आरसी चौहान की कविताएँ



आरसी चौहान


जन्म - 08 मार्च 1979, चरौवां, बलिया,. प्र.

शिक्षा- परास्नातक-भूगोल एवं हिन्दी साहित्य, पी0 जी0 डिप्लोमा-पत्रकारिता, बी. एड., नेट-भूगोल

सृजन विधा- गीत,  कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि

प्रसारण- आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से

प्रकाशन-  नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, अभिनव कदम, इतिहास-बोध, कृति-ओर, जनपथ, कौशिकी, हिम-तरू, गुफ्तगू,  तख्तो-ताज, अन्वेषी, गाथान्तर, र्वनाम,  हिन्दुस्तान सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा बेब पत्रिकाओं में 


संकेत-15 के कविता केन्द्रित अंक में कविताएं प्रकाशित


अन्य-  
1- उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य 

2- ड्राप आउट बच्चों के लिए, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की पाठ्य-पुस्तकों की कक्षा-छठी, सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान का लेखन व संपादन

3- भारतीय भाषा परिषद  के हिंदी साहित्य कोश में लेखन,

पहला खंड : उत्तराखण्ड: लोक परम्पराएं सुधारवादी आंदोलन  दूसरा खंड : सिद्धांत, अवधारणाएं और प्रवृत्तियां - प्रकृति और पर्यावरण                                                                                                          
4- “पुरवाई  पत्रिका का संपादन    
     

Blog - www.puravai.blogspot.com

किसान का नाम लेते ही हमारे सामने दीन-हीन व्यक्ति का एक बना-बनाया पुरातन चित्र हमारे सामने आ जाता है जो आज भी तमाम समस्याओं की चक्की में लगातार पिसता चला जा रहा है. विदर्भ, बुन्देलखण्ड और कालाहांडी का नाम लेते ही उतर आता है वह खौफनाक दृश्य जिसमें किसान अपनी तंगहाली से ऊब कर अपनी हत्या करने के लिए मजबूर होता है. अलग बात है कि इसे 'आत्महत्या' का नाम दे कर सरकारें और स्वयं सेवी संस्थाएँ अपना पिण्ड छुड़ा लेती हैं. आजादी के बाद भारत की एक छवि कृषि प्रधान देश की थी. किसानों के प्रयासों से कुछ ही दिनों में अपना देश अनाजों के मामले में आत्म-निर्भर हो गया और अब विकसित देश बनने की राह पर बढ़ रहा है. लेकिन एक सवाल तो है ही कि जिस देश की एक तिहाई आबादी गरीब हो, जिस देश के तमाम लोग दूसरे समय भूखे सोते हों, जिस देश के तमाम बच्चे अभी भी स्कूल तक न जा पाते हों, जिस देश में जाति-पाति अभी भी एक बड़ी सच्चाई हो, जिस देश में अटल धार्मिक कट्टरतायें हों, जिस देश में खाने-पीने-पहनने और रहने तक के ढर्रे कट्टरपंथी लोग तय करने लगे हों उसका विकसित हो पाना वास्तविकता के किस धरातल पर संभव है. बेशक आज का ज़माना बाजार और विज्ञापनों का है. टेलीविजन पर एक बाबा स्वदेशी के नाम पर बड़ी बेशर्मी से अपने उत्पाद बेच रहा है और हम तमाशाई बने हुए उसके डमरू पर नाचने के लिए विवश हैं. हकीकत तो यह है कि हमारी धार्मिक अवधारणायें हमें कुंद कर देती हैं. यह सुखद है कि इन परिस्थितियों पर आज का युवा कवि निरन्तर अपनी चौकस निगाह रखे हुए है और इन विषयों-मुद्दो को अपनी रचनाओं में ढालने का सफल एवं साहसिक प्रयत्न कर रहा है. एक रचनाकार का यह अहम् दायित्व भी है कि वह अपने समय की समस्याओं को प्रमुखता से अपनी रचनाओं के मार्फत उठाए और इस पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करे. आरसी चौहान ऐसे ही युवा कवि हैं जो यह काम कर रहे हैं और जिनकी कविताओं में एक विकास लगातार दिखाई दे रहा है. यह सुखद भविष्य की आश्वस्ति है. सौभाग्यवश मैंने शुरू से ही उनकी कविताएँ देखीं-पढीं हैं और उनके अन्दर काव्यगत विकास को अनुभव भी किया है. आज 'पहली बार' ब्लॉग पर एक अरसे के बाद पुनः उनकी कविताएँ प्रस्तुत हैं. तो आइए आज पढ़ते हैं युवा कवि आरसी चौहान की कुछ नयी-नवेली कविताएँ

        

आरसी चौहान की कविताएँ 


अकुलाया हाथ है पृथ्वी का


उसके कंधे पर
अकुलाया हाथ है पृथ्वी का
एक अनाम सी नदी
बहती है सपने में
आंखों में लहलहाती है
खुशियों की फसल
मन हिरन की तरह भरता है कुलांचें
बाजार बाघ की तरह
बैठा है फिराक में
बहेलिया
फैला रखा है विज्ञापनों का जाल
और एक भूखे कुनबे का झुण्ड
टूट पड़ा है
उनके चमकीले शब्दों के दानों पर
पृथ्वी सहला रही है
अपने से भी भारी
उसके धैर्य को
धैर्य का नाम है किसान।






नदियां


नदियां पवित्र धागा हैं
पृथ्वी पर
जो बंधी हैं
सभ्यताओं की कलाई पर
रक्षासूत्र की तरह
इनका सूख जाना
किसी सभ्यता का मर जाना है।





एक विचार

(हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं पढ़ते हुए)


एक विचार
जिसको फेंका गया था
टिटिरा कर बड़े शिद्दत से निर्जन में
उगा है पहाड़ की तरह
जिसके झरने में अमृत की तरह
झरती हैं कविताएं
शब्द चिड़ियों की तरह
करते हैं कलरव
हिरनों की तरह भरते हैं कुलांचे
भंवरों की तरह गुनगुनाते हैं
इनका गुनगुनाना
कब कविता में ढल गया और
आदमी कब विचार में
बदल गया
यह विचार आज
सूरज-सा दमक रहा है।






कितना सकून देता है


आसमान चिहुंका हुआ है
फूल कलियां डरी हुई हैं
गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है
जहां विश्व का मानचित्र
खून की लकिरों से खींचा जा रहा है
और उसके ऊपर
मडरा रहे हैं बारूदों के बादल
ऐसे समय में
तुमसे दो पल बतियाना
कितना सकून देता है।



ढाई अक्षर


तुम्हारी हँसी के ग्लोब पर
लिपटी नशीली हवा से 
जान जाता हूं  
कि तुम हो
तो   
समझ जाता हूं
कि मैं भी
अभी जीवित हूं 
ढाई अक्षर के खोल में।




संपर्क   -  

आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,  
टिहरी गढ़वाल,  
उत्तराखण्ड 249121

मोबाइल - 08858229760  
ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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