आशीष सिंह का आलेख 'ढाई दशक की हिंदी और संवेदना की ज़मीन'

 

आशीष सिंह 


किसी भी समय और समाज का साहित्य महज कल्पनाओं की उड़ान नहीं होता। साहित्य दरअसल अपने समय और समाज से ही मुखातिब होता है। उसमें अपने समय के सूत्र भी होते हैं। यह सूत्र तलाशने के लिए अंतर्दृष्टि की जरूरत पड़ती है। जहां इतिहास चुप हो जाता है वहां यह साहित्य ही अपने समय के पदचिन्हों को रेखांकित करता है। अपने सुविचारित आलेख में आशीष सिंह लिखते हैं : 'आज की कहानी किसको सम्बोधित है? किन वर्गों के लोगों को जगह दे रही है? साम्प्रदायिकता, फ़ासीवाद या राजनीतिक शक्तियों के वर्चस्वशाली स्वरूप की सही इन्दराजी करने के बावजूद कहानियों में मानवीय जीवन के चरित्र कम क्यों होते जा रहे हैं? कहानी में नैरेटर की भूमिका सूत्रधार से बढ़ कर लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में दिखाई देने को हम कैसे रेखांकित करें? क्या ऐसी कहानियाँ महज राजनीतिक रूपक गढ़ने या समय की जवाबदेही का कोरम पूरा करने में ही ख़र्च हो जा रही हैं?... समाज, जीवन या प्रकृति; जिस किसी भी रूप में कोई कहानी मानवीय दुःख, आकांक्षा और संघर्ष को अपने पात्रों, घटनाओं, विडम्बनाओं के ज़रिए पेश कर रही होती है, वह पाठकों तक कैसे पहुँचे? क्या इसके बारे में हमारे लेखक सोचने के लिए तैयार हैं? क्या ऐसा नहीं लगता कि कुछ बौद्धिक वर्ग अपने समानधर्मा बौद्धिक वर्ग तक ही अपनी भावनाओं, संवेदनाओं की पूंजी सौंपकर मुक्त हो जाना चाहता है? न स्वयं के तबके से कोई सवाल है, न अपने दायरे से बाहर जी रहे लोगों की ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव से कोई नाता। क्या ऐसा नहीं?' आलेख में इस दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण कथाकार छूट गए हैं। इसके बावजूद आशीष ने अपने इस आलेख में कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं जिस तरफ आलोचकों का ध्यान जाना ही चाहिए। बहरहाल आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशीष सिंह का आलेख 'ढाई दशक की हिंदी और संवेदना की ज़मीन'।



'ढाई दशक की हिंदी और संवेदना की ज़मीन'


आशीष सिंह



1.

सम्बोधन 


आज की कहानी पर बात करते हुए बार-बार मन में सवाल उठता है कि कहाँ से बात शुरू की जाए? कहानी से निकल रहे मनुष्य की बात की जाए या कहानी में आने से बचे रह गए मनुष्यों की बात की जाए। कहानी संवाद की विधा है। कहने-सुनने की विधा है। अकेले आदमी की दुनिया में जैसे-जैसे अन्यों की भागीदारी बढ़ती जाती है, कहने की ज़रूरत बढ़ती जाती है। वहाँ मौजूद ‘समय’ एक निर्धारक भूमिका अवश्य निभाता है। तो क्या कोई रचना अपने समय में मनुष्यों की आवाजाही दर्ज-भर करती है या कुछ और भी? यह ‘कुछ और भी’ ही कहानी को कहने लायक़ बनाती है। वह भले ही ‘मैं’ से शुरू होकर ‘हम’ में समाहित हो रही हो या अन्यों से होते हुए पाठक या श्रोता के ‘मैं’ में पर्यवसित हो रही हो। आज की कहानी पर विचार करते हुए क्या इतना कहना काफ़ी है कि एक कहानी जीवनानुभूति को साझा कर रही होती है? महज़ अनुभव या अनुभव का रेखांकन करती कहानियों में आज का ‘समय’ कितनी ज़्यादा जगह घेर रहा है? अनुभव और दृष्टि के सहमेल से बनी रचना-दृष्टि को एक पाठक कैसे देख पा रहा है, यहाँ दर्ज की गई कहानियों की कुल वजह इतनी ही है। न इससे तनिक कम न इससे तनिक ज़्यादा। हम कुछ कहानियों के सहारे कुछ प्रवृत्तियों की शिनाख़्त कर सकें कुछ ख़ासियतें पहचान सकें, और अपनी पाठकीय उत्सुकता साझा कर सकें, इन कहानियों के तट पर खड़े हो कर ‘समय’ निहारने की एक ख़्वाहिश-भर है। 


पिछले दो-ढाई दशक की कहानी-यात्रा करते हुए जब एक पाठक थोड़ा ठिठक कर सिंहावलोकन करने लगे तो उसे बदलते समय की कौन-सी तस्वीर दिखाई देती है, अर्थात कहानी में उपस्थित जीवन वस्तु-सत्य से कितना मेल खाता है और कितना बेमेल है? 


युवा कथाकार शशिभूषण की पहली कहानी ‘फटा पैंट और एक दिन का प्रेम’ याद आती है। एक छोटी-सी कहानी में अभाव, बेरोज़गारी, सपने और प्रेम के बीच तैरती स्वाभिमान की हल्की-सी लकीर कहानी को बड़ा कर देती है। यहाँ परिवेश से जो जुड़ाव है, वह वैयक्तिक प्रसंगों से इतर अन्यों की ओर महज़ सूचनात्मक लहज़े में नहीं देखता। ‘‘मौसम में ज़रा ठंडक नहीं। कड़ी धूप। उमस दिनों-दिन बढ़ रही है। खेतों से नमी जा रही है। खेत परती हो रहे हैं। वर्षा की सम्भावना मृतप्राय। ट्युबवेलों का क्या भरोसा। बिजली बराबर मिलेगी इसकी गारंटी वाला गाँव कौन-सा है?’’ एक निम्नमध्यवर्गीय खेतिहर परिवार जो खेतों में खटता है और उसकी आमदनी खेतों में ही खप जाती है। भूमंडलीय यथार्थ के इस दौर में कुछ न दे पाने वाली खेती से महज़ इसलिए जुड़े हैं कि ‘पुरखों की बनाई ज़मीन' है उसे छोड़ रखना भी नागा है। जबकि वस्तुस्थिति ऐसी है कि साल-भर एक ही पैंट रगड़ते रहने पर भी उसका फट जाना अखरता है। यह ‘अखरना’ धीरे-धीरे कर के कहानी में महज़ स्मृति का हिस्सा बनने लगी। गाँव के निम्नमध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाएँ शहर की विवेकसंगत निगाहों से देखी जाने लगीं। हिंदी कहानी में ‘प्रेम’ की अथाह भीड़ के साथ स्मृतियों ने अपनी जगह बनाना शुरू कर दिया। इन व्यक्तिगत स्मृतियों के बीच कहानी से सामूहिक स्मृतियों का विस्थापन भी जारी रहा। हालाँकि कहानीकारों ने इन वैयक्तिक स्मृति के बीच सामाजिक विभेदन करने वाले तकलीफ़देह सवालों को रेखांकित करना शुरू किया। मनोज कुमार पाण्डेय की ‘शहतूत’ और ‘कैलाश वानखेड़े की ‘घंटी’ दोनों ही स्मृति-मूलक कहानियाँ एक ही विषय को अलग-अलग ढंग से उठाती मिलती हैं। सन् 2007 के आसपास ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित ‘शहतूत’ का नैरेटर स्मृति को व्यापक सरोकारों से जोड़ते हुए कुछ इन शब्दों में अपनी बात कर रहा है, “तुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियाँ हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियाँ तुमने खोज-खोज कर इकट्ठा की हैं। सो तुम नहीं जानते इनमें से कितनी चीज़ें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थी और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं!” दुसरों की स्मृति दुर्गों में प्रवेश कर अपनी स्मृति का हिस्सा बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह जितना सहज लगता है उतना ही कलात्मक निर्वाहन में बाधक भी है। रचनात्मक अभिव्यक्ति देते हुए मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘शहतूत’ स्मृति में मौजूद एक घटना को सामाजिक प्रतिरोध का ज़रिया बनाती है। लेकिन आक्रोश की जो तीखी अभिव्यक्ति ‘घंटी’ में है वह इसमें नदारद है। ‘घंटी’ पढ़ते हुए लगने लगता है कि लेखक का विचार अपने पक्ष को मजबूत ढंग से साझा करने के लिए कटिबद्ध है। हमारे सामने दुविधा तब आती है जब प्रतिरोध का रचनात्मक इस्तेमाल वैचारिकी के बोझ से अस्वाभाविक लगने लगता है। अब सवाल सामने है कि अनुभवों का रेखांकन बनाम अनुभवों की प्रामाणिकता के बीच कहानी किस 'अलगनी पर टंगी 'रह गई है? ‘शहतूत’ जहाँ आत्मावलोकन करते हुए अनुभव व स्मृति को रेखांकित करती है  महज़ स्मृति का हिस्सा बन कर रह जाती है, ‘घंटी’ वर्ग-भेद पर हावी जातिभेद को रेखांकित करने के साथ व्यवस्थागत दूसरे अंतरविरोधों को भी उठाती  है, लेकिन अपने तयशुदा निष्कर्ष तक पहुँचने में ही ख़र्च हो जाती है। विषय प्रधान कहानियों के इस उभार के दौर में प्रतिरोध के व्यक्तिगत प्रयास भी धीरे-धीरे महज़ ‘हारी हुई लड़ाई का वारिस’ बनने को अभिशप्त नज़र आते हैं। 


मनोज कुमार पाण्डेय 


गाँव से क़स्बे या शहर की ओर प्रस्थान करते हुए समय को दर्ज करती एक कहानी ‘पुरानी कमीज़’ भी है। 'पांच का सिक्का' जैसी उल्लेखनीय कहानी के लेखक अरुण कुमार असफल की यह कहानी केन्द्रीय तौर पर समाज और समय की समीक्षा पेश करती है। वर्गीय और जातिगत दोनों स्तरों पर आत्मनिरीक्षण करती 'पुरानी कमीज़' का शिल्प, कथ्य दोनों पुरानी पीढ़ी के कथाकारों की आवाजों के ज्यादा नजदीक है। यहां महज़ संवाद अदायगी नहीं है। सिचुएशन पात्रों को एक दूसरी जमीन ला खड़ा करती है। कम ही होता है जब कोई लेखक या नैरेटर अपनी जाति को मिली सामाजिक सुविधाओं को ले कर क्रिटिकल हो, यहां है। सामान्य वर्ग की तरफ़ से जाति के दंश को झेलती और सामाजिक संघर्षों में अपने आगे ले जाने वाले तबके के जद्दोजहद को कहानी अच्छे से दर्ज करती है। वर्गीय तौर पर जीवन स्थितियाँ जातिगत रुढ़ियों के ख़िलाफ़ खड़ी मिलती हैं लेकिन वर्गीय अंतर्विरोध, प्रतिस्पर्धा दिखते ही कहीं बहुत नीचे छुपा बैठा जातिगत दंभ अपना रंग दिखाने लगता है। सोचने लायक़ बात है कि दलित परिवार का होनहार छात्र नंदलाल को हर तरह से पीछे धकेलने की कोशिश करते लोग संविधान प्रदत्त ताक़त को प्रश्नांकित करते हैं लेकिन समाज प्रदत्त ‘आरक्षण’ के सुख पर कभी बात नहीं करते हैं। जातिगत श्रेष्ठता का ही भाव है जो अपनी माँ द्वारा दी गई कमीज़ पर अपना स्वामित्व भाव त्याग नहीं पाता। पाने वाली की आँखों की चमक देखने की चाहना वर्गीय तो है, लेकिन उससे ज़्यादा जातिगत है। दलित आबादी के बीच पनप रही स्वाभाविक संघर्ष-चेतना और जीवन में परिवर्तन देखने लायक़ है। कहानीकार ने क़स्बाई जीवन-परिवेश का वर्णन ऐसे किया है कि हम उस दौर के समाज को, बदल रहे लोगों की जीवनशैली को आज देख सकते हैं। एक तरह से सभ्यता की वह पुरानी दुनिया है जिसमें जातिगत दूरी है, लेकिन सामंती मानवीय दृष्टिकोण दिखाई देता है। जबकि समानता की माँग करती नई दुनिया बाहर से रुढ़ियों के विरुद्ध लड़ती नज़र आती है जबकि वर्गीय टकराहट में जब पीछे छूटती जाती है तब उसकी झुंझलाहट देखने लायक़ होती है। यह झुंझलाहट वास्तविक है। सामान्य वर्ग के आगे बढ़े हुए अधिकांश के जीवन का वास्तविक चरित्र यही है। चरित्रों में आ रहे बदलाव को, स्वामित्व-बोध को ,कहानी दर्ज करती है। अपने पुराने खो चुके सुंदर समय को याद दिलाने को आतुर सामान्य तबके के सामने अपने भविष्य की ओर देखती दलित आबादी की संघर्षशील, स्वाभिमानी तस्वीर कहानी में झाँकती नज़र आती है। 


अरुण कुमार असफल


जाति, सामंती दृष्टि और बदलाव की नई रोशनी के बीच मौजूद मानवीय दुख को यह कहानी बेहद ख़ूबसूरती से दर्ज करती है। यह भी स्मृति की दुनिया से बाहर आई ऐसी अभिव्यक्ति है जो अपने परिवेश, वर्ग व जातिगत दंभ की आलोचना भी प्रस्तुत करती है। इसे ‘शहतूत’ और ‘घंटी’ के बीच में रख कर पढ़ने पर भाषा, प्रविधि और पाठकों तक लेखक कैसे पहुँचे आदि-आदि दूसरे सवालों पर भी विचार किया जा सकता है। सन् 2008 में लिखी गई कहानी 1980 व 1990 के बीच हो रहे सामाजिक बदलाव को दर्ज करते हुए विमर्श की चौहद्दी में घिरने से बचते हुए ज़रूरी सवालों को साझा करती है। जाति-वर्ग के अंतर्संबंधों व उसी चौहद्दी में बंधी संवेदना, स्मृतियों का कौमार्य, बदलती सामाजिक स्थितियाँ, क़स्बाई महक, सामंती करुणा बनाम आधुनिक सहृदयता का द्वंद्व, वर्णन-कौशल आदि। दरअसल हर कहानी का अपना समय होता है तदनुरूप उसकी भाषा भी होती है। क्या पुरानी भाषा, बुनावट आज के जटिल यथार्थ को दर्ज कर पाने में अक्षम है? शहर की सुविधाएँ और गाँव से साथ चलीं आई सामाजिक रुढ़ियाँ कितनी टूट रहीं, कितने तरीक़े से बचाने की कोशिश जारी है। कहते हैं कि कोई कहानी मनुष्य के दुख का दस्तावेज़ीकरण ही तो करती है। बदले हुए समय को दर्ज करती ऐसी कहानियों के पाठक कौन होंगे? जो इस भाषा, इस परिवेश और जीवनशैली से दूर-दूर तक परिचित नहीं हैं उन तक कहानीकार किस प्रविधि और भाषा में पहुँच सकता है? प्रचलित तौर-तरीक़ों से कहानी बनाई जा सकती है, लिखी जा सकती है लेकिन संबोधित करने की चुनौती लेखकों के सामने है। क्या संबोधित न कर पाने की चुनौती ही किसी कहानीकार को स्मृतियों की दुनिया में लिये चली जाती है या वैचारिक आलोड़न से भावाकुल करने की भाषाई तजवीज इजाद करने लगती है? 



(2)

       

पर्यवेक्षण 


कहानी में उपस्थित यथार्थ कैसा है? क्या आपको नहीं लगता कि हमारे आसपास मौजूद ज़्यादातर कहानियाँ घटनाओं का शाब्दिक निरूपण तक सिमट जा रही हैं? उन सूक्ष्म तंतुओं, रंग-रेशों, व चमकदार लकीरों को उभारने की कोशिश करती कौन-सी कहानी है? कुछ नया जो यथातथ्य के नीचे दबी-दबी दूब सरीखी जागने को उत्सुक हैं। थोड़ी-सी संवेदना, थोड़ी-सी आत्मीय निगाहों की छाँव मिलते ही दमघोंटू अंधेरे से बाहर आने को उत्सुक पात्रों की तलाश लेखक कर पा रहा है या नहीं? वह चाहे साम्प्रदायिकता का सवाल हो या जातिगत विभेदन का, हर चीज़ के लिए शोषित-शोषक या दृश्यमान परिघटनाओं को दर्ज-भर कर लेती कहानी कितनी कलात्मक क्यों न हो, हमारे पाठकों के साथ कितनी दूर साथ चल पाएगी; कहना मुश्किल है। कहानी में मौजूद झूठ से पीछा छुड़ाते-छुड़ाते क्या कहानीकार का झूठ सपनों या अंकुरित होते सपनों को देख पाने की, सराह पाने की दीठि से वंचित होता जा रहा है? या तो हमारी कहानी में इन घटनाओं की वीभत्स, अमानवीय तस्वीरें हैं या पिछली ज़मीन पर पंजों को टिकाकर सर्वसमावेशी समाधान देती कलात्मक प्रस्तुति। इन कहानियों के कहन, भाषाई वैविध्य में भले ही कुछ नयापन लगे, आपको वस्तु-तथ्य के तौर पर पिछली कहानियों में सुनी गई आवाज़ें, समाधान या चिन्तित भले मानुस की छवि ही दीख पड़ेगी। जिन घटनाओं से रोज़ साबका पड़ता हो, जिन घटनाओं को तमाम माध्यम क़िस्म-क़िस्म से सूचनात्मक ढंग से हमारे मनो-मस्तिष्क में पैठा रहे हों, वह सहज ही हमारी संवेदना को कैसे संवेदित कर सकती है? ऐसे में हमारा लेखक कौन-सी प्रविधि, कौन-सी भाषा और कौन-सी तकनीक अपनाये कि भोथरी होती हमारी संवेदनाएँ जाग्रत हो सकें, कुछ नई निगाहों से अपने परिवेश, अपने संबंधों और जीवन को देखने के लिए उत्सुक हों। क्या यह सवाल हमारे कहानीकार, हमारे लेखक या सजग पाठकों के बीच किसी न किसी रूप में तैर रहा है? गर हाँ, तो किस रूप में? गर नहीं, तो हम लिखने के बावजूद लिखे गए के अप्रभावी होते जाने, ऊर्जाहीन, दीप्तहीन होते जाने के बारे में कितने चिंतित हैं? क्या हमारे कथा-आलोचक या कहानीकारों की चिन्ता सिर्फ़ छूट जा रहे अंधेरे कोने, विमर्शों, या कहन के नए रंग-ढंग तक सिकुड़ने की ओर तेज गति से अग्रसर है?


श्रीधरम 


बदलते ग्राम समाज की सामाजिक संरचना और वहाँ उभरते प्रतिरोध को एक ही समय के कथाकार कैसे देखते हैं, हम उदाहरण हेतु दो कहानीकारों की कहानियाँ देख सकते हैं। अभी पिछले दिनों ‘कथादेश’ (जुलाई, 2025) ने श्रीधरम की कहानी ‘की रे हुकुम’ को दुबारा प्रकाशित किया है। क़रीब दस-पन्द्रह साल पहले प्रकाशित हो चुकी इस कहानी की पुनर्प्रस्तुति को देख कर मन में सवाल उठा कि आख़िर इसकी क्या आवश्यकता थी। क्या इसमें उठाये गए सवाल, सामाजिक स्वरूप और कहानी कहने के ढंग पर फिर से बात की जानी चाहिए? जातिगत संघर्ष, वर्चस्वशाली ताक़तों को कभी दलितों द्वारा मैरिज हाल में शादी करने पर, कभी घोड़ी चढ़कर बारात निकालने पर तो कभी किसी न किसी क़िस्म के सामाजिक ‘सम्मान’ पर आहत हो कर आक्रामक होते देखा जा रहा है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ज्यों-ज्यों बुजुर्ग होती जा रही, परिपक्व होने की जगह पुराने समयों में वापसी की ओर अग्रसर लग रही है। पश्चगामी ताक़तों और ऊँचे पायदान पर बैठी ताक़तों में ग़ज़ब की एकता दिखाई दे रही है। ऐसे में ‘की रे हुकुम!’ (श्रीधरम) और ‘उम्र तो पैंतालीस बतलाई गई थी’ (आशुतोष) कहानियाँ इस समय के एक चेहरे को पहचानने में सहायक हो सकती हैं। 


‘की रे हुकुम!’ में प्रतिशोध की वजह सामाजिक अपमान है जो प्रतिरोध की शक्ल में सतत् बरकरार है। लेकिन समाज में उनकी हैसियत कैसी है और कैसे जीवनयापन चलता है? बस एक चीज़ पता चलती है कि जिन जमींदारों का एक जमाने में बोलबाला था वे उतार की अवस्था में हैं? आज़ादी के बाद बदली हुई अवस्था में सामाजिक हैसियत वह नहीं रह गई है, उन्होंने अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति का पूंजीवादीकरण कर लिया है। वहीं दूसरी तरफ़ नान्ह कही जानी वाली जातियों को संविधान प्रदत्त अधिकारों ने जीवन की नई रोशनी दी है। वे पढ़ सकते हैं, वे आगे बढ़ सकते हैं। ‘की रे हुकुम’ का फुलवा अपने बेटे का नाम बाबू साहेब रखता है। पुरखों के जमाने से जिस जमींदार घर पर वे सब बेगारी करते रहे हैं यह नाम-धारण भी प्रतिरोध का एक तरीक़ा दिखता है। लोककथा शैली में शोषण और शोषण से लड़ते लोगों की गाथा कहते-कहते कहानी यथार्थ सामरिक स्थितियों में आ खड़ी होती हैं जहाँ वर्चस्व वाली ताक़तों के साथ ही सत्ता की दूसरी ताक़तें भी खड़ी मिलती हैं जबकि फुलवा व उसके बेटे के पास अर्जी लिखने लिखवाने या बंदूक़ के रास्ते प्रतिरोध की राह बचती है? कहानी इसी नोट पर 'द इंड' होती है। जिस सांचे-खांचे में कहानीकार ने इस कहानी को खड़ा किया है वह प्रतिरोध, प्रतिशोध व शोषण की कहानी कहता तो मिलता है, लेकिन एक फार्मूले में बंधा हुआ भी दिखता है। कहानी पढ़ते हुए कहीं नहीं पता चलता कि फुलवा व उसके जमाने के लोग जीते कैसे थे। आसपास का परिवेश, जीवन-संस्कृति कैसी है? अगर शोषण, इतिहास व सामाजिक विडम्बना के खड़े किए गए संरचनात्मक ढांचे को थोड़ी देर के लिए पीछे कर दें तो इन या ऐसी कहानियों में मनुष्य का चरित्र, समाज का चरित्र, जीवनशैली, सामाजिक-आर्थिक संस्कृति, कुछ भी का पता चल पाना मुश्किल है। दलित-दमित जातियों का भूस्वामियों व सवर्ण वर्चस्वशाली शक्तियों से जो वर्ग-संघर्ष, जाति-संघर्ष चल रहा है (अगर चल रहा है तब?) उसके पीछे की आर्थिकी क्या है? ये सब वजहें ऐसी कहानियों को स्वाभाविक ज़मीन नहीं देती हैं। लेखक की भावाकुलता हो, या आक्रोश में लिपटी वैचारिकी; जब तक सामाजिक ढाँचे के तमाम रंग-रोगन, गवाक्षों और आवाज़ों को नहीं सुन-देख पा रही है, तब तक कहानी अपने को दूसरे पाठ के लिए तैयार नहीं कर पाती है। कहते हैं कि कोई कहानी पहले पाठ में तो अपनी पठनीयता और वस्तु-विन्यास के चलते पढ़ा ले जाती है, लेकिन दूसरा पाठ उसमें निहित जीवनी-शक्ति, तर्कसंगतता और कुछ अलग दीख रही चमकती-बोलती दीठि के चलते अपने पास बुलाती है। ‘की रे हुकुम!’ वर्ग-वैषम्य व वर्ण-वैषम्य की नींव पर खड़ी है। तद्जनित प्रतिशोध, प्रतिरोध की भावना हमें प्रभावित तो करती है, लेकिन कहानी जीवन, कार्य-कारण की संगति और वस्तुस्थिति से ज़्यादा लेखकीय नज़रिए पर टिकी हुई है। यह नज़रिया जब जीवन गतिकी के ज़रिए हमारे बीच आता, तो बात दूसरी होती। लेकिन ऐसा घटित हुआ नहीं।


आइए इसी विषय पर जुलाई, 2013 के ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित कहानी ‘उम्र तो पैंतालीस बतलाई गई थी’ से थोड़ी मुलाक़ात करते हैं।


‘उम्र तो पैंतालीस बतलाई गई थी’ में उच्च और निम्न जाति के बीच मौजूद एकता और संघर्ष की वास्तविक ज़मीन पाठकों के सामने उपस्थित होती है। उच्च वर्गों व उच्च वर्ण की सामाजिक हैसियत में आ रही तब्दीली, भू-उपयोग की बदलती परिस्थिति, धर्म-कर्म व वर्ण का आपसी सहमेल, रणनीतियों को बहुत रोचक ढंग से कहानी सामने लाती है। उच्च व निम्न जाति के बीच सामाजिक अंतर्विरोध के साथ आर्थिक अंतर्विरोध को रेखांकित करती है। यह आर्थिकी ही है जो सामाजिक हैसियत को, तथाकथित सामाजिक संस्कृति को टक्कर भी दे रही है और सहायक भी बन रही है। आज़ाद भारत का एक रूपक बन कर यह कहानी हमारे बीच उपस्थित है। यह ‘कुछ चीज़ों और कुछ लोगों को बड़ा बनाने में बहुत सारी चीज़ें व बहुत सारे लोगों के बहुत नीचे गिरते जाने की कहानी है। भोग-विलास में डूबे कल के समृद्ध शक्तियों के अधोपतन में जाने के साथ तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने को प्रयासरत दमित-दलित जातियों के मन में अंकुरित हो रहे सपनों को यह कहानी सामने लाती है। कथा का नायक डोम जाति में जनमा होनहार बालक बाल्मीकि है। जो पढ़ना चाहता है। अछूतों में भी अछूत समझे जाने वाले ‘डोम’ से ‘मनुष्य’ के रूप में पहचाने जाने के लिए प्रयासरत है। लेकिन बाल्मीकि जैसे तमाम शूद्र जातियों से आ रहे बच्चों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए स्कूलों में बैठे ‘पंडीजी और बड़े साहब’ इस व्यवस्था में क़दम-क़दम पर बैठे हैं। बदलते गाँवों की संस्कृति, जीवन शैली और आर्थिक तौर पर आपसी निर्भरता के तमाम रूपों को कहानी हमसे साझा करती है। “बाल्मीकि के पिता मंगरू का तीन-चार गाँवों का हलका था। बांस की टोकरियों, सूपड़ा, डगरा, बेना जैसी रोज़मर्रा की चीज़ें बनाना और बेचना उनका काम था। इन चीज़ों के लिए नकद पैसे की जगह लोग उन्हें चावल, आटा, आलू आदि देते थे। पूर्णतः भूमिहीन डोम जाति गाँव में सामाजिक संरचना का तल होते हैं क्योंकि इनसे नीचे और कोई जाति नहीं होती। गाँव के पारम्परिक अनुष्ठानों में डोम जाति के लिए कुछ काम निर्धारित थे, जैसे लड़के के विवाह में ‘डाल’ बनाना, लड़की की विदाई के समय मिठाई रखने के लिए ‘झपोली’ बनाना और मृत्यु के समय ‘आग’ उठाने का काम उसी डोम को करना पड़ता था। इन सबके लिए डोम नेग माँगते थे अपने मन का, पर लोग देते थे अपने मन का।” 


ऐसे ही किसी ‘नेग’ में बाल्मीकि के पिता को बाबू साहेब लोगों के परिवार ने वास हेतु ज़मीन दे दी थी। लेकिन समय गुज़रता है जहाँ ख़ूब खेतीबाड़ी थी, रौबदाब था, बड़े वाहन जिस कोठी के आगे शोभा बढ़ाते थे, भोग-विलास के शौक ने धीरे-धीरे सब रौनकें खतम कर दीं। अब ‘नेग’ में दी गई ज़मीन पर निगाहें टिकी हैं, उस पर बसी झोपड़ी जो बाल्मीकि जन्मजात आशियाना रही उजाड़ दी जाती है।  लोकतांत्रिक व्यवस्था में पल रही पतित सामंती अभिव्यक्तियों,  पूंजीवादी रूपांतरण के साथ   उभरती नई सामाजिक शक्तियों,  के छिटपुट उभारों को यह कहानी सामने लाती है ।  समाज के सबसे उच्चतम पायदान की स्त्री और सबसे निचले तल पर खड़े युवक के बीच पनपते प्रेम में लेखक ने किसी क़िस्म से ‘जातिगत प्रतिरोध’ का मसाला डालने की अतिरिक्त कोशिश नहीं की  है। कथा-संरचना में स्वाभिमान, गरीबी किस तरह एक-दूसरे में विन्यस्त है यह तो दिखता ही है, साथ ही बचाव के लिए किसी समांतर कथा , लोककथा का सहारा लेने की कोशिश भी नहीं है। एक ही विषय पर एक ही समय में दो अलग-अलग कथाकारों द्वारा ग्रामीण जीवन में उभरते, बदलते व जनमते संघर्ष को जिस तरह से देखा गया है क्या उसकी अनदेखी वाजिब है?



श्रद्धा थवाइत 


3.         

यथार्थ 


इधर की कहानियों में जो स्त्री-पुरुष संबंधों, वृद्धों की स्थिति, विकलांग, समलैंगिक, किन्नरों के जीवन-संघर्ष, जाति प्रश्न, साम्प्रदायिक शक्तियों के उभार, फ़ासीवादी राजनीतिक ताक़तों के तमाम चेहरों की शिनाख़्त करती कहानियाँ बहुतायत में हैं। वहीं दूसरी तरफ़ पर्यावरण, प्रकृति के अबाध-दोहन, मानवेत्तर प्राणी जगत, मज़दूर वर्ग, घुमन्तू लोगों, दिहाड़ी, पीस रेट पर काम कर वाले लोगों, रिक्शा वाले, स्वीगी, ज़मैटो आदि तमाम एक जगहों पर मिनट/सेकेंड तक की देरी पर जोखिम उठाते लोगों की कहानी फुटकर तौर पर देखने को मिल सकती है। कहानी का केंद्रीय वर्ग मध्यवर्ग, उच्च मध्यवर्ग और बहुत हुआ तो निम्न-मध्य वर्ग तक सिकुड़ा-सिमटा दिखाई देता है। इक्कीसवीं सदी के पहली दहाई में बेरोज़गारी जैसे सवाल कहानियों में कुछ जगह पा जा रहे थे, लेकिन बाद में जिस तरह लोगों की ज़िंदगी में जद्दोजहद बढ़ी है, बेरोज़गारी एक व्यापक परिघटना के तौर पर समाज में जगह बना चुकी है। तद्जनित दूसरे क़िस्म के सामाजिक-राजनीतिक अपराधियों को लाभ मिल रहा है। इन विषयों पर कहानियों की तलाश करनी पड़ सकती है। क़र्ज़ में डूबे, ईएमआई के सहारे उपभोक्ता सामग्रियों का उपभोग करते मध्यवर्ग के ‘दुख’ और महज दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने में ही खप जाती तलछट की आबादी के सुख-दुख से हिंदी कहानी कितनी निकट और कितनी दूर है, यह जाँच का विषय है। अगर विषय के तौर पर हम देखें तो सामाजिक भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, पारिवारिक संबंधों में विघटन, सामाजिक राजनीतिक शक्तियों व वर्चस्वशाली वर्गों की अमानुषिक कारगुजारियों का रकबा बढ़कर है। राष्ट्रीय औद्योगिक क्षेत्रों, कारखानों और यहाँ तक कि संगठित पेशेवर वर्किंग क्लास के हिस्से में भी आज की हिंदी कहानी की हिस्सेदारी महज कुछ बिस्वे में ही मिल जाए तो भी कम नहीं है!


ऐसा क्यों है? जिस देश में कुल वर्किंग क्लास का लगभग चालीस प्रतिशत औद्योगिक मज़दूरों का है। इसमें असंगठित मज़दूरों और फूटलूज लेबर का आकंड़ा जोड़ दिया जाये तो आधे से ज़्यादा हो जाएगा। उसके जीवन-संघर्ष, सपनों की उपस्थिति कहानी में खोजनी पड़ती है जबकि मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग के एकांत की पीड़ा, आत्मनिर्वासन और संबंधों से मुक्ति तलाशती आबादी के तमाम अक्स अपनी उपस्थिति लिये मिलते हैं। 


आज की कहानी किसको सम्बोधित है? किन वर्गों के लोगों को जगह दे रही है? साम्प्रदायिकता, फ़ासीवाद या राजनीतिक शक्तियों के वर्चस्वशाली स्वरूप की सही इन्दराजी करने के बावजूद कहानियों में मानवीय जीवन के चरित्र कम क्यों होते जा रहे हैं? कहानी में नैरेटर की भूमिका सूत्रधार से बढ़ कर लेखकीय हस्तक्षेप के रूप में दिखाई देने को हम कैसे रेखांकित करें? क्या ऐसी कहानियाँ महज राजनीतिक रूपक गढ़ने या समय की जवाबदेही का कोरम पूरा करने में ही ख़र्च हो जा रही हैं? 


समाज, जीवन या प्रकृति; जिस किसी भी रूप में कोई कहानी मानवीय दुःख, आकांक्षा और संघर्ष को अपने पात्रों, घटनाओं, विडम्बनाओं के ज़रिए पेश कर रही होती है, वह पाठकों तक कैसे पहुँचे? क्या इसके बारे में हमारे लेखक सोचने के लिए तैयार हैं? क्या ऐसा नहीं लगता कि कुछ बौद्धिक वर्ग अपने समानधर्मा बौद्धिक वर्ग तक ही अपनी भावनाओं, संवेदनाओं की पूंजी सौंपकर मुक्त हो जाना चाहता है? न स्वयं के तबके से कोई सवाल है, न अपने दायरे से बाहर जी रहे लोगों की ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव से कोई नाता। क्या ऐसा नहीं?


कहानी में मज़दूर तबके की उपस्थिति का सवाल या हाशिए की ज़िंदगी जी रहे लोगों की भागीदारी कम से कम क्यों होती जा रही है? कहानी में मौजूद आम आदमी का वर्ग क्या है? कहानी में वर्ग चरित्र का सवाल अस्मिता विमर्श या साम्प्रदायिक समस्या को चुनौतियों के तौर पर लेते कहानीकारों के यहाँ किस रूप में है? आज की कहानी के समग्र परिदृश्य पर जब हम निगाह दौड़ाते हैं तो हमारे सामने चंद कहानीकारों की कहानियाँ ही दीख पड़ती हैं। हरि भटनागर, मदन मोहन, सत्यनारायण पटेल, रामजी यादव, संदीप मील, श्रद्धा थवाइत, प्रज्ञा आदि कुछ ही नाम मिलते हैं जो अपनी पहचानी हुई चौहद्दी से बाहर महज झाँक कर नहीं रह जाते बल्कि उस जीवन में प्रवेश करने की कोशिशें करते हैं। 


हरि भटनागर


हरि भटनागर के खाते में ऐसी कई कहानियाँ हैं जो अपनी तयशुदा वर्गीय दायरे से बाहर आ कर ‘तल’ वर्गीय जीवन को देखने-दिखाने का जोखिम उठाती हैं। निम्न-मध्यवर्ग की कमीनगी, होशियारी, आत्मग्लानि और तलवर्गी जीवन-यापन करने वालों की ज़िंदगी के स्वाभाविक चरित्र इन कहानियों में देखने को मिलते हैं। फुटपाथ पर, झुग्गियों में जीने वाले, सब्जी ठेला, बिजली मैकेनिक, सर्कस आदि तमाम एक तरह गुज़र-बसर करने वालों की ज़िंदगी से हरि भटनागर के कथा पात्र जीवंत सम्पर्क में रहते-जीते मिलते हैं। और सबसे ख़ूबसूरत बात यह है कि मध्यवर्गीय लेखकों की तरह हरि भटनागर के यहाँ इन गरीब लेकिन इज़्ज़त के साथ जीने वाले लोगों को मासूम, भले मानुस बना कर कतई पेश नहीं किया गया है। ये अपने काम की क़ीमत समझते हैं और काम लेने वाले बाबू लोगों की होशियारी भी। ‘आंच’ का बिजली मैकेनिक जगदीश लेखक द्वारा अपना मेहनताना न दिए जाने पर जिस तरह से अपना प्रतिकार प्रकट करता है, वह महज व्यक्तिगत प्रतिकार बन कर नहीं रह जाता बल्कि पूरे मध्यवर्ग को कटघरे में ला खड़ा करता है। 


रामजी यादव की कहानी ‘अथकथा-इतिकथा’ ग्रामीण जीवन में प्रवेश कर रही पूंजी के चरित्र, बेरोज़गारी, बहुत निचले संस्तर तक पहुँच चुकी सत्ता के दोहरे चेहरे का शिनाख़्त तो करती ही है साथ ही अंदर ही अंदर खदबदाते विक्षोभ की इन्दराजी भी करती है। 


ट्रेड यूनियन, जाति व शहरों-क़स्बों में उभरते नए शक्ति-केंद्रों की बाबत मदन मोहन की ‘हारु’ देखने लायक़ है। यह कहानी वर्ग-जाति के अंतर्विरोध और पहचान की राजनीति के ज़रिये सत्ता में आई दलित आबादी के वर्ग-चरित्र का खुलासा करती है। जातिगत पहचान और जातियों के बीच वर्चस्व की ऐसी कहानियाँ कम ही देखनी को मिलती हैं। पहचान को आधार बनाकर मैदान में आ खड़ी नई नेतृत्वकारी जमात के प्रतिनिधि अंततः शासक वर्ग के किसी एक धड़े के हिस्से बनकर रह जाते हैं। यहाँ अस्मिता या पहचान का सवाल सामाजिक वस्तु सत्य से टकराते हुए वैकल्पिक ताक़त के रूप में आने की बजाय अपने को परम्परागत तंत्र के लिए अनुकूलित करता दिखता है। वस्तु स्थितियों और घटना-क्रम की बुनावट इस तरह से है कि यह कहानी अपने साथ वर्ग-जाति के अंतर्विरोध, वर्चस्व के लिए निम्न जातियों में आपसी संघर्ष, ट्रेड यूनियनों में पसरता अवसरवाद के साथ मुख्यधारा की राजनीति में मज़बूत पैठ बना चुके ‘बिना सफ़र के सफल’ लोगों की तादाद को उघार करती है। एक तरह से यह कहानी जहाँ दलित नेत्तृत्व के ‘सवर्णीकरण’ का सवाल उठाती है तो साथ ही वर्चस्व-पहचान की राजनीति के पीछे उपस्थित चेहरों की असलियत भी बताती है।


प्रज्ञा


प्रज्ञा के पास संघर्षशील मेहनतकश स्त्रियों की कहानियाँ तो हैं लेकिन उन्हें कहानी बतानी पड़ती है, वे कहानियाँ कहती कम हैं। लेकिन वे ‘रज्जो मिस्त्री’ जैसे पात्रों के सहारे रिक्शा मज़दूर, पेंट पालिश वाले, बढ़ई, ठेले ढोने वाले, घरों में सफाई करने वाली औरतों की झुग्गी-बस्तियों तक पहुँचती हैं। उनके बीच से कहानी जुटाने की कोशिशें करती हैं। ‘ढोल ढकेल’ के प्रह्लाद चंद्र दास हों या ‘पनही’ के सत्यनारायण पटेल; इनके खाते में सामाजिक पायदान पर सबसे निचले स्तरों पर जीने वाले लोगों के जीवन में आ रहे बदलाव की कोशिशों की कहानियाँ हैं। 


गाँवों से शहरों की ओर प्रस्थान करते खेतिहर मज़दूरों को शहर कैसे लीलता जा रहा है, इस विषय पर रामकुमार तिवारी की कहानी ‘कुतुबपुर एक्सप्रेस’ देखी जानी चाहिए। एक तरफ़ यह कहानी ग्रामीण जीवन के सामुदायिक उत्सवों, प्रकृति को ले कर आह्लादित है, तो वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली की ओर जाते हट्टे-कट्टे नौजवानों के अस्थिपंजर में बदलते जाने पर सवालिया निशान लगाता है। बेहद ख़ूबसूरती से गाँव के उत्सवों, ख़ासकर नृत्य, में युवकों की भागीदारी को प्रस्तुत करती है। शहर की तरफ़ धीरे-धीरे जा रहे युवकों और अपनी परम्परागत संस्कृति से कट जा रहे जीवन को कहानी अपना विषय बनाती है। 'कुतुबपुर एक्सप्रेस' एक रेल का नाम है। गांवों और कस्बों से हो कर गुजरने वाली रेलों  ने भारतीय समाज को कितना बदला है। सामाजिक जड़ता, ठहराव और नई दुनिया से पहचान कराने में इसकी क्या भूमिका रही है, हिन्दी समाज और हिन्दी कहानी में इस विषय को ले कर एक जरूरी बातचीत हो सकती है। फिलहाल इस कहानी को पढ़ते हुए एक साथ मन में दो सवाल उठते हैं कि गाँवों से शहरों की ओर विस्थापन आख़िर कोई क्यों करता है? प्रकृति, संस्कृति और ख़ूबसूरत सामुदायिक भागीदारी के बावजूद क्या गाँव नौजवानों की ऊर्जा को समेट पाने में सक्षम हैं? ऐसे में अपनी प्रकृति, संस्कृति से कट जा रहे और शहरी खोह में हज़म हो जा रहे युवकों का जीवन-लक्ष्य क्या हो सकता है? कहानी खेतिहर मज़दूरों के शहरी मज़दूरों में बदलते जाने के साथ बिखर रहे गाँवों की ओर अतिरिक्त सदाशयता से देखती मिलती है। गाँव और शहर की दुरभिसन्धि पर खड़े विकास के पूंजीवादी स्वरूप पर विचार करने के लिए इस कहानी को देखा जा सकता है।


रामजी यादव 


रामजी यादव की कहानी ‘अंतिम इच्छा’ एक तरफ़ अपनी जड़ों से जुड़ने की आकुलता को दिखाती है तो दूसरी तरफ़ हमारी परम्परागत खेती किसानी, जीवन-शैली सबकुछ कुछ कम्पनियों, निगमों के हवाले होते जाने का आख्यान प्रस्तुत करती है। सावाँ की तलाश के बहाने ‘अंतिम इच्छा’ ग्रामीण जीवन में आ रहे आर्थिक सांस्कृतिक बदलाव की एक रूपरेखा साझा करती है। अरुण कुमार असफल की कहानी ‘तरबूज का बीज’ महँगी होती खेती-किसानी, सूदखोरों के गिरफ्त में फँसते किसान, आत्महत्या और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैलते शिकंजे की मार्मिक गाथा पेश करता है। खेती- किसानी को पूंजी के गिरफ्त में जकड़ती आधुनिक तकनीकी एकतरफा विकास का मायाजाल फैलाती जा रही है। इस  विकसित दौर में अकेले होते जाने, लापता होते जाने या आत्महत्या की ओर ढकेले जाते किसानों के सवाल को कहानियां सामने ला रही हैं। आशुतोष की कहानी 'एक हते फलाने' भी पूंजी के दुष्चक्र में फंसे किसान जीवन की तकलीफों को दर्ज़ करती मिलती हैं। 


आज के गाँव में छोटी किसानी, अधिया की खेती करने वाले, खेतिहर मज़दूरों और खेती से इतर जीवन-यापन करने वाली आबादी कैसे जीवन-यापन कर रही है। क़र्ज़ वह चाहे सरकारी हो या व्यक्तिगत, निश्चय ही भू-सम्पदा के इर्द-गिर्द घूमता है। ऐसे में सामुदायिक सहभागिता के टूटते-बिखरते ताने-बाने और खेती को लाभकारी उद्योग में बदलने के बीच जो कुछ बन-बिगड़ रहा है, उसे हमारी कहानी कितना देख समझ पा रही है? गाँवों को सिर्फ़ अतीतराग या पिछड़ी संस्कृति के तौर पर देखने-परखने की हमारी तजवीजें वहाँ के जीवन-मूल्यों, संस्कृति का पर्यवेक्षण कर पा रही है या नहीं? 


कामता नाथ 



4.


 सम्बन्ध     


जो कथाकार इन दिनों पुरानी ज़मीन पर खड़े हो कर क़िस्सा-कहानी बुन रहे हैं, कदाचित वे पाठकों को ज़्यादा समझ में आते हैं बनिस्बत उनके जो बदलते नए संबंधों व संवेदनाओं को पकड़ने की कोशिश महज ऊपरी तौर पर कर रहे होते हैं। नए सवालों से जूझने के बावजूद अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को संवेदनात्मक स्वरूप दे पाने तक में कई कहानीकार मात खा जा रहे हैं। क्या इसकी वजहें हमारी यानी पाठकों की निजी सीमाओं में पैबस्त हैं कि जिन रंग-रेखाओं अनुभूतियों के हम इतने नजदीक हैं कि उनसे गुज़रती किन्हीं भी रेखाओं को हम जल्दी ही पहचान लेते हैं और ज़्यादा सहजता से अपने को उसके साथ खड़ा पाते हैं या कथाकार के लिए भी यह सहजता सधी हुई सी है, बिना जोखिम पूरा फ़ायदा? वहीं समाज में उभरती जड़ जमाती विरूपताओं, संबंधों की क़ीमतों को महज जी लेने तक सिकोड़ती जीवन स्थितियाँ हों और दूसरे तात्कालिक मुद्दों के पीछे जा कर, ठहरकर देख पाने व उनमें पूरी संवेदनशीलता के साथ पैठ पाने में कथाकार अक्सर अपने को असहज पाते हैं इसीलिए या वे अक्सर ऐसी पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों का यथातथ्य रिपोर्टिंग करते हुए नज़र आते हैं; यहाँ मानवीय समस्याओं के कंकालों का दर्शन होता है, उस भयावह आत्मिक रिक्तता का नहीं। हमारे क़िस्सा-गो क्या महज अख़बारी ख़बरों तक पहुँच पा रहे हैं और उसे भी पूरी आत्मीयता से आत्मसात नहीं कर पा रहे हैं? या हमीं रिक्त होते जा रहे हैं अपने समयों में पैठ पाने से? महज खिड़की या दरवाज़ों पर ठिठक कर देख-भर लेते हैं और अपने दराजों में दुबक जा रहे हैं? क्या नहीं?


कहानी में जब भी माता-पिता या बुजुर्गों की स्थिति की बात होती है   ‘बूढ़ी काकी’, ‘चीफ़ की दावत’ और ‘पितृऋण’ जैसी कहानियाँ बरबस याद आती हैं, संवेदनशील मन को झंकृत करते हुए ये बदलते ‘संबंधों’ की गवाही देती मिलती हैं। दरअसल ‘संबंध’ वह कोशिका है, जिसे छूते ही राजनीतिक-आर्थिक-तंत्र के तमाम चेहरे अपने रंगों-रेखाओं के साथ हमारे सामने आ खड़े मिलते हैं। ‘सभ्य’ और ‘विकसित’ होते समय में हमारे बहुत निजी संबंधों में प्रवेश कर चुका उपयोगी-भाव या तथाकथित व्यवहारिकता; ये सब अपने नग्न रूप में हम सबसे रूबरू हैं। सवाल है कि इस नंगी सच्चाई का सामना एक रचनाकार कैसे करता है? मैं आपके सामने महज़ प्रतीकात्मक तौर पर तीन कहानियों का ज़िक्र करना चाहता हूँ। एक समय विशेष में प्रेम , बेरोजगारी, किसान, विस्थापन, साम्प्रदायिकता आदि पर ढेरों कहानियाँ लिखी गईं। कुछ कहानियों के फार्मेट में तो कुछ सामाजिक प्रश्नों की चुनौती का सामना करते हुए, लेकिन कहानी के रूप में। उसी तरह से परिवार में बुजुर्गों की स्थिति पर, ख़ासकर उच्च मध्यवर्ग में, बहुत कहानियाँ लिखी गईं और लिखी जा रही हैं। नए-पुराने तमाम कहानीकारों ने इस सवाल को अलग-अलग ढंग से अपनी कहानी का विषय बनाया है। उन तमाम कहानियों के विविध कोणों, अक्सों की बात करने की यहाँ न गुंजाइश न ही उसकी ज़रूरत है। ‘बया’ के प्रवेशांक (दिसम्बर, 2006) में प्रकाशित कामता नाथ की कहानी ‘इक्कीसवीं सदी का शोकगीत’ एक ऐसे ही परिवार की कहानी है। मिस्टर सरीन अभी पाँच साल पहले सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं। उनका एक बेटा और बेटी विदेश में व्यवस्थित हैं। एक बेटा और बहू व पोता साथ में रहता है। एक शाम चाय पीते हुए मिस्टर सरीन की पत्नी अचानक गुज़र जाती हैं। बग़ैर किसी घटना व अतिरिक्त संवाद के पूरी कहानी इस मृत्यु को कैसे बेहद व्यवहारिक और कामकाजी ढंग से लेती है, यह देखने लायक़ है। शब्दों में संवेदना दर्ज करने की मामूली कवायदों के बीच बेटे, बहू, पोते और बेटी-दामाद तक अंतिम संस्कार में शामिल हो पाने में असमर्थ हैं। सबकी अपनी व्यस्तताएँ हैं। सबकी अपनी ज़रूरतें हैं। सबकी अपनी मजबूरियाँ हैं। जैसे कि एक दार्शनिक ने कहा है कि पूंजी की दुनिया रिश्तों को ठंडे समुंदर में डुबो देती है। वैसा ही कुछ यह घटित होते दिखता है। 


हरिचरन प्रकाश 


इसी क्रम में दूसरी कहानी हरीचरन प्रकाश की ‘सुख का कुआँ खोदते हुए दिन-प्रतिदिन’। यह कहानी भी एक उच्च-मध्यवर्गीय परिवार में रह रहे बुजुर्ग की कहानी है। लेकिन यह कहानी यथातथ्य को भयावह स्वरूप में प्रस्तुत नहीं करती बल्कि एक अलग ढंग से अपने समय का सामना करती है। किसी भी तरह के अतिरिक्त रागात्मक भाव का प्रदर्शन किए बग़ैर यह विधुर बुजुर्ग बच्चों पर आश्रित रहने की जगह जीवन की नई राह तलाश लेता है। अपने समय का, अपनी उम्र की कसीदाकारी करती छवियों की तुलना इस युवा बुजुर्ग की तस्वीर रोशनी की एक लकीर खींचती दिखाई देती है। 


तीसरी कहानी बिल्कुल नए कहानीकार बेजी जैसन की ‘यात्रा’ कहानी है। अगस्त, 2025 के वनमाली में प्रकाशित यह कहानी एकान्त तलाशते एक ऐसे बुजुर्ग दम्पति की कहानी है जिसकी हमसफ़र मृत्यु की ओर उन्मुख है। अपनी पत्नी की आखिरी ख़्वाहिश के तौर पर वह उसे अपने निजी आवास पर ले आया है। न किसी पड़ोसी को न ही किसी संबंधी को अपनी निजी दुनिया में प्रवेश करने का मौक़ा देता है। एक दिन पता चलता है कि उसकी पत्नी नहीं रही। 


“विजयन अपनी ही दुनिया में पहुँच गया था जैसे। आसपास की दुनिया से पूरा कटा हुआ। बेटा और बेटी आए। पोती और नाती भी। घर रिश्तेदारों और पुराने दोस्तों से भर गया। इन्दु को घर से ले जाने से पहले उससे लिपट फूट-फूट कर रोया। फिर जैसे उसकी आँखें पथरा गईं। सारी रस्में निभाईं। इस बीच किसी से कुछ नहीं कहा। शशि से बात हुई नहीं। मोहन ने फिर ग्रीन कार्ड की बात कही। तेरहवीं के बाद बच्चे लौटने को हुए।”


और बाद में अकेले रहते हुए विजयन बिल्ली के बच्चों के लिए दूध लेने लगा और इस तरह से अपने एकान्त को भंग करने की तजवीज निकाली।


संयुक्त परिवारों की तमाम आपसी धींगामुश्ती के बीच बुजुर्गों की एक उपयोगिता बनी हुई थी। अब एकल और एकल से महज सिंगल होते जाने की पारिवारिक व्यवस्था क्या नए क़िस्म के सामाजिक ढाँचे की माँग कर रही है? क्या ऐसी सामाजिक संरचना भारतीय समाज में कहीं भ्रूण रूप में पनपने की गुंजाइश है जहाँ रक्त संबंधी ताने-बाने के बरक्स नए क़िस्म का सामुदायिक ताना-बाना अपनी जगह बनाए? यह भयावह अकेले होते जाने और पूंजी के सारे सरंजाम के उपलब्ध होने के बावजूद,  नितांत अकेले होते जाने की परिघटना अब रिसते हुए नीचे की ओर पसर रही है। हालाँकि हिंदी कहानी में अब भी बुजुर्गों के लिए 'ओल्ड एज होम' या चिड़ियों, जानवरों या सामाजिक सरोकारों में अपने को समाहित कर लेने की विवश या स्वाभाविक अवस्था में बारीक सी गुंजाइश-भर बची है। इसी विषय पर प्रियंवद की भी एक कहानी है जिसमें बहिर्जगत और अंतर्जगत की मन:स्थिति को लेखक ने अपनी तरह से दर्ज किया है। इस सबके बावजूद ‘अंतिम अरण्य’ के दार्शनिक अवस्था का ‘सुख भोग’ गरीब किसानों, मज़दूरों या दैनंदिन कुआँ खोदकर पानी पीने की क़ीमत पर एकांतवास की कोई जगह नहीं है। दिन प्रतिदिन सुख का कुंआ खोदते हुए कथाकारों ने उच्च मध्यवर्ग की जीवन स्थिति में पनपते, राह तलाशते लोगों की एक स्वाभाविक तस्वीरे साझा की हैं। सवाल है क्या सर्वव्यापी सामाजिक परिघटना के तौर पर इसे पढ़ा जा सकता है?


योगेन्द्र आहूजा


5.


समय  


हवा में घुलती जा रही साम्प्रदायिक राजनीति की शिनाख़त हमारे समय के कथाकारों ने दो तरह से किया है। एक में वे राजनीतिक घटनाक्रम, बदलती सामाजिक आबोहवा को किसी घटना के ज़रिए उठाते हैं और सर्वधर्म समभाव जैसी अतीत की सामाजिक सद्भाव की याददिहानी कराते हैं। सामाजिक सौहार्द की ऐसी सार्थक व सकर्मक भंगिमाएँ कितनी भी ज़रूरी लगें लेकिन सामने खड़ी ताक़तों से किसी भी मायने में सम्वाद क़ायम कर पाने में स्वयं को लगभग असहाय पाती हैं। क्योंकि अपनी लेखकीय और सामाजिक भूमिका का निर्वहन करने की बलवती कामना एक बौद्धिक मन में  पवित्र-भाव की तरह  लगातार स्वयं का पीछा करती है ,  क्या  इसलिए भी ऐसी कहानियों की उपस्थिति भरपूर है? जबकि कोरम पूरा करने की भूमिका से बढ़ कर या मध्यवर्गीय मानस को थोड़ा सुकून दे पाने से ज़्यादा ये कहानियाँ अपने ‘समय’ में हस्तक्षेप शायद ही कर पाती हैं! 


देवी प्रसाद मिश्र 


राजनीतिक सत्ता के फ़ासीवादी चरित्र और समाज में बढ़ती साम्प्रदायिक सोच को रेखांकित करती कुछ ऐसी कहानियाँ भी हैं जो महज बौद्धिक धरातल पर अपनी संवेदनशीलता को दर्ज करती मिलती हैं। ऐसी कहानियाँ मध्यवर्ग के बौद्धिक दायरे में ख़ुद से सम्वाद करती, अपनी केंचुल उतारती नज़र आती हैं। कलात्मक हस्तक्षेप की ऐसी कहानियों में विचार, तर्क व अंतर्विरोधी भूमिकाओं की निशानदेही तो होती है लेकिन न तो यहाँ किसी समय का चित्र दीख पड़ता है और न ही आम जन-जीवन का कोई चरित्र। सचेत, सजग कलाकारों की ऐसी कहानियाँ संवेदनशील मन को जाग्रत करने के लिए, समय के दुहरे-तिहरे तमाम चेहरों को सामने लाने में कम बौद्धिक सम्पदा सम्पन्न लोगों की बौद्धिक खुराक पूरा करने में ज़्यादा सहायक होती हैं। ‘मनुष्य होने के’ ऐसे संस्मरण भी आज की कहानियों की एक ख़ासियत है। इसी से नत्थी एक और ख़ासियत भी है; जो राजनीतिक सत्ता व सामाजिक सत्ता के अनेक खित्तों में दलित, वंचित व अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति बढ़ती अमानुषिक कारगुजारियों का कहानी में रूपांतरण करते हैं। यहाँ विविध क़िस्म की सत्ताओं की शिनाख़्त, पोर-पोर में पैठ बनाती साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी प्रवृत्तियों की निशानदेही साफ़-साफ़ दीख पड़ती है। लेकिन यहाँ लेखक का अपना वैचारिक आग्रह, आक्रोश रचना को एक अख़बारी ख़बर में, चाहे-अनचाहे बदल रहा होता है। ख़ास विषय को कहानी में साहसपूर्वक उठाते हुए भी मूर्त यथार्थ का रचनात्मक रूपांतरण करते करते महज़ रिपोर्ताज या रेखांकन बनकर रह जाता है।


योगेन्द्र आहूजा, देवीप्रसाद मिश्र जैसे महत्वपूर्ण कहानीकारों के पास मानव जीवन के चरित्र और चित्र क्यों नहीं हैं। फासीवादी समय और बौद्धिक समुदाय की किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति की निशानदेही करने, वैचारिक तौर पर स्पष्ट पक्षधरता के बावजूद इनकी कहानियों में संवेदना के ऊपर विचार प्रभावी रहते हैं। हां! प्रयोग के तौर पर जनपक्ष से योगेन्द्र आहूजा 'अंधेरे समय की हंसी' को बखूबी दर्ज करते हैं। इस सबके बावजूद आखिर क्या वजहें हो सकती हैं कि ये कहानियां हमारे मन-मस्तिष्क में अपने समय को अनुवादित करती चलती हैं। 


अनिल यादव


कई बार रचना को रचना की क़ीमत पर बचाये रखने की कोशिश लेखकीय ‘साहस’ से पिछड़ जाता है। अनिल यादव की ज़रूरी और प्रासंगिक कहानी ‘गौ सेवक’ देखी जानी चाहिए। साम्प्रदायिक राजनीति, आर्थिकी और 'माब लिंचिग ' के बीच बने रिश्ते को बेबाकी से सामने लाती है। एक रिपोर्टर की निगाह से "गौ रक्षकों 'की करतूतों को कहानीकार यथार्थपरक ढ़ंग से साझा करता है। वहीं कहानी के तौर पर यह एक ग्राउंड लेवल की रपट बन कर रह जाती है।



सम्पर्क


आशीष सिंह 

मोबाइल : 8739015727

टिप्पणियाँ

  1. शीर्षक 'ढाई दशक की हिन्दी कहानी और संवेदन की ज़मीन' होता तो और भी सुसंगत होता! महत्त।व पूर्ण आलेख!
    बन्धु कुशावर्ती,९७२१८ ९९२६८
    सम्प्रति सहारनपुर मेंं निवास!

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