनिल कुमार राय


 
 
 
 
 
सम्पर्क-

मोबाईल - 9415080500. 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'